दरअसल यह तो करीब-करीब शुरू से ही तय था कि सरकार घर के बदले घर तो दे सकती है मगर जमीन के बदले जमीन इस इलाके में ज्यादा परिमाण में कभी भी नहीं दी जा सकती। यह बात कभी भी लिखित रूप से नहीं कही गई कि सरकार जमीन के बदले जमीन देगी और न कभी यह लिखित रूप में कहा गया कि परिवार पीछे एक आदमी को सरकार नौकरी देगी यद्यपि इलाके का हर बुजुर्गवार आदमी इस बात को बड़े यकीन के साथ कहता है कि उससे किसी न किसी नेता या अफसर ने यह जरूर कहा था कि इन वायदों पर अमल होगा। पुनर्वास की नौटंकी के बाद अब जो होने वाला था वह तो जाहिर था। बहुत से लोग मन मार कर चुपचाप कोसी तटबन्धों के बीच ही रह गये मगर पुनर्वास का भूत रह-रह कर नेताओं और अधिकारियों को डराता रहता था। कोसी प्रोजेक्ट के प्रशासक टी. पी. सिंह ने कोसी समिति द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में 15 दिसम्बर 1954 को पटना में कहा था कि सरकार उन लोगों की समस्या के प्रति पूरी तरह से जागरूक है जो कि कोसी तटबन्धों के बीच में फंसने वाले हैं या जिन्हें बाढ़ से होने वाली तबाही झेलनी पड़ती है। सरकार न तो मुआवजे की मांग को हल्का कर के देखती है और न ही लोगों के प्रति अपनी जिम्मेवारी से पीछे हटेगी। कुछ इसी तरह का बयान 8 नवम्बर 1986 को तत्कालीन मुख्यमंत्री बिन्देश्वरी दूबे ने घोघरडीहा में दिया था। पिछले 32 वर्षों में आने वाली सरकारों ने कोसी प्रोजेक्ट में पुनर्वास समस्या को कितनी गंभीरता से लिया उसका अन्दाजा इन दो बयानों से लग जाता है।
दरअसल यह तो करीब-करीब शुरू से ही तय था कि सरकार घर के बदले घर तो दे सकती है मगर जमीन के बदले जमीन इस इलाके में ज्यादा परिमाण में कभी भी नहीं दी जा सकती। यह बात कभी भी लिखित रूप से नहीं कही गई कि सरकार जमीन के बदले जमीन देगी और न कभी यह लिखित रूप में कहा गया कि परिवार पीछे एक आदमी को सरकार नौकरी देगी यद्यपि इलाके का हर बुजुर्गवार आदमी इस बात को बड़े यकीन के साथ कहता है कि उससे किसी न किसी नेता या अफसर ने यह जरूर कहा था कि इन वायदों पर अमल होगा। उनकी सूची में जवाहर लाल नेहरू, गुलजारी लाल नन्दा, ललित नारायण मिश्र, टी. पी. सिंह और सचिन दत्त से लेकर दरभंगा के तत्कालीन कलक्टर जॉर्ज जैकब तक नाम शामिल है। आर्थिक पुनर्वास की बात लिखित रूप से जरूर उठती थी और इसके पीछे बिहार के पहले मुख्य मंत्री डॉ. श्री कृष्ण सिंह की कुछ अवधारणा निश्चित रूप से थी। तत्कालीन सरकार के प्रखर आलोचक बैद्यनाथ मेहता और परमेश्वर कुँअर जैसे लोग भी डॉ. श्री कृष्ण सिंह की इस दृष्टि के लिए उनको समय-समय पर विधान सभा की बहस में याद किया करते थे। बाद में कृष्ण बल्लभ सहाय ने एक बार जरूर (12 फरवरी 1966) विधान सभा में यह कहा था कि सरकार तीसरी पंचवर्षीय योजना में सहरसा में महिषी में एक ‘सी टाइप‘ औद्यौगिक प्रांगण खोलने जा रही है जिससे तटबन्धों के बीच के लोग लाभ उठा सकते हैं। ऐसा ही एक प्रांगण बिहटा (शाहाबाद) में भी खुलने जा रहा था अतः महिषी वाली इन्डस्ट्रियल एस्टेट का तटबन्धों के बीच बसे लोगों से कोई सीधा संबंध नहीं था। यह सरकार के नियमित विकास कार्यक्रम का हिस्सा था।
आर्थिक पुनर्वास के लिए सरकार ने 1962 में ही कृषि, स्वास्थ्य, उद्योग, राजस्व समाहरण, साख का विस्तार, सहकारिता को बढ़ावा देने जैसे विभिन्न मुद्दों पर कार्यक्रम तैयार करने के लिए और उनके क्रियान्वयन के लिए एक समिति गठित की थी। राज्य के भूमि सुधर आयुक्त विकास आयुक्त और नदी घाटी योजना के मुख्य प्रशासक इसके सदस्य थे। यह एक प्रभावहीन समिति निकली। फिर 1967 में कोसी क्षेत्रीय विकास आयुक्त की अध्यक्षता में एक दूसरी समिति बनी जिसे कृषि, सहयोग एवं उद्योग के विकास के लिए तथा लोगों के आर्थिक पुनर्वास का कार्यक्रम तैयार करने के लिए कहा गया। इस समिति से भी कुछ नहीं हुआ।
पुनर्वास के या कोसी तटबन्ध के बीच रहने वालों के मसले पर सरकार का जो भी रुख था उससे एक ओर पुनर्वास के लिए किसी तरह की तैयारी का न होना साफ झलकता था तो दूसरी ओर इस मसले पर उदासीनता भी कम नहीं थी। बैद्यनाथ मेहता (1966) का मानना था कि, “...जिस कोसी के लिए आप दाद लेना चाहते हैं, जिसकी लाश पर आए इस योजना को खड़ा किया है उन कोसी के तटबन्धों के बीच में पड़ने वाले लोगों की ओर क्या इस सरकार का ध्यान गया है?
