कमजोर नियामक संस्थाओं के खतरे

सारी दुनिया में पेस्टिसाइड का कारोबार कई तरह के नियंत्रण में है। दुनिया के ज्यादातर देशों में पहले यह हिसाब लगाया जाता है कि पूरे जीवन में एक व्यक्ति का शरीर कितना पेस्टिसाइड बर्दाश्त कर सकता है। इसके बाद बहुत सावधानी से यह तय किया जाता है कि खाद्य पदार्थ में पेस्टिसाइड की अधिकतम कितनी मात्रा होनी चाहिए। लेकिन हमारे यहां ऐसा कुछ भी नहीं किया जाता। इस मामले में जो थोड़ा बहुत शोध हुआ है वह भी सार्वजनिक नहीं किया गया है। पिछले महीने हरियाणा और तमिलनाडु के किसान संगठनों ने जेनेटिकली मोडिफायड (जीएम) बीटी राइस की प्रायोगिक खेती वाले फार्म खोज कर उसमें लगे पौधों को जला दिया। छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने यहां होने वाले इसी तरह के प्रयोग को रोक दिया। इन घटनाओं को देखकर इस नतीजे पर पहुँचना बेहद आसान है कि यह कुछ कम जानकारी वाले आर्थिक-कट्टरपंथियों का काम है, जो सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाहते हैं। तर्क के लिए यह भी कहा जा सकता है कि इस तरह की कार्यवाही भारत में खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित करने और कुपोषण दूर करने के लिए शुरू किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों को रोक देगी। इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऐसी घटनाओं से देश का नाम खराब होगा और विदेशी निवेश की प्रक्रिया प्रभावित होगी।

लेकिन ऐसी घटना की आलोचना करने वाले शांत दिमाग से सोचे कि ऐसी क्या बात है, जो लोगों को ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रही है तो उन्हें लगेगा कि इसका असली कारण कुछ और है। असल में ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि हमारे नियामक प्राधिकरण काफी कमजोर हैं। जनहित में काम करने को लेकर उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है। यह भी सही है कि उद्योग भी जानबूझ कर इस प्रक्रिया को कमजोर कर रहा है और जहां उनकी गलती पकड़ी जाती है वहीं वे गड़बड़ी क रोना रोने लगते हैं।

उदाहरण के लिए पेस्टिसाइड का मामला देखें। कुछ साल पहले हम लोगों ने खाद्यान्न और पानी में पेस्टिसाइड के अंशों का परीक्षण शुरू किया। जैसे ही हम लोगों ने इनमें टॉक्सिन की मात्रा का पता लगाया और उसे लोगों तक ले गए, पेस्टिसाइड उद्योग ने आरोप लगाने शुरू कर दिए। पहले उन्होंने हमारे ऊपर खराब विज्ञान का आरोप लगाया। जब हम लोगों ने अपने काम का बचाव किया, तो उन्होंने लीगल नोटिस भेजना शुरू किया और अब उनके हमले निजी हो गए हैं।

लेकिन हमारे लिए मसला कुछ अलग है। हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इस उद्योग को भारत में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए शायद ही कभी नियंत्रित किया जाता है। पेस्टिसाइड कंपनियां बगैर कोई कानूनी जरूरत पूरी किए पंजीकृत हो गई हैं। सारी दुनिया में पेस्टिसाइड का कारोबार कई तरह के नियंत्रण में है। दुनिया के ज्यादातर देशों में पहले यह हिसाब लगाया जाता है कि पूरे जीवन में एक व्यक्ति का शरीर कितना पेस्टिसाइड बर्दाश्त कर सकता है। इसके बाद बहुत सावधानी से यह तय किया जाता है कि खाद्य पदार्थ में पेस्टिसाइड की अधिकतम कितनी मात्रा होनी चाहिए। लेकिन हमारे यहां ऐसा कुछ भी नहीं किया जाता। इस मामले में जो थोड़ा बहुत शोध हुआ है वह भी सार्वजनिक नहीं किया गया

है।टॉक्सिन की मात्र को नियंत्रित करने के लिए बेहद विश्वसनीय वैज्ञानिक संस्थाओं की जरूरत है, जो जनहित में काम कर सकें। लेकिन अफसोस की बात है कि भारत में इस काम के लिए जो प्राधिकरण बनाए गए हैं वे इस उद्योग के साथ अपनी मजबूरी की साझेदारी के कारण लगातार अपने काम से समझौता करते हैं। पेस्टिसाइड उद्योग ही शोध और विभिन्न किस्म के ट्रायल के लिए धन उपलब्ध कराता है, इनके कांफ्रेंस की प्रायोजित करता है और लोगों को नौकरी भी देता है। इस फार्मूले के कारण साफ-साफ हितों का टकराव देखने को मिलता है। यह कंपनियों और आम लोगों के हितों का टकराव है। जाहिर है कि जब कोई कंपनी बड़ी रकम लगा कर अपना उत्पाद तैयार करेगी, तो किसी तरह से वह उसे बाजार में लाना चाहेगी।

