कृषि की अभिवृद्धि हेतु तीन विचार

1. कृषि में और अधिक निवेश


कृषि क्षेत्र में नवाचार को प्रोत्साहित करने के लिए तीन ‘आई’ यथा— इंवेस्टमेण्ट (निवेश), इंस्टीट्यूशन्स (संस्थाएँ) और इंसेण्टिव (प्रोत्साहन) की भूमिका काफी महत्वपूर्ण और निर्णायक होगी। जैसाकि 1960 और 1970 के दशक में हरित क्रान्ति के दौरान देखा जा चुका है, उत्पादकता में सुधार और प्रमुख उपलब्धियाँ हासिल करने में प्रौद्योगिकी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।भारतीय नीति-निर्माताओं और नियोजकों को इस बात का भलीभाँति अहसास है कि समावेशी विकास को सार्थक बनाने के लिए कृषि में 4 प्रतिशत की विकास दर कितना महत्वपूर्ण है। यह बात भी महसूस की गई है कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सरकारी और निजी, दोनों क्षेत्रों द्वारा भारी निवेश की आवश्यकता होगी। इसे दृष्टिगत रखते हुए, सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा 2003-04 से कृषि क्षेत्र में पहले से कहीं अधिक बजटीय संसाधनों का आवँटन किया जा रहा है। सार्वजनिक लेखे में कृषि में सकल पूँजी विन्यास (जीसीएफए) में तेजी से हुई वृद्धि से यह तथ्य भलीभाँति स्पष्ट होता है। निजी क्षेत्र में कृषि में पूँजी विन्यास, सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक है। इसमें यह बढ़त 1999-2000 से आनी शुरू हुई। फलस्वरूप, सन् 2000 के अन्तिम महीनों में स्थिर मूल्य के अनुसार सकल जीसीएफए 1990 के दशक के मध्य की स्थिति की तुलना में दो या तीन गुना अधिक हो चुकी थी (चित्रा-1)। कृषि जीडीपी के प्रतिशत के रूप में भी, जीसीएफए पिछले एक दशक में दोगुने से भी अधिक बढ़ चुका है (चित्रा-1)। बावजूद इसके, कृषि की सकल घरेलू उत्पाद दर में कोई ख़ास तेजी नहीं आई है (तालिका-1)। और, यदि कुछ हुआ भी है तो वर्ष 2000-01 से 2009-10 तक की वास्तविक विकासदर (औसत वार्षिक अथवा प्रवृत्ति विकास) 1992-93 से 1999-2000 अथवा 1980-81 से 1991-92 के सुधार पूर्व काल के दौरान हासिल विकास से कुछ कमतर ही रही है (तालिका-1)।

चित्र-1: सार्वजनिक और निजी लेखे में सकल पूँजी विन्यास

कृषि की अभिवृद्धि हेतु तीन विचारस्रोत : राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी, के.सां.स., भारत सरकार

इस प्रकार के प्रायः अप्रत्याशित परिणाम, यानी कृषि में बढ़ते निवेश और पूँजी विन्यास के बावजूद कृषि के विकासदर पर स्थिर बने रहना या फिर उसमें गिरावट आना, हैरान करने वाली बात है। यह तभी हो सकता है जब यह मानकर चला जाए कि पूँजी की समग्र उत्पादकता काफी गिर चुकी है या फिर पूँजी विन्यास के आँकड़े महज कागजी हैं और जमीन पर उनका सही-सही अवतरण नहीं हो रहा है। यानी सार्वजनिक पूँजी विन्यास सही ढंग से नहीं हो रहा है और उसमें कहीं कोई गड़बड़ी हो रही है, अथवा खर्च की गई राशि के रूप में दर्शाए गए पूँजी विन्यास (यथा— बाँध, जलाशय, नहरें आदि) और उससे मिलने वाले लाभ के बीच लम्बा अन्तराल है। या फिर जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि के सामने आने वाली चुनौतियों, भूगर्भीय जल का गिरता स्तर अथवा भूमि विकृति (मिट्टी की ऊपरी उपजाऊ परत का ह्रास आदि) इतनी अधिक बढ़ गई है कि कृषि में अधिक निवेश के बावजूद कृषि की विकास दर 3 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ पा रही है। हो सकता है, यह इन सब कारकों के मिले-जुले प्रभाव के कारण हो रहा हो। इस पहेली को सुलझाने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है।

