पर्यावरण संरक्षण के विषय पर पेरिस में वैश्विक स्तर का सम्मेलन कॉप-21 शुरू हो चुका है। सर्वप्रथम सन् 1992 में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन संधि पर हस्ताक्षर हुए थे तथा उस संधि में सम्मिलित सदस्य देशों के समूह को ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टिज़ (कॉप)’ का नाम देकर सन् 1995 में प्रथम सम्मेलन आयोजित हुआ।
यह इक्कीसवाँ सम्मेलन है; अतः इसे कॉप-21 कहा गया है। वर्तमान में 196 देश इसमें सम्मिलित हैं। यह ‘कॉप‘, ‘यूएनएफसीसीसी (संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा संधि )’ द्वारा संचालित होता है।
जलवायु परिवर्तन के अन्तर्गत ग्रीन हाउस गैसों व कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने हेतु अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सन् 1997 में ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ लाया गया। इसमें ‘सीबीडीआर-आरसी (सामान्य वरन् विभोदित उत्तरदायित्व और सम्बन्धित क्षमताएँ)’ के द्वारा मुख्यतः विकसित देशों की जवाबदेही ग्रीन हाऊस गैसों व कार्बन उत्सर्जन के लिये निर्धारित की गई।
गौरतलब विगत 150 वर्षों में 80 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिये प्रमुख रूप से विकसित देश ही उत्तरदायी हैं। अतः न्यायसंगत निर्णय करके उन विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन में कटौती और उनके द्वारा विकासशील देशों को तकनीकी व वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की भूमिका निर्धारित हुई थी।
8 वर्ष पश्चात् सन् 2005 से ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ क्रियान्वित हुआ तथा पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति अभी तक नहीं हुई है। ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ के अन्तिम चरण में विकसित व विकासशील देशों के मध्य कार्बन उत्सर्जन गहरी कूटनीति का विषय बन गया। इसी कारण गत ‘कॉप’ सम्मेलनों से वैश्विक हित के लिये कोई ठोस समाधान सामने नहीं आ रहे हैं और कार्बन उत्सर्जन में कटौती हेतु सर्वसम्मत सुदृढ़ वैश्विक नीति नहीं बन पा रही है।
पेरिस सम्मेलन का प्रमुख उद्देश्य पृथ्वी के तापमान में वृद्धि को इस शताब्दि के अन्त तक दो डिग्री सेल्सियस तक नियंत्रित करने का है। परन्तु वर्तमान समय में धरती का तापमान एक डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है और इस समस्या से निपटना एक बड़ी चुनौती है।
भारत सहित सभी सदस्य देशों ने अपने-अपने ‘आईएनडीसी (नियत राष्ट्रीय निर्धारित योगदान)’ घोषित किये हैं। भारत ने सन् 2030 तक अपने कार्बन उत्सर्जन में 30 से 35 प्रतिशत तक कमी लाने का लक्ष्य रखा है। जिसकी पूर्ति के लिये नवीनीकृत ऊर्जा का विस्तार, वनाच्छादन और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कटौती आदि कार्य शामिल हैं।
जलवायवीय परिवर्तन के कारण अनेक प्राकृतिक आपदाएँ हमारे देश के प्रत्येक क्षेत्र में सामने आ रही हैं। जम्मू-कश्मीर में दो बार बाढ़ आ चुकी है। उत्तराखण्ड की दो वर्ष पूर्व की त्रासदी और हिमालयी क्षेत्रों में अतिवृष्टि आदि कारणों से भू-स्खलन की अधिकता आदि उत्तर भारत में घटित आपदाएँ है।
विदर्भ व मराठवाड़ा में अनावृष्टि के कारण बारह हज़ार से अधिक गाँव जल व खाद्यान्न आपूर्ति की समस्या से ग्रस्त हैं। उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश, चक्रवातों की पुनरावृत्ति की समस्या से पीड़ित है तथा वर्तमान में तमिलनाडु अतिवृष्टि के कारण बाढ़ से जूझ रहा है।