तटबन्धों के बीच में पड़ने वालों की संख्या पौने दो लाख के लगभग हैं। इसके जीवन मरण का प्रश्न आज हमारे सामने है। हमारे राज्य मंत्री की तरफ से इस ओर कोई इशारा नहीं किया नहीं गया है। कोसी तटबन्ध के बीच में रहने वाले की जब चर्चा होती है तो इस पर मिनिस्टर आँख मूंद लेते हैं। जिस समय यह तटबन्ध बनने जा रहा था उस समय भी मैंने यह प्रश्न उठाया था कि कोसी तटबन्ध बनेगा तो उसके बीच पड़ने वालों की क्या हालत होगी तो उस समय केन्द्र और राज्य के नेता ने कहा था कि तटबन्ध के बीच में पड़ने वाले लोगों में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सिपर्फ एक डेढ़ फीट पानी रहेगा। उनकी सारी दिक्कतों को दूर कर दिया जायेगा।”
बहुत मान-मनौवल और दबाव पड़ने के बाद राज्य सरकार ने फरवरी 1981 में सहरसा जिला परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष, चन्द्रकिशोर पाठक की देख-रेख में एक समिति का गठन किया जिससे आशा की गई थी कि वह तटबन्ध पीड़ितों के आर्थिक पुनर्वास पर अपनी सिफारिशें देगी। इस समिति की रिपोर्ट सरकार को फरवरी 1982 में मिल गई जिस पर सरकार ने सक्रिय रूप से पाँच साल, जनवरी 1987 तक, विचार किया और फिर इसे स्वीकार कर लिया। बिन्देश्वरी दूबे ने घोघरडीहा में जब 1986 नवम्बर में तटबन्ध पीड़ितों के लिए कुछ करने की बात कही थी तब यह मुमकिन है, उनके मन में पाठक समिति की सिफारिशों को स्वीकार करने का ख्याल रहा हो।
इस रिपोर्ट में समिति ने तटबन्धों के बीच के क्षेत्र में कृषि विकास, पशुपालन, उद्योग, जन स्वास्थ्य, शिक्षा, चेतना प्रसार और भूमि सुधार आदि विषयों पर विषद चर्चा की है।
जहाँ तक कृषि का सम्बन्ध है इस क्षेत्र की स्थल आकृति (ज्वचवहतंचील) बाढ़ के कारण प्रति वर्ष बदलती रहती है। इसलिए यह स्पष्ट है कि खेती के लिए कोई नुस्खा तो तैयार करके नहीं दिया जा सकता है परन्तु पाठक समिति ने पूरे क्षेत्र को लगभग चार भागों में बाँटा है जैसे कि बाढ़ मुक्त क्षेत्र, लगभग तीन महीने तक पानी में डूबे रहने वाले क्षेत्र, लगभग 6 महीने तक पानी में डूबे रहने वाले क्षेत्र तथा हमेशा पानी में डूबे रहने वाले क्षेत्र। इन विभिन्न क्षेत्रों के लिए वैकल्पिक फसल पद्धति सृजन करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है जिससे कि (1)उन्हें बाढ़ आने से पहले काटा जा सके। (2) जल-जमाव वाले क्षेत्रों में पानी बर्दाश्त करने वाली धान की फसलें लगाई जाएँ। जहाँ सिंचाई की आवश्यकता हो वहाँ उद्वह सिंचाई प्रकल्प या बाँस बोरिंग की व्यवस्था की जाय तथा वैज्ञानिक खेती करने के लिए पर्याप्त शिक्षा, फार्म प्रदर्शन तथा आर्थिक स्रोत का विकास जैसे बैंक, सहकारी समिति के गठन आदि के कार्यक्रम सरकारी स्तर पर लिए जायें।
इस क्षेत्र में पशुपालन जीविका का मुख्य स्रोत है। दूध और इसके उत्पादनों से यहाँ काफी लोगों की रोजी-रोटी चलती है। और इसके विकास की प्रचुर सम्भावनाएँ हैं। सूअर, बकरी, भेड़, मुर्गी पालन के बारे में भी व्यवस्था इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में दी है। पशु चिकित्सा सेवा केन्द्र तथा कृत्रिम गर्भाधान केन्द्रों के विकास की अनुशंसा भी की गई है। लघु और कुटीर उद्योगों के विकास पर भी विस्तार से चर्चा हुई है जिसमें आटा चकड्ढी, आरा मशीन, मोटर गैरेज, लकड़ी, फर्नीचर, रस्सी निर्माण, मधुमक्खी पालन, चर्म शोधन, बेकरी, चमड़े के सामानों का उत्पादन, छापाखाना, सिले-सिलाए कपड़ों का बनाना, मंगलोर टाइल्स, ईंट भट्टा, सीमेंट से बने सामानों का निर्माण, सुगंधित तेल, कृषि यंत्रा निर्माण, अन्न शोधन, लाह या लोहे की चूड़ी का निर्माण, चटाई, बीड़ी, चूड़ा बनाना, दर्जी की दुकान, अम्बर चर्खा, रेशम कीट पालन, लाजेंस, आइस क्रीम