कपास हुई बर्बाद, जान देते किसान


पंजाब का किसान भी जान देने को मजबूर क्यों है। न जमीन में कमी न उसकी मेहनत में। खराब बीज और भ्रष्टाचार के कीट ने उसकी फसल का नाश कर दिया। बादल ने कृषि निदेशक को कराया गिरफ्तार पर कृषि मन्त्री को क्लीन चिट देकर जले पर छिड़का नमक। मुआवजे के नाम पर भी किसान को छला जा रहा है।

पंजाब में 33 करोड़ रुपये के कीटनाशक घोटाले से कपास की फसल भले ही किसान की बर्बाद हुई हो, पर उसका सीधा असर खेतिहर मजदूर, कपास उद्योग, इस उद्योग से जुड़े मजदूर, आढ़ती व व्यापारी पर भी पड़ेगा। नकली व घटिया कीटनाशकों के कारण मालवा क्षेत्र के 1.4 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कपास व नरमा की फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई है। नकली कीटनाशक सफेद मक्खी का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाए और देखते ही देखते मक्खी सारी फसल को चट कर गई। निराश किसानों ने अपने खेतों में खड़े इसके मरगिल्ले बूटों को उखाड़ जमीन पर ट्रैक्टर चला दिया। पहले से ही लाखों रुपये के कर्ज में डूबे बहुत से किसान इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाए और अपनी जान दे दी। अगस्त से अक्टूबर के पहले सप्ताह तक 15 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अभी यह सिलसिला थमा नहीं है। सरकार ने किसान संगठनों व विपक्षी राजनीतिक दलों के दबाव में भले ही कृषि निदेशक मंगल सिंह संधु को गिरफ्तार करवा दिया हो। पर इसके पीछे अपने कृषि मन्त्री तोता सिंह को बचाने की मंशा ज्यादा थी। दो कृषि अधिकारियों से भी पूछताछ चल रही है। पर इससे जो जानें चली गई हैं, उन्हें वापस नहीं लाया जा सकेगा।

संधु की गिरफ्तारी रामा मंडी की कीटनाशक कम्पनी कोरोमंडल क्रोपसाइंस के मालिक विजय गोयल के बयान पर की गई है। गोदामों से नकली व घटिया खाद व कीटनाशक मिलने के बाद गोयल को गिरफ्तार किया गया था। पूछताछ में गोयल ने माना कि उसने एक बड़ी कम्पनी के नाम पर नकली खाद व कीटनाशक बनाने का कारोबार शुरू किया था। इसके लिए मंगल संधु को आठ लाख रुपए दिए थे। संधु पर आरोप है कि उसने 33 करोड़ रुपए के कीटनाशकों की बिना टेंडर खरीदी की और रिश्वत लेकर कई अनधिकृत कम्पनियों को लाइसेंस जारी कर दिये। यही वे कम्पनियाँ हैं जिन्होंने घटिया कीटनाशक श्रीराम फर्टीलाइजर जैसी नामी कम्पनियों की पैकिंग में भरकर सस्ते दामों में बेच दिये। दो सितम्बर से शुरू हुए छापों में अब तक विजय गोयल जैसे करीब 30 लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है। कई अपनी दुकानें बन्द कर फरार हो गए हैं। पूछताछ में जम्मू के एक डीलर ने बताया कि उसने पंजाब के कृषि विभाग को कीटनाशक सप्लाई किया व रिश्वत में 16 करोड़ रुपए दिए। सवाल है कि क्या यह सब कुछ कृषि मन्त्री की जानकारी में नहीं था। अगर वे कहते हैं कि नहीं था तो क्या तब भी उन्हें इस पद पर बने रहना चाहिए या बनाए रखना चाहिए?

कपास उत्पादन में पंजाब देश का चौथा बड़ा राज्य है। इसके मालवा क्षेत्र में 4.5 लाख हेक्टेयर में कपास की खेती होती है। यहाँ का नरमा अति उत्तम क्वालिटी का तो होता ही है, यहाँ की भूमि भी इसके लिए उपजाऊ मानी जाती है। यहाँ प्रति हेक्टेयर 800 किलो तक की कपास निकलती है, जो अन्य राज्यों के मुकाबले काफी ज्यादा है। खरीफ के एक मौसम में यहाँ से करीब 11 लाख गाँठे कपास की निकलती हैं और एक गाँठ में 170 किलो कपास रहती है। निर्यात की दृष्टि से भी यहाँ की कपास बेहतर मानी जाती है। मालवा के बठिंडा, मानसा, फिरोजपुर, फरीदकोट, मुक्तसर, मोगा, अबोहर, बरनाला व फाजिल्का जिलों की खरीफ की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार यह कपास ही है। इससे यहाँ का किसान अपने खेतीबाड़ी सम्बन्धी कर्जों के अलावा पारिवारिक व सामाजिक कामों के लिए उठाया गया कर्ज भी उतारता है। इसके साथ ही गेहूँ की फसल के लिए चार पैसे उसकी जेब में होते हैं। कपास जिनिंग व स्पिनिंग की करीब 350 फैक्टरियाँ इस मौसम में चालू हो जाती हैं।