राष्ट्रीय स्तर पर इनके समाधान हेतु विद्युत उत्पादन में नवीनीकृत ऊर्जा उत्पादन का भाग अधिकतम करके एवं उसके द्वारा उद्योग एवं रेल परिवहन को आपूर्ति, की जाना चाहिए। इसी के साथ जैव विविधता, वनों व पर्यावरण की सुरक्षा भी आवश्यक है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की प्रमुख जवाबदेही है।
कार्बन उत्सर्जन में वह चौथे स्थान पर है तथा अमेरिका इस सूची में प्रथम स्थान पर है। अमेरिका का कार्बन उत्सर्जन भारत की तुलना में 22 गुना है और वहाँ जीवाश्म ईंधन के उपयोग में निरन्तर बढ़ोत्तरी हो रही है। उनके विकास व प्रदूषण में प्रत्यक्ष सम्बन्ध है; क्योंकि उनका नवीनीकृत ऊर्जा उत्पादन उपयोग की तुलना में अत्यन्त अल्प है।
वे कार्बन उत्सर्जन में पर्याप्त कटौती के लिये कोई वास्तविक धरातलीय प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। अतः अमेरिका के द्वारा घोषित ‘आईएनडीसी’ के लक्ष्यों का पूरा होना बहुत दूर की कौड़ी है।
यूरोपीय संगठन और अमेरिका की नीति जलवायु परिवर्तन के विषय पर कमोबेश एक समान है। दोनों ही विकासशील देशों को उपयुक्त तकनीकी तथा जलवायवीय वित्तीय सहायता देने पर सहमत नहीं हैं। अपने कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के विषय पर भी वे हठधर्मिता प्रदर्शित कर रहे हैं।
चीन भी विश्व के मुख्य कार्बन उत्सर्जकों में से एक है तथा उसने व अमेरिका ने मात्र अपने परस्पर हितों को साधने के लिये कुछ सीमा तक कार्बन उत्सर्जन में कमी करने के समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। इसका पर्यावरण संरक्षण से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है।
अफ्रीका महाद्वीप का उत्सर्जन तुलनात्मक रूप से कम है। परन्तु विकसित देशों के कारण उसे अपने विकास से समझौता करना पड़ रहा है। एक मुख्य विषय प्रशान्त महासागरीय व आर्कटिक क्षेत्र के द्वीपीय देशों, आस्ट्रेलिया और दक्षिणी अमेरिका के अनेक राष्ट्रों में निवास करने वाले स्वदेशी लोगों से जुड़ा है; जिसमें अखिल विश्व के तटीय क्षेत्रों में रहने वाले मूल निवासी भी सम्मिलित हैं।
वे सभी अपने परिक्षेत्र में भू-संरक्षण और वनसंरक्षण के लिये कुछ हद तक उत्तरदायी हैं। परन्तु हिमखण्डों के पिघलने, सामुद्रिक जलस्तर के बढ़ने और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से उनके अस्तित्व व जीवनशैली दोनों पर संकट मंडरा रहा है।
यह परिस्थिति जलवायवीय शरणार्थियों की समस्या भी उत्पन्न कर सकती है। अतः इनके हितों को साधने हेतु एवं व्यावहारिक हल निकालने के लिये अनेक देशों के नेताओं और उनके उच्च प्रशासनिक अधिकारियों को भी इस सम्मेलन में चर्चा हेतु आमंत्रित किया गया है।
इस सारी समस्या का हल सभी देशों द्वारा वैश्विक कल्याण हेतु अपने-अपने उत्तरदायित्व को पूर्णतः समझकर उचित कार्यवाही करने से निकल सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा, सार्वदेशिक, कार्बन उत्सर्जन कटौती व हरित (नवीनीकृत) ऊर्जा के उत्पादन का वार्षिक विश्लेषण वर्तमान में क्रियान्वित करना अनिवार्य है।
वैसे यह सन् 2024 में प्रस्तावित है। भारत द्वारा दृढ़ता से पर्यावरण की सुरक्षा के पक्ष में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने पर सर्वकल्याणकारी जलवायु परिवर्तन नीति क्रियान्वित करवाने का मार्ग प्रशस्त होगा। जिससे सर्वसम्मति से जलवायु नीति व अर्थनीति में समन्वय स्पष्ट करके विकसित और विकासशील देशों के सार्वभौमिक हित साझा होते हैं।
इसके पश्चात सुरक्षित नवीनीकृत ऊर्जा का विकेन्द्रीकृत उत्पादन करके राष्ट्रों को ऊर्जा स्वावलम्बी बनाने की जरूरत भी है। इस हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा शोध व अनुसंधान के क्षेत्र में अन्तरराष्ट्रीय केन्द्रों की स्थापना करना मुख्य कार्य है।
