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मेक्सिको के कानकुन में हुआ 16वां जलवायु परिवर्तन विषयक सम्मेलन अमेरिका और विकसित मुल्कों के अड़ियल रवैये के चलते बिना किसी ठोस नतीजे के खत्म हो गया। बीते साल कोपेनहेगन में हुए सम्मेलन की तरह यहां भी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती को लेकर विकसित और विकासशील मुल्कों के बीच कोई आम सहमति नहीं बन पाई। सम्मेलन शुरू होने के पहले हालांकि यह उम्मीद की जा रही थी कि विकसित मुल्क इस मर्तबा उत्सर्जन कटौती संबंधी कोई कानूनी बाध्यकारी समझौते पर अपनी राय बना लेंगे लेकिन दो हफ्ते की लंबी कवायद के बाद भी कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए कोई वाजिब समझौता आकार नहीं ले सका। अलबत्ता सम्मेलन का जो आखिरी मसौदा सामने निकल कर आया, उसमें कार्बन उत्सर्जन कम करने की बात जरूर कही गई है, मगर इसे कैसे हासिल किया जाएगा, इस पर साफ-साफ कुछ नहीं कहा है। गौरतलब है कि 1997 में जापान के क्योतो शहर में हुआ ऐतिहासिक अंतर्राष्ट्रीय करार क्योतो प्रोटोकॉल, जो 2004 से अमल में आया, में यह तय हुआ था कि 37 विकसित मुल्क स्वैच्छिक कटौती के तहत आहिस्ता-आहिस्ता अपने यहां 2012 तक 4 ग्रीनहाउस गैस और 2 दीगर खतरनाक गैसों का प्रदूषण 1990 के स्तर पर 5 फीसदी घटा देंगे लेकिन जलवायु परिवर्तन पर अंतर्शासकीय पैनल (आईपीसीसी) जो संयुक्त राष्ट्र संघ का ही एक अंग है, उसकी हालिया रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती है कि क्योतो संधि से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर कोई खास असर नहीं पड़ा।
इसकी सबसे बड़ी वजह अमेरिका का शुरू से ही इस संधि से बाहर रहने का फैसला था, जबकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यदि देखें तो हवा में कार्बन डाईऑक्साइड घोलने में अकेला अमेरिका 26 फीसदी का हिस्सेदार है। एक आकलन के मुताबिक, भारत द्वारा उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों के बरक्स अमेरिका दस गुना अधिक गैस वातावरण में उगलता है। प्रति व्यक्ति स्तर पर नापा जाए तो यह अनुपात और भी खतरनाक है। क्योतो प्रोटोकॉल में यह सिद्धांत आम सहमति से मंजूर किया गया था कि जिस मुल्क की धरती के वातावरण को प्रदूषित करने में जितनी भूमिका है वह उसके खतरों से धरती को बचाने के लिए उतनी ही जिम्मेदारी निभाएगा। इस प्रोटोकॉल में अमीर मुल्कों को एक अलग खाने में रखा गया और उनके लिए बाकायदा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के बाध्यकारी लक्ष्य तय किए गए। प्रोटोकॉल में बाकी विकासशील मुल्कों, जिनमें भारत भी शामिल है उनके लिए इस तरह का कोई बाध्यकारी लक्ष्य नहीं था। देखा जाए तो यह सही भी था, क्योंकि पिछड़े और विकासशील मुल्क जैसे-जैसे विकास करेंगे, वैसे-वैसे उनके यहां उत्सर्जन भी बढ़ेगा। अमेरिका और तमाम विकसित मुल्कों से यह पूछा जाना चाहिए कि भारत और बाकी विकासशील मुल्कों को विकास के उस स्तर तक पहुंचने का क्या कोई हक नहीं है, जहां अमीर मुल्क पहले ही पहुंच चुके हैं? इस क्रम में यदि इन मुल्कों में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है तो क्या इन पर नियंत्रण की वही कसौटियां अमल में लाई जाएंगी, जो तरक्की कर चुके मुल्कों के लिए जरूरी है?