बनाना, कागज के ठोंगे बनाना, स्याही तथा रंग बनाना, कोयले के ब्रिकेट बनाना, जूता पॉलिश तथा नाखून पॉलिश, माचिस बनाना, कुम्भकारी, जाल बुनाई, कम्बल बुनाई, पोलिथीन बैग बनाना, सर्जिकल कॉटन, दानेदार खाद, नाव बनाना, फिनायल बनाना, ग्रिल बनाना, गुड़-खाँडसारी का काम, पापड़ बनाना, घड़ी मरम्मत, रेडियो मरम्मत, डिस्टिल्ड वाटर, फिश कैनिंग, तथा कोल्ड स्टोरेज आदि की स्थापना और विकास के बारे में कहा गया है। ग्रामीण क्षेत्र के काफी उद्योग इस सूची में आ जाते हैं। मत्स्य पालन और उसके विकास के बारे में भी रिपोर्ट में जिक्र हुआ है।
इसके साथ-साथ जन-स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक शिक्षा, चेतना विकास के पहलुओं को भी इस रपट में छुआ गया है और इनके लिए रास्ते भी सुझाये गये हैं।
समिति ने सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, अररिया, पूर्णिया, कटिहार, दरभंगा और मधुबनी जिलों में, जहाँ कोसी तटबन्धों के निर्माण से (तथाकथित रूप से) लाभ पहुँचा है वहाँ की क्लास-3 और क्लास-4 दर्जे की नौकरियों में कोसी तटबन्धों के बीच बसे लोगों के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण का भी प्रस्ताव किया है।
30 जनवरी 1987 को बिहार मंत्रिमंण्डल की एक बैठक में इन सिफारिशों का अनुमोदन कर दिया गया था और तब भले ही 30 वर्षों के बाद ही सही, जब कि तटबन्धों के बीच बसे लोगों की एक पीढ़ी समाप्त हो गई और आबादी 1,92,000 से बढ़ कर लगभग 4,50,000 हो गई, सरकार का यह प्रयास स्वागत योग्य था।
सरकार ने यह सिफारिशें मानते हुये कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार की स्थापना करना स्वीकार कर लिया और 14 अप्रैल 1987 को एक 19 सदस्यीय समिति को इसकी देखभाल के लिए नियुक्त किया। इस समिति की अध्यक्षता उन्हीं लहटन चौधरी को मिली जिन्होंने कहा था (1986) कि, “...अपनी कब्र उन्होंने स्वयं खोदी, इस आशा में उन्हें कब्र से निकाल कर सरकार पुनः जीवन प्रदान करेगी। लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि आज उनके लिए दो बूंद आसू बहाने वाला भी कोई नहीं है।” तीस साल बाद ही सही, तटबन्ध पीड़ितों के लिए आंसू बहाने और कुछ कर पाने का संतोष उन्हें जरूर हुआ होगा। दूबे ने ‘कोसी पीड़ित प्राधिकार के प्रस्तावित कार्यक्रम‘ नाम की एक पुस्तिका (1987) के प्राक्कथन में कहा कि, “...कोसी नदी पर तटबन्ध बन जाने के पश्चात तटबन्धों के भीतर के लाखों लोगों का जीवन बड़ा ही कष्टमय रहा है। शायद ही देश में कोई ऐसा स्थान मिले जहाँ इतनी बड़ी आबादी नदी की धाराओं के बीच पड़ी हो। मुसीबत के मारे ये लोग जीवन से निराश हो बैठे थे...सरकार इन पीड़ितों के सर्वांगीण विकास के लिए कृत संकल्प है। एक प्राधिकार का भी गठन कर दिया गया है... जिससे लोगों के जीवन में एक बार फिर से खुशियाली आ सके।” पिछले 33 वर्षों की कवायद का कुल परिणाम यही था।
प्राधिकार ने बलुआहा घाट से बघवा गाँव तक और भेजा से बकौर तक पीपा पुल के साथ बारह-मासी रास्ते का प्रस्ताव किया-यह अभी तक प्रस्तावित है। प्राधिकार की इच्छा है कि तटबन्ध के अन्दर स्कूलों की अपनी बिल्डिंग हो क्यों कि वहाँ के अधिकांश स्कूलों पर छत नहीं है। यह प्रस्ताव वह संस्था करती है जिसकी खुद अपनी बिल्डिंग और अपनी छत नहीं है। स्वास्थ्य सेवायें वहाँ नदारद हैं। बिहार की सरकारी सेवाओं में क्लास-3 और क्लास-4 की नौकरियों में 15 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था प्राधिकार के प्रावधानों में थी जिसमें एक भी अतिरिक्त पैसा खर्च नहीं होने वाला था। इस प्रावधान का प्रयोग करते हुये बिहार सरकार में कितने लोगों को नौकरी मिली यह अपने आप में शोध का विषय है। प्राधिकार के जो भी कर्मचारी