2 मार्च 1956 को पटना में कोसी कन्ट्रोल बोर्ड की एक बैठक हुई और ऐसी खबर थी कि इस मीटिंग में केन्द्रीय जल एवं विद्युत आयोग के अधिकारियों ने तटबन्ध पीड़ितों को दिये जाने वाले मुआवजे का विरोध किया था। मगर तत्कालीन सिंचाई मंत्री राम चरित्तर सिंह तथा कोसी प्रोजेक्ट के प्रशासक त्रिवेणी प्रसाद सिंह ने इन अधिकारियों से मुआवजे की बात मनवा ली जिसका बाद में मुख्यमंत्री ने भी अनुमोदन कर दिया। 1934 के बिहार भूकम्प के बाद उत्तर बिहार की टोपोग्राफी में बहुत से परिवर्तन आये जिससे बाढ़ों का स्वरूप भी बदला। हमने अध्याय-2 में देखा है कि बाढ़ों के निराकरण के लिए किस तरह बराहक्षेत्र बांध की बात उठी और किस तरह से सारा समाधान आखिरकार तटबन्धों पर जाकर अटक गया। सबसे अहम बात यह है कि तत्कालीन नेतागण लोगों को यह समझा पाने में कामयाब हो गये कि तटबन्धों का उनके बीच रहने वाली आबादी पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा। पूना की प्रयोगशाला ने जनता को गुमराह करने के इस काम में नेताओं की बड़ी मदद की थी।
शुरू-शुरू में तो कोसी परियोजना में दीर्घकालिक पुनर्वास कोई मुद्दा ही नहीं था। इसके बाद परियोजना पर काम शुरू होने के बाद इक्का-दुक्का आवाजें सुनाई पड़ती थीं मगर उन सब का निचोड़ यही था कि तटबन्धों के अन्दर फंसने वालों को ‘बाह बहादुर! शाबास, बहादुर! लगै-बहादुर!’ की तर्ज पर अपनी जमीन-जायदाद को समाज और देश के व्यापक हितों के नाम पर न्यौछावर करने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। कोसी क्षेत्र के बाढ़ पीड़ितों को यह बार-बार बताने की कोशिश की गई कि यह योजना कोसी नदी की भयंकर बाढ़ से जन-साधारण के बचाव की योजना है तथा यह योजना कोसी के अभिशाप को वरदान में बदलने की योजना है या फिर यह एक बड़े खर्चे पर बनाई जाने वाली महान योजना है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समाज के व्यापक हित में कुछ लोगों को गाँव और घर छोड़ने पड़ सकते हैं और उनके लिए यह बेहतर होगा कि वह लोग यह काम खुशी-खुशी करें। कोसी प्रोजेक्ट के प्रशासक टी. पी. सिंह का कहना था कि, “...जितनी जल्दी मुमकिन हो सकेगा, तटबन्धों के बीच फंसने वाले लोगों को उनकी जमीन का मुआवजा मिल जायेगा और इसके लिए उन्हें भटकना नहीं पड़ेगा। न तो तटबन्ध किसी गाँव के बीच से होकर गुजारा जायेगा कि उसके दो फाँक हो जायें और न ही तटबन्धों की वजह से कोई घर उजड़ेगा। अगर कोई घर कहीं उजड़ता भी है तो इस समस्या का तुरन्त सामाधान किया जायेगा और कर्मचारियों की भी कमी आड़े नहीं आयेगी।” उधर कोसी प्रोजेक्ट के जन-संपर्क अधिकारी, मही नारायण झा का कहना था कि, “...यद्यपि तटबन्धों के बीच रहने वाले लोगों के बारे में अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया गया है मगर पूना प्रयोगशाला में किये गये परीक्षणों के उत्साहजनक परिणाम मिले हैं और ऐसा लगता है कि उन लोगों कोई विशेष कठिनाई नहीं होगी।”
कोसी परियोजना में तटबन्धों के बीच फंसने वाले लोगों के मुआवजे, पुनर्वास और योग्य-क्षेम का प्रश्न लम्बे समय तक अनुत्तरित रहा। तटबन्धों पर काम शुरू होने के बावजूद किसी को भी यह पता नहीं था कि इन तटबन्ध पीड़ितों का भविष्य क्या है?
