पहले तो इस बात पर शक किया जाता था कि काम करने के लिए मजदूर भी मिलेंगे या नहीं। लेकिन उस इलाके से बड़ी तादाद में लोग बाहर आये और उन्होंने हमें सहयोग करने का भरोसा दिलाया। बड़ी संख्या में लोग ग्रामीण इलाकों से आये, खेतिहर किसान आये, ऐसे लोग जिन्हें इस तरह के श्रम-साध्य कार्य का कोई तजुर्बा नहीं था और यह लोग सारे बिहार से आये श्रमदान करने के लिए और वह भी अपने खर्च पर। लोगों के बीच ऐसा समां बंध गया था।
इन सदुद्देश्यों की प्राप्ति के पीछे सम्भवतः तत्कालीन नेताओं की आजादी के बाद के समय में साधारण जनता को सरकार और उसके साधनों के ज्यादा-से-ज्यादा नजदीक लाने की मंशा थी और यह कि सरकार जो अब तक एक शोषक और दमनकारी शक्ति के ही रूप में ही देखी जाती थी, उस छवि को बदला जाये और इसका भारतीयकरण हो। इन सारे उद्देश्यों के पीछे उस समय का आदर्शवाद झलकता है जिसको कोसी योजना के संदर्भ में और ज्यादा मजबूत किया कंवर सेन और डॉ. के. एल. राव की चीन वापसी के बाद की रिपोर्ट ने जिसके बारे में हम पहले चर्चा कर आये हैं। यह दोनों व्यक्ति पेशे से इंजीनियर जरूर थे मगर इन्होंने चीन में जनता की सहभागिता से पूरी होती हुई योजनाओं को बड़े गौर से देखा था और इस बात की सिफारिश की कि भारत में भी वैसा ही कुछ हो। इन विशेषज्ञों ने चीन की ह्नांग हो, हुआई और यांग्ट्सी नदी घाटियों में बड़ी संख्या में मजदूरों को मिट्टी कटाई का काम करते देखा था जहाँ मशीनों की मौजूदगी करीब-करीब नहीं के बराबर थी। सारे मजदूर, स्त्री और पुरुष दोनों, एक साथ काम करते थे और एक साथ उनका खाना-पीना चलता था और एक सुर में वह साम्यवादी क्रान्ति के गीत गाते हुये पूरी लगन के साथ अपना काम करते थे।उन्होंने लिखा है कि, “...चीन की नदी घाटी योजनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मानवीय शक्ति अथाह है और यदि इसका सही ढंग से उपयोग किया जाये और काम पर लगाया जाये तो आश्चर्यजनक परिणाम निकल सकते हैं... यदि चीन की योजनाओं में उपलब्ध यह व्यापक जन-सहयोग कोसी क्षेत्र में भी उपलब्ध हो तो काम की गति भी बढ़ाई जा सकती है और बाढ़ सुरक्षा के नतीजे समय से पहले भी उपलब्ध हो सकते हैं”। अपनी चीन यात्रा के दौरान डॉ. राव तथा कँवर सेन ने देखा कि, उत्तरी कियांगसू की मुख्य नहर जिसकी लम्बाई 106 मील तथा तल की चौड़ाई 420 फुट थी और इसमें कुल मिट्टी का काम 247 करोड़ घनफुट था, मात्र 80 दिन में ही मानवीय श्रम से बना डाली गई अर्थात 3 करोड़ घनफुट प्रति दिन की दर से काम हुआ। “...इसमें किसी प्रकार की मशीनरी का उपयोग नहीं हुआ और सारा मिट्टी का काम, जिसमें कटाई, ढुलाई और सघनीकरण शामिल था, 13 लाख लोगों के श्रम से पूरा किया गया।” भारतवर्ष में मेट्टूर, हीराकुड, भाखड़ा, नंगल, दुर्गापुर बराज और मयूराक्षी बांध जैसी परियोजनाओं में मानव श्रम की उपलब्धि इसके पासंग में भी नहीं बैठती थी।
इन लोगों का मानना था कि यदि मजदूरी ठीक से मिलती रहे और साथ में कार्य क्षेत्र में कुछ सुविधाएँ मिल जाएँ तो लोग स्वेच्छा तथा गर्मजोशी से अपने देश के विकास कार्यों में जुट जाते हैं। इन सुविधाओं के बारे में रपट में सुझाव था कि-(i) कार्यस्थलों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम, (ii) काम के समय लाउड स्पीकरों से संगीत का प्रसारण, (iii) समाचारों का दीवारों पर लगा कर प्रचार, (iv) काम की उपलब्धि का प्रचार-प्रसार, (v) आदर्श कार्यकताओं, मजदूरों को प्रोत्साहन, (vi) खेल-कूद का आयोजन तथा (vii) फोटो, चार्ट इत्यादि की सहायता से कार्य प्रगति का प्रचार-प्रसार आदि कार्यक्रम लिये जायें।