हैं वह सब डेपुटशन वाले लोग हैं, उनमें भी किसी तटबन्ध पीड़ित को नौकरी नहीं दी गई तटबन्धों के बीच कोई कॉलेज, कोई बैंक, कोई सिनेमा हॉल, कोई पक्की सड़क, कोई अस्पताल या बिजली जैसी कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे अधुनिक जीवन शैली से जोड़ कर देखा जा सके। पिछले कुछ वर्षों में डब्लू. एल. एल. सेवायें जरूर चालू हुई हैं। अगर कोई आदि काल की पि़फल्म बनाना चाहे तो कोसी तटबन्धों के बीच की जगह से आसान और बेहतर शायद कोई जगह न मिले। वहाँ यह काम बिना किसी तैयारी के किया जा सकता है।
प्राधिकार अब चुनावों में वोट पाने का जरिया बना हुआ है। जब-जब चुनाव होने को होते हैं तब-तब चुनाव जीतने की इच्छा रखने वाले सभी उम्मीदवार फ्कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार” का झुनझना जोर-शोर से बजाते हैं कि अगर वह जीत कर आ जाते हैं तो प्राधिकार को जिन्दा करेंगे और उसकी सिफारिशों को लागू करवायंगे। ऐसा तो नहीं है कि 1987 के बाद से इस इलाके में चुनाव न हुये हों और नेताओं ने चुनाव न जीते हों। उधर मतदाताओं का भी मानना है कि जब तक प्राधिकार पुर्नजीवित नहीं होगा तब तक उनकी हालत नहीं सुधरेगी। कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार तो मरा हुआ पैदा ही हुआ था और यह न तो कभी जि़न्दा था और न कभी इसमें हरकत आयेगी।
तेलवा गाँव (प्रखण्ड महिषी, जिला सहरसा) के राम प्रसाद ‘रोशन‘ का कहना है कि, “...हमारा गाँव कोसी के पश्चिमी तटबन्ध से नदी की ओर 1.5 किलोमीटर दूर है। हम लोगों को पुनर्वास मिला जल्लै में जो कि पश्चिमी तटबन्ध के दूसरी तरफ तटबन्ध से 4 किलोमीटर के फासले पर है। कोसी तटबन्ध घोंघेपुर में खत्म हो जाता है और कोसी नदी का पानी वापस मुड़ कर बहुत से गाँवों के साथ-साथ जल्लै पर भी चोट करता था। हम लोगों ने कोसी के इस वापसी पानी से अपनी सुरक्षा की गुहार लगाई तो सरकार ने घोंघेपुर के नीचे एक टी-स्पर बना दिया जिससे कोसी का पानी पीछे नहीं मुड़ सके। इस स्पर ने तो अपना काम किया और कोसी के पानी से हम लोगों को निजात मिली मगर ऊपर से आने वाला बलान नदी का पानी जो कि कोसी में जाता था, इस स्पर के कारण अटक गया। अब हम कोसी की बाढ़ से तो बच गये थे मगर बलान के पानी में डूब गये। हमारा पुश्तैनी गाँव कोसी तटबन्धों के बीच बाढ़ में डूबता था और पुनर्वास वाला गाँव बलान के पानी से निकल नहीं पाता था। अब हमें जाने के लिए कोई जगह नहीं बची। तब हम लोग जल्लै छोड़ कर कोसी के पश्चिमी तटबन्ध पर 49.5 किलोमीटर पर पचभिण्डा आ गये। यह तटबन्ध भी 1968 में कई जगह टूट गया और तब हम लोगों को मजबूर होकर वापस तेलवा आना पड़ गया। जल्लै में पुनर्वास की 4 हेक्टेयर जमीन थी और सहरवा में 14 हेक्टेयर पुनर्वास की जमीन थी जिस पर छोरा, झखरा, झारा, करहारा, सुगरौल, लछमिनियाँ और मजराही के लोगों को पुनर्वास मिला हुआ था। यह सब के सब लोग वापस अपने अपने गाँवों में चले गये हैं। ...हम लोग आदिम परिस्थितियों में जी रहे हैं और हमारी हालत को बिना देखे समझा नहीं जा सकता। कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार हम लोगों के लिए शुरू किया गया था मगर यह क्या करता है मुझे नहीं मालूम। सब कोरी बकवास है।”
पुनर्वास के नाम पर जो खाना पूरी और बदइन्तजामी हुई उसके बारे में बताते हैं कोसी मुक्ति संघर्ष समिति के रमेश चन्द्र झा, देखें बॉक्स-सब नियम कानून ताक पर थे।
उधर कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉ. अब्दुल गफूर की अपनी अलग परेशानी है जो कि क्षमता सम्पन्न होने के बावजूद कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं थे। देखें बॉक्स-मैं पहले तटबन्ध पीड़ित हूँ, प्राधिकार का अध्यक्ष बाद में....