2 मार्च 1956 को पटना में कोसी कन्ट्रोल बोर्ड की एक बैठक हुई और ऐसी खबर थी कि इस मीटिंग में केन्द्रीय जल एवं विद्युत आयोग के अधिकारियों ने तटबन्ध पीड़ितों को दिये जाने वाले मुआवजे का विरोध किया था। मगर तत्कालीन सिंचाई मंत्री राम चरित्तर सिंह तथा कोसी प्रोजेक्ट के प्रशासक त्रिवेणी प्रसाद सिंह ने इन अधिकारियों से मुआवजे की बात मनवा ली जिसका बाद में मुख्यमंत्री ने भी अनुमोदन कर दिया। उधर केन्द्रीय जल और विद्युत आयोग के अध्यक्ष का मानना था कि अगर एक परियोजना में मुआवजे का भुगतान कर दिया गया तो इससे एक गलत परम्परा की शुरुआत होगी और भविष्य में बनने वाली सारी परियोजनाओं में मुआवजे का भुगतान करना पड़ेगा।
शुरू-शुरू में तो कोसी परियोजना में दीर्घकालिक पुनर्वास कोई मुद्दा ही नहीं था। इसके बाद परियोजना पर काम शुरू होने के बाद इक्का-दुक्का आवाजें सुनाई पड़ती थीं मगर उन सब का निचोड़ यही था कि तटबन्धों के अन्दर फंसने वालों को ‘बाह बहादुर! शाबास, बहादुर! लगै-बहादुर!’ की तर्ज पर अपनी जमीन-जायदाद को समाज और देश के व्यापक हितों के नाम पर न्यौछावर करने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। कोसी क्षेत्र के बाढ़ पीड़ितों को यह बार-बार बताने की कोशिश की गई कि यह योजना कोसी नदी की भयंकर बाढ़ से जन-साधारण के बचाव की योजना है तथा यह योजना कोसी के अभिशाप को वरदान में बदलने की योजना है या फिर यह एक बड़े खर्चे पर बनाई जाने वाली महान योजना है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समाज के व्यापक हित में कुछ लोगों को गाँव और घर छोड़ने पड़ सकते हैं और उनके लिए यह बेहतर होगा कि वह लोग यह काम खुशी-खुशी करें। कोसी प्रोजेक्ट के प्रशासक टी. पी. सिंह का कहना था कि, “...जितनी जल्दी मुमकिन हो सकेगा, तटबन्धों के बीच फंसने वाले लोगों को उनकी जमीन का मुआवजा मिल जायेगा और इसके लिए उन्हें भटकना नहीं पड़ेगा। न तो तटबन्ध किसी गाँव के बीच से होकर गुजारा जायेगा कि उसके दो फाँक हो जायें और न ही तटबन्धों की वजह से कोई घर उजड़ेगा। अगर कोई घर कहीं उजड़ता भी है तो इस समस्या का तुरन्त सामाधान किया जायेगा और कर्मचारियों की भी कमी आड़े नहीं आयेगी।” उधर कोसी प्रोजेक्ट के जन-संपर्क अधिकारी, मही नारायण झा का कहना था कि, “...यद्यपि तटबन्धों के बीच रहने वाले लोगों के बारे में अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया गया है मगर पूना प्रयोगशाला में किये गये परीक्षणों के उत्साहजनक परिणाम मिले हैं और ऐसा लगता है कि उन लोगों कोई विशेष कठिनाई नहीं होगी।”
कोसी परियोजना में तटबन्धों के बीच फंसने वाले लोगों के मुआवजे, पुनर्वास और योग्य-क्षेम का प्रश्न लम्बे समय तक अनुत्तरित रहा। तटबन्धों पर काम शुरू होने के बावजूद किसी को भी यह पता नहीं था कि इन तटबन्ध पीड़ितों का भविष्य क्या है?
2 मार्च 1956 को पटना में कोसी कन्ट्रोल बोर्ड की एक बैठक हुई और ऐसी खबर थी कि इस मीटिंग में केन्द्रीय जल एवं विद्युत आयोग के अधिकारियों ने तटबन्ध पीड़ितों को दिये जाने वाले मुआवजे का विरोध किया था। मगर तत्कालीन सिंचाई मंत्री राम चरित्तर सिंह तथा कोसी प्रोजेक्ट के प्रशासक त्रिवेणी प्रसाद सिंह ने इन अधिकारियों से मुआवजे की बात मनवा ली जिसका बाद में मुख्यमंत्री ने भी अनुमोदन कर दिया। उधर केन्द्रीय जल और विद्युत आयोग के अध्यक्ष का मानना था कि अगर एक परियोजना में मुआवजे का भुगतान कर दिया गया तो इससे एक गलत परम्परा की शुरुआत होगी और भविष्य में बनने वाली सारी परियोजनाओं में मुआवजे का भुगतान करना पड़ेगा।
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