कोप 16 : कानकुन समझौताः डूबते को तिनका


स्पेनी में एक कहावत है, ‘माल कैसा भी हो हांक हमेशा ऊंची लगानी चाहिए।’ मैक्सिको के कानकुन शहर में हुए जलवायु सम्मेलन से लौट रहे 194 देशों के मंत्री शायद इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए सम्मेलन में हुए समझौतों की तारीफ़ कर रहे हैं।

सम्मेलन के मेज़बान मैक्सिको के राष्ट्रपति फ़िलीपे काल्डिरोन ने कहा कि इस सम्मेलन ने विश्व के नेताओं के लिए धरती को स्वस्थ और सुरक्षित रखने के साझा प्रयासों के नए क्षितिज खोले हैं। भारत के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि हम समझौते की भाषा से ख़ुश हैं। कानकुन में एक महत्त्वपूर्ण क़दम आगे बढ़ाया गया है।

जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए कानकुन में हुए समझौते हमें कोपनहेगन सम्मेलन के समझौतों से कितना आगे ले जाते हैं इसका आंकलन करने से पहले कानकुन संमेलन के समझौतों पर नज़र डालना ज़रूरी है।

चार साल लंबी जलवायु वार्ताओं के बाद कानकुन में जमा हुए 194 देशों के प्रतिनिधि जिन बातों पर सहमत हुए हैं उनमें ये पांच प्रमुख हैं:

 

समझौते के राजनीतिक घोषणापत्र


पहला वायुमंडल के तापमान को 2 डिग्री सेल्शियस से आगे बढ़ने से रोकना ज़रूरी है इसलिए कार्बन गैसों के उत्सर्जन में हो रही विश्वव्यापी वृद्धि को जल्दी से जल्दी रोका जाना चाहिए

दूसरा कोपनहेगन समझौते के तहत विकसित धनी देशों द्वारा की गई कार्बन उत्सर्जन कटौती की घोषणाओं को संयुक्त राष्ट्र दस्तावेज़ में दर्ज किया जाएगा लेकिन धनी देशों पर इन घोषणाओं पर अमल करने की कोई कानूनी बंदिश नहीं होगी

तीसरा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का मुक़ाबला करने और स्वच्छ तकनीकि का विकास करने में विकासोन्मुख देशों की आर्थिक मदद करने के लिए हरित जलवायु कोष बनाया जा रहा है, जिससे विकासोन्मुख देशों को 2020 तक 100 अरब डॉलर की सालाना सहायता मिलेगी, लेकिन यह पैसा कहां से आएगा इसका फ़ैसला आगे के लिए छोड़ दिया गया है। हरित जलवायु कोष से मदद लेने वाले देशों को जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के अपने उपायों का निरीक्षण कराना होगा।

चौथा विकासोन्मुख देशों को भी अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के आधार पर अपने कार्बन कटौती के उपायों की रिपोर्ट देनी होगी बशर्ते कि रिपोर्ट की प्रक्रिया में आने वाले ख़र्च के लिए उन्हें आर्थिक सहायता दी जाए।

पांचवां वन विनाश से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को रोकने के लिए धनी विकसित देश विकासोन्मुख देशों को वनों के संरक्षण के लिए आर्थिक सहायता देंगे। इस काम में बड़े उद्योग भी हाथ बंटा सकेंगे।

 

कार्बन उत्सर्जन घटाने का संकल्प


पिछले साल के कोपनहेगन समझौते के राजनीतिक घोषणापत्र पर नज़र डालते ही स्पष्ट हो जाता है कि कानकुन समझौते की पांचों प्रमुख बातों पर राजनीतिक सहमति कोपनहेगन में ही हो चुकी थी

जिस हरित जलवायु कोष को पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश कानकुन की सबसे बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं उसी का लालच देकर कोपनहेगन में राष्ट्रपति ओबामा ने ऐसे राजनीतिक समझौते के लिए सबको राज़ी किया था, जिस में कार्बन कटौती की कानूनी बाध्यता की जगह स्वेच्छाचार को बढ़ावा दिया गया था

कोपनहेगन समझौते में देशों ने यथाशक्ति अपने कार्बन उत्सर्जन को घटाने के वचन देने का संकल्प लिया था। जैसे दान का संकल्प लिया जाता है।

उस सम्मेलन के बाद अमेरिका ने साम-दाम की नीति अपनाते हुए कोई 55 से अधिक देशों से 2020 तक के अपने-अपने कार्बन कटौती के वचन लिए थे, जिन्हें कानकुन सम्मेलन में एक संयुक्त राष्ट्र दस्तावेज़ में दर्ज करने का फ़ैसला लिया गया है।