इससे मजदूर को भी काम मिलता है। यह मजदूर पहले खेत में नरमा चुगता है और फिर फैक्ट्री में काम करता है। इससे प्रति परिवार एक सीजन में 40-50 हजार रुपये की आमदनी उसे हो जाती है। फैक्ट्री में जाने से पहले यह फसल मंडी में आढ़तियों के पास आती है। यहाँ मंडी रेट पर उसकी खरीद-फरोख्त होती है। ग्रेन मर्चेंट एंड कमीशन ऐजेंट केवल कृष्ण सिंगला का कहना है, “किसान व कपास की इस तबाही से हम तीन तरह से प्रभावित हुए हैं। पहला, कम फसल से हमारा कमीशन भी स्वतः ही कम हो गया। दूसरा, किसान से कर्ज की वापसी रुक गई। तीसरा, गेहूँ की फसल के लिये किसान को कर्ज देने की हमारी क्षमता घट गई।” उनके अनुसार इसके बावजूद हम अपने किसान को कर्ज देंगे क्योंकि हमारा एक-दूसरे के साथ रिश्ता परस्पर निर्भरता का है।

रामा मंडी के ही उद्योगपति राजेन्द्र मित्तल का कहना है, “पंजाब की 350 कपास फैक्टरियों में से मात्र डेढ़ सौ ही चालू हो पाई हैं। कारण, इतना माल है ही नहीं कि खर्च निकल पाए। हमारे उद्योग के लिए सरकार की बिजली की दरें बहुत ज्यादा हैं। मार्किट टैक्स, ग्रामीण विकास शुल्क, वैट व कुछ अन्य सरकारी करों को मिला दें तो माल के अनुपात में ये सभी खर्चे बहुत ज्यादा हैं। इनकी वजह से पहले ही कई फैक्टरियाँ बन्द हो चुकी हैं। इस बार भी हो सकता है बहुत-सी शुरू ही न हों। इसका नुकसान कारखाना मालिकों को तो होगा ही, इनमें काम करने वाले मजदूरों की रोजी भी जाएगी। सर्दी में यह काम यहाँ उसकी आय का एक बड़ा आधार होता है। इसका विपरीत असर किसान पर भी पड़ेगा। राज्य के भीतर उसके माल की खरीद कम होगी, जिससे उसे पैसा समय पर नहीं मिल पाएगा जिसकी मौजूदा हालात में उसे सबसे ज्यादा जरूरत है। सरकार अगर चाहती है कि ये फैक्टरियाँ चलें तो उसे हमें बिजली दरों या अन्य करों में कुछ रियायतें देनी होंगी।”

खेती से जुड़े हमारे आर्थिक ताने-बाने से अर्थतन्त्र के इस वर्ग के लिए यह जीवन मरण का संकट नहीं है। पर किसान-मजदूर के लिए, वह तो न जिंदों में है, न मुर्दों में। मिरज्याना गाँव के बलविंदर सिंह का कहना था, “मेरे पास अपनी जमीन नहीं है। मैंने 20 एकड़ जमीन प्रति एकड़ 30 हजार रुपये के हिसाब से ठेके पर ली थी। साल भर के लिये। कुछ छह लाख रुपये देने थे, जिसमें से तीन लाख रुपये पहले दिये और तीन लाख रुपये बाद में देने थे। जो रकम दी वह भी किसी से कर्ज लेकर दी थी। अब केवल चार क्विंटल नरमा निकला है। जिससे मुझे कुल 16 हजार रुपये मिलेंगे। इससे क्या होगा। 20 हजार रुपया प्रति एकड़ तो खर्च ही है। वैसे करीब 15 हजार रुपये प्रति एकड़ का खर्च आता है। पर इस बार कीटनाशक का स्प्रे दस-दस बार करना पड़ा, जबकि आमतौर पर यह चार बार ही होता है। फिर भी यह बेअसर ही रहा। हमें क्या पता था कि यह नकली था। मैंने इन 20 में से तीन एकड़ में ग्वारा लगाया था। वह भी बर्बाद हो गया।”

