कोसी की बदलती धाराएं

कोसी क्षेत्र का अंग्रेजों द्वारा पहला नक्शा मेजर जेम्स रेनेल नाम के एक सर्वेयर ने सन् 1779 में तैयार किया था जिसमें कोसी के प्रवाह की आधिकारिक जानकारी मिलती है। सन् 1809-10 के बीच डॉ. फ्रान्सिस बुकानन हैमिल्टन ने उस समय के पूर्णियाँ जिले की प्राकृतिक विविधताओं का विशद् वर्णन किया था। कोसी उन दिनों पूर्णियाँ जिले में बहती थी और काढ़ागोला के पश्चिम सीधे उत्तर से दक्षिण दिशा में आकर गंगा से मिल जाती थी।

भू-वैज्ञानिक रूप से हिमालय पर्वतमाला अपने विकास की नवजात स्थिति में है। यह अभी एक भुरभुरी मिट्टी का ढेर मात्र है जिसको पत्थर बनने में करोड़ों साल लगेंगे। ऐसी मिट्टी पर जब बारिश होती है तब पानी के बहाव के साथ-साथ मिट्टी का क्षरण शुरू होता है। पहाड़ी क्षेत्रों में तेज ढलान के कारण यह मिट्टी आसानी से तराई इलाके में आ जाती है जहाँ जमीन प्रायः सपाट हो जाती है। इस वजह से नदी की धाराओं का वेग कम हो जाता है और मिट्टी को बैठने का मौका मिल जाता है। नदियाँ इसी तरह भूमि का निर्माण करती हैं। इसके साथ ही निचले इलाकों में मिट्टी जमाव के कारण नदियों के प्रवाह में बाधा पड़ती है और अक्सर उनकी धाराएं बदल जाती हैं। कोसी नदी के प्रवाह में बह कर आने वाली गाद (सिल्ट) की मात्रा बहुत ही ज्यादा है। यह गाद आदिकाल से नदी के पानी के साथ आ रही है। इन्जीनियरों ने इसके परिमाण को मापने का प्रयास किया है। कैप्टेन एफ. सी. हर्स्ट (1908) का अनुमान था कि, “कोसी नदी प्रतिवर्ष प्रायः 5 करोड़ 50 लाख टन गाद लाती है और मेरा अनुमान है कि इसमें से प्रायः 3.7 करोड़ टन गाद नदी अपने आसपास के इलाकों पर डाल देती है। 3.7 करोड़ टन गाद का मतलब प्रायः 1 करोड़ 96 लाख घनमीटर होता है।”

दूसरे सिंचाई आयोग, बिहार, की रिपोर्ट (1994) के अनुसार आजकल बराहक्षेत्र में नदी के प्रवाह में औसतन 924.8 लाख घन मीटर सिल्ट/बालू हर साल गुजरती है। इसमें से 198.20 लाख घन मीटर मोटा बालू, 247.90 लाख घन मीटर मध्यम आकार का बालू तथा 553.90 लाख घन मीटर महीन किस्म का बालू और सिल्ट है। कोसी के प्रवाह में आने वाली इस गाद के परिमाण का अन्दाजा इस तरह से लगाया जाता है कि यदि 1 मीटर चौड़ी और 1 मीटर ऊँची एक मेंड़ बनाई जाय तो वह पृथ्वी की भूमध्य रेखा के लगभग ढाई फेरे लगायेगी। कोसी नदी की गाद अपने आप में बहुत बड़ी समस्या पैदा करती है। नदी की पेटी में जमा होने वाली यह गाद अगले वर्ष बाढ़ के पानी के रास्ते में रुकावट बनती है और नदी का पानी इस गाद को काट कर एक नया रास्ता बना लेता है और नदी की धारा बदल जाती है। यह सदियों से होता चला आ रहा है। कोसी की यह बदलती हुई धारा हमेशा से आम आदमी को और विद्वानों को कौतूहलपूर्ण लगी है और शायद यही कारण है कि आम आदमी ने लोक कथाओं, लोक गीतों और किंवदन्तियों में नदी की धारा बदलने की इस विधा को बड़े ही सलीके से संजो कर रखा है जिसकी एक छोटी सी झलक हमने ऊपर देखी है।

इतिहासकारों, वैज्ञानिकों, भूगोल तथा इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों को यही बात दूसरे तरीके से आकर्षित करती है। उन्होंने नदी की धारा परिवर्तन के चित्र, रिकार्ड, आलेख बनाये तथा कारणों को तर्कों के आधार पर खोजने का प्रयास किया है। समय-समय पर इन्जीनियरों ने इस धारा परिवर्तन पर नियंत्रण पाने का भी प्रयास किया है। यहाँ पहले हम कोसी की विभिन्न धाराओं के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।

कोसी क्षेत्र का अंग्रेजों द्वारा पहला नक्शा मेजर जेम्स रेनेल नाम के एक सर्वेयर ने सन् 1779 में तैयार किया था जिसमें कोसी के प्रवाह की आधिकारिक जानकारी मिलती है। सन् 1809-10 के बीच डॉ. फ्रान्सिस बुकानन हैमिल्टन ने उस समय के पूर्णियाँ जिले की प्राकृतिक विविधताओं का विशद् वर्णन किया था। कोसी उन दिनों पूर्णियाँ जिले में बहती थी और काढ़ागोला के पश्चिम सीधे उत्तर से दक्षिण दिशा में आकर गंगा से मिल जाती थी। बुकानन को स्थानीय लोगों ने कोसी की कई धाराएं दिखाई थीं जिनके नाम के साथ ‘बूढ़ी’ या ‘मरा’ शब्द जुड़ा हुआ था। कोसी की धारा बदलती रही होगी, ऐसा बुकानन का मानना था। उन्होंने लिखा है कि “नदी की धारा बदलने की परम्परा की बात न केवल इन पुरानी धाराओं को देखने से लगता है वरन् इस बात को पीड़ित लोग, स्थानीय विद्वान, जो कि नदी के किनारे रहते हैं, वह भी कहते हैं। यह लोग तो एक कदम और आगे जाते हैं और कहते है कि बहुत समय पहले कोसी ताजपुर के दक्षिण पश्चिम से होकर बहती थी और उसके आगे वह पूरब की ओर मुड़ जाती थी और तब जाकर सीधे ब्रह्मपुत्र से संगम करती थी। इस नदी ने गंगा से संगम स्थल पर भागीरथी में वह नई धारा फोड़ दी जिसे आजकल पद्मा कहते हैं।”