मसलन यूरोपीय संघ ने वचन दिया है कि वह अपने कार्बन उत्सर्जन को घटा कर 2020 तक उसे 1990 के स्तर से 20 प्रतिशत नीचे ले आएगा। यूरोपीय संघ ने यह वचन भी दिया है कि चीन और अमेरिका जैसे दुनिया के सबसे अधिक कार्बन छोड़ने वाले देश भी यदि कार्बन कटौती के प्रस्ताव में शामिल होते हैं तो वह अपने कार्बन उत्सर्जन को और घटा कर उसे 1990 के स्तर से 30 प्रतिशत नीचे तक ले जाने के लिए तैयार है। शायद यूरोपीय संघ को अच्छी तरह मालूम है कि दुनिया की लगभग 40 प्रतिशत कार्बन गैसें छोड़ने वाले चीन और अमेरिका अभी किसी बाध्यताकारी कार्बन कटौती संधि में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हैं। यानी ‘न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी’ग़ौरतलब है कि दुनिया के देश इस समय कुल मिलाकर हर साल 4700 करोड़ टन से भी ज्यादा कार्बन गैसें वायुमंडल में छोड़ रहे हैं। जलवायु वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर 2020 तक हमारा सालाना कार्बन उत्सर्जन 4400 करोड़ टन से ऊपर चला गया तो फिर तापमान के पारे को 2 डिग्री सेल्शियस से ऊपर जाने से नहीं रोका जा सकेगा

 

तापमान को ऊपर चढ़ने से रोकना ज़रूरी


कानकुन में सभी देशों ने यह तो माना है कि जलवायु के संतुलन को बचाने के लिए तापमान के पारे को 2 डिग्री सेल्शियस से ऊपर चढ़ने रोकना ज़रूरी है, परंतु इसके लिए अपने कार्बन उत्सर्जन में पर्याप्त कटौती करने को कोई तैयार नहीं है।

वायुमंडल में छोड़ी जा रही 4700 करोड़ टन कार्बन गैसों में से इस समय 950 करोड़ टन चीन छोड़ रहा है, 700 करोड़ टन अमेरिका, 550 करोड़ टन यूरोपीय संघ और 250 करोड़ टन भारत छोड़ रहा है

चीन 2020 तक अपने आर्थिक उत्पादन से पैदा होने वाली कार्बन गैसों में 2005 के स्तर की तुलना में 40 से 45 प्रतिशत तक की कटौती करने की बात कर रहा है जबकि भारत ने 2020 तक अपनी कार्बन गैसों में 20 से 25 प्रतिशत तक की कमी लाने का वचन दिया है, लेकिन अमेरिका ने, जो जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे बड़ा दोषी है, अपनी कार्बन गैसों में 2005 के स्तर से केवल 14 से 17 प्रतिशत तक की ही कटौती की बात कर रहा है और उसके लिए भी कानून की बाध्यता स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

सैद्धांतिक तौर पर चीन, भारत और दूसरे छोटे-बड़े विकासोन्मुख देशों को अमेरिका जैसे धनी, विकसित और जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े दोषी देश की यह बात गवारा नहीं है कि वह ख़ुद तो जलवायु के लिए कुछ भी करने को तैयार न हो और विकासोन्मुख देशों से उनके स्वेच्छा से दिए गए वचनों के निभाने का सबूत मांगे, फिर भी लगता है चीन और भारत ने कानकुन में बहुजन हिताय लोच दिखाते हुए अपने कार्बन कटौती उपायों की रिपोर्ट देने के लिए हां कर दी है।

लेकिन सवाल यह है कि अपनी इस लोच के बदले उन्होंने अमेरिका से क्या हासिल किया है? अमेरिका के राष्ट्रपति की हालत तो यह है कि उन्होंने कोपनहेगन में अपने कार्बन उत्सर्जन में 14 से 17 प्रतिशत की कटौती का जो टूटपूंजिया वचन दिया था उसी को निभाना उनके लिए दूभर हो रहा है।

अमेरिका सेनेट राष्ट्रपति ओबामा के कार्बन बिल को ठुकरा चुकी है और संसदीय चुनावों में जलवायु विरोधी रिपब्लिकन पार्टी के जीत जाने के कारण भविष्य में किसी और कार्बन बिल के पास होने के आसार दूर-दूर तक नहीं हैं।

जिस हरित जलवायु कोष का लालच देकर ओबामा ने कोपनहेगन की वार्ताओं को बाध्यताकारी संधि की पटरी से उतारा था उस कोष के लिए भी धन देने में पहल करने की बजाए अमेरिका ने निजी क्षेत्र से पैसा जुटाने की तज़वीज़ पेश की है।

 

कानूनी तौर पर बाध्य नहीं


इस कोष की स्थापना के समझौते से सब ख़ुश तो हैं, लेकिन इस कोष के लिए हर वर्ष 100 अरब डॉलर आएंगे कहां से इसका जवाब किसी के पास नहीं है। कुल मिलाकर कानकुन में हुए समझौतों को किस आधार पर महत्त्वपूर्ण अगला क़दम बताया जा रहा है यह समझ पाना मुश्किल है।

