बंगाल में 520 किलमीटर तक बहती बड़े भूभाग का जीवन चलाती गंगा जब सागर से मिलने को होती है तो गति थामकर डेल्टा का रूप अख्तियार कर लेती है पर उत्तराखंड से निकलते ही उपेक्षा और दुर्व्यवहार झेलती गंगा का दर्द यहां बालू, पत्थर और वन माफिया और बढ़ा जाते हैं। राजनीतिक कारणों से उमा भारती की हालिया पहल भी बेअसर दिख रही है। अभी भारतीय जनता पार्टी की नेता उमा भारती ने बगाल के गंगासागर से अपने ‘गंगा समग्र अभियान’ की शुरुआत की। इस अभियान का विषय गंगा नदी के प्रदूषण और अस्तित्व के संकट की ओर ध्यान दिलाना भले था लेकिन बंगाल के राजनीतिक समीकरणों के चलते प्रभाव नहीं के बराबर रहा। शुरुआती चरण में ही बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने इस अभियान का विरोध कर दिया था। सरकार ने गंगासागर में जनसभा करने की अनुमति रद्द कर दी थी जिससे विवाद का जिन्न अभियान पर हावी हो गया। यह छुपा नहीं रह गया है कि उमा भारती ने लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अपनी यह यात्रा शुरू की है। बंगाल के संदर्भ में भी उनके इस अभियान के राजनीतिक निहितार्थ थे लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गंगा के डेल्टा और डेल्टा के सैकड़ों किलोमीटर क्षेत्र में प्रदूषण और गंगा के अन्य संकटों का सवाल पहली बार उठाया गया। वैसे, गंगोत्री से वाराणसी और पटना तक कई संस्थाएं सवाल उठाती मिल जाएगी।
लेकिन बंगाल के सामाजिक-राजनीतिक हालात के चलते यहां इन सवालों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया है अब तक। बंगाल में हुगली बनकर प्रवेश करने वाली गंगा नदी मैदानी इलाकों में बालू और पत्थर माफिया की गतिविधियों का केंद्र बनी हुई है तो खाड़ी के पास डेल्टा क्षेत्र में वन माफिया हावी है। इसके अलावा पारिस्थितिकी असंतुलन के ढेर सारे संकेत भविष्य के किसी बड़े खतरे की चेतावनी दे रहे हैं। सरकारी स्तर पर डेल्टा क्षेत्र के संकट को अभी तक अनदेखा किया जाता रहा है। गंगा को बचाने के लिए महत्वाकांक्षी ‘गंगा एक्शन प्लान’ की कवायद अब तक कागजों पर ही सिमटी दिख रही है। सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करने के बाद आलम यह है कि विभिन्न जगहों पर बनाए गए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) में से इक्का-दुक्का को छोड़ सभी बेकार हो गए हैं। कोलकाता और आसपास के उपनगरों से लगभग 5,270 लाख लीटर कचरा रोजना गंगा की गोद में बहाया जा रहा है जिसमें से 80 फीसदी कचरे की सफाई भी नहीं हो पा रही। यह आलम तब है जब गंगा एक्शन प्लान-एक और दो के तहत पिछले 25 साल में सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं।
गंगा की सेहत दुरुस्त करने के लिए सीधे प्रधानमंत्री की निगरानी में नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) का गठन किया गया है जिससे बंगाल को 539 करोड़ रुपए मिले हैं। इसके अलावा आठ सौ करोड़ रुपए और मंजूर किए गए हैं। पूर्व मंत्री डॉ. मानस भुइयां के अनुसार, वाममोर्चा की पिछली सरकार ने राज्य में कुल 287 योजनाओं पर काम शुरू किया था जिन पर पांच सौ करोड़ से अधिक खर्च हो चुके हैं लेकिन अधिकांश जगहों पर एसटीपी की मरम्मत और अपग्रेडेशन की जरूरत है। बंगाल में भाटपाड़ा-ईस्ट, टीटागढ़ और पानी हाटी समेत विभिन्न जगहों पर 32 एसटीपी लगाए गए थे जिनमें 15 में काम चालू किया जा सका लेकिन आज की तारीख में सिर्फ तीन काम कर रहे हैं। बंगाल में जहां नदी की लंबाई 520 किलोमीटर है, वहां यह हाल है। बंगाल में गंगा की सहायक नदियां दामोदर, कंसाई और हल्दी हैं। गंगा और इन नदियों के संयोगस्थल पर मिदनापुर, बर्दवान, हल्दिया, आसनसोल, फरक्का जैसे इलाकों में बालू और पत्थर का अवैध उत्खनन आबाध है।