तालिका-1: भारत में कृषि और समग्र जीडीपी निष्पादन


कृषि जीडीपी

कुल जीडीपी

वार्षिक औसत विकास दर एवं सीवी

1980/81 से 1991/02

3.8 (1.5)

5.2 (0.5)

1992/93 से 1999/00

3.8 (1.1)

6.3 (0.2)

2000/01 से 2009/10

2.4 (1.9)

7.2 (0.3)

प्रवृत्ति विकास दर

1980/81 से 1991/92

3.0

5.1

1992/93 से 1999/00

3.2

6.3

2000/01 से 2009/10

2.9

7.6

स्रोत : राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी, के.सां.सं., भारत सरकार

नोट : सीवी का अर्थ है परिवर्तन गुणांक


यहाँ यह गौर करने की बात है कि समग्र आर्थिक विकास के तरीके के विपरीत, भारत में कृषि क्षेत्र का निष्पादन काफी उतार-चढ़ाव भरा है। परिवर्तन का गुणांक (सीवी) सन् 2000-01 से 2009-10 के बीच जहाँ 1.9 था, वहीं 1992-93 से 1999-2000 के बीच यह 1.1 था। देश के सकल घरेलू उत्पाद के सीवी की तुलना में यह गुणांक प्रायः 6 गुना अधिक है (तालिका-1), जिससे यह संकेत मिलता है कि ऊँची और सम्भवतः बढ़ती परिवर्तनशीलता कृषि के लिए वास्तव में एक चुनौती है। जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में उसमें और भी वृद्धि होने की सम्भावना है। अनुमान पर आधारित परिकल्पना के अनुसार यदि ऐसा हुआ है, तो 2009-10 में कृषि की विकास दर में लगभग शून्य प्रतिशत की वृद्धि, 1972-73 के बाद पड़े सबसे भीषण सूखे को देखते हुए, सराहनीय उपलब्धि मानी जानी चाहिए। कहा जा सकता है कि कृषि क्षेत्र में हुआ निवेश निराशाजनक परिणाम देने वाला नहीं रहा। तात्पर्य यह है कि विकास में निवेश का उचित विश्लेषण करने के लिए, सर्वप्रथम, मौसम के प्रभाव के बारे में विचार करना होगा। हमारा इरादा इस समय ऐसा करने का नहीं है, परन्तु हम इसे उन शोधकर्ताओं और नीति-निर्माताओं के विचारार्थ छोड़ देते हैं जो कृषि के विकास में कमी को लेकर चिन्तित हैं।

भारतीय कृषि की विकास गाथा की एक अन्य विशेषता यह है कि विभिन्न राज्यों और उप क्षेत्रीय स्तर पर इसके निष्पादन में काफी भिन्नता रही है। सन् 2000-01 से 2008-09 की अवधि में गुजरात में कृषि की विकास दर 10.2 प्रतिशत रही तो बिहार में 4.2 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 2.2 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 2.4 प्रतिशत रही। कृषि उत्पादों की पैदावार के दृष्टिकोण से देखा जाए तो उच्च मूल्य वर्ग के उत्पाद (फल और सब्जियाँ, पशुधन और मत्स्य-पालन) के मामले में, पारम्परिक फसलों की तुलना में अधिक तेजी से वृद्धि हुई है। इसमें वृद्धि की अभी और भी अधिक सम्भावनाएँ हैं। कृषि उत्पादन के सकल मूल्य में उच्च मूल्य वाले उत्पादों के बढ़ते अंश को देखते हुए (टीई 2008-09 में 48.4 प्रतिशत), यह सम्भावना और बलवती होती जा रही है कि यह क्षेत्र आने वाले समय में कृषि के विकास को और अधिक गति प्रदान करेगा। परन्तु इस वर्ग में शामिल प्रायः सभी उत्पादों के शीघ्र ही नष्ट हो जाने की प्रकृति को देखते हुए इनके उत्पादक क्षेत्रों अर्थात खेतों (बागानों) और प्रसंस्करण संयन्त्रों एवं विक्रय केन्द्रों के बीच बेहतर और त्वरित सम्पर्क की आवश्यकता है। यद्यपि कृषि-प्रणाली में संरचनात्मक परिवर्तन का दौर जारी है, तथापि भारत में कृषि के विविधीकरण को गति देने के लिए बेहतर नीति सम्प्रेषण और सुधारों की आवश्यकता है।

