राज्य सरकारें भी कृषि को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न योजनाओं की घोषणा करती रही है। परंतु यह योजनाएं जो एक पहल के रूप में सामने लाई जाती हैं क्या वह सार्थक रूप से किसानों तक पहुंच पाता है? क्या जमीन पर उन योजनाओं का सही अर्थों में क्रियान्वयन हो पाता है? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब ढूढे बगैर हम कृषि में स्वंय को आत्मनिर्भर नहीं बना सकते हैं। यह सच है कि देश में किसानों पर जितना ध्यान दिया जाता है, जितनी योजनाएं बनाई जाती हैं उसका आधा भी उन तक नहीं पहुंच पाता है।
इस साल मौसम की बेरूखी ने जितना किसानों को प्रभावित किया है उससे कहीं अधिक सरकार चिंतित है। अब तक 20 फीसदी कम वर्षा ने सरकार को चिंता में डाल दिया है। अगर हालात यही रहे तो देश को खाद्यान्न उत्पादन में कमी का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि केंद्र सरकार बार बार यह कह रही है कि अनाज के पर्याप्त भंडार हैं और कम बारिश से इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन जिस तरह से देश के कुछ राज्य सूखे का सामना कर रहे हैं उससे आसार अच्छे नहीं लग रहे हैं। मानसून में कमी से खरीफ के सबसे बड़े फसल धान पर प्रभाव पड़ा है। कुल बवाई रकबे में लगभग 20 लाख हेक्टेयर की कमी दर्ज की जा चुकी है। सबसे ज्यादा असर पश्चिम बंगाल पर पड़ा है जहां करीब सात लाख हेक्टेयर कम रोपाई हुई है।हालांकि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मानसून की कमी के बावजूद सिंचाई के माध्यम से रोपाई का काम कर लिया गया है। लेकिन महंगे डीजल को देखते हुए ऐसा लगता है कि कृषि लागत महंगा होगा। दूसरी ओर मध्यम और कमजोर आय वाले किसानों के पास महंगे डीजल का उपयोग करने में असमर्थता के कारण उत्पादन में कमी आ सकती है, जिसका असर एक बार फिर महंगाई के रूप में सामने आ सकता है। उत्पादन में होने वाली कमी के आभास के बाद इसका हल ढूढने और खाद्यान्न कीमतों पर नियंत्रण के लिए केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार सक्रिय हुए हैं और उन्होंने इम्पावर्ड ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स यानि ईजीओएम की मीटिंग बुलाई जिसमें सूखे से निपटने वाले राज्यों को 19 अरब रुपए से ज्यादा के राहत पैकेज की घोषणा की। इसके अलावा कम वर्षा वाले राज्यों के किसानों को डीजल पर पचास प्रतिशत तक सब्सिडी देने का भी एलान किया। जबकि कुछ दिन पहले तक शरद पवार लगातार यही कह रहे थे कि देश सूखे से निपटने के लिए तैयार है। उनका बयान शायद इस आधार पर रहा होगा कि कुछ ही दिनों में मानसून गति में आ जाएगी। लेकिन जैसे-जैसे वक्त बीतता गया कृषि मंत्रालय को यह समझ में आ गया कि केवल बयानबाजी से काम चलने वाला नहीं है।
हालांकि मौसम पूर्वानुमान की ओर से यह उम्मीद जताई जा रही है कि अगस्त सितंबर में बारिश जून जुलाई की कमी को पूरा कर देगा। सरकार को भी इंद्र देवता पर भरोसा है कि वह उसकी उम्मीदों को जरूर पूरा करेंगे और आइंदा महीनों में भरपूर वर्षा होगी। दरअसल इस वर्ष मानसून आने से पहले उसकी हलचल को देखते हुए यह अनुमान व्यक्त किया जा रहा था कि इस वर्ष देश भर में भरपूर नहीं तो सामान्य वर्षा अवश्य होगी। लेकिन पूर्वानुमान के सिर्फ अनुमान ही साबित हुए और राजस्थान, पंजाब और हरियाणा जैसे कृषि प्रधान राज्यों में सामान्य से कम वर्षा हुई। इन राज्यों के किसान अब धान की बुआई से पहले हालात को देखना चाहते हैं। उनकी चिंता है कि यदि बारिश कम हुई तो उन्हें घाटा उठाना पड़ सकता है। किसानों की चिंता वाजिब भी है। हालांकि फसल खराब होने की स्थिती में विभिन्न माध्यमों से सरकार द्वारा उसकी पूर्ति कर दी जाती है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि आखिर टेक्नोलॉजी में इतने विकसित होने के बावजूद भारत के किसान अब भी मानसून पर ही क्यूं निर्भर हैं? जबकि कई राज्य किसानों की कृषि संबंधी समस्याओं के हल के लिए कॉल सेंटर जैसी कई तरह की सुविधाएं प्रदान कर रहा है।
