कोसी पीड़ितों का निर्मली सम्मेलन तथा बराहक्षेत्र बांध

तकनीकी जानकारी के अभाव में केवल कोसी ही नहीं परन्तु उस जैसी अनेक चंचल नदियों के नियंत्रण की हमारी पहले की सारी कोशिश नाकाम रही है। इसकी जड़ में नदियों के नियंत्रण की आधुनिक तकनीक के व्यावसायिक ज्ञान की कमी ही थी। सौभाग्यवश हमारे तकनीकी विशेषज्ञ बड़ी फुर्ती से इस नए ज्ञान को सीख कर रहे हैं और हम सब को इस नई नीति के प्रभावों को समझना होगा जिसके पालन से हजारों लाखों देशवासियों तथा उनकी संपत्ति को सुरक्षा प्रदान की जा सकेगी।

6 अप्रैल 1947 को निर्मली में ही कोसी पीड़ितों का एक महा-सम्मेलन हुआ था जिसमें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सी.एच. भाभा’, डॉ.श्री कृष्ण सिंह, राजेन्द्र मिश्र, हरिनाथ मिश्र, अनुग्रह नारायण सिंह, बिनोदानन्द झा, बैद्यनाथ चौधरी, धनराज शर्मा, बनारसी प्रसाद झुनझुनवाला और जमुना कार्यी आदि महानुभाव उपस्थित थे। इस अवसर पर पहली बार सार्वजनिक रूप से सी. एच. भाभा, ने जो उस समय केन्द्र में अंतरिम सरकार में निर्माण, खनन और ऊर्जा के सदस्य थे, कोसी योजना का नया प्रारूप जनता के सामने रखा था। भाभा के अनुसार इस योजना में चतरा घाटी में बराहक्षेत्र के पास 229 मीटर ऊँचा कंक्रीट बनाया जाना था। यहाँ 1200 मेगावाट क्षमता का एक पन-बिजली घर बनाये जाने का प्रस्ताव था तथा नेपाल व बिहार मिला कर 12.15 लाख हेक्टेयर जमीन में सिंचाई का प्रावधान भी इस योजना का अंग था। सिंचाई के लिए चतरा के ठीक नीचे तथा भारत-नेपाल सीमा पर कोसी पर एक-एक बराज का प्रस्ताव था। 100 करोड़ रुपए की लागत से बनने वाली यह योजना 10 वर्षों में पूरी होती।

अपने भाषण में भाभा ने कहा कि, ‘‘आपको यह याद रखना चाहिये कि नदी नियंत्रण तथा जलमार्ग सुधार का आधुनिक तरीका एकदम ही नया है। यह तरीका नई जल नियंत्रण तकनीक पर आधारित है जिसका विकास पश्चिम के विकसित देशों में भी पिछले 25 वर्षों में ही हुआ है। अपने देश में हमारे नदी विशेषज्ञों और जल वैज्ञानिकों ने भी पिछले पांच वर्षों में ही इसे स्वीकारा है। तब तक हमारे विशेषज्ञ भी कोसी नदी की ही भांति दो अलग-अलग विचारधाराओं के बीच झूल रहे थे। इसमें से कुछ लोग तटबंध या रिंग बांध इत्यादि के हामी थे तो दूसरे लोग बाढ़ संबंधी सारी बुराइयों की जड़ तटबंधों में ही देखते थे और यह लोग सुनियोजित रूप से सारे तटबंधों का सफाया करना चाहते थे। आप लोगों में से जो लोग 1937 के बाढ़ सम्मेलन में मौजूद थे उनको याद होगा कि उस सम्मेलन में सारी बहस तटबंध के इर्द-गिर्द घूमती रही।”

1945 की युद्धोपरान्त योजना के प्रस्ताव जिसमें नेपाल तराई से गंगा तक कोसी नदी के दोनों किनारों पर तटबंध बनाने का प्रस्ताव था उसके बारे में उन्होंने आगे कहा कि ‘‘इस योजना (1945 का प्रस्ताव) को हमारे विभाग में राय जानने के लिए भेजा गया था। सौभाग्यवश इस समय हम दामोदर घाटी योजना के लिए बहुउद्देशीय जलाशयों पर काम कर रहे थे और मेरे विभाग ने बिहार के विशेषज्ञों द्वारा बनाई गई योजना की खामियों को तुरन्त पकड़ लिया और इसे केन्द्रीय जल, सिंचाई और नौ-परिवहन आयोग के नवगठित जल योजना संस्थान के पास उनकी राय जानने के लिए भेज दिया। आयोग ने हमारे प्रशासकों के विचारों का ही अनुमोदन किया और दामोदर नदी योजना की तर्ज पर ही एक बहुउद्देशीय योजना की पुरजोर सिफारिश की है। महानुभाव! यही इस कोसी योजना तथा इसमें केन्द्र सरकार की रुचि का आद्योपान्त इतिहास है। मैंने कुछ शब्दों में कोसी योजना के इतिहास को बताना आवश्यक समझा है क्योंकि इससे मैं अपने तर्क को स्पष्ट कर सका हूं कि किस प्रकार सही तकनीकी जानकारी के अभाव में केवल कोसी ही नहीं परन्तु उस जैसी अनेक चंचल नदियों के नियंत्रण की हमारी पहले की सारी कोशिश नाकाम रही है। इसकी जड़ में नदियों के नियंत्रण की आधुनिक तकनीक के व्यावसायिक ज्ञान की कमी ही थी। सौभाग्यवश हमारे तकनीकी विशेषज्ञ बड़ी फुर्ती से इस नए ज्ञान को सीख कर रहे हैं और हम सब को इस नई नीति के प्रभावों को समझना होगा जिसके पालन से हजारों लाखों देशवासियों तथा उनकी संपत्ति को सुरक्षा प्रदान की जा सकेगी।’’

भाभा के बाद 60,000 उपस्थित लोगों के सामने भाषण करते हुये डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने आशा व्यक्त की कि योजना का कार्य निर्धारित समय में पूरा कर लिया जायेगा तथा ईश्वर ने चाहा तो वे स्वयं अपने जीवन काल में कोसी नदी को नियंत्रित देख पायेंगे और उसके पानी से उजड़ी हुई जमीन एक बार फिर लहलहाते खेतों में बदलेगी।

इसी क्रम में डॉ. सैवेज ने 7 अप्रैल 1947 को बराहक्षेत्र में संवाददाताओं से बातचीत करते हुये कहा था कि डिजाइन के दृष्टिकोण से बराहक्षेत्र का ऊँचा कंक्रीट का बांध किसी भी प्रकार के भूकम्प के झटके बर्दाश्त करने के लिए सक्षम होगा तथा बड़ी बाढ़ों का पानी भी सुरक्षापूर्वक इसके स्पिलवे पर से गुजारा जा सकेगा। तटबंधों द्वारा बाढ़ नियंत्रण को एक बेकार कोशिश कहते हुये उन्होंने बताया कि ह्नांगहो नदी के तल की सतह अब आस-पास की जमीन से लगभग 6.1 मीटर ऊपर उठ चुकी है और ऐसी हालत में नदी का अस्थिर हो जाना स्वाभाविक है और तटबंधों के बाहर बसे हुये लोगों पर खतरे की तलवार हमेशा झूलती रहेगी।

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Post By: tridmin
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