2. खेत-कारखानों के बेहतर सम्पर्क हेतु संस्थागत सुधार


कृषि-प्रणाली में जारी अनेक नियन्त्रणों से सम्बन्धित संस्थाओं के अनुसार इस क्षेत्र में सुखद परिवर्तन आने की सम्भावनाएँ हैं। इसके लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम के अन्तर्गत चावल और चीनी जैसे जिन्सों की अनिवार्य लेवी प्रणाली (चावल के मामले में पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में 75 प्रतिशत तक की लेवी ली जाती है), जिन्सों की आवाजाही, क्षेत्रीकरण और भण्डारण प्रतिबन्धों को समाप्त करना होगा और प्राथमिक कृषि उत्पादों पर करारोपण की प्रणाली के स्थान पर मूल्य संवर्धित कर प्रणाली अपनानी होगी। यह जरूरी है कि एक एकीकृत बाजार तैयार किया जाए, जिसमें सरकारी और निजी क्षेत्र दोनों को समान अवसर उपलब्ध हों। कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम पर लम्बे समय से चर्चा हो रही है। निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देने और संविदा कृषि व्यवस्था के माध्यम से खेतों और कारखानों के बीच सीधा सम्पर्क स्थापित करने के इरादे से केन्द्र ने 2003 में राज्यों से भी इसी आदर्श अधिनियम का अनुकरण करते हुए अपने-अपने कानूनों में संशोधन की सलाह दी थी। हालाँकि अनेक राज्यों का दावा है कि उन्होंने अपने कानूनों को संशोधित कर दिया है, परन्तु यह सब आधा-अधूरा ही है। जमीनी यथार्थ कुछ और ही है और इसके सम्पूर्ण मूल्याँकन और परीक्षण की अति आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की है कि नष्टप्राय जिन्सों की उभरती मूल्य श्रृंखला को प्रोत्साहित किया जाए और उसमें निवेश बढ़ाया जाए ताकि इन उत्पादों की बर्बादी को रोका जा सके और मूल्य श्रृंखला का मूल्य संवर्धन हो सके। खेत-कारखानों के सीधे सम्पर्कों को सुदृढ़ बनाकर, मूल्य श्रृंखला को सीमित कर लघु एवं सीमान्त किसानों को बाजार के और नजदीक लाया जा सकता है। समावेशी विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।

वायदा बाजार, भण्डार गृह रसीद प्रणाली, उभरते बाजार का लाभ उठाने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग से उत्पादकों को सशक्त बनाना और यहाँ तक कि उत्पादक कम्पनियों को बड़े प्रसंस्करण और विक्रय कम्पनियों से सीधे सम्पर्क बनाने के लिए प्रोत्साहित करने जैसे मुद्दों पर अभी भी विवाद चल रहा है। यदि हमें सही बाजार की तलाश है तो हमें सुधारों के समूचे पैकेज पर काम करना होगा और उसे दुरुस्त करना होगा।

यह समय पट्टे पर जमीन देने के बाजार को भी मुक्त कर देने का है। पट्टे पर जमीन देने की प्रणाली जीवन्त हो तो उसमें भी बड़े पैमाने पर निवेश हो सकता है, विशेषकर निजी क्षेत्र से। इससे बाजार प्रेरित जोतों की चकबन्दी का रास्ता भी साफ हो सकता है और इस प्रकार जो किफायत होगी, उसका भी लाभ मिलेगा। परन्तु इस कार्य को इस प्रकार सम्पन्न करने के लिए कि पट्टे पर जमीन देने वाले लोग उसे दूसरे किसानों अथवा कम्पनियों को देते समय (पट्टे पर) सुरक्षित महसूस करें, भू-अभिलेखों का कम्प्यूटरीकरण आवश्यक है, ताकि इसकी पारदर्शिता और विश्वसनीयता सुनिश्चित की जा सके। इस समय जो सरकारी आँकड़े हैं उनसे पता चलता है कि केवल 7 प्रतिशत जमीने पट्टे पर दी गई है। परन्तु विभिन्न राज्यों का बारीकी से अध्ययन करने से पता चलता है कि 20 प्रतिशत जमीन को अनौपचारिक रूप से पट्टे पर दिया जा चुका है। किरायेदारी के अनौपचारिक करारों में सीमित मात्रा में ही ऋण मिल पाता है और वह भी काफी ऊँची दरों पर और इस प्रकार जमीन को अधिक उत्पादनशील बनाने के लिए जितने निवेश की आवश्यकता होती है, वह नहीं मिल पाता।

