कामायनी महाकाव्य में जलवायु परिवर्तन

कामायनी महाकाव्य में जलवायु परिवर्तन
कामायनी महाकाव्य में जलवायु परिवर्तन

भूमंडल के मौसम और जलवायु के प्रति मानव हमेशा से जिज्ञासु रहा है। यह केवल मानव ही नहीं, वरन् पृथ्वी के विभिन्न प्रकार के प्राणियों और वनस्पतियों के अस्तित्व से भी जुड़ा रहा है। यह सत्य है कि जिज्ञासा विज्ञान की जननी है। प्रश्न से ही उत्तर मिलता है और उत्तर तक पहुँचने के लिए कई चरणों से होकर गुजरना पड़ता है। जब प्रश्न का उत्तर मिल जाता है तो जिज्ञासा शांत हो जाती है, परंतु हमेशा नई-नई जिज्ञासाएँ भी जन्म लेती जाती हैं। इसी तरह ज्ञान-विज्ञान का विकास होता रहता है।

हिंदी साहित्य के महान छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद की कालजयी काव्य रचना 'कामायनी' में वैज्ञानिक जिज्ञासा को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है-

उषा की सजल गुलाली जो खुलती है नीले अंबर में वह क्या है? क्या तुम देख रहे/ वर्णों के मेघाडंवर में?

वैज्ञानिक अध्ययनों एवं आँकड़ों के आधार पर 'भूमंडलीय जलवायु परिवर्तन तथा कामायनी में उसकी वैज्ञानिक विवेचना' पर अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस महाकाव्य में जलवायु परिवर्तन की अनेक बातें वर्णित हैं। जलवायु परिवर्तन के अनेक खोजों एवं आँकड़ों के आधार पर सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की गई तो देखा गया कि ये आँकड़े कामायनी काव्य में वर्णित जलवायु परिवर्तन के उल्लेखों से मेल खा रहे हैं।

पृथ्वी की जलवायु कालांतर से ही परिवर्तनशील रही है। भौमिकीय काल-क्रम के विभिन्न विधियों में हुए जलवायु परिवर्तन नाटकीय तो थे ही, साथ ही इन्होंने पृथ्वी के प्राणियों तथा वनस्पतियों के उद्भव, विकास तथा विनाश के इतिहास को भी निरंतर प्रभावित किया है। इसके अतिरिक्त विभिन्न भूगतिकी प्रक्रियाएँ भी जलवायु परिवर्तनों द्वारा नियंत्रित होती रही हैं। पृथ्वी पर मानव के अस्तित्व से जुड़े इन जलवायु परिवर्तनों के संबंध में विगत कुछ वर्षों से उल्लेखनीय कार्य हुए हैं।

कामायनी में कुछ ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं जो जलवायु परिवर्तन के प्रति कवि के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं। पृथ्वी तथा ब्रह्मांड में होने वाले परिवर्तन तथा उनके पुनरावर्तन को हिंदी साहित्य के शायद ही किसी अन्य कवि ने इतने स्पष्ट वैज्ञानिक सोच के साथ प्रस्तुत किया हो, जैसा कि कामायनी के 'संघर्ष' सर्ग में जयशंकर प्रसाद ने किया है जो इस प्रकार है- -

विश्व एक बंधन विहीन परिवर्तन तो है इसकी गति में रवि-शशि-तारे ये सब जो हैं रूप बदलते रहते वसुधा जलनिधि बनती / उदधि बना मरुभूमि जलधि में ज्वाला जलती // तरल अग्नि की दौड़ लगी है। सबके भीतर गल कर बहते हिम नद सरिता लीला रचकर यह स्फुलिंग का नृत्य एक पल आया बीता! टिकने को कब मिला किसी को यहाँ सुभीता ? // कोटि-कोटि नक्षत्र शून्य के महा-विवर में, लास रास कर रहे लटकते हुए अधर में। उठती हैं पवनों के स्तर में लहरें कितनी / यह असंख्य चीत्कार और परवशता इतनी // यह नर्तन उन्मुक्त विश्व का स्पंदन द्रुततर गतिमय होता चला जा रहा अपने लय पर कभी-कभी हम वही देखते पुनरावर्तनः उसे मानते नियम चल रहा जिससे जीवन //