कानकुन में हुए समझौतों की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि कोई समझौता किसी भी देश को जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए कुछ भी करने पर कानूनी तौर पर बाध्य नहीं करता।

लगभग 48 पृष्ठों का यह दस्तावेज़ सदाचार के किसी पाठ की तरह, यह करना चाहिए, वह करना चाहिए, तो गिनाता है, लेकिन ये सारे काम कौन करेगा, कैसे करेगा और यदि नहीं करेगा तो क्या किया जाएगा, इस बारे में एकदम मौन है। यही इस समझौते और 2005 से लागू हुई क्योतो संधि के बीच सबसे बड़ा अंतर कहा जा सकता है।

क्योतो संधि पिछले कई दशकों से कार्बन गैसें छोड़ कर वायुमंडल में गर्मी बढ़ाते आ रहे अमेरिका और जापान जैसे 37 औद्योगिक देशों और यूरोपीय संघ के देशों को, अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करते हुए 2008 से 2012 के बीच उसे 1990 के स्तर से भी पांच प्रतिशत नीचे ले आने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य करती है, लेकिन कोपनहेगन और कानकुन के समझौते इन देशों या चीन, भारत और ब्रज़ील जैसी नई आर्थिक शक्तियों पर किसी तरह की कोई कानूनी बंदिश नहीं लगाते।

दरअसल कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने की कानूनी बाध्यता के सवाल पर ही चार वर्षों से बवाल मचा हुआ है जिसने कोपनहेगन के शिखर संमेलन को नाकाम किया और अब यही सवाल कानकुन के संमेलन को भी नाकाम करने जा रहा था।

इसलिए कानकुन सम्मेलन के आयोजकों ने कार्बन कटौती के सवाल को अगले साल के डर्बन जलवायु संमेलन के लिए छोड़ कर हरित जलवायु कोष जैसे सवालों पर ध्यान केंद्रित किया ताकि संयुक्त राष्ट्र वार्ताओं की प्रक्रिया में लोगों का भरोसा बना रहे, नतीजतन जलवायु वार्ताओं की साख तो शायद बच गई लेकिन दुनिया ख़तरे में पड़ गई है।

कानकुन सम्मेलन में जापान और रूस भी अमेरिका के साथ हो गए हैं और क्योतो संधि जैसी कानूनी बंदिशें लगाने वाली संधि का विरोध करने लगे हैं। रूस का कहना है कि वह अपनी कार्बन गैसों पर तभी कानूनी बंदिश स्वीकार करेगा जब पहले उन्हें अमेरिका की कार्बन गैसों पर भी लगाया जाए।

इसी तरह जापान कहता है कि वह तभी अपनी गैसों पर कानूनी बंदिश स्वीकार करेगा जब पहले चीन की कार्बन गैसों पर कानूनी बंदिश लगाई जाए। अमेरिका कहता है कि वह तभी किसी कानूनी बंदिश को स्वीकार करेगा जब पहले सारे देश उसे स्वीकार करें।

अगर बाकी सारे देशों को मना भी लिया जाए तब भी उन्हें अमेरिका पर भरोसा नहीं है. क्योंकि अमेरिका की संसद में जलवायु विरोधियों का वर्चस्व है और संसद में पास कराए बिना राष्ट्रपति ओबामा अपने किसी वचन को कानून में नहीं बदल सकते। इसलिए अगले साल के डर्बन संमेलन से भी क्योतो जैसी किसी बाध्यताकारी संधि की आशा नहीं की जा सकती।

ऐसे में लोग बाध्यताकारी संधियों की जगह अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार कार्बन कटौती के वचनों के महत्त्व का गुणगान करने लगे हैं।

मुश्किल यह है कि कानूनी बंदिश लगाने वाली संधि के बिना 2020 तक दुनिया की कार्बन गैसों के उत्सर्जन को 4400 करोड़ टन की सीमा के भीतर रख पाना असंभव सा है।

 

कार्बन उत्सर्जन की सीमा पार


दुनिया का कार्बन उत्सर्जन इस सीमा को इसी वर्ष पार कर चुका है और इसी तरह बातूनी जमा-ख़र्च चलता रहा तो 2020 तक बढ़कर वह 6000 करोड़ टन तक पहुंच सकता है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसा होने पर तापमान का पारा 2 डिग्री की बजाए 3.5 डिग्री तक चढ़ जाएगा और उसके साथ उठेगा समुद्रों का जलस्तर जो मालदीव्स जैसे देशों और कोलकाता जैसे महानगरों को लील लेगा।

कानकुन में जमा हुए देशों ने इस ख़तरे की वास्तविकता को तो स्वीकार किया है लेकिन इससे निपटने के लिए आवश्यक क़दमों से मुंह चुरा गए हैं, यानी कानकुन ने इस डूबती दुनिया को सहारा तो दिया है लेकिन वह सहारा तिनके भर का ही है।

 

 

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