कोसी परियोजना पर पुनर्विचार की आखिरी कोशिश

कोसी के बारे में कितने बड़े-बड़े ख्वाब दिखाये गये और अन्ततः बात तटबन्धों के झुनझुने पर अटकी जिसमें कँवर सेन, एम पी. मथरानी, वेंकटा कृष्ण अय्यर तथा एन. के. बोस जैसे दिग्गज इंजीनियरों ने पासा तटबन्धों के हक में पलट दिया और जो कुछ रही सही कसर थी वह कँवर सेन और डॉ. के. एल. राव ने चीन यात्रा से वापस आकर अपनी सिफारिशें देकर पूरी कर दी। आजादी के तुरन्त बाद के समय में बाढ़ नियंत्रण के लिए जल्दी थी और जल्दी में तटबन्धों के अलावा कुछ बनाया नहीं जा सकता था।

कोसी परियोजना और उसके तटबन्धों की अनुपयोगिता पर सरकार का आखिरी बार दरवाजा खटखटाने की गरज से बेतिया राज के सेवा निवृत्त चीफ इंजीनियर राय बहादुर ए. जी. चटर्जी ने बिहार के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की अध्यक्षता में हुई एक गोष्ठी में एक प्रस्ताव रखा जिसमें 1953 वाली तटबन्धों की मदद से कोसी को नियंत्रित करने की योजना को सार्वजनिक पैसे की बर्बादी बताया और यह कहा कि तटबन्धों से किसी का भी भला नहीं होगा। 20 नवम्बर 1954 को हुई इस मीटिंग में बिहार के मुख्य सचिव, रिलीफ कमिश्नर, चीफ इंजीनियर सहित राज्य के सभी आला अफसर मौजूद थे। उन्होंने एक बार फिर सब को याद दिलाया कि सारी समस्या जल-निकासी के मार्ग में आई बाधाओं की है, बाढ़ की नहीं और इसका समाधान नदी पर बड़े बांध बना कर तथा इसकी धाराओं की उगाढ़ी कर उनकी पानी बहाने की क्षमता बढ़ाने में है।

इस समय बिहार के प्रशासनिक और राजनैतिक तंत्र में इस तरह के विचारों का कोई खरीदार नहीं बचा था।

इसके अलावा करीब 300 गाँव कोसी तटबन्धों के बीच फंसने जा रहे थे जिनके बारे में सरकार की ओर से न तो कोई साफ नीति बनी थी और न ही कोई स्पष्ट आश्वासन लोगों को मिला था कि उनकी समस्याओं का निदान होगा। ऐसे लोग स्वाभाविक रूप से तटबन्धों का विरोध कर कहे थे। कोसी की वह सारी त्रासदी जो कि छिट -पुट तौर पर पूरे इलाके पर फैली थी वह अब कैपसूल की शक्ल में इन्हीं लोगों के हिस्से में पड़ने जा रही थी। कोसी तटबंध जहाँ कुछ गाँवों को बाढ़ से सुरक्षा देने जा रहे थे वहीं इन गाँवों में हमेशा-हमेशा के लिए बाढ़ की गारन्टी दे रहे थे। मगर राजनीतिज्ञों ने इसका हल भी दूंढ़ लिया।

पटना सचिवालय के सभा भवन में 2 दिसम्बर 1954 को भारत सेवक समाज के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुये ललित नारायण मिश्र ने बताया कि हाल ही में पूना प्रयोगशाला में किये गये मॉडेल परीक्षणों से पता लगता है कि तटबन्धों के बीच फँसने वाले गाँवों में 25,510 क्यूमेक (9 लाख क्यूसेक) प्रवाह पर बाढ़ के लेवल में मात्रा 10 सेन्टीमीटर (चार इंच) की ही अतिरिक्त बढ़ोतरी होगी। इस साल बरसात में कोसी में केवल 21,260 क्यूमेक (7.5 लाख क्यूसेक) पानी आया था इसलिए पुनर्वास की समस्या उतनी गंभीर नहीं है। इस सभा में गुलजारी लाल नन्दा, तत्कालीन केन्द्रीय योजना मंत्री भी मौजूद थे।

मिश्र के इस कथन का समर्थन 1956 में पूना प्रयोगशाला ने अपने परीक्षण के परिणामों से कर दिया और कहा कि, “यह पाया गया कि तटबन्धों के निर्माण की वजह से इन गाँवों में पानी के लेवल में व्यावहारिक रूप से कोई वृद्धि नहीं होगी।” प्रयोगशाला का यह शोध बाद में तटबंध पीड़ितों के साथ एक बड़ा ही भद्दा मजाक साबित हुआ। अगर ललित नारायण मिश्र और पूना प्रयोगशाला के बयानों तथा तटबंध पीड़ितों के बयानों को साथ-साथ रखा जाय तो किस पर यकीन किया जाय, यह फैसला करना मुश्किल होगा। शक इस बात पर है कि किस ने किस को प्रभावित किया। कोसी पर तटबन्धों का निर्माण करने के लिए आतुर नेताओं ने पूना प्रयोगशाला को प्रभावित किया या पूना प्रयोगशाला ने इन नेताओं को सूचना दी ? मिश्र का बयान 1954 में दिया गया था जबकि पूना प्रयोगशाला की रिपोर्ट 1956 की है। बहुत मुमकिन है कि राजनैतिक दबाव के कारण पूना प्रयोगशाला की रिपोर्ट में हेरा-फेरी हुई हो। मिश्र के आश्वासन को जबर्दस्त पब्लिसिटी मिली और उनके इस बयान का खोखलापन उनके प्रभाव के सामने टिक नहीं पाया।