आने वाला पखवाड़ा हमारे पृथ्वी ग्रह के भविष्य के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है।
यह इक्कीसवाँ सम्मेलन है; अतः इसे कॉप-21 कहा गया है। वर्तमान में 196 देश इसमें सम्मिलित हैं। यह ‘कॉप‘, ‘यूएनएफसीसीसी (संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा संधि )’ द्वारा संचालित होता है।
जलवायु परिवर्तन के अन्तर्गत ग्रीन हाउस गैसों व कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने हेतु अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सन् 1997 में ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ लाया गया। इसमें ‘सीबीडीआर-आरसी (सामान्य वरन् विभोदित उत्तरदायित्व और सम्बन्धित क्षमताएँ)’ के द्वारा मुख्यतः विकसित देशों की जवाबदेही ग्रीन हाऊस गैसों व कार्बन उत्सर्जन के लिये निर्धारित की गई।
गौरतलब विगत 150 वर्षों में 80 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिये प्रमुख रूप से विकसित देश ही उत्तरदायी हैं। अतः न्यायसंगत निर्णय करके उन विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन में कटौती और उनके द्वारा विकासशील देशों को तकनीकी व वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की भूमिका निर्धारित हुई थी।
8 वर्ष पश्चात् सन् 2005 से ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ क्रियान्वित हुआ तथा पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति अभी तक नहीं हुई है। ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ के अन्तिम चरण में विकसित व विकासशील देशों के मध्य कार्बन उत्सर्जन गहरी कूटनीति का विषय बन गया। इसी कारण गत ‘कॉप’ सम्मेलनों से वैश्विक हित के लिये कोई ठोस समाधान सामने नहीं आ रहे हैं और कार्बन उत्सर्जन में कटौती हेतु सर्वसम्मत सुदृढ़ वैश्विक नीति नहीं बन पा रही है।
पेरिस सम्मेलन का प्रमुख उद्देश्य पृथ्वी के तापमान में वृद्धि को इस शताब्दि के अन्त तक दो डिग्री सेल्सियस तक नियंत्रित करने का है। परन्तु वर्तमान समय में धरती का तापमान एक डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है और इस समस्या से निपटना एक बड़ी चुनौती है।
भारत सहित सभी सदस्य देशों ने अपने-अपने ‘आईएनडीसी (नियत राष्ट्रीय निर्धारित योगदान)’ घोषित किये हैं। भारत ने सन् 2030 तक अपने कार्बन उत्सर्जन में 30 से 35 प्रतिशत तक कमी लाने का लक्ष्य रखा है। जिसकी पूर्ति के लिये नवीनीकृत ऊर्जा का विस्तार, वनाच्छादन और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कटौती आदि कार्य शामिल हैं।
जलवायवीय परिवर्तन के कारण अनेक प्राकृतिक आपदाएँ हमारे देश के प्रत्येक क्षेत्र में सामने आ रही हैं। जम्मू-कश्मीर में दो बार बाढ़ आ चुकी है। उत्तराखण्ड की दो वर्ष पूर्व की त्रासदी और हिमालयी क्षेत्रों में अतिवृष्टि आदि कारणों से भू-स्खलन की अधिकता आदि उत्तर भारत में घटित आपदाएँ है।
विदर्भ व मराठवाड़ा में अनावृष्टि के कारण बारह हज़ार से अधिक गाँव जल व खाद्यान्न आपूर्ति की समस्या से ग्रस्त हैं। उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश, चक्रवातों की पुनरावृत्ति की समस्या से पीड़ित है तथा वर्तमान में तमिलनाडु अतिवृष्टि के कारण बाढ़ से जूझ रहा है।
राष्ट्रीय स्तर पर इनके समाधान हेतु विद्युत उत्पादन में नवीनीकृत ऊर्जा उत्पादन का भाग अधिकतम करके एवं उसके द्वारा उद्योग एवं रेल परिवहन को आपूर्ति, की जाना चाहिए। इसी के साथ जैव विविधता, वनों व पर्यावरण की सुरक्षा भी आवश्यक है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की प्रमुख जवाबदेही है।