दरअसल यह तो करीब-करीब शुरू से ही तय था कि सरकार घर के बदले घर तो दे सकती है मगर जमीन के बदले जमीन इस इलाके में ज्यादा परिमाण में कभी भी नहीं दी जा सकती। यह बात कभी भी लिखित रूप से नहीं कही गई कि सरकार जमीन के बदले जमीन देगी और न कभी यह लिखित रूप में कहा गया कि परिवार पीछे एक आदमी को सरकार नौकरी देगी यद्यपि इलाके का हर बुजुर्गवार आदमी इस बात को बड़े यकीन के साथ कहता है कि उससे किसी न किसी नेता या अफसर ने यह जरूर कहा था कि इन वायदों पर अमल होगा। उनकी सूची में जवाहर लाल नेहरू, गुलजारी लाल नन्दा, ललित नारायण मिश्र, टी. पी. सिंह और सचिन दत्त से लेकर दरभंगा के तत्कालीन कलक्टर जॉर्ज जैकब तक नाम शामिल है। आर्थिक पुनर्वास की बात लिखित रूप से जरूर उठती थी और इसके पीछे बिहार के पहले मुख्य मंत्री डॉ. श्री कृष्ण सिंह की कुछ अवधारणा निश्चित रूप से थी। तत्कालीन सरकार के प्रखर आलोचक बैद्यनाथ मेहता और परमेश्वर कुँअर जैसे लोग भी डॉ. श्री कृष्ण सिंह की इस दृष्टि के लिए उनको समय-समय पर विधान सभा की बहस में याद किया करते थे। बाद में कृष्ण बल्लभ सहाय ने एक बार जरूर (12 फरवरी 1966) विधान सभा में यह कहा था कि सरकार तीसरी पंचवर्षीय योजना में सहरसा में महिषी में एक ‘सी टाइप‘ औद्यौगिक प्रांगण खोलने जा रही है जिससे तटबन्धों के बीच के लोग लाभ उठा सकते हैं। ऐसा ही एक प्रांगण बिहटा (शाहाबाद) में भी खुलने जा रहा था अतः महिषी वाली इन्डस्ट्रियल एस्टेट का तटबन्धों के बीच बसे लोगों से कोई सीधा संबंध नहीं था। यह सरकार के नियमित विकास कार्यक्रम का हिस्सा था।
आर्थिक पुनर्वास के लिए सरकार ने 1962 में ही कृषि, स्वास्थ्य, उद्योग, राजस्व समाहरण, साख का विस्तार, सहकारिता को बढ़ावा देने जैसे विभिन्न मुद्दों पर कार्यक्रम तैयार करने के लिए और उनके क्रियान्वयन के लिए एक समिति गठित की थी। राज्य के भूमि सुधर आयुक्त विकास आयुक्त और नदी घाटी योजना के मुख्य प्रशासक इसके सदस्य थे। यह एक प्रभावहीन समिति निकली। फिर 1967 में कोसी क्षेत्रीय विकास आयुक्त की अध्यक्षता में एक दूसरी समिति बनी जिसे कृषि, सहयोग एवं उद्योग के विकास के लिए तथा लोगों के आर्थिक पुनर्वास का कार्यक्रम तैयार करने के लिए कहा गया। इस समिति से भी कुछ नहीं हुआ।
पुनर्वास के या कोसी तटबन्ध के बीच रहने वालों के मसले पर सरकार का जो भी रुख था उससे एक ओर पुनर्वास के लिए किसी तरह की तैयारी का न होना साफ झलकता था तो दूसरी ओर इस मसले पर उदासीनता भी कम नहीं थी। बैद्यनाथ मेहता (1966) का मानना था कि, “...जिस कोसी के लिए आप दाद लेना चाहते हैं, जिसकी लाश पर आए इस योजना को खड़ा किया है उन कोसी के तटबन्धों के बीच में पड़ने वाले लोगों की ओर क्या इस सरकार का ध्यान गया है?
