करंज पौधरोपण से लगभग 45-50 वर्ष तक अच्छी उपज मिलती रहती है। इसके अलावा इस वृक्ष की प्रतिवर्ष कटाई-छँटाई से किसानों को जलाने की लकड़ी मिलती रहती है और परिपक्व वृक्ष बन जाने पर इसे इमारती लकड़ी के रूप में भी उपयोग में लाकर अतिरिक्त आमदनी हो जाती है। इन वृक्षों के साथ-साथ खाली जगह में अन्य कृषि फसलें, जो छाया को पसन्द करती है, उगाकर अधिक लाभ कमाया जा सकता है।
आज पूरी दुनियाँ के लिये ऊर्जा सबसे ज़रूरतमंद संसाधन है। परंतु विकास की होड़ में पूरी दुनिया ने इसके कई घटकों का ऐसा असंतुलित और अन्धाधुंध उपयोग किया है कि इसके कई पारम्परिक स्रोत जैसे जीवाश्म ईंधन, कोयला, गैस इत्यादि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा हैं। दूसरी तरफ पेट्रोलियम पदार्थों के अंधाधुंध उपयोग के कारण प्रदूषण पूरी दुनियाँ की एक बड़ी समस्या के रूप में उभर चुकी है। जिससे कई प्रकार की बीमारियाँ फैल रही हैं, और प्रकृति का पूरा पारिस्थितिकी संतुलन ही बिगड़ता जा रहा है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ऊर्जा के वैकल्पिक, सतत व स्वच्छ स्रोत के लिये पूरी दुनियाँ भर के अलग-अलग देशों में अपने-अपने ढंग से प्रयत्न किया जा रहा है। भारत में नीम, जंगली खुबानी, तुंग, च्यूरा, चुल्लू, महुआ, करंजा व जेट्रोफा (रतनजोत) जैसे पेड़-पौधों से प्राप्त होने वाले तेलों को ऐसे विकल्प के रूप में उपयोग करने पर गम्भीरता से विचार किया जा रहा है। करंज एक ऐसा पौधा है जिससे प्राप्त होने वाले तेल को बायो-डीजल के रूप में उपयोग में लाने की प्रबल व अपार सम्भावनाएं दिखती हैं।सामान्य परिचय
करंज एक बहुउद्देशीय सदाबहार वृक्ष है। इसे सामान्यतः करंज व पापड़ी के नाम से जाना जाता है। इसका वानस्पतिक नाम पोंगामिया पिनाटा है। यह लेगुमिनेसी कुल का सदस्य है तथा यह पेपीलीयोनेसी उपकुल के अन्तर्गत आता है। साधारणतः इसकी लकड़ी किसानों के रोजमर्रा में काम आने वाले कृषि औज़ारों में, घरेलू कार्यों एवं ईंधन के काम में लायी जाती है। परन्तु आजकल इसके बीजों के तेल से बायोडीजल भी बनाया जाने लगा है, जो 5 से 20 प्रतिशत तक पेट्रोलियम वाले डीजल में मिलाकर इंजनों, वाहनों एवं कृषि यन्त्रों में आसानी से उपयोग किया जा सकता है। करंज का अखाद्य तेल डीजल की तरह भौतिक एवं रासायनिक विशेषतायें रखने के कारण एक विश्वसनीय एवं व्यापारिक सहज डीजल का विकल्प होने की क्षमता रखता है। इसे डीजल में 5 से 20 प्रतिशत तक मिलाकर इंजन की बनावट में बिना कोई परिवर्तन किए प्रयोग किया जा सकता है। इसकी खली का उपयोग जैविक खाद के रूप में किया जाता है। इसके अलावा यह कम उर्वरता, कम वर्षा वाली व पथरीली मिट्टियों में भी उगने की क्षमता रखता है। जंगली जानवर इसको अधिक हानि नहीं पहुँचा पाते हैं।
करंज एक बहुवर्षीय, बड़े आकार एवं सूखा सहन करने वाला वृक्ष है। यह लगभग 5-12 मीटर लंबा तथा धीमी गति से बढ़ने की प्रकृति वाला वृक्ष है।