ऐसी गतिविधियों का व्यापक असर गंगा के स्वच्छता अभियान पर पड़ा है। स्वयंसेवी संगठन गंगा मुक्ति मोर्चा के संयोजक अभिजीत मित्रा के अनुसार, कोलकाता और उपनगरों में कोलकाता मेट्रोपॉलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी (केएमडीए) और राज्य के बाकी हिस्सों के लिए पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग विभाग को नोडल एजेंसी बनाया गया है लेकिन दोनों संस्थाओं की रुचि अब तक इस महत्वपूर्ण केंद्रीय परियोजना को लेकर कम ही रही है। वस्तुतः अब तक गंगा की सफाई के लिए पारंपरिक तौर-तरीकों (घाटों पर कंक्रीट की घेरेबंदी, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण) पर जोर दिया गया है लेकिन यह नहीं देखा गया कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के अलावा कहां-कहां से गंगा में कचरा बहाया जा रहा है। दूसरे, इन तौर-तरीकों में गंगा के पानी से हानिकारक बैक्टीरिया खत्म करने की कभी नहीं सोची गई। ऐसे में लोगों के स्वास्थ्य को लेकर खतरा तो बना ही हुआ है।
बंगाल के बहरमपुर इलाके में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट काम नहीं कर रहा क्योंकि वहां तक कचरा पहुंचाने वाला नाला जाम होकर सूख गया है। 150 मीटर की नई सीवर लाइन डालने की योजना फाइलों में फंसी है। ऐसे में कचरा सीधे गंगा की कोख में गिर रहा है। इस तरह की स्थिति कई जगहों पर है, जहां कामचलाऊ तौर पर एल्गी और जलकुंभी से ही काम चलाया जा रहा है। ऐसी हालत में डेल्टा तक पहुंचने वाला पानी अपने साथ कचरे का पूरा ढेर लेकर 60-70 किलोमीटर की यात्रा करता है। बंगाल के जिस डेल्टा के बारे में अंग्रेजों के दस्तावेज अत्यधिक पानी वाला क्षेत्र लिखते रहे हैं, वहां अब गर्मी में जल संकट की स्थिति बन जाती है। गाद जमने से मानसून में बाढ़ आनी ही है। कोलकाता पोर्ट का फरक्का बांध वाला चैनल सूख रहा है। अब डेल्टा का क्षेत्र धीरे-धीरे पारिस्थितिकी असंतुलन का केंद्र बनता जा रहा है।
जादवपुर विश्वविद्यालय के ओशीनोग्राफर सुगत हाजरा के अनुसार, डेल्टा क्षेत्र में पहले से ही पारिस्थितिकी का संकट था। पिछले कुछ वर्षों में आई सूनामी और आइला के चलते 31 वर्ग मील जमीन समुद्र में लुप्त हो गई है। पाथरप्रतिमा, हिंगलगंज और गोसाबा के इलाकों में संकट ज्यादा है। दरअसल, बंगाल की खाड़ी में 500 किलोमीटर की रेंज में बना हवा का दबाव डेल्टा क्षेत्र में ज्यादा प्रभाव दिखाता है। मैंग्रोव के जंगल अक्सर आने वाले तूफानों का असर कम करते हैं लेकिन 30 हजार हेक्टेयर मैंग्रोव के जंगल साफ किए जा चुके हैं। पर्यटन विकास के नाम पर रिसोर्ट बनाने के लिए, खेती की जमीन हासिल करने के लिए, ढांचागत सुविधाओं के निर्माण या फिर औद्योगिक स्तर पर मछली पालन के लिए। ऐसे में गंगा डेल्टा का यह क्षेत्र धीरे-धीरे गर्म हो रहा है। यहां के तापमान में बढ़ोतरी की औसत दर ग्लोबल वार्मिंग की दर से आठ गुना ज्यादा है।
भूगर्भ में तेजी से बदलाव के चलते यहां के मीठे पानी के स्रोतों में नमक की मात्रा बढ़ रही है। पिछले तीन दशकों के आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन कर पाया गया है कि हर 12 साल में यहां के तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो रही है। पिछले तीन दशकों में यह औसत बरकरार है। यानी तापमान में कुल डेढ़ डिग्री की बढ़ोतरी हो चुकी है। सुदंरवन के पानी की यह तापमात्रा ग्लोबल वार्मिंग की औसत दर से आठ गुना ज्यादा है। यहां की नदियों के जल में नमक की मात्रा 15 पीपीटी (पार्ट पर थाउजैंड) से बढ़कर 15.8 पीपीटी हो गई है। इस शोधकार्य से जुड़े जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रणवेश