कोसी परियोजना का शिलान्यास


कोसी परियोजना का शिलान्यास 14 जनवरी 1955 को ‘आधी रोटी खायेंगे-कोसी बांध बनायेंगे, और ‘जन-सहयोग-सफल होगा’, जैसे नारों के बीच बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने निर्मली (जि. सुपौल) के पास भुतहा गाँव में पश्चिमी कोसी तटबंध के एलाइनमेंट पर मिट्टी डाल कर किया। पूर्वी तटबंध का शिलान्यास 22 मार्च 1955 को सुपौल के पास बैरिया गाँव में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने किया। जब यह काम शुरू हुआ तो स्थानीय जनता दो खेमों में बंटी हुई थी। एक ओर वह लोग थे जिनको भविष्य में बाढ़ से सुरक्षा मिलने की उम्मीद थी। वह लोग जश्न मना रहे थे और सरकार की जय-जयकार कर रहे थे। दूसरी ओर तटबन्धों के बीच फंसने वाले 304 गाँवों के 1,92,000 लोग थे और उनमें, स्वाभाविक है, योजना के प्रति आक्रोश था। यह लोग परमेश्वर कुंअर, कौशलेन्द्र नारायण सिंह, जयदेव सलहैता और बहादुर खान शर्मा आदि के नेतृत्व में योजना का विरोध कर रहे थे।

प्रथम पंचवर्षीय योजना का बाढ़ नियंत्रण प्रस्ताव


जहाँ कोसी पर एक ओर बराहक्षेत्र, बेलका बाँध की बातें और फिर अंततः उसे तटबंध में गिरफ्तार करने का उपक्रम चल रहा था वहीं राष्ट्रीय स्तर पर बहुउद्देशीय प्रकल्पों का सपना देखा जा रहा था। इस बात की अभिव्यक्ति पहली पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में देखने को मिलती है। इस दस्तावेज में बाढ़ नियंत्रण के लिए सिजदा बड़े बाँधों को ही किया गया था।

इस दस्तावेज में बाढ़ों का मुकाबला करने पर यद्यपि कोई खास बयान नहीं दिया गया था पर जो कुछ कहा गया था उससे आने वाली घटनाओं का अन्दाजा लगता है। योजना प्रस्ताव कहता है, “...हर साल बाढ़ों की वजह से देश के विभिन्न भागों में काफी नुकसान होता है। अभी हाल तक इस तरह से होने वाले नुकसानों के कोई खास सांख्यिकी रिकॉर्ड नहीं रखे जाते थे। जब कभी बड़ी नदियों में बाढ़ आती थी, जाँच समितियाँ बैठा दी जाती थीं और कुछ मामलों में वाजिब बाढ़ नियंत्रण के कार्यक्रम हाथ में ले लिये जाते थे। असम, बिहार, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में बड़े पैमाने पर तटबंध बने हुये हैं। आजकल बाढ़ नियंत्रण की समस्या को हमेशा बाढ़ नियंत्रण परियोजनाओं के निर्माण के साथ देखा जाता है। बड़े बाँधों के निर्माण से बाढ़ के पानी का संचयन करना बाढ़ से बचाव का सबसे प्रभावकारी तरीका है।”

कहना न होगा कि इस समय तक दामोदर घाटी निगम, भाखड़ा, हीराकुंड, नागार्जुन सागर आदि बड़े बाँधों के काम में हाथ लग चुका था पर कोसी पर बनने वाला बराहक्षेत्र बाँध सत्ता की नजरों में चढ़ कर गिर गया। उधर दामोदर घाटी निगम के बाँधों के निर्माण से बिहार की जमीन डूबी, बिहार के गाँव उजड़े, लोग विस्थापित हुये, ऊपर से बिहार ने निर्माण कार्यों के लिए अनुदान भी दिया और बदले में उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। कोसी के बारे में कितने बड़े-बड़े ख्वाब दिखाये गये और अन्ततः बात तटबन्धों के झुनझुने पर अटकी जिसमें कँवर सेन, एम पी. मथरानी, वेंकटा कृष्ण अय्यर तथा एन. के. बोस जैसे दिग्गज इंजीनियरों ने पासा तटबन्धों के हक में पलट दिया और जो कुछ रही सही कसर थी वह कँवर सेन और डॉ. के. एल. राव ने चीन यात्रा से वापस आकर अपनी सिफारिशें देकर पूरी कर दी। आजादी के तुरन्त बाद के समय में बाढ़ नियंत्रण के लिए जल्दी थी और जल्दी में तटबन्धों के अलावा कुछ बनाया नहीं जा सकता था। बस अपने बचाव का एक रास्ता सारे विशेषज्ञों ने छोड़ रखा था जबकि यह कहा गया कि बाढ़ का असली समाधान तो बड़े बाँधों में है और जब तक यह नहीं बनते हैं तब तक तटबन्धों से काम चले।

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Post By: tridmin
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