करंज की खेती
इसकी खेती सभी प्रकार की भूमियों पर आसानी से की जा सकती है, जो कम से कम दो फीट गहरी हो। इसे शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में औसतन वार्षिक वर्षा कम से कम 600-700 मि.मी. होती है। वहाँ इसकी खेती अच्छी तरह की जा सकती है। वैसे इसे 500 से 2500 मि.मी. औसतन वार्षिक वर्षा तथा तापमान 10 डिग्री सेल्सियस से 45 डिग्री सेल्सियस तक सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। यह क्षारीय व जलमग्न भूमियों में भी उग सकने में समर्थ है।
करंज आमतौर पर विश्व के कटिबंधीय, उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों तथा 1200 मीटर तक की ऊँचाई वाले स्थानों में पाया जाता है। भारत में यह मुख्यतः आंध्र प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, तमिलनाडू , कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों में पाया जाता है।
करंज प्रवर्धन मुख्यतः बीजों द्वारा होता है। इसके अलावा करंज का प्रवर्धन वानस्पतिक विधि द्वारा भी किया जाता है।
करंज के बीजों को बोने से पहले इसे 50 डिग्री सेल्सियस तापमान वाले जल में 15 मिनट तक भिगोने से अंकुरण शीघ्र व अधिक होता है। पॉलीथीन की थैलियों में मिट्टी, कम्पोस्ट खाद तथा बालू की मात्रा उपयुक्त अनुपात (2:1:1) में सुनिश्चित कर लें। बीज को इन तैयार थैलियों में डेढ़ से दो सेंटीमीटर गहराई पर बो देना चाहिए। रोपाई सामान्यतः एक वर्ष पुराने पौधों की करनी चाहिए। तैयार गड्ढ़ों में भी 2 से 3 बीज प्रति गड्ढ़े की दर से जुलाई के महीने में सीधी बुआई भी की जा सकती है। लगभग 10 दिन बाद अंकुरण शुरू हो जाता है।
करंज प्रवर्धन की वानस्पतिक विधि में करंज के 15-20 सेंटीमीटर लम्बी तथा 2-3 सेंटीमीटर मोटी कलमों को जुलाई-अगस्त माहों में पॉलीथीन में लगाने चाहिए। इन कलमों को सीधे ही क्यारियों में भी लगा दिया जाता है।क्यारियों या थैलियों में लगे पौधे जब लगभग 60 सेंटीमीटर के हो जायें तब असिंचित क्षेत्रों में 5 × 5 मी. और सिंचित क्षेत्रों के लिये 6 × 6 मी. की दूरी पर गडढ़े खोद लिये जाते हैं, गड्ढ़ों का आकार 45 × 45 × 45 (लम्बाई × चौड़ाई × गहराई) सेंटीमीटर का होता है। इन गड्ढ़ों में उचित मात्रा में खाद एंव उवर्रकों को मिलाकर भरने के बाद मानसून आने के बाद अथवा जुलाई-अगस्त के महीनों में पौध रोपण कर दिया जाता है। रोपण के लिये स्वस्थ पौध का चयन करना चाहिये।
करंज की देखभाल
खाद एवं उर्वरक : करंज की अच्छी बढ़वार हेतु प्रत्येक गड्ढे में 2-3 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद या वर्मी कम्पोस्ट खाद, 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट डाल कर अच्छी तरह मिला दें।
सिंचाई : करंज एक सूखा सहन करने वाला वृक्ष है। अतः इसे अधिक सिंचाई देने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। परंतु रोपण करने की शुरूआती अवस्था में पानी देना बहुत ही आवश्यक होता है। शुष्क मौसम (मार्च से मई) में एक या दो सिंचाई करना उत्तम रहता है।