“भौमिकीय कालक्रम में जलवायु परिवर्तन' से स्पष्ट हो जाता है। जो विभिन्न कालक्रम शून्य से छह सौ मिलियन वर्षों का आँकड़ा प्रस्तुत करता है, उसमें अनेक बार जलवायु परिवर्तनों को दर्शाया गया है (एक मिलियन वर्ष 10 लाख वर्ष के बराबर होता है)।"

जब हम भूमंडलीय जलवायु परिवर्तनों को भौमिकीय कालक्रम के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो 'हिमयुग' विशेष उल्लेखनीय प्रतीत होते हैं जिनका पृथ्वी के जलवायु इतिहास में विशेष महत्व है और जिन्होंने संपूर्ण व्यवस्था का कायाकल्प कर दिया। अब तक ऐसे पाँच महत्वपूर्ण हिमयुग पृथ्वी पर आ चुके हैं। इन हिमयुगों में पूर्व- कैंब्रियन काल (लगभग 4600 मिलियन वर्ष पूर्व) के दो हिमयुग, ऑर्डोविशियन काल (44.7 से 44.3 करोड़ वर्ष पूर्व) के अंत में एक, कार्बोनिफेरस- परमियन काल (लगभग 360 से 286 मिलियन वर्ष पूर्व) का एक तथा सेनोजोइक काल ( 7.0 करोड़ वर्ष पूर्व) के हिमयुग महत्वपूर्ण हैं। पूर्व- कैंब्रियन तथा कार्बोनिफेरस परमियन काल के हिमयुग संभवतः बहुत ही विस्तृत प्रकृति के थे, क्योंकि इनके कारण पृथ्वी का अधिकांश भू-भाग प्रभावित हुआ था। सिलूरियन काल (लगभग 443.4 मिलियन वर्ष पूर्व) का हिमयुग भी अपने आप में प्रभावशाली रहा है। इन हिमयुगों के समय में संपूर्ण भूमंडल शीतलता की ओर अग्रसर था।

वैसे तो शीतल जलवायु वाली कई अवधियाँ भी पृथ्वी पर आई, परंतु इन सब में हिमानियों का प्रादुर्भाव नहीं मिलता। मेसोजोइक काल (लगभग 244 से 65 मिलियन वर्ष के मध्य) के मध्य से सेनोजोइक काल तक के लंबे अंतराल में पृथ्वी की जलवायु सामान्य से उष्ण प्रवृत्ति वाली रही है। इसमें प्रारंभिक क्रिटेशियस काल (लगभग 145 से 66 मिलियन वर्ष पूर्व) विशेष रूप से उष्ण था। कैंब्रियन (लगभग 541.0 से 485 मिलियन वर्ष के मध्य ) तथा डिवोनियन काल (लगभग 416 से 359.2 मिलियन वर्ष के मध्य) की जलवायु गरम थी ।

संभवतः इस अवधि में वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड तथा जलवाष्प की मात्रा अधिक रही हो तथा सागर-वायुमंडल व्यवस्था द्वारा सौर विकिरण की अत्यधिक मात्रा पृथ्वी पर रोक ली गई हो। इसके साथ ही कालक्रम में वर्षा संबंधी रिकॉर्ड देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक हिमयुग के पश्चात पृथ्वी पर वर्षा की मात्रा भी अत्यधिक रही है। इस प्रकार की प्रक्रिया प्रारंभिक सेनोजोइक (लगभग 66 मिलियन वर्ष पूर्व) तथा प्रारंभिक कार्बोनिफेरस काल में दृष्टिगोचर होती है।

भूमंडलीय जलवायु परिवर्तन तथा उनके प्रभावों की जानकारी हेतु चतुर्थ महाकल्प (क्वार्टरनरी काल 2,588,000 वर्ष पूर्व से प्रारंभ ) के हिमयुग तथा अंतरा हिमयुगों का विशेष महत्व है। सामान्यतः इस काल की जलवायु खगोलीय बारंबारता, वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड, भूमंडलीय जैव भार तथा हिम आयतन द्वारा प्रभावित हुई है।"


