कोसी समस्या के समाधान के लिए हमारे सामने दो ही विकल्प हैं, एक तो यह कि लोगों की माँग के अनुरूप तत्काल बाढ़ सुरक्षा प्रदान की जाये अथवा शत प्रतिशत दोष मुक्त समाधान खोजा जाये। यदि शत-प्रतिशत दोष-मुक्त समाधान खोजने के लिए प्रतीक्षा की जा सके तो यह निश्चित है कि लम्बे समय तक कोसी योजना पर कोई काम नहीं हो सकेगा।
फरवरी 1956 में सर क्लॉड इंगलिस योजना का कार्यान्वयन शुरू होने के बाद सरकार द्वारा राय लेने के लिए आमंत्रित किये गये। उन्होंने भविष्य में तटबंध टूटने तथा 7.5 वर्षों में बराज भरने की आशंका व्यक्त की थी परन्तु कँवर सेन (1956) का मत था कि बराज उतनी जल्दी नहीं भरेगा जैसा कि इंगलिस ने कहा है। कँवर सेन के अनुसार “...वास्तव में अधिकतर भारी बालू बाढ़ के समय जलाशय के ऊपरी हिस्सों में भरना शुरू होगा और धीरे-धीरे यह पीछे की ओर बढ़ेगा। इस प्रकार जलाशय में क्षमता का उतना “ह्रास नहीं होगा और बराज का जीवन काल सर इंगलिस के अनुमान से कहीं अधिक होगा।” कँवर सेन ने आगे लिखा है कि “...बराज की ऊँचाई इस प्रकार तय की गई है कि यह सिल्ट को कम से कम 20 वर्षों तक प्रभावशाली ढंग से रोक कर रख सकेगा। इस समय में हम थोड़ी राहत की साँस ले सकेंगे क्योंकि तब एक बहुत बड़ा क्षेत्र बाढ़ से सुरक्षित हो चुकेगा और इस बीच में हम आँकड़ों का संकलन और उनका ठीक तरीके से विश्लेषण कर सकेंगे, प्रयोगशालाओं में शोध करके सिल्ट के पूरे प्रभाव का अध्ययन कर सकेंगे, भूमि संरक्षण पर काम किया जा सकेगा तथा नदी की सहायक धाराओं पर बाँध बनाने की योजना का भी अन्वेषण हो सकेगा।सबसे महत्वपूर्ण होगा कि हमें नदी की धारा में घटती हुई सिल्ट के प्रभावों के बारे में पूरी जानकारी मिल सकेगी। इस अतिरिक्त सूचना के आधार पर कोसी समस्या का दीर्घकालीन समाधान खोजने में सहायता मिलेगी।” कँवर सेन ने यह भी कहा कि “...वस्तुतः कोसी समस्या के समाधान के लिए हमारे सामने दो ही विकल्प हैं, एक तो यह कि लोगों की माँग के अनुरूप तत्काल बाढ़ सुरक्षा प्रदान की जाये अथवा शत प्रतिशत दोष मुक्त समाधान खोजा जाये। यदि शत-प्रतिशत दोष-मुक्त समाधान खोजने के लिए प्रतीक्षा की जा सके तो यह निश्चित है कि लम्बे समय तक कोसी योजना पर कोई काम नहीं हो सकेगा।” यह बात कँवर सेन ने 1956 में जरूर कही मगर ऐसा करते समय वह लोकसभा में गुलजारी लाल नन्दा की कही हुई बातों (11 सितम्बर 1954) को दुहरा भर रहे थे।
कँवर सेन का यह बयान सार्वजनिक था और समाचार पत्रों के माध्यम से प्रसारित हुआ था। इस बयान में दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं। एक तो यह कि 1953 वाली कोसी योजना अपने आप में अल्पकालिक योजना थी जिसके कार्यान्वयन से वास्तविक योजना की तैयारी के लिए समय और सूचनाएं दोनों को प्राप्त करने के लिए मोहलत मिलती थी। इस मसले पर कोसी प्रोजेक्ट के मुख्य प्रशासक टी.पी. सिंह ने बहुत पहले ही लिखा था कि, ‘‘इस योजना के बनाने वालों ने कहीं भी यह नहीं लिखा है कि मात्र इसी योजना से कोसी बाढ़ की समस्याओं का पूर्ण रूपेण समाधान हो सकता है। सच तो यह है कि इन्होंने भी कोसी के सम्बन्ध में अभी और शोध करने की आवश्यकता पर जोर दिया है।” तटबन्धों की तकनीक निर्विवाद रूप से तब भी स्वीकृत नहीं हुई थी और मतान्तर बना रहा।
इसी संदर्भ में 6 सितम्बर 1956 को पटना साइंस कॉलेज में इन्स्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स (भारत) की एक गोष्ठी को सम्बोधित करते हुए कँवर सेन ने कहा कि मूल कोसी योजना में 244 मीटर ऊँचा कंक्रीट का बाँध बनना था जिससे 25,503 क्यूमेक के अधिकतम प्रवाह को घटा कर 8501 क्यूमेक किया जा सकता था। प्राथमिक अनुमान के अनुसार ऐसे बाँध की लागत 74 से 80 करोड़ रुपये तक होती और 12 से 15 वर्ष का समय इसके निर्माण में लगता। क्योंकि यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि लोग 15 वर्षों तक इन्तजार करें इसलिए यह निर्णय लिया गया कि शीघ्र ही कुछ किया जाये जिसके फलस्वरूप नदी को एक बराज और तटबंध प्रणाली से बाँध देने का निर्णय लिया गया।
उधर सर क्लॉड इंगलिस का मानना था कि “...कार्यरत लोगों से बातचीत के दौरान मुझे ऐसा आभास हुआ कि ऊँचे तटबन्धों के प्रति, जिसकी एक अच्छी खासी लम्बाई का निर्माण हो भी चुका है, वे (तटबन्धों के बीच बसे लोग) शंकालु हैं। इससे (तटबंध से) पानी का लेवल ऊँचा उठेगा और तटबंध के बीच बसे लोगों को विस्थापन के लिए मजबूर होना पड़ेगा। पानी के लेवल में वृद्धि, लेखक मानता है, बेशक होगी क्योंकि प्रवाह को तटबंध सीमित करेंगे। कालान्तर में इससे तटबन्धों के बीच बालू जमाव में बढ़ोतरी होगी अतः जब तक कि नदी में बालू की आमद की मात्रा कम न हो जाये, तटबंध टूटेंगे। ... समस्या यह नहीं है कि बाढ़ के समय के प्रवाह को कैसे कम किया जाये, समस्या यह है कि बालू की मात्रा को कैसे कम किया जाये।”
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