कीट नियंत्रण : करंज के वृक्षों को अधिकतर हानि गाल इन्डयूसर, लीफ, माइनर, पत्ती खाने वाले, तना छेदक तथा बीज छेदक कीटों द्वारा होती है। इसके बचाव के लिये 1.5 मिलीमीटर मेटासिस्टॉक्स या डायमेथोएट 2 मिलीमीटर प्रति 3 लीटर पानी के घोल का छिड़काव करना उपयुक्त होता है।
कटाई-छँटाई : अधिक बीज उत्पादन के लिये अधिक शाखाओं को विकसित करने की आवश्यकता होती है। अत: इन शाखाओं को विकसित करने के लिये हमें समय-समय पर कटाई-छँटाई करनी पड़ती है।
करंज का पुष्पन, फलन एवं कटान
सामान्य तौर पर करंज का वृक्ष चौथे वर्ष फूलना व फलना शुरू कर देता है। अप्रैल से जुलाई माह में पुष्प आने शुरू हो जाते हैं। फल अगले वर्ष मार्च से मई माह में पककर तैयार हो जाते हैं। इसकी हरी फलियां लगभग 10-11 सप्ताह में हल्के भूरे रंग में परिवर्तित हो जाती हैं। इसलिये इसके फल में वर्ष भर प्राप्त होते रहते हैं।
बीज संग्रहण एवं प्रसंस्करण
करंज की पकी हुई फलियों को अप्रैल से जून माह में वृक्ष से ही तोड़कर धूप में सुखा लेते हैं। फलियां 4 से 5 सेंटीमीटर लंबी 1.5 से 2.5 सेंटीमीटर चौड़ी व भूरे पीले रंग की होती है। जिनमें एक या दो बीज पाये जाते हैं। बीज निकालने के लिये या तो फलियां हल्के से कूटी जाती हैं या उनके जोड़ को चाकू से खोल दिया जाता है। करंज में बीज उत्पादन लगभग 30 से 50 किलोग्राम प्रति वृक्ष प्रतिवर्ष होता है। जोकि वृक्ष की उम्र एवं उसके ओजस्विता पर निर्भर करता है। जब फलियों का ऊपरी भाग हल्का भूरा होने लगे, तब इन्हें तोड़ा जा सकता है। बीजों का भण्डारण करने की अपेक्षा फलियों को पॉलिथीन की थैलियों में भण्डारण करना लाभप्रद रहता है। बीजों में तेल की मात्रा औसतन 27-39 प्रतिशत होती है।
करंज के विभिन्न उत्पादों का उपयोग
लकड़ी : करंज एक बहुउद्देशीय वृक्ष है। इसका प्रत्येक भाग किसी न किसी रूप में उपयोग में लाया जाता है। मुख्यत: इसका उपयोग ईंधन एवं इमारती लकड़ी के अलावा कृषि औजार व बैलगाड़ियां बनाने में होता है।पत्तियां : इसकी पत्तियां मुलायम व गुणकारी होने के कारण इनका उपयोग पशुओं तथा बकरियों के चारे के रूप में किया जाता है। इसकी पत्तियों में 17.6 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन, 2.2 प्रतिशत कैल्शियम एवं 0.2 प्रतिशत फास्फोरस उपस्थित रहता है। ये पत्तियां पाचक होने के साथ-साथ पौष्टिक भी होती हैं।
छाल : तने की छाल तन्तुयुक्त होती है। इसका प्रयोग रस्सियां बनाने में होता है। ताजी छाल में प्रारंभ में साधारण मीठा स्वाद होता है। जो शीघ्र ही तीक्ष्णतायुक्त कड़वे स्वाद में बदल जाता है। खूनी बवासीर में इसका आंतरिक प्रयोग किया जाता है। बेरी-बेरी रोग में छाल के काढ़े का प्रयोग किया जाता है।