इन परिवर्तनों के मध्य सागर के स्तर तथा जल के तापमान में हुए परिवर्तन भी महत्वपूर्ण रहे हैं। इन हिमयुगों के दौरान ध्रुवीय प्रदेशों की धरती पर लगभग तीन किलोमीटर मोटाई तक की बरफ जमा रहती थी। उत्तरी अमेरिका तथा यूरोप का अधिकांश भाग बर्फ से ढक गया था, साथ ही इन हिमयुगों के शिखर काल में पृथ्वी का औसत तापमान तीन डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया था । सामान्यतः एक हिमयुग के समाप्त होने पर हिमचादर बहुत कम हो जाती थी। बरफ पिघलने के कारण सागर का जलस्तर लगभग 100 मीटर से भी अधिक ऊँचा हो चला था। इन स्थितियों का कामायनी में जयशंकर प्रसाद ने कुछ इस प्रकार वर्णन किया है-

दूर-दूर तक विस्तृत था हिम स्तब्ध उसी के हृदय समान / नीरवता-सी शिला चरण से टकराता फिरता पवमान / उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों-सी चली आ रही फेन उगलती फन फैलाए व्यालों सी धँसती धरा, धधकती ज्वाला / ज्वालामुखियों के निश्वास और संकुचित क्रमशः उसके अवयव का होता था हास |// सबल तरंगाघातों से उस क्रुद्ध सिंधु के, विचलित- सी / व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी/ ऊभ-चूम थी विकलित-सी / बढ़ने लगा विलास वेग-सा वह अति भैरव जल संघात तरल तिमिर से प्रलय पवन का होता आलिंगन, प्रतिघात/लहरें व्योम चूमती उठतीं चपलाएँ असंख्य नचतीं गरद जलद की खड़ी झड़ी में बूँदें कनज संस्कृति रचतीं । // चपलाएँ उस जलधि विश्व में स्वयं चमत्कृत होती थीं ज्यों विराट बाड़व ज्वालाएँ खंड-खंड हो रोती थीं । जलनिधि के तलवासी जलचर विकल निकलते उतराते हुआ बिलोड़ित गृह, तब प्राणी कौन! कहाँ! कब!! सुख पाते ?/ उस विराट आलोड़न में, ग्रह तारा बुद-बुद से लगते प्रखर प्रलय पावस में जगमग ज्योतिरिंगणों से जगते //
हिमानियों के पिघलने के बाद, इसे भूविज्ञान की भाषा में 'डीगेलेशियन' कहते हैं, जो स्थितियाँ पृथ्वी पर दृष्टिगोचर हुईं, उनका भी 'कामायनी' में बहुत ही सुंदर तथा वैज्ञानिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है-

धीरे-धीरे हिम आच्छादन / हटने लगा धरातल से / जगी वनस्पतियाँ अलसाई मुख धोती शीतल जल से // नेत्र निमीलन करती मानो प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने जलधि लहरियों की अंगड़ाई बार-बार जाती सोने V/ एक यवनिका हटी, पवन से प्रेरित माया पट जैसी और आवरण-मुक्त प्रकृति थी हरी-भरी फिर भी वैसी ।

स्रोत:- पुस्तक संस्कृति  जनवरी-फरवरी 2022
डॉ. दया शंकर त्रिपाठी
संप्रति उपसंपादक- 'विज्ञान-गंगा' (काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा प्रकाशित), पूर्व प्राचार्य ।
लेखन एवं प्रकाशन हिंदी में विज्ञान साहित्य का लेखन व संपादन, पर्यावरण व स्वास्थ्य विषयों पर लोकोपयोगी लेखों का सृजन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में अनेक शोध लेख प्रकाशित पुस्तकें -9, संपादित, अनूदित-9, पत्रिकाओं का संपादन-5, लोकप्रिय वैज्ञानिक लेख- 80 से अधिक।

सम्मान : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा 'बीरबल साहनी पुरस्कार 2016, विज्ञान साहित्य रत्न सम्मान 2018, काशी हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा 'हिंदी दिवस का विशिष्ट सम्मान-2018', होमी जहाँगीर भाभा सर्जना पुरस्कार 2020
संपर्क: मोबाइल- 9415992203
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Post By: Shivendra
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