कोसी परियोजना- ऐतिहासिक सिंहावलोकन

कोसी नदी बेसिन मानव अधिवास के लिये प्राचीन काल से ही उपयुक्त जगह है। 12-13वीं शताब्दी में पश्चिम भारत की कई नदियों के सूख जाने के कारण वहां के पशुचारक समाज के लोग कोसी नदीबेसिन में आकर बस गये। कोसी नदी घाटी में बढ़ती जनसंख्या और कोसी नदी के बदलते प्रवाह मार्ग के बीच टकराहट होने लगी। नदी की अनियंत्रित धारा को लोग बाढ़ समझने लगे। बाढ़ नियंत्रण के लिये तात्कालीन शासकों ने कदम उठाये।1 सबसे पहले 12वीं शताब्दी में लक्ष्मण द्वितीय ने कोसी नदी के पूर्वी किनारे तटबंध बनाया।

लक्ष्मण सेन द्वितीय बंगाल के सेन वंश के शासक थे, जिसका शासन काल 1178-1205 ई. माना जाता है। इस बांध का अवशेष अभी भी सुपौल जिले में भीमनगर से 5 किलोमीटर पश्चिमदिखाई पड़ता है।3 डा. फ्रंसिस बुकानन (1810-11द्) का अनुमान था कि यह तटबंध किसी किले की सुरक्षा के लिये बना होगा। लेकिन डा. डब्लू. डब्लू. हंटर (1877) बुकानन के तर्क से सहमत नहीं थे। उनके अनुसार `यह कोसी नदी के किनारे बना कोई तटबंध रहा होगा जिससे नदी की धारा को पश्चिम की ओर खिसकने से रोका जा सके। लेकिन तटबंध की स्थिति को लेकर डा. ओमप्रकाश भारती नेलिखा है- ``स्थानीय मौखिक साक्ष्य और कतिपय स्रोतों के अनुसार यह तटबंध् मिथिला के शासक हरिसिंह देव के आदेश पर उसके मंत्री वीरेश्वर ने मिथिला राज्य की भूमि को कोसी के उत्पात से बचाने के लिए बँधवाया था।´´ इसलिए इस बाँध् का नाम वीरबाँध् पड़ा। सुपौल ज़िला का महत्त्वपूर्ण शहर वीरपुर वीरेश्वर के द्वारा ही बसाया गया था। हरिसिंहदेव के राज्य की पूर्वी सीमा कोसी नदी थी, जिसके पूर्व में गौर के शासक नासीरूद्दीन बुगरा का शासन था। अब तर्क यह बनता है कि यदि वीरबाँध गौड़ के शासकों में से कोई बँधवाता तो यह तटबंध् कोसी नदी के पूर्वी किनारे पर बना होता, जबकि तमाम साक्ष्यों से यह प्रमाणित होता है कि वीरबाँध् कोसी के तत्कालीन प्रवाह के पश्चिमी किनारे पर बना था। अत: इसका संबंध् मिथिला के शासकों से ही था।

मौखिक इतिहास में लक्ष्मण सेन के इस तटबंध को वीरबांध कहा जाता है तथा इसको लेकर लोककथाएं भी प्रचलित हैं। उत्तर बिहार में लक्ष्मण सेन के बाद 1756 में गंडक नदी के किनारे तटबंधों का निर्माण हुआ। यह तटबंध सूबेदार मोहम्द कासिम खां के नायब धौसी राम ने बनवाया था। उत्तर बिहार का सबसे प्रमाणिक और वैज्ञानिक मानचित्र सबसे पहले मेजर जेम्स रेनेल (1778) ने बनाया। रेनेल ने सिर्फ मानचित्र हीं नहीं बनाया बल्कि उत्तर बिहार की नदियां और उससे उत्पन्न बाढ़ की समस्याओं पर भी प्रकाश डाला। लेकिन अंग्रेजी सरकार के द्वारा कराये गये सर्वे का उदेश्य बाढ़ का निवारण नहीं बल्कि व्यापार और व्यापार के लिये जल परिवहन की खोज करना था।

1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने माना कि यदि भारत पर शासन कायम रखना है तो प्रशासनिक सुधार के साथ परिवहन को ठीक करना होगा। इसी नीति के तहत अंग्रेजों ने कोसी नदी पर तटबंधों की योजना बनायी। उड़ीसा में बनी तटबंध समितियां और बंगाल में रेल सेवा (15 अगस्त 1854) के विस्तार ने इस योजना को और अधिक विस्तार दिया।

