जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाना जरूरी है। कोपेनहेगन क्लाइमेट कांफ्रेंस से ठीक पहले भारत अपनी ऊर्जा सघनता में कमी करने का ऐलान कर चुका है। और ये कमी संभव कार्बन ट्रेडिंग द्वारा। दुनिया के कई देश इस विकल्प को अपना रहे हैं।
कैसे होती है कार्बन ट्रेडिंग
संयुक्त राष्ट्र एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी (यूएनईपीए) ने 1970 के दशक में सबसे पहले कार्बन ट्रेडिंग की थ्योरी प्रस्तुत की थी। इसका मकसद यही था कि कार्बन डाई आक्साइड गैस का उत्सर्जन कम हो तथा उद्योगों को इसके लिए प्रोत्साहित किया जाए। क्योटो प्रोटोकॉल के बाद दुनिया के तमाम राष्ट्रों ने इस पर अमल आरंभ किया।
इधर, भारत में भी इसकी शुरुआत हो गई है तथा वन एवं पर्यावरण मंत्रलय ने कार्बन ट्रेडिंग से जुड़ी करीब डेढ़ सौ परियोजनाओं को मंजूरी प्रदान कर रखी है। इसके तहत सरकारी नियामक एजेंसी प्रत्येक इंडस्ट्री या एजेंसी को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की एक सीमा तय कर देती है। यह सीमा कार्बन टन में होती है। मतलब यह हुआ कि जितना उत्सर्जन होगा उसका वजन टन में आंका जाएगा। उदाहरण के लिए ए एक स्टील कंपनी है। सरकार उसके लिए कार्बन उत्सर्जन की सालाना सीमा 100 टन निर्धारित करती है। यह सीमा उसकी जरूरत, उस क्षेत्र में उपलब्ध नई तकनीक, कंपनी द्वारा बनाए जाने वाले प्रोडक्ट की उपयोगिता, कंपनी के प्रॉफिट, उसके स्थापित होने के स्थान आदि के आधार पर तय होती है। इसलिए एक जैसे दो उद्योगों के लिए यह सीमा अलग-अलग भी हो सकती है।
अब कंपनी ए साल में 100 टन की अपनी स्वीकृत सीमा से 10 टन कम यानी 90 टन ही कार्बन पैदा करती है तो उसने 10 टन का कार्बन क्रेडिट एक साल में हासिल किया। नियामक एजेंसी इसकी माप करती है और घोषित करेगी कि कंपनी ए ने 10 टन कार्बन क्रेडिट हासिल किया है। यह कंपनी इस 10 टन कार्बन को अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेच सकती है।
खरीदार कौन होता है ?
खरीदारों की कमी नहीं है। इसी उदाहरण का दूसरा पक्ष देखिए। कंपनी बी के लिए भी 100 टन सालाना कार्बन उत्सर्जन की लिमिट रखी गई है, लेकिन वह अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाती है और 110 टन कार्बन पैदा करती है। ऐसे में नियामक एजेंसी उस पर पेनल्टी लगा सकती है जो एक बड़ी रकम हो सकती है या उसका लाइसेंस रद्द हो सकता है, आदि। ब्रिटेन समेत कुछ देशों में सीमा से अधिक उत्सर्जन करने के लिए कंपनियों को बाकायदा लाइसेंस खरीदना पड़ता है।
अभी हाल में लंदन के ‘संडे टाइम्स’ की एक रिपोर्ट के अनुसार स्टील कंपनी आर्सेलर मित्तल ने निर्धारित सीमा से कम कार्बन उत्सर्जन किया है। अखबार ने कंपनी के हवाले से खबर दी है कि यदि कंपनी का उत्सर्जन का यही ट्रेंड जारी रहा तो 2012 तक वह संचित कार्बन बेचकर एक अरब पौंड कमा लेगी। ऐसे में बी कंपनी के पास विकल्प है कि वह ए कंपनी या किसी और कंपनी से 10 टन कार्बन खरीद ले। इस प्रकार ए कंपनी ने अपना उत्सर्जन कम किया तो उसके समक्ष धन कमाने का एक अवसर पैदा हुआ। जबकि बी कंपनी अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो पाई, लेकिन कार्बन ट्रेडिंग ने उसका लाइसेंस रद्द होने या पेनल्टी लगने से बचा लिया।
कार्बन का मूल्य और बाजार
अभी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कार्बन की कीमत प्रति टन 15-20 डॉलर के करीब है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय भाव अलग-अलग हो सकते हैं। दूसरे उद्योग आपस में एक-दूसरे से संपर्क कर खुद भी कार्बन का भोल-भाव कर सकते हैं। वैसे, यूरोप में जहां कार्बन ट्रेडिंग बड़े पैमाने पर होने लगी है, वहां इसके एक्सजेंच भी खुलने लगे हैं जो शेयर बाजार की तरह होते हैं और जिनमें रेट घटते-बढ़ते हैं। यूरोप में ही अकेले कार्बन ट्रेडिंग का बाजार 6 करोड़ डॉलर से भी अधिक का हो चुका है। अमेरिका हालांकि क्योटो प्रोटोकॉल का सदस्य नहीं है, लेकिन कार्बन ट्रेडिंग को लेकर उसके तमाम राज्यों ने कदम उठाए हैं। विश्व बैंक के अनुसार कार्बन का वैश्विक बाजार तेजी से बढ़ रहा है। 2005 में यह महज 11 अरब डॉलर का था जो 2007-08 में 64 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। बैंक के अनुसार 2005 में 37.4 करोड़ टन कार्बन का आदान-प्रदान हुआ है। यह कारोबार 250 फीसदी सालाना की रफ्तार से बढ़ रहा है।
