कपूर कमीशन-कुछ नहीं मिला

केन्द्र द्वारा गठित कपूर आयोग ने अपनी रिपोर्ट दिसम्बर 1973 में प्रस्तुत की और कार्य सम्बन्धी बहुत सी अनियमितताओं की चर्चा की परन्तु जाँच के दौरान सारे हिसाब-किताब न मिल पाने के कारण किसी निश्चित निर्णय पर नहीं पहुँचा जा सका। कभी-कभी राजनैतिक हलकों में इस रिपोर्ट की मौजूदगी को लेकर हलचल हुआ करती है और कुछ समय के बाद मामला शान्त हो जाता है। जहाँ तक भ्रष्टाचार से निबटने का प्रश्न है वह तो अपने आप में एक समस्या है जिसमें राजनीतिज्ञ तथा अमला तंत्र और स्वार्थी तत्व बराबर के शरीक रहते हैं। जिसका जैसा दाँव लगा उसने वैसा फायदा उठा लिया। कोसी परियोजना में जो कुछ हो रहा था वह सब ठीक तो शायद नहीं ही था। अगर हकीकत जनता के सामने आती तो व्यवस्था पर शायद कुछ दबाव पड़ता और अगर सभी सम्बद्ध पक्ष निर्दोष पाये जाते तो भी नेतृत्व में जनता की कुछ आस्था बढ़ती। मगर दोनों में से कुछ भी नहीं हुआ। बिहार विधान सभा में विनायक प्रसाद यादव की टिप्पणी थी, ‘‘कोसी का गोल-माल दूर करना कोई साधारण बात नहीं है। उस गोल-माल को कई सरकारों ने दूर करना चाहा किन्तु उसको समाप्त कर दिया गया। आपने देखा कि दत्त कमीशन को खतम करने के लिए श्री कर्पूरी ठाकुर की मिनिस्ट्री खतम कर दी गई और कहा गया कि यह राजनीतिक मोटिवेटेड है।’’ दत्त कमीशन को तो ख़ैर राजनैतिक मजबूरी के कारण बर्खास्त कर दिया गया मगर कपूर कमीशन अपना कार्यकाल पूरा करके और अपनी रिपोर्ट देकर भी किसी नतीजे पर नहीं पहुँचा।

कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिरने के बाद और कपूर कमीशन की रिपोर्ट आने के पहले काँग्रेस पार्टी और उसके विरोधी पक्ष कोसी परियोजना में हुए गोल-माल के लेकर सड़कों पर आ गये और इसकी शेष और स्वाभाविक परिणति 4 नवम्बर 1973 को बीरपुर (तत्कालीन सहरसा और वर्तमान सुपौल) में हुई।

4 नवम्बर 1973 को संगठन काँग्रेस, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी तथा जनसंघ की ओर से बीरपुर में एक ‘कोसी परियोजना बचाओ सम्मेलन’ का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन का उद्देश्य था कोसी परियोजना में व्याप्त भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करना और परियोजना को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाना। समस्या तब पैदा हुई जब सभा-स्थल से थोड़े से फासले पर काँग्रेस पार्टी की भी सभा शुरू हो गई। दोनो पक्षों में पहले तो लाउडस्पीकरों के माध्यम से आरोप-प्रत्यारोप लगे और बाद में बात हाथा-पाई तक पहुँच गई। जब हालात बेकाबू होने लगे तो पुलिस को भीड़ को तितर-बितर करने के लिए हवाई फायर करना पड़ा और कस्बे में दफा 144 लागू करनी पड़ी और आने वाले 15 दिनों में आस-पास के इलाकों में हथियार ले कर चलने पर पाबन्दी लगा देनी पड़ी। मार-पीट के कारण दो पूर्व मुख्य-मंत्रियों, सरदार हरिहर सिंह और कर्पूरी ठाकुर को चोटें आईं और विनायक प्रसाद यादव के साथ-साथ बहुत से अन्य लोग भी घायल हुये। आयोजकों का आरोप था कि उनके सभा-स्थल पर दूसरे पक्ष ने कब्जा कर लिया, लाउडस्पीकर छीन लिये और आमंत्रित लोगों के साथ दुव्र्यवहार किया। दूसरे पक्ष का कहना था कि कथित सभा-स्थल पर किसी सम्मेलन की कोई बात ही नहीं थी, वहाँ तो मीटिंग की सूचना केवल लाउडस्पीकर से दी गई थी और किसी स्थान विशेष की घोषणा नहीं की गई थी। उनका दावा कि सभा स्थल पर कांग्रेस की मीटिंग होने वाली थी और उन्होंने इस आशय के पर्चे भी छपवाये थे। उन्होंने पुलिस द्वारा गोली चलाने की घटना को भी नकारा और कहा कि पुलिस ने गोली तब चलाई थी जब कुछ लोगों ने शाम को बीरपुर में कोषागार को घेर लिया था।