अंग्रेजी सरकार चाहकर भी कोसी समस्या का समाधान नहीं ढूंढ़ पा रही थी। इसका एक प्रत्यक्ष कारण था कोसी के प्रवाह क्षेत्र का चालीस किलोमीटर नेपाल सीमा के अन्दर होना। अंग्रेज और नेपाल के राजा के बीच के संबंध अच्छे नहीं थे। वर्ष 1816 में सुगौली की संधि हुई। इस संधि के बाद अंग्रेजी सरकार को बराह क्षेत्र में कोसी नदी के लिये काम सहज हो गया था। कोसी की बाढ़ समस्याओं के निवारण हेतु 1897 में कोलकता में बाढ़ सम्मेलन हुआ।

कोलकाता बाढ़ सम्मेलन (1897)


24 फरवरी 1897 को कोलकाता में भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक हुई, जिसमें कोसी घाटी में बाढ़ से हुई नुकसान की समीक्षा की गई। साथ ही स्थानीय अधिकारियों, नील उत्पादकों और रेलवे प्रशासन द्वारा किये गये अध्ययन और सर्वेक्षण पर चर्चा की गई। `प्रस्तावित परियोजना की सपफलता पर संदेह व्यक्त किया गया और अधिक खर्चीला भी कहा गया। विशेषज्ञों का निर्णय यह था कि कोसी नदी पर छोटे-छोटे टुकडों में तटबन्ध बनाकर गांव और खेतों की बाढ़ से रक्षा की जा सकती है।

पटना बाढ़ सम्मेलन


कलकता बाढ़ सम्मेलन के बाद 1937 में पटना में बाढ़ सम्मेलन बुलाया गया इस सम्मेलन का उद्घाटन बिहार के तत्कालीन गवर्नर हैलेट ने किया। डा. राजेन्द्र प्रसाद इस सम्मेलन में नहीं आ पाये थे, केवल उनका संदेश पढ़ा गया। इस सम्मेलन में कलकता बाढ़ सम्मेलन की समीक्षा की गई तथा कोसी की बाढ़ से निपटने के लिये कार्यवृत तैयार किया गया। हालांकि इस सम्मेलन में कोई ठोस नतीजे पर नहीं पहुँचा जा सका। बिहार के तत्कालीन चीफ इंजीनियर केप्टन हॉल बड़े बांध के खिलाफ थे। उनका कहना था कि- बांध पानी के प्रवाह में बाधा डालते हैं और बाढ़ों की तीव्रता को घटाने के बजाय बढ़ाते हैं।´
जबकि तात्कालीन लोकनिर्माण और सिंचाई सचिव जीमूत बाहन सेन नेपाल के बराहक्षेत्र में हाई डेम बनाने का प्रस्ताव किया था। 1941 का कोसी योजना प्रस्ताव 1941 में सर क्लॉड इंगलिस, जो कि उस समय सेंट्रल इरिगेशन एण्ड हाइड्रोडायनिमिक रिसर्च सेंटर, पूनाके निदेशक थे, इस बात पर जोर दिया कि तिलयुगा और बलान के पश्चिमी छोर पर तटबंध की जरूरत पड़ सकती है। जो नदी को पश्चिम की ओर बढ़ने से रोक सके। उनका मानना था कि जंगलों केअत्यधिक कटाव और भूस्खलन के कारण इन दोनों नदियों के निचले क्षेत्रा में बालू और मिट्टी भर जाने से नदी का कटाव क्षेत्र पश्चिम की ओर बढ़ेगा। अत: पश्चिमी भाग पर तटबंध बनाया जाय। द्वितीयविश्व युद्ध के कारण यह परियोजना भी टल गया।

घोष रिर्पोट


1942 में बिहार सरकार ने पी. सी. घोष (अवकाश प्राप्त एक्जीक्यूटिव इंजीनियर) की मदद से उत्तर बिहार की बाढ़ समस्या का अध्ययन करवाया। घोष ने अपने वर्षो के अनुभव और छानबीन के बाद एक रिर्पोट दिया, जिसमें उन्होंने पानी को ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रा पर फैलाने के सिद्धांत का समर्थन किया। एक तरह से कहा जाय तो घोष ने भी हॉल की कही हुई बातों का समर्थन किया। घोष ने तो तात्कालीन सुपरिटेंडिंग इंजीनियर-उत्तर बिहार, डब्लू. एल. मरेल के एक पत्र का हवाला दिया जिसमें मरेल ने डिप्टी चीफ इंजीनियर, सिंचाई पटना को लिखा था- अगर बड़े पैमाने पर लोगों को डूबने से बचाना है तो तटबंधों की मरम्मत को रोकना होगा। मरेल ने तो यहां तक लिखा है कि ``तटबंधों की मरम्मत को तो गैर-कानूनी घोषित कर दिया जाय। यदि कोई बांध मरम्मत करने की कोशिश करता है तो वहां सशस्त्र पुलिस भेजकर रोका जाय।´´