मगर डॉ. डब्लू. डब्लू. हन्टर (1877) का मानना था कि कोसी पूर्व की ओर बहती तो जरूर थी पर उसका ब्रह्मपुत्र से संगम थोड़ा अजीब सा लगता है क्योंकि बह्मपुत्र स्वयं मैमनसिंह जिले में काफी पूरब की ओर खिसका हुआ था। ब्रह्मपुत्र से मिलने से पहले कोसी अवश्य ही करतुआ नदी से मिल गई होगी जिसमें आत्रेयी और तीस्ता का भी पानी आता था। हन्टर कहते हैं कि, “अगर हम यह मान लें कि कोसी और महानन्दा पहले करतुआ नदी में मिलती थीं तो तुरन्त अन्दाजा लग जायेगा कि उस नदी (करतुआ) का हुलिया निर्विवाद रूप से कितना विशाल रहा होगा और तब हम यह भी कह सकेंगे कि राजशाही के बारिन्द्र और मैमनसिंह के मधुपुर जंगलों के बीच जो बालू का विशाल मैदान है उसका निर्माण किस प्रकार हुआ होगा जिनसे हो कर ब्रह्मपुत्र इस शताब्दी (19वीं) के प्रारम्भ में बहता था। यह एक छोटी सी ध्यान देने की बात है कि कोसी नाम की नदी करतुआ के किनारे से लगी हुई है भले ही उसकी पूजा न होती हो।” हन्टर का यह भी कहना है कि उस इलाके में जमीन के कागजात बंगाली, फसली या बिहारी कैलेण्डर के अनुसार रखे जाते थे। “यह सर्वविदित है कि समय का यह हिसाब-किताब इस्लामी कैलेण्डर पर निर्भर करता है जिसकी गिनती हजरत मुहम्मद साहब के मक्का से हिजरत (विदाई) वाले वर्ष से की जाती है। यह व्यवस्था मौजूदा पूर्णियाँ जिले में लगभग सन् 1600 से इस्तेमाल में लाई जा रही है। अब अगर यह मान लिया जाय कि कोसी उन क्षेत्रों की सीमा बनाती थी जिनमें इनका (कैलेण्डर का) प्रचलन था तब यह तय है कि वह नदी पूर्णियाँ के पूरब से होकर बहती थी...”

सी0 जे0 ओडॉनेल (1891) ने भी कोसी के करतुआ की धारा से होकर बहने की मान्यता का समर्थन किया था। उनका मानना था कि करतुआ पवित्रता में गंगा की बराबरी करती थी। बंगाल का वह नक्शा जो कि वॉन डेन ब्राउक ने सन् 1660 में बताया था उसमें एक विशाल नदी की धारा ब्रह्मपुत्र में मिलती हुई दिखाई गई है। ओडॉनेल का कहना है कि, “... अपने फैलाव की जवानी में करतुआ न केवल तीस्ता का पानी समेटती थी वरन् उसमें कोसी भी आकर मिलती थी और अपनी तमाम सहायक धाराओं के साथ महानन्दा का पानी भी इसमें आता था। यह सभी जानते हैं कि उस समय कोसी पूर्णियाँ जिले की पूर्वी सीमा बनाती थी न कि पश्चिमी, जैसा कि आजकल दिखाई पड़ता है। करतुआ नदी और मैमनसिंह के पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच पड़ने वाले क्षेत्र का पारम्परिक हिन्दू नाम मत्स्य देश है जहाँ कौशिका नाम की एक मत्स्य कन्या रहती है जो कि करतुआ की संरक्षिका देवी है। महास्थान के खण्डहरों में आधी मछली और आधी महिला की शक्ल वाली इस मत्स्य कन्या की मूर्ति भी मिली है।” जेम्स फर्गुसन (1863) का भी यह मानना था कि एक पुरानी कोसी नदी आत्रेयी से होकर उर सागर के पास ब्रह्मपुत्र में मिल जाती थी।

मगर इस बात का कोई निश्चित और निर्विवाद प्रमाण नहीं मिलता कि कोसी ब्रह्मपुत्र में मिलती थी क्योंकि पहले के समय में ब्रह्मपुत्र खुद काफी पूरब की ओर बहता था। फिर यदि कोसी ब्रह्मपुत्र की ओर कदम बढ़ाये तो बीच में महानन्दा तथा आत्रेयी जैसी दो नदियाँ और पड़ेंगी। लेकिन जिस तरह से कोसी धीरे-धीरे पश्चिम की ओर खिसकी है उसके अनुसार यह जरूर मुमकिन है कि वह महानन्दा वाली धारा से होकर बही हो और यह भी कब हुआ होगा, अन्दाजा लगाना फिलहाल थोड़ा मुश्किल है।

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Post By: tridmin
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