6 नवम्बर 1973 को घायल नेताओं ने पत्रकार सम्मेलन कर के संवाददाताओं को अपनी चोटें दिर्खाइं और साथ ही बीरपुर के वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी द्वारा जारी की गई डॉक्टरी रिपोर्ट की प्रतियाँ बांटीं। इन नेताओं ने मांग की कि एक जाँच समिति का गठन किया जाय जिसमें केवल वरिष्ठ काँग्रेसी नेता, पत्रकार और उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश हों। विपक्ष के होने के बावजूद यह लोग इस जाँच समिति का फैसला स्वीकार करेंगे।

20 दिसम्बर 1973 के दिन इस विषय पर बिहार विधान सभा में भी ‘अविलम्बनीय लोक महत्व के विषय पर चर्चा’ हुई और वह सब कुछ हुआ जो इस तरह की चर्चाओं में होता है। जैस-तैसे सुलह सफाई हुई और मामला रफा-दफा हुआ। यह समय वही था जब देश में आपातकाल की बुनियाद रखी जा रही थी।

केन्द्र द्वारा गठित कपूर आयोग ने अपनी रिपोर्ट दिसम्बर 1973 में प्रस्तुत की और कार्य सम्बन्धी बहुत सी अनियमितताओं की चर्चा की परन्तु जाँच के दौरान सारे हिसाब-किताब न मिल पाने के कारण किसी निश्चित निर्णय पर नहीं पहुँचा जा सका। कभी-कभी राजनैतिक हलकों में इस रिपोर्ट की मौजूदगी को लेकर हलचल हुआ करती है और कुछ समय के बाद मामला शान्त हो जाता है। वैसे भी 1975 में समस्तीपुर में एक बम काण्ड में ललित नारायण मिश्र की मृत्यु हो गई और ऐसा लगता है कि पक्ष और विपक्ष की सारी शिकायतें जितनी भारत सेवक समाज से नहीं थी उससे कहीं ज्यादा ललित नारायण मिश्र से थीं और परिदृश्य से उनके हमेशा के लिए हट जाने की वजह से भारत सेवक समाज का विवाद भी हमेशा के लिए शान्त हो गया। आज भारत सेवक समाज का नाम तभी सुनाई पड़ता है जब वह कभी किसी शहर में अपना स्थापना दिवस मनाने या ऐसा ही कोई मामूल का काम करते हों। रचनात्मक कार्यों या किसी भी संघर्ष में उनकी भूमिका सार्वजनिक नहीं हो पाती है।

12 अगस्त 1986 को लोकसभा में हुसेन दलवाई के एक सवाल के उत्तर में रामानन्द यादव ने बताया कि (1) कपूर कमीशन ने इस बात की सिफारिश की थी कि आम वित्तीय नियमों को आवश्यकतानुसार बदला और सुधारा जाय जिससे कि सालाना लेखा-जोखा जमा करने में सहूलियत हो। सरकार ने, जहाँ तक हिसाब-किताब के एक समेकित बयान की बात थी, आयोग की इस सिफारिश को मान लिया है और किसी भी संस्था की आर्थिक स्थिति का जायजा लेने के लिए आम वित्तीय नियमों में सुधार के लिए आवश्यक निर्देश दिये गये हैं। (2) जहाँ तक मुमकिन हो सके भारत सेवक समाज के पास बची बाकी की रकम की वसूली की जाय और सम्बद्ध मंत्रालयों द्वारा वापस मिलने वाली राशि के बारे में भूल जाने की बात तभी उठे जब नियमानुसार वसूली की सारी कोशिशें नाकाम हो जायें। (3) राजनैतिक हस्तियों द्वारा अपने पद का दुरुपयोग किये जाने के प्रश्न पर सरकार का मानना था कि जाँच आयोग की रिपोर्ट में जो सामग्री मिली है वह नाकाफी है और इससे किसी पर मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता और तब यह भी व्यावहारिक नहीं है कि फिर से एक बार जाँच बैठाई जाये। (4) सरकार ने स्वयंसेवी संस्थाओं को दिये जाने वाले ऋणों और अनुदानों के सम्बन्ध में नियमों का सख्ती से पालन करने के निर्देश निर्गत किये हैं और मंत्रालयों को यह हिदायत दी है कि भविष्य में इस तरह की स्थिति पैदा न हो इसके लिए वह नियमित और प्रभावी सुपरविजन की प्रक्रिया अपनायें। फिर भी, क्योंकि इस मसले को काफी समय बीत चुका है कि कोई व्यक्तिगत जिम्मेवारी किसी पर डाली जा सके, इसलिए जाँच को किसी तरह से आगे बढ़ाने का कोई मतलब नहीं रह जाता।

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Post By: tridmin
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