सान्याल के अनुसार, गांवों के तालाबों में यह आंकड़ा 30 पीपीटी से अधिक है। इसका प्रभाव चिंताजनक है। वैज्ञानिकों के अनुसार, नमकीन पानी में एक किस्म की जलीय काई बनती है जो ऑक्सीजन बनाती है। माना जा रहा है कि दुनिया भर में तीन-चौथाई ऑक्सीजन का निर्माण जलीय काई से होता है लेकिन डेल्टा क्षेत्र में पानी की स्वच्छता कम होते जाने से काई बननी बंद हो गई है। इसके चलते आने वाले दिनों में जंगल में प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला के प्रभावित होने का खतरा है। इन हालात में गंगा के डेल्टा क्षेत्र पर भी खास ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
लेकिन बंगाल के सामाजिक-राजनीतिक हालात के चलते यहां इन सवालों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया है अब तक। बंगाल में हुगली बनकर प्रवेश करने वाली गंगा नदी मैदानी इलाकों में बालू और पत्थर माफिया की गतिविधियों का केंद्र बनी हुई है तो खाड़ी के पास डेल्टा क्षेत्र में वन माफिया हावी है। इसके अलावा पारिस्थितिकी असंतुलन के ढेर सारे संकेत भविष्य के किसी बड़े खतरे की चेतावनी दे रहे हैं। सरकारी स्तर पर डेल्टा क्षेत्र के संकट को अभी तक अनदेखा किया जाता रहा है। गंगा को बचाने के लिए महत्वाकांक्षी ‘गंगा एक्शन प्लान’ की कवायद अब तक कागजों पर ही सिमटी दिख रही है। सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करने के बाद आलम यह है कि विभिन्न जगहों पर बनाए गए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) में से इक्का-दुक्का को छोड़ सभी बेकार हो गए हैं। कोलकाता और आसपास के उपनगरों से लगभग 5,270 लाख लीटर कचरा रोजना गंगा की गोद में बहाया जा रहा है जिसमें से 80 फीसदी कचरे की सफाई भी नहीं हो पा रही। यह आलम तब है जब गंगा एक्शन प्लान-एक और दो के तहत पिछले 25 साल में सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं।
गंगा की सेहत दुरुस्त करने के लिए सीधे प्रधानमंत्री की निगरानी में नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) का गठन किया गया है जिससे बंगाल को 539 करोड़ रुपए मिले हैं। इसके अलावा आठ सौ करोड़ रुपए और मंजूर किए गए हैं। पूर्व मंत्री डॉ. मानस भुइयां के अनुसार, वाममोर्चा की पिछली सरकार ने राज्य में कुल 287 योजनाओं पर काम शुरू किया था जिन पर पांच सौ करोड़ से अधिक खर्च हो चुके हैं लेकिन अधिकांश जगहों पर एसटीपी की मरम्मत और अपग्रेडेशन की जरूरत है। बंगाल में भाटपाड़ा-ईस्ट, टीटागढ़ और पानी हाटी समेत विभिन्न जगहों पर 32 एसटीपी लगाए गए थे जिनमें 15 में काम चालू किया जा सका लेकिन आज की तारीख में सिर्फ तीन काम कर रहे हैं। बंगाल में जहां नदी की लंबाई 520 किलोमीटर है, वहां यह हाल है। बंगाल में गंगा की सहायक नदियां दामोदर, कंसाई और हल्दी हैं। गंगा और इन नदियों के संयोगस्थल पर मिदनापुर, बर्दवान, हल्दिया, आसनसोल, फरक्का जैसे इलाकों में बालू और पत्थर का अवैध उत्खनन आबाध है।
ऐसी गतिविधियों का व्यापक असर गंगा के स्वच्छता अभियान पर पड़ा है। स्वयंसेवी संगठन गंगा मुक्ति मोर्चा के संयोजक अभिजीत मित्रा के अनुसार, कोलकाता और उपनगरों में कोलकाता मेट्रोपॉलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी (केएमडीए) और राज्य के बाकी हिस्सों के लिए पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग विभाग को नोडल एजेंसी बनाया गया है लेकिन दोनों संस्थाओं की रुचि अब तक इस महत्वपूर्ण केंद्रीय परियोजना को लेकर कम ही रही है। वस्तुतः अब तक गंगा की सफाई के लिए पारंपरिक तौर-तरीकों (घाटों पर कंक्रीट की घेरेबंदी, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण) पर जोर दिया गया है लेकिन यह नहीं देखा गया कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के अलावा कहां-कहां से गंगा में कचरा बहाया जा रहा है। दूसरे, इन तौर-तरीकों में गंगा के पानी से हानिकारक बैक्टीरिया खत्म करने की कभी नहीं सोची गई। ऐसे में लोगों के स्वास्थ्य को लेकर खतरा तो बना ही हुआ है।