तटबन्धों के बीच में पड़ने वालों की संख्या पौने दो लाख के लगभग हैं। इसके जीवन मरण का प्रश्न आज हमारे सामने है। हमारे राज्य मंत्री की तरफ से इस ओर कोई इशारा नहीं किया नहीं गया है। कोसी तटबन्ध के बीच में रहने वाले की जब चर्चा होती है तो इस पर मिनिस्टर आँख मूंद लेते हैं। जिस समय यह तटबन्ध बनने जा रहा था उस समय भी मैंने यह प्रश्न उठाया था कि कोसी तटबन्ध बनेगा तो उसके बीच पड़ने वालों की क्या हालत होगी तो उस समय केन्द्र और राज्य के नेता ने कहा था कि तटबन्ध के बीच में पड़ने वाले लोगों में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सिपर्फ एक डेढ़ फीट पानी रहेगा। उनकी सारी दिक्कतों को दूर कर दिया जायेगा।”
बहुत मान-मनौवल और दबाव पड़ने के बाद राज्य सरकार ने फरवरी 1981 में सहरसा जिला परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष, चन्द्रकिशोर पाठक की देख-रेख में एक समिति का गठन किया जिससे आशा की गई थी कि वह तटबन्ध पीड़ितों के आर्थिक पुनर्वास पर अपनी सिफारिशें देगी। इस समिति की रिपोर्ट सरकार को फरवरी 1982 में मिल गई जिस पर सरकार ने सक्रिय रूप से पाँच साल, जनवरी 1987 तक, विचार किया और फिर इसे स्वीकार कर लिया। बिन्देश्वरी दूबे ने घोघरडीहा में जब 1986 नवम्बर में तटबन्ध पीड़ितों के लिए कुछ करने की बात कही थी तब यह मुमकिन है, उनके मन में पाठक समिति की सिफारिशों को स्वीकार करने का ख्याल रहा हो।
इस रिपोर्ट में समिति ने तटबन्धों के बीच के क्षेत्र में कृषि विकास, पशुपालन, उद्योग, जन स्वास्थ्य, शिक्षा, चेतना प्रसार और भूमि सुधार आदि विषयों पर विषद चर्चा की है।
जहाँ तक कृषि का सम्बन्ध है इस क्षेत्र की स्थल आकृति (ज्वचवहतंचील) बाढ़ के कारण प्रति वर्ष बदलती रहती है। इसलिए यह स्पष्ट है कि खेती के लिए कोई नुस्खा तो तैयार करके नहीं दिया जा सकता है परन्तु पाठक समिति ने पूरे क्षेत्र को लगभग चार भागों में बाँटा है जैसे कि बाढ़ मुक्त क्षेत्र, लगभग तीन महीने तक पानी में डूबे रहने वाले क्षेत्र, लगभग 6 महीने तक पानी में डूबे रहने वाले क्षेत्र तथा हमेशा पानी में डूबे रहने वाले क्षेत्र। इन विभिन्न क्षेत्रों के लिए वैकल्पिक फसल पद्धति सृजन करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है जिससे कि (1)उन्हें बाढ़ आने से पहले काटा जा सके। (2) जल-जमाव वाले क्षेत्रों में पानी बर्दाश्त करने वाली धान की फसलें लगाई जाएँ। जहाँ सिंचाई की आवश्यकता हो वहाँ उद्वह सिंचाई प्रकल्प या बाँस बोरिंग की व्यवस्था की जाय तथा वैज्ञानिक खेती करने के लिए पर्याप्त शिक्षा, फार्म प्रदर्शन तथा आर्थिक स्रोत का विकास जैसे बैंक, सहकारी समिति के गठन आदि के कार्यक्रम सरकारी स्तर पर लिए जायें।
इस क्षेत्र में पशुपालन जीविका का मुख्य स्रोत है। दूध और इसके उत्पादनों से यहाँ काफी लोगों की रोजी-रोटी चलती है। और इसके विकास की प्रचुर सम्भावनाएँ हैं। सूअर, बकरी, भेड़, मुर्गी पालन के बारे में भी व्यवस्था इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में दी है। पशु चिकित्सा सेवा केन्द्र तथा कृत्रिम गर्भाधान केन्द्रों के विकास की अनुशंसा भी की गई है। लघु और कुटीर उद्योगों के विकास पर भी विस्तार से चर्चा हुई है जिसमें आटा चकड्ढी, आरा मशीन, मोटर गैरेज, लकड़ी, फर्नीचर, रस्सी निर्माण, मधुमक्खी पालन, चर्म शोधन, बेकरी, चमड़े के सामानों का उत्पादन, छापाखाना, सिले-सिलाए कपड़ों का बनाना, मंगलोर टाइल्स, ईंट भट्टा, सीमेंट से बने सामानों का निर्माण, सुगंधित तेल, कृषि यंत्रा निर्माण, अन्न शोधन, लाह या लोहे की चूड़ी का निर्माण, चटाई, बीड़ी, चूड़ा बनाना, दर्जी की दुकान, अम्बर चर्खा, रेशम कीट पालन, लाजेंस, आइस क्रीम बनाना, कागज के ठोंगे बनाना, स्याही तथा रंग बनाना, कोयले के ब्रिकेट बनाना, जूता पॉलिश तथा नाखून पॉलिश, माचिस बनाना, कुम्भकारी, जाल बुनाई, कम्बल बुनाई, पोलिथीन बैग बनाना, सर्जिकल कॉटन, दानेदार खाद, नाव बनाना, फिनायल बनाना, ग्रिल बनाना, गुड़-खाँडसारी का काम, पापड़ बनाना, घड़ी मरम्मत, रेडियो मरम्मत, डिस्टिल्ड वाटर, फिश कैनिंग, तथा कोल्ड स्टोरेज आदि की स्थापना और विकास के बारे में कहा गया है। ग्रामीण क्षेत्र के काफी उद्योग इस सूची में आ जाते हैं। मत्स्य पालन और उसके विकास के बारे में भी रिपोर्ट में जिक्र हुआ है।