इस रिर्पोट में भी कोसी की सहायक धाराओं पर नेपाल में बांध बनाने की बात कही गई। गाद को रोकने के लिये अधिक से अिधक क्षेत्रा में जंगल लगाने की बात कही गई।

युद्धोपरांत प्रस्तावित कोसी योजना


द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बिहार विकास (1945) योजना में दस करोड़ की लागत से कोसी पर नेपाल से लेकर गंगा के संगम तक तटबंध बनाने का प्रस्ताव था। केन्द्र सरकार ने इस योजना को बेकारबताया और 1937 के जीमूतवाहन सेन के प्रस्ताव की ही सिफारिश की। 1946 में भारत के तात्कालीन वायसराय लार्ड वैवेल ने कोसी क्षेत्र का दौरा किया। इस यात्रा के बाद 1946 में केन्द्रीय जल, सिंचाई और नौ-परिवहन आयोग के अध्यक्ष अयोध्या नाथ खोसला को एक प्राथमिक रिर्पोट देने को कहा। यह रिर्पोट 1947 में सार्वजनिक किया गया।

निर्मली सम्मेलन


6 अप्रैल 1947 को निर्मली में कोसी पीड़ितों का एक महा-सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में डा. राजेन्द्र प्रसाद, सी. एच. भाभा, श्री कृष्ण सिंह, राजेन्द्र मिश्र, हरिनाथ मिश्र, अनुग्रह ना. सिंह, विनोदानन्द भफा,बैद्यनाथ चौधरी आदि उपस्थित थे। इस सम्मेलन में पहली बार सी. एच. भाभा (केन्द्र में अंतरिम सरकार में निर्माण, खनन और उर्जा के सदस्य थे) कोसी योजना का नया प्रारूप जनता के सामने रखा। इस योजना में चतरा घाटी में बराह क्षेत्र के पास 229 मीटर ऊंचा कंक्रीट का बांध बनाया जाना, 1200 मेगावट क्षमता का पन-बिजली घर और 12.15 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई का प्रावधन था। साथ ही चतरा के नीचे दोनों देश के सीमा पर एक-एक बराज का प्रस्ताव था। योजना 100 करोड़ की लागतसे 10 वर्षों में पूरा होने की बात थी।

1950 तक इस प्रस्ताव पर कोई काम नहीं हुआ। 5 जून 1951 को सरकार द्वारा एस.सीमजूमदार के नेतृत्व में 4 सदस्य एक समिति गठित कर दिया। मजूमदार के अलावा इस समिति के सदस्यथे- एम.पी. मथानी, एन. पी. गुर्जर, और जी. सुन्दर। इस समिति से बराहक्षेत्र परियोजना पर एक रिर्पोट देने को कहा। यह समिति भी बराहक्षेत्र परियोजना पर मिली-जुली प्रतिक्रिया दी और एक नई योजना की सिफारिश कर दी, जो बेल्का जलाशय परियोजना के नाम से जाना गया। इस परियोजन में चतरा से 14.4 कि.मी. नीचे बेलका पहाड़ियों पर कंक्रीट की बांध बनाने की बात कही गई। यह सिफारिश भी अन्य सिफारिशों की तरह सिफारिश ही बन कर रह गया। 31 अक्टूबर और 1नवम्बर 1953 को पं. नेहरू ने एक बार फिर उत्तर बिहार का दौरा किया। नेहरू जी के इस दौरे के बाद पुन: भारत सरकार ने एक समिति गठित कर दी। इस समिति के सदस्य थे - वेंकटा कृष्ण अय्यर, कुँवर सेन, एम.पी. मथरानी, एन.केबोस।

इन चार सदस्य समिति से भी तात्कालीन कोसी परियोजना के स्वरूप पर राय मांगी। 13 दिसम्बर 1953 को समिति ने अपना प्रतिवेदन सरकार को दिया। जिसके आधार पर वर्त्तमान कोसी परियोजना का निर्माण हुआ।

(लेखक इतिहास के अध्येता है)

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