कार्बन उत्सर्जन में वह चौथे स्थान पर है तथा अमेरिका इस सूची में प्रथम स्थान पर है। अमेरिका का कार्बन उत्सर्जन भारत की तुलना में 22 गुना है और वहाँ जीवाश्म ईंधन के उपयोग में निरन्तर बढ़ोत्तरी हो रही है। उनके विकास व प्रदूषण में प्रत्यक्ष सम्बन्ध है; क्योंकि उनका नवीनीकृत ऊर्जा उत्पादन उपयोग की तुलना में अत्यन्त अल्प है।
वे कार्बन उत्सर्जन में पर्याप्त कटौती के लिये कोई वास्तविक धरातलीय प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। अतः अमेरिका के द्वारा घोषित ‘आईएनडीसी’ के लक्ष्यों का पूरा होना बहुत दूर की कौड़ी है।
यूरोपीय संगठन और अमेरिका की नीति जलवायु परिवर्तन के विषय पर कमोबेश एक समान है। दोनों ही विकासशील देशों को उपयुक्त तकनीकी तथा जलवायवीय वित्तीय सहायता देने पर सहमत नहीं हैं। अपने कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के विषय पर भी वे हठधर्मिता प्रदर्शित कर रहे हैं।
चीन भी विश्व के मुख्य कार्बन उत्सर्जकों में से एक है तथा उसने व अमेरिका ने मात्र अपने परस्पर हितों को साधने के लिये कुछ सीमा तक कार्बन उत्सर्जन में कमी करने के समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। इसका पर्यावरण संरक्षण से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है।
अफ्रीका महाद्वीप का उत्सर्जन तुलनात्मक रूप से कम है। परन्तु विकसित देशों के कारण उसे अपने विकास से समझौता करना पड़ रहा है। एक मुख्य विषय प्रशान्त महासागरीय व आर्कटिक क्षेत्र के द्वीपीय देशों, आस्ट्रेलिया और दक्षिणी अमेरिका के अनेक राष्ट्रों में निवास करने वाले स्वदेशी लोगों से जुड़ा है; जिसमें अखिल विश्व के तटीय क्षेत्रों में रहने वाले मूल निवासी भी सम्मिलित हैं।
वे सभी अपने परिक्षेत्र में भू-संरक्षण और वनसंरक्षण के लिये कुछ हद तक उत्तरदायी हैं। परन्तु हिमखण्डों के पिघलने, सामुद्रिक जलस्तर के बढ़ने और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से उनके अस्तित्व व जीवनशैली दोनों पर संकट मंडरा रहा है।
यह परिस्थिति जलवायवीय शरणार्थियों की समस्या भी उत्पन्न कर सकती है। अतः इनके हितों को साधने हेतु एवं व्यावहारिक हल निकालने के लिये अनेक देशों के नेताओं और उनके उच्च प्रशासनिक अधिकारियों को भी इस सम्मेलन में चर्चा हेतु आमंत्रित किया गया है।
इस सारी समस्या का हल सभी देशों द्वारा वैश्विक कल्याण हेतु अपने-अपने उत्तरदायित्व को पूर्णतः समझकर उचित कार्यवाही करने से निकल सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा, सार्वदेशिक, कार्बन उत्सर्जन कटौती व हरित (नवीनीकृत) ऊर्जा के उत्पादन का वार्षिक विश्लेषण वर्तमान में क्रियान्वित करना अनिवार्य है।
वैसे यह सन् 2024 में प्रस्तावित है। भारत द्वारा दृढ़ता से पर्यावरण की सुरक्षा के पक्ष में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने पर सर्वकल्याणकारी जलवायु परिवर्तन नीति क्रियान्वित करवाने का मार्ग प्रशस्त होगा। जिससे सर्वसम्मति से जलवायु नीति व अर्थनीति में समन्वय स्पष्ट करके विकसित और विकासशील देशों के सार्वभौमिक हित साझा होते हैं।
इसके पश्चात सुरक्षित नवीनीकृत ऊर्जा का विकेन्द्रीकृत उत्पादन करके राष्ट्रों को ऊर्जा स्वावलम्बी बनाने की जरूरत भी है। इस हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा शोध व अनुसंधान के क्षेत्र में अन्तरराष्ट्रीय केन्द्रों की स्थापना करना मुख्य कार्य है।
आने वाला पखवाड़ा हमारे पृथ्वी ग्रह के भविष्य के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है।
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