इसके साथ-साथ जन-स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक शिक्षा, चेतना विकास के पहलुओं को भी इस रपट में छुआ गया है और इनके लिए रास्ते भी सुझाये गये हैं।
समिति ने सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, अररिया, पूर्णिया, कटिहार, दरभंगा और मधुबनी जिलों में, जहाँ कोसी तटबन्धों के निर्माण से (तथाकथित रूप से) लाभ पहुँचा है वहाँ की क्लास-3 और क्लास-4 दर्जे की नौकरियों में कोसी तटबन्धों के बीच बसे लोगों के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण का भी प्रस्ताव किया है।
30 जनवरी 1987 को बिहार मंत्रिमंण्डल की एक बैठक में इन सिफारिशों का अनुमोदन कर दिया गया था और तब भले ही 30 वर्षों के बाद ही सही, जब कि तटबन्धों के बीच बसे लोगों की एक पीढ़ी समाप्त हो गई और आबादी 1,92,000 से बढ़ कर लगभग 4,50,000 हो गई, सरकार का यह प्रयास स्वागत योग्य था।
सरकार ने यह सिफारिशें मानते हुये कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार की स्थापना करना स्वीकार कर लिया और 14 अप्रैल 1987 को एक 19 सदस्यीय समिति को इसकी देखभाल के लिए नियुक्त किया। इस समिति की अध्यक्षता उन्हीं लहटन चौधरी को मिली जिन्होंने कहा था (1986) कि, “...अपनी कब्र उन्होंने स्वयं खोदी, इस आशा में उन्हें कब्र से निकाल कर सरकार पुनः जीवन प्रदान करेगी। लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि आज उनके लिए दो बूंद आसू बहाने वाला भी कोई नहीं है।” तीस साल बाद ही सही, तटबन्ध पीड़ितों के लिए आंसू बहाने और कुछ कर पाने का संतोष उन्हें जरूर हुआ होगा। दूबे ने ‘कोसी पीड़ित प्राधिकार के प्रस्तावित कार्यक्रम‘ नाम की एक पुस्तिका (1987) के प्राक्कथन में कहा कि, “...कोसी नदी पर तटबन्ध बन जाने के पश्चात तटबन्धों के भीतर के लाखों लोगों का जीवन बड़ा ही कष्टमय रहा है। शायद ही देश में कोई ऐसा स्थान मिले जहाँ इतनी बड़ी आबादी नदी की धाराओं के बीच पड़ी हो। मुसीबत के मारे ये लोग जीवन से निराश हो बैठे थे...सरकार इन पीड़ितों के सर्वांगीण विकास के लिए कृत संकल्प है। एक प्राधिकार का भी गठन कर दिया गया है... जिससे लोगों के जीवन में एक बार फिर से खुशियाली आ सके।” पिछले 33 वर्षों की कवायद का कुल परिणाम यही था।
प्राधिकार अब चुनावों में वोट पाने का जरिया बना हुआ है। जब-जब चुनाव होने को होते हैं तब-तब चुनाव जीतने की इच्छा रखने वाले सभी उम्मीदवार फ्कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार” का झुनझना जोर-शोर से बजाते हैं कि अगर वह जीत कर आ जाते हैं तो प्राधिकार को जिन्दा करेंगे और उसकी सिफारिशों को लागू करवायंगे। ऐसा तो नहीं है कि 1987 के बाद से इस इलाके में चुनाव न हुये हों और नेताओं ने चुनाव न जीते हों।
लेकिन यह प्राधिकार अपनी पैदाइश से लेकर इस समय तक एक नाकारा संस्था है। कुछ राजनीतिज्ञ और सरकारी अधिकारी प्राधिकार के नाम पर तनख्वाह, भत्ते पाते होंगे और सरकारी खर्च पर उनके घूमने-घामने का इंतजाम भी हो गया होगा और पीड़ितों के नाम पर कभी-कभार सबसे मिलना जुलना हो जाता होगा मगर पीड़ित अपनी जगह पर उसी तरह से बने हुये हैं जैसे कि वह आज से कोई 50 साल पहले थे। प्राधिकार का न तो कोई अपना भवन है न अपना दफ्तर, न गाड़ी-घोड़ा है न अपना स्टाफ। अपना कहने भर को बजट भी नहीं है। ज्यादा-से -ज्यादा यह दूसरे विभागों को ‘सलाह‘ दे सकता है कि फलां फलां काम कर दीजिये। उसने कर दिया तो वाह-वाह, नहीं किया तो कोई बात नहीं। सहरसा के विकास भवन में पहली मंजि़ल पर इसे थोड़ी सी जगह मिली हुई है मगर अधिकांश सरकारी अधिकारियों को भी यह नहीं पता है कि यह प्राधिकार का दफ्तर है। प्राधिकार ने अपनी एक बैठक में 1989 में यह निर्णय लिया था कि वह नदी के घाटों पर से घटवारी प्रथा को समाप्त करेगा और लोगों के आने-जाने की व्यवस्था को कर मुक्त कर देगा-यह आज तक नहीं हुआ। प्राधिकार ने राहत और पुनर्वास विभाग से बाढ़ के मौसम में मुफ्त नावों की व्यवस्था करने को कहा-यह भी नहीं हुआ?।