छोटे-छोटे टुकड़ों में खेती करने की चुनौतियों से निपटने के लिए पट्टे पर जमीन देने के बाजार में भी सुधारों की आवश्यकता है ताकि इस उद्योग को चाक-चौबन्द बनाया जा सके। लगभग 88 प्रतिशत जोत दो एकड़ से कम वाले हैं (क्षेत्र के लगभग 44 प्रतिशत में)। इस स्थिति में उभरती मूल्य श्रृंखला से जुड़ी किसी भी बड़ी प्रसंस्करण अथवा विक्रेता कम्पनी के लिए अपने उत्पादकों का संग्रहण और मानकीकरण एक बड़ी चुनौती बन जाती है। पट्टे पर जमीन देने के बाजार को बन्धनों से मुक्त करने से इस चुनौती से काफी हद तक निपटा जा सकता है।

कृषि ऋण बाजार में भी भारी सुधार और परिवर्तन की आवश्यकता है। कर्जमाफी से समस्या का हल स्थायी तौर पर नहीं निकाला जा सकता। सभी कृषक परिवारों की लगभग 42.4 प्रतिशत और दो एकड़ जमीन वाले किसान परिवारों के करीब 50 प्रतिशत लोग गैर-संस्थागत स्रोतों से ऊँची ब्याज दरों पर कर्ज लेते हैं। केन्द्रीय वित्त मन्त्रालय द्वारा गठित कृषि ऋण ग्रस्तता पर विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट से इस तथ्य का खुलासा हो जाता है। कुल बैंक ऋणों की 18 प्रतिशत राशि कृषि के लिए देने के लक्ष्य को पूरा करने में बैंक विफल रहे हैं, हालाँकि इसे प्राथमिकता वाला क्षेत्र माना जाता है। सूक्ष्म वित्त संस्थाओं का प्रवेश इस क्षेत्र में हाल ही में हुआ है, परन्तु उनकी ब्याज दरें भी काफी अधिक हैं और कहीं-कहीं तो ये दरें सूदखोर महाजनों के जैसी हैं। औपचारिक क्षेत्र को नियमित करने और किसानों के लिए उसे और अधिक सुलभ बनाने से अनौपचारिक क्षेत्र पर किसानों की निर्भरता कम की जा सकती है।

3. प्रोत्साहन : संसाधन-उपयोग में किफायत के लिए अनुदानों को युक्तिसंगत बनाना और निवेश बढ़ाना


संसाधन सामग्री और उत्पादन के लिए दिए जाने वाले अनुदानों को युक्तिसंगत बनाए जाने से संसाधनों के बेहतर उपयोग की सम्भावना का रास्ता खुलेगा और कृषि में निवेश को गति मिलेगी। वर्ष 2009-10 में खाद्यान्न, उर्वरक, विद्युत और सिंचाई के लिए दी जाने वाली सब्सिडी कृषि के सकल उत्पाद दर के 15.1 प्रतिशत के बराबर थी जबकि 1995-96 में यह दर 7.8 प्रतिशत ही थी। वर्तमान रूप में अपना महत्व खो चुके इन अनुदानों को युक्तिसंगत बनाने का समय अब आ गया है। सिंचाई अनुदानों को युक्तिसंगत बनाने और जल उपयोगकर्ता संघों अथवा एकीकृत जल प्रबन्धन प्रणालियों के माध्यम से संसाधनों के किफायती उपयोग को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। मुफ्त बिजली देने के बजाय कृषि उपयोग के लिए अलग से फीडर लाइनें मुहैया कराना आर्थिक रूप से अधिक फायदेमन्द हो सकता है। गुजरात के ज्योतिग्राम प्रयोग से यह बात सिद्ध भी हो जाती है।