आर्थिक स्तर पर मजबूती और बढ़ते औद्योगिकीकरण के बावजूद भारत को आज भी कृषि प्रधान देश के रूप में ही माना जाता है। यही कारण है कि इस पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें लगातार प्रयासरत हैं। इसके लिए समय-समय पर प्रभावी नीतियां लागू करने का प्रयास भी किया जाता रहा है। परिणामस्वरूप कभी खाद्यान्न संकट से गुजरने वाला भारत आज इतना आत्मनिर्भर हो चुका है कि वह अब दूसरे देशों को निर्यात भी करता है। लेकिन इसके बावजूद समन्वय और जागरूकता में कमी हमें अब भी पूरी तरह से आत्मनिर्भर बनाने में बाधक बन रहा है। इस देश में बिजली, फोन, इंटरनेट और टीवी जैसे बड़े-बड़े विकास के साधन के साथ-साथ कृषि भी मुख्य विकास धारा है। जिसकी ओर खास ध्यान दिया जाता है। इस धारा के विकास प्रवाह में और तेजी लाने के लिए समय-समय पर सरकार की ओर से कई प्रकार की कार्य योजनाएं चलाई जा रही हैं। जिनमें राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना प्रमुख है। इसके अलावा सभी राज्य सरकारें भी कृषि को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न योजनाओं की घोषणा करती रही है।
परंतु यह योजनाएं जो एक पहल के रूप में सामने लाई जाती हैं क्या वह सार्थक रूप से किसानों तक पहुंच पाता है? क्या जमीन पर उन योजनाओं का सही अर्थों में क्रियान्वयन हो पाता है? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब ढूढे बगैर हम कृषि में स्वंय को आत्मनिर्भर नहीं बना सकते हैं। यह सच है कि देश में किसानों पर जितना ध्यान दिया जाता है, जितनी योजनाएं बनाई जाती हैं उसका आधा भी उन तक नहीं पहुंच पाता है। यह पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के उस कथन पर सटीक बैठती है जिसमें उन्होंने केंद्र से चले एक रुपए का आम आदमी तक पहुंचते-पहुंचते दस पैसा हो जाने की बात कही थी। इसका एक उदाहरण धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ का एक छोटा सा गांव भैंसाकन्हार से लेते हैं। जिसकी कुल आबादी करीब 1415 है। मैंने इस गांव का जिक्र इसलिए भी किया क्योंकि इसे आयुर्वेद ग्राम का दर्जा प्राप्त है। चारों ओर पहाड़ों से घिरा इस गांव में धान के अलावा कई प्रकार की जड़ी बुटियां भी उगाई जाती हैं। खेती किसानी के दिनों में जहां लोग कृषि करते हैं वहीं अन्य दिनों में आयुर्वेद और मनरेगा जैसी योजना में लग जाते हैं।
राज्य सरकार का तर्क है कि धान की प्रमुख फसल वाले इस गांव में जोड़ी-बैल जैसी योजना के तहत किसानों को 30 से 40 हजार रुपए मुहैया कराए जाते हैं। इसके अलावा ग्राम सभा और कृषि शिविरों का आयोजन कर उन्हें जानकारियां भी दी जाती हैं। साथ ही गांव की दीवारों पर योजनाओं से संबंधित संदेश भी लिखे जाते हैं। इसके अलावा किसानों को कृषि से संबंधित जानकारियां देने के लिए निशुल्क कॉल सेंटर भी काम कर रहा है। यह तो हुई सरकार की बात। अब यदि ग्रामीण पक्ष देखें तो यह पहल अधूरी लगती है। न तो उन्हें कृषि शिविरों की समय पर सूचना उपलब्ध कराई जाती है और न ही कॉल सेंटर में फोन करने के लिए प्रोत्साहित करने की कोई सार्थक पहल की जाती है। रही बात दीवारों पर लिखे संदेश तो शिक्षा की लौ से दूर ग्रामीणों से संदेश को पढ़ने और समझने की उम्मीद करना बेमानी होगा। इन तमाम पहलुओं पर गौर करके यदि हम अपने सवालों को दोहराएं तो कुछ हद तक जवाब हमारे सामने है। यानि कृषि योजनाएं तो हैं, उस योजना का क्रियान्वयन का साधन भी है और उसके प्रचार-प्रसार की तकनीक भी मौजूद है। इसके बावजूद यदि कहीं कोई कमी है तो वह है जागरूकता की अधूरी पहल। यदि हम सकारात्मक पहल की आशा करते हैं तो हमें चाहिए कि योजनाओं के क्रियान्वयन को शत-प्रतिशत कागज पर नहीं बल्कि जमीनी स्तर पर लागू करें।
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