यह सारी सिफारिशें चीन के अपने अनुभव के आधार पर भारत के लिए इन दो विशेषज्ञों द्वारा की गईं। तत्कालीन योजना मंत्री गुलजारी लाल नन्दा के विचारों को इन सिफारिशों ने और पुख्ता कर दिया कि योजना कार्यों में जन-सहयोग को प्रधानता मिलनी चाहिये और यह प्रधानता बाद में मिली भी।
अब कुछ बेहतर कर दिखाने की ग़रज से भारत में चीन से प्रतियोगिता का माहौल बनने लगा। अगर चीनी लोग इतने जोशो-खरोश के साथ नदियों को बांधने या नहरें बनाने का काम लाखों की संख्या में एक साथ कर सकते हैं तो भारत में उससे बेहतर नहीं तो वैसा ही क्यों नहीं होगा? गुलजारी लाल नन्दा ने कहा कि अगर दो लाख तीस हजार आदमी आठ महीने तक लगातार काम करें तो कोसी योजना का काम समाप्त हो जायेगा। दिक्कत यह थी की कोसी क्षेत्र में जमीन में बहुत नमी रहती थी और थोड़ा खोदने पर ही पानी निकल आता था, फिर बाढ़/जल-जमाव की वजह से भी काम करने का समय घटता है। इस तरह कोसी क्षेत्र में लगातार आठ-महीनें काम नहीं चल सकता मगर यह काम चार-पाँच महीनें में पूरा किया जा सकता है यदि मजदूरों की संख्या बढ़ा कर पाँच-छः लाख कर दी जाये। ‘अगर चीन ने 80 दिन का दृष्टान्त संसार के समक्ष रखा तो पड़ोसी भारत और कम दिन का दृष्टान्त क्यों नहीं रख सकता है?’
देश की सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण योजनाओं में जहाँ मिट्टी की कटाई मुख्य रूप से होनी थी इस तरह के काम की प्रचुर संभावनाएं थीं। भारत सेवक समाज ने इस तरह के बहुत से काम लगभग सारे देश में किये मगर उन्होंने कोसी परियोजना में मिट्टी के काम का जिम्मा लेकर एक मिसाल इसलिए कायम की कि इस तरह के काम की दृष्टि से यह इलाका बहुत ही दुरूह था। दुरूह और अस्वास्थ्यकर होने के कारण आमतौर पर ठेकेदार आगे नहीं आते थे और अगर आगे आते भी थे तो वह अपने काम की एक ऊँची कीमत मांगते थे। “...लेकिन लोग आगे आये। पहले तो इस बात पर शक किया जाता था कि काम करने के लिए मजदूर भी मिलेंगे या नहीं। लेकिन उस इलाके से बड़ी तादाद में लोग बाहर आये और उन्होंने हमें सहयोग करने का भरोसा दिलाया। बड़ी संख्या में लोग ग्रामीण इलाकों से आये, खेतिहर किसान आये, ऐसे लोग जिन्हें इस तरह के श्रम-साध्य कार्य का कोई तजुर्बा नहीं था और यह लोग सारे बिहार से आये श्रमदान करने के लिए और वह भी अपने खर्च पर। लोगों के बीच ऐसा समां बंध गया था...।” भारत सेवक समाज की मौजूदगी की वजह से एक तो ठेकेदारों को इस इलाके में जबरन काम करने के लिए आना पड़ा क्योंकि कोई भी ठेकेदार यह नहीं बर्दाश्त कर सकता कि किसी इलाके में इतना बड़ा काम हो और उसके मुनाफे में उसकी हिस्सेदारी न हो और दूसरे यह कि भारत सेवक समाज सारा काम कर सकने की स्थिति में नहीं था, इसलिए काम का एक बड़ा हिस्सा ठेकेदारी के लिए बच ही जाता था। मजबूरन न सिर्फ ठेकेदार आये बल्कि उन्हें कम दरों पर काम भी करना पड़ा क्योंकि भारत सेवक समाज की काम की दरें कम थीं।
कोसी परियोजना का काम भारत सेवक समाज की प्रयोगस्थली बना। आधिकारिक रूप से 2 दिसम्बर 1954 को कोसी नियंत्रण बोर्ड की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि जन-सहयोग का सारा काम भारत सेवक समाज देखेगा। यहाँ जन-सहयोग प्राप्त करने के लिए भारत सेवक समाज ने तीन अलग-अलग तरह की कोशिशें कीं।
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