जहाँ तक सम्भव हो, उर्वरकों, बिजली, बीज, कृषि यन्त्रों आदि पर दी जाने वाली सब्सिडी किसानों को सीधे दी जानी चाहिए, विशेषकर छोटी जोत वाले और अलाभदायक क्षेत्र के किसानों को। इससे किसानों की आय में वृद्धि के लिए काफी मदद मिलेगी और इससे उन्हें संसाधनों के किफायती उपयोग के लिए प्रोत्साहन भी मिलेगा। ग्रामीण क्षेत्रों मंन बुनियादी ढाँचे, सड़कों, बाजारों, शीत श्रृंखला (शीत-भण्डारों की श्रृंखला), प्रसंस्करण इकाइयों और कृषि सम्बन्धी अनुसन्धान एवं विकास में निवेश बढ़ाना कृषि के उच्चतर विकास के लिए महत्वपूर्ण है। सड़कों, कृषि (अनुसन्धान एवं विकास) आदि में सार्वजनिक निवेश पर आंशिक लाभ उर्वरक सब्सिडी अथवा मुफ्त बिजली की तुलना में कहीं अधिक होता है। सड़कें, बाजार और अन्य ढाँचागत सुविधाओं जैसी जनसाधारण के उपयोग वाले क्षेत्र में सरकार को ही निवेश करना चाहिए। मूल्य श्रृंखला, प्रौद्योगिकी आदि से सम्बन्धित मामलों में निजी क्षेत्र से निवेश होगा।

कृषि क्षेत्र में नवाचार को प्रोत्साहित करने के लिए तीन ‘आई’ यथा— इंवेस्टमेण्ट (निवेश), इंस्टीट्यूशन्स (संस्थाएँ) और इंसेण्टिव (प्रोत्साहन) की भूमिका काफी महत्वपूर्ण और निर्णायक होगी। जैसाकि 1960 और 1970 के दशक में हरित क्रान्ति के दौरान देखा जा चुका है, उत्पादकता में सुधार और प्रमुख उपलब्धियाँ हासिल करने में प्रौद्योगिकी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कपास और संकर मक्का के उत्पादन में 2000 के दशक में आई क्रान्ति को अन्य क्षेत्रों में भी दोहराया जा सकता है। बागवानी, उद्यानिकी अथवा पशुपालन क्षेत्र में इसी प्रकार का प्रौद्योगिकीय अथवा विपणन नवाचार इन क्षेत्रों से सम्बद्ध तमाम छोटे किसानों के लिए लाभदायक हो सकता है। किसानों को बाजार से सीधे जोड़ने के लिए मूल्य श्रृंखलाओं में नवाचार ताकि उनका मूल्य संवर्धन हो सके, उच्च विकास दर और छोटे किसानों की आय में वृद्धि की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। अनेक निजी उद्यमी हैं जो अब संगठित प्रसंस्करण, खुदरा व्यापार और कृषि सामग्री/सेवा क्षेत्रों में प्रवेश कर चुके हैं और वे अपना निवेश बढ़ाने की क्षमता भी रखते हैं। परन्तु व्यापार में संस्थागत अवरोध और रुको-बढ़ो के नीतिगत दृष्टिकोण के कारण इस क्षेत्र में तेजी नहीं आ पा रही है।

यह पूर्णतः स्पष्ट है कि भारतीय कृषि माँग के अनुसार आगे बढ़ती रहेगी और विकास के भावी स्रोत उच्च मूल्य क्षेत्र में निहित हैं। अतएव उचित सुधारों की शुरुआत महत्वपूर्ण होगी। दीर्घावधि में उच्च और स्थायी विकास को सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में समन्वयन की महती भूमिका रहेगी। यह सब उपलब्ध कराने का उत्तरदायित्व केवल सार्वजनिक क्षेत्र का ही नहीं है। उसका दायित्व तो केवल ऐसा अनुकूल वातावरण प्रदान करना है जोकि कृषि की उच्च विकास दर के लिए निर्णायक दोनों क्षेत्रों - सार्वजनिक और निजी की सहभागिता को सुदृढ़ रूप दे सके।

(लेखकद्वय अन्तरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसन्धान संस्थान में क्रमशः एशिया में निदेशक और वरिष्ठ अनुसन्धान विश्लेषक हैं।)
ई-मेल : a.gulati@cgiar.org, k.ganguly@cagiar.org

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