वनीकरण के जरिये भी कार्बन ट्रेडिंग संभव
यूएनईपीए के प्रावधानों के अनुसार प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के पास इसके और विकल्प भी है। जैसे वनीकरण, ग्रीन तकनीकें आदि। यदि कोई इंडस्ट्री लिमिट से ज्यादा कार्बन उत्सर्जित कर रही है तो इसकी क्षतिपूर्ति के लिए उसके पास दूसरा विकल्प वनीकरण का भी है। वह अपने देश में या दुनिया के दूसरे देश में कहीं भी वनीकरण कर सकती है। यह वनीकरण उतना होगा जिससे की सालाना इतना कार्बन सोखा जा सके जितना वह ज्यादा पैदा कर रही है। इसके लिए दिशा-निर्देश संबंधित देश की सरकारें तय करती हैं। इसके अलावा एक और विकल्प यह है कि कंपनियां ग्रीन तकनीक उपलब्ध कराकर भी कार्बन खरीद सकती हैं।
यदि कोई इंडस्ट्री अपनी लिमिट से ज्यादा कार्बन पैदा कर रही है तो वह उसके बराबर उत्सर्जन कम करने वाली ग्रीन तकनीकें तैयार कर सकती हैं। उदाहरण के लिए एक कार बनाने वाली कंपनी सालाना अपनी लिमिट से एक हजार टन अधिक कार्बन पैदा कर रही हैं। इस कंपनी द्वारा निर्मित कारें सालाना 100 टन कार्बन पैदा करती हैं। अब यदि कंपनी अपनी कारों में नई तकनीक लगाकर सालाना 50 टन कार्बन पैदा करने वाली 20 कारें बनाती हैं तो इस प्रकार वह एक हजार टन कार्बन बचाती हैं, इस प्रकार वह एक हजार टन कार्बन उत्सर्जन कम करने में सफल रहती है। ऐसे में कंपनी को न तो कार्बन खरीदना पड़ेगा और न ही अधिक उत्सर्जन का दंड भुगतना पड़ेगा।
राष्ट्रों के बीच कार्बन ट्रेडिंग
इसी प्रकार कार्बन ट्रेडिंग किसी राष्ट्र के समक्ष भी इस कारोबार के अवसर देती है। भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 1.2 टन है, जबकि वैश्विक औसत प्रति व्यक्ति 8 टन का है। हम जितना कार्बन पैदा करते हैं उसका 11.25 फीसदी भाग हमारे वन सोख लेते हैं। हमारे 21 फीसदी भू भाग पर वन हैं, लेकिन इनमें से 40 फीसदी छितरे वन हैं। हमारे पास इन छितरे वनों को घने वनों में तब्दील करने के मौके हैं। दूसरे, राष्ट्रीय वन नीति के तहत 33 फीसदी भू भाग वनों से आच्छादित होना चाहिए। यदि हम यह लक्ष्य भविष्य में हासिल कर लेते हैं। दूसरे, इंडस्ट्री में ग्रीन तकनीकों का इस्तेमाल बढ़ाते हैं तो यह मौका हमारे पास भी होगा। हालांकि भारत जैसे किसी विकासशील राष्ट्र के लिए कार्बन उत्सर्जन की कोई सीमा अभी तय नहीं है। इसलिए अभी हम उत्सर्जन में कमी लाकर अंतर्राष्ट्रीय परियोजनाओं के तहत आर्थिक सहायता का दावा कर सकते हैं।
कार्बन ट्रेडिंग के फायदे
कार्बन ट्रेडिंग से उद्योगों के लिए नए रास्ते खुलते हैं। फायदे दो तरह के हैं। एक, कम उत्सर्जन करने वाली कंपनी को सीधे आर्थिक फायदा पहुंचता है जिससे वह नया कारोबार कर सकती है जिससे रोजगार बढ़ेगा। दूसरे, जिन्हें कार्बन खरीदना पड़ता है, उनकी कोशिश यह होगी कि वे भी अपना उत्सर्जन कम करें ताकि उन्हें इसके लिए आर्थिक क्षति नहीं उठानी पड़े। मोटे तौर पर कार्बन उत्सर्जन को आर्थिक नफे-नुकसान से जोड़कर उद्योग जगत पर उत्सर्जन में कमी लाने का दबाव बढ़ा है। कोपेनहेगेन में इस दिशा में नीतिगत स्तर पर कुछ नई पहल हो सकती है।
भारत में कार्बन ट्रेडिंग
देश में कार्बन ट्रेडिंग होने लगी है। पर्यावरण मंत्रलय ने ऐसे करीब डेढ़ सौ परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान की है। हाल में देश की बड़ी स्टील कंपनी जिन्दल स्टील ने हाल में दावा किया है कि वह अगले दस साल में 1.5 करोड़ टन कार्बन बचत करेगी जिसे बेचकर उसे 22.5 करोड़ डॉलर की आय होगी। इसी प्रकार ऊर्जा क्षेत्र की कई बड़ी कंपनियां इस दिशा में कदम बढ़ा रही हैं। उम्मीद की जा रही है कि कोपेनहेगेन कांफ्रेस के बाद केंद्र सरकार उत्सर्जन में कमी लाने के लिए उद्योगों के लिए अनिवार्य नियम-कायदे तय करेगी। इससे उत्सर्जन में कमी लाने के प्रयास तेज होंगे और देश में कार्बन ट्रेडिंग बढ़ेगी। यहां एक बात और साफ कर दें कार्बन ट्रेडिंग सिर्फ इंडस्ट्री के लिए नहीं होती बल्कि किसी भी कंपनी के लिए हो सकती है, भले ही वह इंडस्ट्री नहीं हो। अन्य व्यवसायों में भी कार्बन उत्सर्जन होता है।
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