बंगाल के बहरमपुर इलाके में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट काम नहीं कर रहा क्योंकि वहां तक कचरा पहुंचाने वाला नाला जाम होकर सूख गया है। 150 मीटर की नई सीवर लाइन डालने की योजना फाइलों में फंसी है। ऐसे में कचरा सीधे गंगा की कोख में गिर रहा है। इस तरह की स्थिति कई जगहों पर है, जहां कामचलाऊ तौर पर एल्गी और जलकुंभी से ही काम चलाया जा रहा है। ऐसी हालत में डेल्टा तक पहुंचने वाला पानी अपने साथ कचरे का पूरा ढेर लेकर 60-70 किलोमीटर की यात्रा करता है। बंगाल के जिस डेल्टा के बारे में अंग्रेजों के दस्तावेज अत्यधिक पानी वाला क्षेत्र लिखते रहे हैं, वहां अब गर्मी में जल संकट की स्थिति बन जाती है। गाद जमने से मानसून में बाढ़ आनी ही है। कोलकाता पोर्ट का फरक्का बांध वाला चैनल सूख रहा है। अब डेल्टा का क्षेत्र धीरे-धीरे पारिस्थितिकी असंतुलन का केंद्र बनता जा रहा है।
जादवपुर विश्वविद्यालय के ओशीनोग्राफर सुगत हाजरा के अनुसार, डेल्टा क्षेत्र में पहले से ही पारिस्थितिकी का संकट था। पिछले कुछ वर्षों में आई सूनामी और आइला के चलते 31 वर्ग मील जमीन समुद्र में लुप्त हो गई है। पाथरप्रतिमा, हिंगलगंज और गोसाबा के इलाकों में संकट ज्यादा है। दरअसल, बंगाल की खाड़ी में 500 किलोमीटर की रेंज में बना हवा का दबाव डेल्टा क्षेत्र में ज्यादा प्रभाव दिखाता है। मैंग्रोव के जंगल अक्सर आने वाले तूफानों का असर कम करते हैं लेकिन 30 हजार हेक्टेयर मैंग्रोव के जंगल साफ किए जा चुके हैं। पर्यटन विकास के नाम पर रिसोर्ट बनाने के लिए, खेती की जमीन हासिल करने के लिए, ढांचागत सुविधाओं के निर्माण या फिर औद्योगिक स्तर पर मछली पालन के लिए। ऐसे में गंगा डेल्टा का यह क्षेत्र धीरे-धीरे गर्म हो रहा है। यहां के तापमान में बढ़ोतरी की औसत दर ग्लोबल वार्मिंग की दर से आठ गुना ज्यादा है।
भूगर्भ में तेजी से बदलाव के चलते यहां के मीठे पानी के स्रोतों में नमक की मात्रा बढ़ रही है। पिछले तीन दशकों के आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन कर पाया गया है कि हर 12 साल में यहां के तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो रही है। पिछले तीन दशकों में यह औसत बरकरार है। यानी तापमान में कुल डेढ़ डिग्री की बढ़ोतरी हो चुकी है। सुदंरवन के पानी की यह तापमात्रा ग्लोबल वार्मिंग की औसत दर से आठ गुना ज्यादा है। यहां की नदियों के जल में नमक की मात्रा 15 पीपीटी (पार्ट पर थाउजैंड) से बढ़कर 15.8 पीपीटी हो गई है। इस शोधकार्य से जुड़े जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रणवेश सान्याल के अनुसार, गांवों के तालाबों में यह आंकड़ा 30 पीपीटी से अधिक है। इसका प्रभाव चिंताजनक है। वैज्ञानिकों के अनुसार, नमकीन पानी में एक किस्म की जलीय काई बनती है जो ऑक्सीजन बनाती है। माना जा रहा है कि दुनिया भर में तीन-चौथाई ऑक्सीजन का निर्माण जलीय काई से होता है लेकिन डेल्टा क्षेत्र में पानी की स्वच्छता कम होते जाने से काई बननी बंद हो गई है। इसके चलते आने वाले दिनों में जंगल में प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला के प्रभावित होने का खतरा है। इन हालात में गंगा के डेल्टा क्षेत्र पर भी खास ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
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