सच बात तो यह है कि जलवायु संकट की प्राथमिक जिम्मेदारी पश्चिम के औद्योगिक मुल्कों की है, जिन्होंने वातावरण में अभी जमा ग्रीनहाउस गैसों का 80 फीसदी उगला है, पर कानकुन जलवायु सम्मेलन में विकसित मुल्कों ने इस अहम मसले पर दुनिया से कोई वादा नहीं किया। संयुक्त राष्ट्र संघ के तहत हुए जलवायु परिवर्तन करार (यूएनएफसीसीसी) के बुनियादी उसूलों से उन्होंने पूरी तरह किनारा कर लिया। यही इस सम्मेलन की सबसे बड़ी नाकामी है। विकासशील मुल्क एकजुट होकर यदि इस मुद्दे पर विकसित मुल्कों से संघर्ष करते तो शायद कोई सर्वमान्य रास्ता निकल भी आता लेकिन वे भी अपनी लड़ाई सही तरह नहीं लड़ पाए। बेसिक समूह जिसमें भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे मुल्क शामिल हैं, उन पर यह जिम्मेदारी थी कि वे आगे बढ़कर विकासशील मुल्कों की रहनुमाई करें और कोई ऐसा समझौता कराने में कामयाब हों, जो विकासशील मुल्कों के हित में हो लेकिन बेसिक समूह खुद कई मुद्दों पर आपस में बंटा नजर आया।
जहां तक कानकुन में हमारे मुल्क की भूमिका का सवाल है, वहां पहुंचने से पहले ही पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने अपने बयानों से यह इशारा देना शुरू कर दिया था कि सभी मुल्कों को अपने यहां वाजिब कानूनी स्वरूप के तहत उत्सर्जन रोकने की बाध्यकारी प्रतिबद्धता जतानी चाहिए लेकिन भारत के इस रुख से जहां विकसित मुल्क के नुमाइंदे रजामंद नहीं हुए, वहीं बेसिक समूह भी इस मुद्दे पर बंटा हुआ था, जिसके चलते उत्सर्जन कटौती पर क्योतो प्रोटोकॉल को 2012 के आगे बढ़ाने पर कोई उचित समझौता शक्ल नहीं ले पाया। हां, अलबत्ता आखिरी मसौदे में भारत की कई राय जरूर शामिल कर ली गईं। इसमें खास तौर पर उसके अंतर्राष्ट्रीय परामर्श और विश्लेषण (आईसीए) जैसे सुझाव शामिल हैं। आईसीए एक पारदर्शी निगरानी प्रणाली है, जो आइंदा इस बात पर नजर रखेगी कि कोई मुल्क घरेलू स्तर पर अपने यहां जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए कोई कारगर कदम उठा रहा है या नहीं? क्योतो करार का परिणाम 2012 के बाद क्या होगा? हालांकि इस पर सम्मेलन में कोई वाजिब फैसला नहीं हो पाया, लेकिन विकसित मुल्क तमाम जद्दोजहद के बाद आखिरकार इस बात के लिए रजामंद हो गए हैं कि विकासशील मुल्कों की खातिर 100 अरब डॉलर का हरित कोष बनाया जाए, जो जलवायु संकट से निपटने में काम आएगा। सम्मेलन में प्रौद्योगिकी साझीदारी की प्रणाली पर भी व्यापक समझौता हुआ। इसके तहत यह सुनिश्चित होगा कि गरीब और जलवायु परिवर्तन से प्रभावित मुल्कों तक प्रौद्योगिकी की पहुंच आसानी से हो और उसकी लागत भी कम हो। जलवायु संरक्षण योजना बनाने वाले मुल्कों की मदद अब एक विशेष समिति करेगी। साथ ही उत्सर्जन में कमी पर भी नजर रखी जाएगी।
विकसित मुल्कों द्वारा मूलभूत उत्सर्जन में कमी का मसला अभी भी अनसुलझा है। क्योतो प्रोटोकॉल को आगे बढ़ाने और उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य तय न करने का मतलब सीधे-सीधे पर्यावरण को नुकसान है। जाहिर है, इससे जलवायु संकट से निपटने में कोई मदद नहीं मिलेगी। वैश्वीकरण का फायदा लेने वाले अहम औद्योगिक मुल्क एवं बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाएं अरसे से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने की पहल का इस बिना पर मुखालफत करती रहीं हैं कि इसमें भारी लागत की दरकार है और इसमें उनकी आर्थिक वृद्धि और विकास प्रभावित होंगे लेकिन इसके उलट सच्चाई कुछ और है। आईपीसीसी, जिसमें तमाम मुल्कों के तीन हजार से अधिक वैज्ञानिक शामिल हैं, उनकी रिपोर्ट कहती है कि ऊर्जा मामलों में महत्वपूर्ण बदलावों से महज 5-10 फीसदी अधिक खर्च ही लगेगा। 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के आंकड़ों को 450 पीपीएस के इर्द-गिर्द तक ले आने के लिए यदि कमी लाने की तमाम तरकीबें अमल में लाई जाएं तो आगामी दो दशकों में वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में महज 3 फीसदी की कमी आएगी। यानी हर साल एक फीसदी का दसवां हिस्सा। कम ऊर्जा लागत, बेहतर बाजार क्षमताओं और प्रौद्योगिकी में सुधार की वजह से कुछ मॉडल तो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोत्तरी तक बताते हैं। जाहिर है, जरूरत सिर्फ मजबूत इच्छाशक्ति की है।
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