कनहर बचाओ आन्दोलन ने गति पकड़ी

प्रस्तावित कनहर बांध परियोजना से गांव के गांव नष्ट हो जायेंगे। यह बात ध्यान देने की है कि जो गांव नष्ट हो रहे हैं उनकी पंचायतों और सभाओं ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कर रखा है कि उन्हें बांध की कोई आवश्यकता नहीं है फिर भी सरकार यह बांध बनाने पर तुली हुई है। यह देश के बुनियादी लोकतंत्र पर प्राणघातक हमला है। केन्द्र सरकार या राज्य सरकारों को भारतीय संविधान ने यह हक बिल्कुल नहीं दिया है कि वे स्थानीय शहरी या ग्रामीण निकायों के लोगों द्वारा चुनी गयी पंचायतों यानी स्थानीय सरकारों द्वारा पारित उन संकल्पों की अवहेलना कर दें जो लोगों के बीच से सर्वानुमति के द्वारा उभरकर सामने आये हो

कनहर बचाओ आन्दोलन, महिला शक्ति एवं पंचायत भूमि हकदारी मोर्चा ने शहीदी दिवस 30 जनवरी, 2013 को नगवाँ ग्राम में कनहर नदी पर प्रस्तावित बांध के खिलाफ विशाल सभा आयोजित की। सभा में बांध से प्रस्तावित होने वाले गाँवों के हजारों महिला-पुरुष शामिल हुए। आज़ादी बचाओ आन्दोलन के साथी भी सभा में शामिल रहे। सभा में कनहर बांध न बनने देने का संकल्प लिया गया। सभा को कनहर बचाओ आन्दोलन के विश्वनाथ खरवार, नागेश्वर राय, गम्भीरा प्रसाद, पार्वती तथा गोपाल प्रसाद शर्मा, पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रवि किरन जैन, उ.प्र. पीयूसीएल के अध्यक्ष श्री ओडी सिंह, पीयूसीएल की सचिव सीमा आज़ाद, आज़ादी बचाओ आन्दोलन के मनोज त्यागी ने संबोधित किया। इस अवसर पर नगवां में शहीद स्तम्भ पर माल्यार्पण किया गया। ग्राम स्वराज समिति के श्री महेशानन्द ने सभा का संचालन किया।

इस अवसर पर कनहर बचाओ आन्दोलन की तरफ से एक पर्चा जारी किया गया जिसमें कहा गया ‘‘कनहर बांध का महादानव 36 साल बाद एक बार फिर नींद से जाग उठा है। रिहन्द बांध, एनटीपीसी के बिजलीघरों, कनोडिया एवं जे.पी. के कल-कारख़ानों के चलते सरगुजा-सिंगरौली-सोनभद्र पट्टी के आदिवासियों को बार-बार विस्थापन की त्रासदी झेलनी पड़ी है। अब एक बार फिर उनके ऊपर विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है। उत्तर प्रदेश में सोनभद्र जिले की दुद्धी तहसील में कनहर नदी पर बनने वाले इस बांध की विनाशलीला से तीन राज्यों के लगभग 80 गांव डूबेंगे जिनमें अकेले छत्तीसगढ़ के 16 गांव हैं। कनहर बांध परियोजना का उद्घाटन आपातकाल के दौरान 6 जनवरी, 1976 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी ने किया था। उसके बाद वर्ष 2011 में इसका दुबारा उद्घाटन तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती द्वारा किया गया। फिर नवंबर 2012 में प्रदेश के सिंचाई मंत्री शिवपाल यादव ने तिबारा इसका उद्घाटन किया। प्रस्तावित बांध का कुल जल क्षेत्र 2000 वर्ग किलोमीटर है इस बांध के बनने से लगभग 60 हजार ग्रामीण, खेतिहर और आदिवासी आबादी विस्थापित होगी। इसके चलते अकेले छत्तीसगढ़ में 32 हजार लोग विस्थापित होंगे। 3.496 किलोमीटर लम्बे और 45 मीटर ऊँचे प्रस्तावित कनहर बांध से होने वाले चौतरफा नुकसानों का आकलन दर असल कनहर के रोज बदलने वाले तेवर को देखकर लगा पाना मुश्किल है।

उधर झारखंड ने भी कनहर पर बांध बनाने की घोषणा की है। इसी तरह सरगुजा से सिर्फ कोई 150 किलोमीटर दूर बिहार में कनहर की ही समवर्ती नदी सोन पर इन्द्रपुरी जलाशय परियोजना प्रस्तावित है। पलामू और रोहतास जिलों के बीच 3,9 किलोमीटर लम्बे और 45 मीटर ऊँचे इस बांध के चलते झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के 70 गाँवों के डूब क्षेत्र में आने का खतरा पैदा हो गया है।

प्रस्तावित कनहर बांध परियोजना से गांव के गांव नष्ट हो जायेंगे। यह बात ध्यान देने की है कि जो गांव नष्ट हो रहे हैं उनकी पंचायतों और सभाओं ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कर रखा है कि उन्हें बांध की कोई आवश्यकता नहीं है फिर भी सरकार यह बांध बनाने पर तुली हुई है। यह देश के बुनियादी लोकतंत्र पर प्राणघातक हमला है। केन्द्र सरकार या राज्य सरकारों को भारतीय संविधान ने यह हक बिल्कुल नहीं दिया है कि वे स्थानीय शहरी या ग्रामीण निकायों के लोगों द्वारा चुनी गयी पंचायतों यानी स्थानीय सरकारों द्वारा पारित उन संकल्पों की अवहेलना कर दें जो लोगों के बीच से सर्वानुमति के द्वारा उभरकर सामने आये हों। उन्हें यह हक कहां से मिल गया है कि वे ग्राम पंचायत के साथ-साथ पूरी ग्रामसभा के लोगों को ही उजाड़ सकती हैं? लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार कई ग्राम पंचायतों व ग्रामसभाओं और ग्राम समाजों को विस्थापित करने जा रही है जबकि भारतीय संविधान की मूल भावना है कि गांव लोकतंत्र की बुनियादी इकाई है और वह स्वयं में सम्प्रभुता सम्पन्न, स्वशासी और नीतिनिर्धारक गणतंत्र है। 73वें संविधान संशोधन के बाद ग्राम पंचायतों की वही संवैधानिक स्थिति है जो केन्द्र में संसद की और राज्य में विधानसभाओं की है। इस संवैधानिक व्यवस्था के तहत अपनी योजनाएं बनाने, उन्हें लागू करने तथा अपने क्षेत्र में विद्यमान भौतिक एवं प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रण और प्रबंधन करने में वे स्वतंत्र हैं।

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