जड़ : जड़ों के रस का प्रयोग दुर्गन्धयुक्त कानों को स्वच्छ करने, दाँतों को स्वच्छ करने तथा मसूड़ों को मजबूत बनाने में किया जाता है। इसके रस का प्रयोग सुजाक के उपचार में भी किया जाता है, कंठमाला की अवस्था में इसके मूल से बनी लेई ऊपर से लगायी जाती है।
फूल : शुष्क पुष्पों के शरबत का प्रयोग मधुमेह में प्यास बुझाने के लिये किया जाता है। गमले वाले पौधों के लिये ये पुष्प अच्छी खाद का कार्य करते हैं। कहा जाता है कि सुअपघटित अवस्था में ये पुष्प क्राईजेन्थामम तथा अन्य ऐसे पौधों को जल्दी उगाते हैं, जिनके लिये अधिक पादप आहार की आवश्यकता पड़ती है। ये मधुमक्खियों के लिये पराग का स्रोत है। पुष्पों में ऐलिफैटिक मोम पदार्थ, मुक्त कैम्पफेराल, पोंगामिन, साइटोस्टेरॉल ग्लूकोसाइड, केसिंसिनिओम्लेब्रिन तथा ग्लेब्रोसैपोनिन रहते हैं।
बीज : बीजों का मूल्य इनसे प्राप्त होने वाले तेल के कारण है। जिसका उपयोग अनेक उद्योगों और औषधियों में होता है। चूर्णित बीजों का महत्त्व ज़्वर शामक तथा टॉनिक के रूप में है जिसका प्रयोग श्वासनली रोग तथा कुकर खांसी की चिकित्सा में होता है। फलियों के छिलके का चूर्ण भी इसी काम आता है। पिसे हुए बीजों से बने पेस्ट का प्रयोग कोढ़, त्वचा संबंधी रोगों, दुखने वाले आमवाती जोड़ों के इलाज में होता है। बीजों का मछलियों के लिये विष के रूप में भी प्रयोग होता है। करंज से प्राप्त बीजों से तेल निकाला जाता है। जिसमें 27 से 39 प्रतिशत तक तेल प्राप्त होता है। परिपक्व बीज (औसत भार, लगभग 1 ग्राम) में लगभग 5 प्रतिशत छिलका तथा 95 प्रतिशत तेलयुक्त गिरी रहती है। वायुशुष्क गिरियों में आर्द्रता 19 प्रतिशत, वसा 27.5 प्रतिशत, प्रोटीन 17.4 प्रतिशत, स्टार्च 6.6 प्रतिशत, कच्चा रेशा 7.3 प्रतिशत तथा राख 2.4 प्रतिशत पाया जाता है। जबकि बीजों में म्यूसिलेज (13.5 प्रतिशत) वाष्प्पशील तेल की अल्प मात्रा तथा ग्लेब्रिन नामक जटिल ऐमीनो अम्ल रहते हैं।
करंज का तेल और उसके उपयोग
करंज के बीजों से तेल निकालने हेतु सर्वप्रथम बीजों को साफ कर सुखा लेते हैं। फिर बीजों को एक्सपेलर (कोल्हू) में पिरवा लिया जाता है। इसका तेल पीला नारंगी से भूरे रंग का होता है। जोकि कड़वा एवं तीक्ष्ण गंध वाला होता है।
करंज के तेल को पोंगम तेल कहते हैं। अपरिष्कृत पोंगम तेल का रंग पीलापन लिये हुए नारंगी से लेकर भूरा होता है। जो भण्डारण के बाद काला पड़ जाता है। इसकी गंध अरूचिकर तथा स्वाद कड़वा होता है। तेल को रंग और गंध प्रदान करने वाले घटक शोधन की परंपरागत विधियों द्वारा दूर नहीं किये जा सकते। इस तेल का संघटन मूंगफली के तेल के सदृश्य होता है। इसमें पागिरिक (3.7-7.9), स्टीएटिक (2.4-8.9), अरेकिडिक (2.2-4.7), ओलीन (44.5-71.3), लिनोनिन (10.8-18.3), लिग्नोसेटिक (1.1-3.5 ) प्रतिशत आदि पाया जाता है। तेल में वसाहीन घटक जैसे करंजिन (1.25 प्रतिशत) तथा पोगेमाला (0.85 प्रतिशत) पाया जाता है। पोंगम तेल का प्रमुख उपयोग चमड़े के संसाधन के लिये किया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य उपयोग निम्न हैं :