रामा गाँव के सुखविंदर सिंह का कहना था, “मैंने नौ एकड़ जमीन में नरमा लगाया था। सारा जल गया। अब उस पर ट्रैक्टर चला दिया है। पर सरकार पाँच एकड़ से ज्यादा का मुआवजा नहीं देगी। उसने प्रति एकड़ आठ हजार रुपये की सीमा तय की है। वह भी उसके लिये जिसने अपने खेत में से खराब फसल को उखाड़ दिया था। जिसके खेत में थोड़ी-सी भी फसल बची है, उसे सरकार कुछ नहीं दे रही। मुझ पर इस समय चार लाख रुपये का कर्ज है। कुछ बेटी की शादी व कुछ इस फसल के लिये लिया था। सोचा था फसल आने पर चुका दूँगा, पर अब तो और कर्ज लेना पड़ेगा।” सुखलदी गाँव के बेंत सिंह के अनुसार उसने 15 एकड़ में नरमा लगाया था पर केवल तीन एकड़ में ही बचा। बाकी सारा खराब हो गया। इस तीन एकड़ में भी केवल तीन क्विंटल ही निकला है। इससे तो लागत भी नहीं निकलेगी।

कर्ज उतारने की बात तो दूर। हमारी चिन्ता यह है कि अब अगली फसल के लिए हम क्या करें? बैंक का कर्ज, सेठों का कर्ज, उफ्फ। नसीबपुरा गाँव के किसान मसंद सिंह का कहना था, “बैंक के साथ हमारी तीन से दस लाख रुपये तक के कर्ज की लिमिट तय होती है। तीन लाख रुपये तक का कर्ज सात प्रतिशत व उससे ऊपर 11 प्रतिशत की दर पर मिलता है। इसे छह महीने में चुकाना होता है। समय पर चुका देते हैं तो तीन प्रतिशत की छूट मिल जाती है, नहीं तो डिफाल्टर घोषित कर दिए जाते हैं। हमारी कोशिश यही रहती है कि हम बैंक का पैसा समय पर चुका दें। अपने पास नहीं होता तो सेठों से लेकर चुकता कर देते हैं। मगर इस बार तो सेठों से भी नहीं पकड़ पाएँगे। सेठों का कर्ज हमें डेढ़ से दो प्रतिशत तक की ब्याज दर पर मिलता है। उनका पहला कर्ज हमारे सिर पर बना रहेगा और आगे की फसल के लिए भी अगर सरकार बैंकों के कर्जे माफ करा हमें नया कर्ज नहीं दिलाती तो सेठों के पास ही जाना पड़ेगा। इस पूरे कर्ज को उतारने में हमें कई साल लग जाएँगे बशर्ते कि आने वाली फसलें अच्छी हों। नहीं तो किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला जारी ही रहेगा।”

उनकी बात काफी हद तक सही है। आए दिन जिस तरह मालवा क्षेत्र से किसी न किसी किसान की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं उससे ऐसा लगता है कि यह संख्या 25-30 का आँकड़ा पार कर सकती है। यही कारण है कि किसानों के साथ-साथ मजदूरों के संगठन व कई सामाजिक संगठन मिलकर सरकार के खिलाफ आन्दोलन कर रहे हैं। उनके आन्दोलन का ही नतीजा है कि मुख्यमन्त्री प्रकाश सिंह बादल को न चाहते हुए भी कृषि निदेशक मंगल सिंह संधु को पद से हटाना पड़ा। पर किसान कृषि मन्त्री तोता सिंह का इस्तीफा चाहता है। जिसे जाँच कमेटी ने क्लीन चिट दे दी है। मुआवजे के बारे में उनका कहना है कि प्रति एकड़ किसान को 40 हजार रुपये व खेतिहर मजदूर को 20 हजार रुपये दिया जाए। भारतीय किसान यूनियन (अकाली समर्थक) के उपाध्यक्ष रामकरण सिंह का कहना था- सरकार के सारे प्रयास दिखावा हैं। अन्यथा क्या कारण है कि बाजार में जो नरमा 4500 क्विंटल बिक रहा है, वह सरकार 4000 रुपये क्विंटल ले रही है।

उसके अनुसार 11 लाख एकड़ में नरमा मरा जबकि असल में यह 19 लाख एकड़ में सफाचट हो गया है। हमारी माँग है कि सरकार नरमे को ऊँचे दाम पर खुद खरीदे, कपास निगम इसे ले। बादल के 644 करोड़ रुपये की राहत राशि हमारे नुकसान के सामने कुछ भी नहीं है। दूसरा सरकार को धान के दाम भी पाँच हजार रुपये प्रति क्विंटल तक देना चाहिए। इससे हमें थोड़ी मदद मिलेगी। नहीं तो किसान तो पहले भी मर रहा है और अब बादल सरकार की किसान विरोधी नीतियों से मरने वालों की संख्या और बढ़ेगी। रामकरण के अनुसार किसान की इस हालत के लिए केन्द्र की मोदी सरकार भी दोषी है जिसने अभी तक न तो राष्ट्रीय कृषि नीति तैयार की और न स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू कीं।

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