प्राधिकार ने बलुआहा घाट से बघवा गाँव तक और भेजा से बकौर तक पीपा पुल के साथ बारह-मासी रास्ते का प्रस्ताव किया-यह अभी तक प्रस्तावित है। प्राधिकार की इच्छा है कि तटबन्ध के अन्दर स्कूलों की अपनी बिल्डिंग हो क्यों कि वहाँ के अधिकांश स्कूलों पर छत नहीं है। यह प्रस्ताव वह संस्था करती है जिसकी खुद अपनी बिल्डिंग और अपनी छत नहीं है। स्वास्थ्य सेवायें वहाँ नदारद हैं। बिहार की सरकारी सेवाओं में क्लास-3 और क्लास-4 की नौकरियों में 15 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था प्राधिकार के प्रावधानों में थी जिसमें एक भी अतिरिक्त पैसा खर्च नहीं होने वाला था। इस प्रावधान का प्रयोग करते हुये बिहार सरकार में कितने लोगों को नौकरी मिली यह अपने आप में शोध का विषय है। प्राधिकार के जो भी कर्मचारी हैं वह सब डेपुटशन वाले लोग हैं, उनमें भी किसी तटबन्ध पीड़ित को नौकरी नहीं दी गई तटबन्धों के बीच कोई कॉलेज, कोई बैंक, कोई सिनेमा हॉल, कोई पक्की सड़क, कोई अस्पताल या बिजली जैसी कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे अधुनिक जीवन शैली से जोड़ कर देखा जा सके। पिछले कुछ वर्षों में डब्लू. एल. एल. सेवायें जरूर चालू हुई हैं। अगर कोई आदि काल की पि़फल्म बनाना चाहे तो कोसी तटबन्धों के बीच की जगह से आसान और बेहतर शायद कोई जगह न मिले। वहाँ यह काम बिना किसी तैयारी के किया जा सकता है।
प्राधिकार अब चुनावों में वोट पाने का जरिया बना हुआ है। जब-जब चुनाव होने को होते हैं तब-तब चुनाव जीतने की इच्छा रखने वाले सभी उम्मीदवार फ्कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार” का झुनझना जोर-शोर से बजाते हैं कि अगर वह जीत कर आ जाते हैं तो प्राधिकार को जिन्दा करेंगे और उसकी सिफारिशों को लागू करवायंगे। ऐसा तो नहीं है कि 1987 के बाद से इस इलाके में चुनाव न हुये हों और नेताओं ने चुनाव न जीते हों। उधर मतदाताओं का भी मानना है कि जब तक प्राधिकार पुर्नजीवित नहीं होगा तब तक उनकी हालत नहीं सुधरेगी। कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार तो मरा हुआ पैदा ही हुआ था और यह न तो कभी जि़न्दा था और न कभी इसमें हरकत आयेगी।
तेलवा गाँव (प्रखण्ड महिषी, जिला सहरसा) के राम प्रसाद ‘रोशन‘ का कहना है कि, “...हमारा गाँव कोसी के पश्चिमी तटबन्ध से नदी की ओर 1.5 किलोमीटर दूर है। हम लोगों को पुनर्वास मिला जल्लै में जो कि पश्चिमी तटबन्ध के दूसरी तरफ तटबन्ध से 4 किलोमीटर के फासले पर है। कोसी तटबन्ध घोंघेपुर में खत्म हो जाता है और कोसी नदी का पानी वापस मुड़ कर बहुत से गाँवों के साथ-साथ जल्लै पर भी चोट करता था। हम लोगों ने कोसी के इस वापसी पानी से अपनी सुरक्षा की गुहार लगाई तो सरकार ने घोंघेपुर के नीचे एक टी-स्पर बना दिया जिससे कोसी का पानी पीछे नहीं मुड़ सके। इस स्पर ने तो अपना काम किया और कोसी के पानी से हम लोगों को निजात मिली मगर ऊपर से आने वाला बलान नदी का पानी जो कि कोसी में जाता था, इस स्पर के कारण अटक गया। अब हम कोसी की बाढ़ से तो बच गये थे मगर बलान के पानी में डूब गये। हमारा पुश्तैनी गाँव कोसी तटबन्धों के बीच बाढ़ में डूबता था और पुनर्वास वाला गाँव बलान के पानी से निकल नहीं पाता था। अब हमें जाने के लिए कोई जगह नहीं बची। तब हम लोग जल्लै छोड़ कर कोसी के पश्चिमी तटबन्ध पर 49.5 किलोमीटर पर पचभिण्डा आ गये। यह तटबन्ध भी 1968 में कई जगह टूट गया और तब हम लोगों को मजबूर होकर वापस तेलवा आना पड़ गया। जल्लै में पुनर्वास की 4 हेक्टेयर जमीन थी और सहरवा में 14 हेक्टेयर पुनर्वास की जमीन थी जिस पर छोरा, झखरा, झारा, करहारा, सुगरौल, लछमिनियाँ और मजराही के लोगों को पुनर्वास मिला हुआ था। यह सब के सब लोग वापस अपने अपने गाँवों में चले गये हैं। ...हम लोग आदिम परिस्थितियों में जी रहे हैं और हमारी हालत को बिना देखे समझा नहीं जा सकता। कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार हम लोगों के लिए शुरू किया गया था मगर यह क्या करता है मुझे नहीं मालूम। सब कोरी बकवास है।”
पुनर्वास के नाम पर जो खाना पूरी और बदइन्तजामी हुई उसके बारे में बताते हैं कोसी मुक्ति संघर्ष समिति के रमेश चन्द्र झा, देखें बॉक्स-सब नियम कानून ताक पर थे।
उधर कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉ. अब्दुल गफूर की अपनी अलग परेशानी है जो कि क्षमता सम्पन्न होने के बावजूद कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं थे। देखें बॉक्स-मैं पहले तटबन्ध पीड़ित हूँ, प्राधिकार का अध्यक्ष बाद में....
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