1. कपड़े धोने का साबुन और मोंमबत्तियों के निर्माण में भी कुछ हद तक पोंगम तेल का प्रयोग होता है। परिष्कृत तेल इस कार्य के लिये अधिक उपयुक्त है क्योंकि अपरिष्कृत तेल से जो साबुन बनता है उसका रंग और गंध अप्रिय होती है।
2. ट्रांसएस्टरीफिकेशन के बाद तेल का प्रयोग लेथों, जंजीरों, छोटे गैस इंजनों की बेयरिंग, परिवहन गियरों तथा भारी इंजनों में स्नेहक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
3. तेल औषधियों के रूप में बहुत उपयोगी माना जाता है। इसका प्रयोग परिसर्प, सफेद दाग तथा अन्य त्वचीय रोगों के उपचार में होता है। इस तेल में करंजिन ही सक्रिय पदार्थ है, जो त्वचा रोगों में रोगहर प्रभाव के लिये महत्त्वपूर्ण है।
4. तेल तथा इसके सक्रिय घटक करंजिन में कीटनाशी तथा प्रति जीवाणु के गुण भी होता है। ऐसा उल्लेख है कि 2 प्रतिशत पोंगम तेल रेजिन साबुन का छिड़काव कॉफी की हरी बग के अर्यक वयस्क से प्रभावी सुरक्षा प्रदान करता है।
5. पत्तियों का रस आध्यान, अग्निगांध, प्रवाहिका तथा खांसी में दिया जाता है। यह कुष्ठ तथा सुजाक के लिये भी औषधि माना जाता है। आमवात दर्द से मुक्ति दिलाने के लिये व पत्तियों के गर्म निषेक का औषधयुक्त स्नान किया जाता है।
6. करंज के तेल का एक महत्त्वपूर्ण उपयोग होता है बायोडीजल बनाने में। इसके लिये यदि 1000 किलोग्राम करंज के तेल में 217 किलोग्राम मेथेनोल तथा 5 किलोग्राम सोडियम हाइड्रोक्साइड मिलाकर 60-70 डिग्री सेल्सियस पर गर्म करें तो ट्रांसएस्ट्रीफिकेशन की क्रिया होती है और परिणामस्वरूप 1004 किलोग्राम बायोडीजल तथा 213 किलोग्राम ग्लिसरीन मिलती है।
करंज की खली
करंज के बीजों से तेल निकलने के बाद जो अवशेष बचा रहता है, उसे खली कहते हैं। खली में 5.5 प्रतिशत नाइट्रोजन, 0.9 प्रतिशत फास्फोरस एवं 1.2 प्रतिशत पोटाश पाया जाता है। इसकी खली का उपयोग फसलों में तथा शोभाकारी पौधों एवं वृक्षों में खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसकी खली का जैविक खाद के रूप में उपयोग करके जैविक खेती को बढ़ावा देकर किसान भाई अत्यधिक आमदनी ले सकते हैं। पौधों को दीमक से बचाव हेतु भी इस खली का उपयोग किया जाता है।
करंज पौधरोपण से लगभग 45-50 वर्ष तक अच्छी उपज मिलती रहती है। इसके अलावा इस वृक्ष की प्रतिवर्ष कटाई-छँटाई से किसानों को जलाने की लकड़ी मिलती रहती है और परिपक्व वृक्ष बन जाने पर इसे इमारती लकड़ी के रूप में भी उपयोग में लाकर अतिरिक्त आमदनी हो जाती है। इन वृक्षों के साथ-साथ खाली जगह में अन्य कृषि फसलें, जो छाया को पसन्द करती है, उगाकर अधिक लाभ कमाया जा सकता है।
सम्पर्क
डा. वीरेन्द्र कुमार
सस्य विज्ञान संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली – 110012, email- v.kumarnovod@yahoo.com
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