पेस्टिसाइड के अवशेषों की नियंत्रित करने के लिए जरूरी है कि इस संबंध में शोध और निगरानी की कोई सार्वजनिक व्यवस्था हो और इसके लिए अलग से सक्षम वैज्ञानिक तैयार किए जाएं। जब भी भारत में कोई पेस्टिसाइड पंजीकृत होता है, तो हम यह तक ध्यान नहीं रखते कि इसके इस्तेमाल को नियमित करने के लिए हमारे पास साधन हैं या नहीं। यहां तक की कभी भी नए पेस्टिसाइड के पंजीकरण पर अधिभार लगाने के बारे में भी विचार नहीं किय जाता है।

इसी तरह का मामला जीएम उत्पादों का है। कुछ लोग सैद्धांतिक आधार पर इसका विरोध कर रहे हैं। लेकिन कुछ लोग दूसरी तरह के हैं, मसलन हम लोग, जो चाहते तो हैं कि जीएम उत्पाद अपने अपने यहां आज़माए जाए। लेकिन यह भी चाहते हैं कि सुरक्षा सुनिश्चित करने के सारे उपाय किए जाएं। दूसरे शब्दों में, हम चाहते हैं कि एक विश्वसनीय और प्रभावी सार्वजनिक नियामक नीति व प्राधिकरण बने, जो देश में जीएम उत्पादों के इस्तेमाल को नियंत्रित करे। लेकिन अभी भी इस स्थिति को देखकर यह बहुत बात लगती है। अपने यहां इस बात की कोई वास्तविक नीति नहीं है कि किस जीएम फसल को इजाज़त दी जाए और किसे नहीं। दुनिया के बहुत से देशों में जीएम फ़सलों को लेकर काफी आशंकाएं हैं और उन्होंने उन तमाम खाद्य उत्पादों को प्रतिबंधित कर रखा है, जो जीएम फ़सलों वाले हैं। अमेरिका का चावल निर्यात इस वजह से मुश्किल में फँस गया है। जीएम चावल के इस्तेमाल पर दुनिया के हर देश ने पाबंदी लगा रखी है। क्या हम लोगों को इसकी इजाज़त देनी चाहिए?

अगर हां, तो हम किस तरह से इससे अर्थव्यवस्था पारिस्थितिकी और स्वास्थ्य के होने वाले नुकसान को कम कर पाएंगे? क्या हमें छत्तीसगढ़ में इसके प्रयोग की इजाज़त देना चाहिए, जो चावल की विविधता के लिए मशहूर है? और उत्तर प्रदेश का क्या किया जाएगा, जो बासमती जैसे बेहतरीन चावल उत्पादन करता है? यदि हम प्रयोग की इजाज़त देते हैं तो हमारी नियामक प्रणाली किस तरह से इसका कानूनी क्रियान्वयन सुनिश्चित कर पाएगी? उदाहरण के लिए जिन किसानों के खेत में जीएम फसल जलाई गई है उनमें से ज्यादातर का कहना है कि यह नहीं जानते थे कि उनके खेतों में क्या बोया गया था। उनके खेत बीज कंपनी महाइको ने लीज पर ले लिए थे। खेतों में किए जाने वाले जीएम फ़सलों के प्रयोग को गोपनीय रखा गया था। बाद में सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करके लोग इसके बारे में जान पाए। कानून कहता है कि राज्य और जिला स्तर पर मानिटरिंग कर इन प्रयोगों की निगरानी की जाए।

इस मामले में राज्य सरकारों तक को कुछ भी मालूम नहीं था। अगर हम इन क़ानूनों का पालन करोवा भी लेते हैं तब भी हम कैसे इस बात की जांच कर पाएंगे कि हमारे उत्पादों में जीएम अवशेष हैं या नहीं? क्या हमारे पास इस तरह की प्रयोगशाला है या मानिटरिंग का ऐसा सिस्टम है, जो हमारे पास इस तरह की प्रयोगशाला है या मानिटरिंग का ऐसा सिस्टम है, जो हमें बताए कि अमुक चावल या बैंगन जीएम उत्पाद है या नहीं? अगर हम यह परीक्षण करना चाहें तो इसके लिए व्यवस्था बनाने में सक्षम हैं हम? हम लोगों के यहां तो अभी तक लेबलिंग की व्यवस्था भी जरूरी नहीं समझी गई है, अपने यहां जो भी खाद्य पदार्थ आयात होकर आ रहे हैं, वे संभवतः जीएम हो सकते हैं। हम अपने लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल करने में अक्षम साबित हो रहे हैं, यह न सिर्फ गलत है, बल्कि अपराध है।

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