आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि इन डिपुओं में तेल, रिफाइंड, दालें व नमक पॉलिथीन की पैकिंग में दी जा रही है, जिससे कि सरकार का अपना ही आयाम उसके पॉलिथीन फ्री हिमाचल की साख पर बट्टा लगा रहा है। इसके अलावा प्रदेश से, बाहर से दूध, दही व शराब की पैकिंग भी इसमें जारी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद भी धड़ाधड़ इसी में बिक रहे हैं।
खड्डों, नालों, नदियों व झीलों के पानी में जाकर यह इन स्थानों पर उगने वाली वनस्पति के लिए भी दुष्कर है। अतः इसका कचरा धरती का स्वरूप बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ता। इसे डंप करने का और कोई तरीका नहीं है। आज विश्व का हर छोटा-बड़ा देश पर्यावरण का महत्त्व समझ चुका है। सामान्य तौर से पर्यावरण का अर्थ है प्रकृति जगत। भूमि, जल, वायु, वनस्पति और जीव-जंतु के रूप में हमारे सामने उपस्थित प्राकृतिक जगत को मानें तो, जिससे हम आवृत हैं, जो हमारे मनुष्य जीवन के चारों ओर विद्यमान है, पर्यावरण कहते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून अपने अंटार्कटिक ईको टूअर में जगप्रसिद्ध हिम खंड लार्सन की लुप्त होने की घटना लिखते हैं। यह हिम खंड 87 किलोमीटर लंबा था। यह घटना दुनिया की आंखें खोलने को काफी है। आज दुनिया विध्वंस के मुहाने पर खड़ी है। मनुष्य की लापरवाही के कारण कई हिम खंड विलुप्ति के कगार पर हैं।
विश्व के मानचित्र पर हम देखें, तो पाते हैं कि विकसित देशों का नजरिया विकासशील देशों पर पर्यावरण संबंधी एक समान दृष्टिकोण नहीं रखता है। वे इन पर कम कार्बन उत्सर्जन उत्पन्न करने की बेतुकी मांग रखकर अपने को इससे रियायत श्रेणी में रख रहे हैं। यह धनाढ्य देशों की दादागिरी ही कही जाएगी। हिमाचल प्रदेश के हिमनद, बड़ा, शिगड़ी, गेफांग, चंदू हिमनद, भाग हिमनद, मुल्कीला, म्यार, लेडी आफ केलांग व सोना पानी लगातार सिकुड़ रहे हैं। इन हिमनद की चोटियों पर बर्फ भी कम गिर रही है। सिरमौर जिला के चूड़धार के हिमनद आज दिवा स्वप्न ही हैं। फलस्वरूप कुछ खड्डों व नालों के पानी लगातार घट रहे हैं। इन पर स्थापित पनबिजली परियोजनाओं के संचालकों को लगातार चिंता बनी हुई है, क्योंकि वे बहुत धन इनके स्थापन में लगा चुके हैं।
पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार भारत की भूमि के 33 प्रतिशत भाग पर वन होने चाहिए, आज सरकारी आंकड़े दर्शाते हैं कि 21 प्रतिशत भू-भाग वनों से भरा है, जबकि उपग्रह से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर 11 प्रतिशत ही है। वन हिमाचल प्रदेश की प्राकृतिक संपदा हैं। हिमाचल की 66.5 प्रतिशत भूमि वनों के अंतर्गत है। हिमाचल साथ होने के कारण यह दक्षिण एशिया ही नहीं, अपितु मध्य एशिया तक के जलवायु को प्रभावित करता है। हिमाचल प्रदेश में पॉलिथीन का प्रयोग बंद है व इसके प्रयोग पर जुर्माना है, जबकि पड़ोस में लगते राज्यों में इसका प्रयोग अभी भी बदस्तूर जारी है। पॉलिथीन की रिसाइकिलिंग संभव नहीं, यह कारनामा करने में कोई भी जीवाणु व वायरस अभी तक ध्यान में नहीं आया है। भूमि के ऊपर व अंदर यह इसे बंजर बना देता है, जिससे वनस्पति के उगने में कठिनाई आती है।
फलस्वरूप वायुमंडल का तापमान बढ़ता है। शहरों में भूमि के अंदर व बाहर नालियों को यह बंद कर देता है, जिससे गंदगी फैलती है व बीमारियां फैलने का अकारण भय बना रहता है। खड्डों, नालों, नदियों व झीलों के पानी में जाकर यह इन स्थानों पर उगने वाली वनस्पति के लिए भी दुष्कर है। अतः इसका कचरा धरती का स्वरूप बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ता। इसे डंप करने का और कोई तरीका नहीं है। वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इसे प्रयोग विहीन करना ही हितकर है। हालांकि इसे सड़कों पर बिछाने के प्रयोग उत्साहवर्द्धक रहे हैं। प्रदेश को हरा-भरा बनाने व इसे पॉलिथीन फ्री बनाने में सरकार को विभिन्न संस्थाओं से पारितोषिक मिल चुके हैं, जो कि सरकार का हौसला बढ़ाने व लोगों में जागरूकता पैदा करने में आवश्यक भी हैं। यहां आम आदमी को इसे प्रयोग में लाने पर तो बंदिश है पर विभिन्न उत्पादों के विक्रेताओं द्वारा अभी पॉलिथीन पैकिंग के रूप में प्रयोग हो रहे हैं।
आज प्रदेश में उचित मूल्य की दुकानें लगभग 3793 हैं, जिनका संचालन प्रदेश सरकार का सार्वजनिक वितरण व उपभोक्ता मंत्रालय के अंतर्गत होता है। इसके अंतर्गत विगत तीन वर्षों में 300 करोड़ की सब्सिडी आवश्यक वस्तुओं के वितरण में अभी तक दी जा चुकी है। इसमें आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि इन डिपुओं में तेल, रिफाइंड, दालें व नमक पॉलिथीन की पैकिंग में दी जा रही है, जिससे कि सरकार का अपना ही आयाम उसके पॉलिथीन फ्री हिमाचल की साख पर बट्टा लगा रहा है। इसके अलावा प्रदेश से, बाहर से दूध, दही व शराब की पैकिंग भी इसमें जारी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद भी धड़ाधड़ इसी में बिक रहे हैं। गुटका, पान-पराग व टॉफियां इत्यादि में इसका प्रयोग इन दावों की पोल खोल रहा है। आज पर्यावरण के संरक्षण में प्रदेश व देश ही नहीं, अपितु विश्व के हर नागरिक को इसकी सुरक्षा हेतु बीड़ा उठाना चाहिए।
(लेखक, गांव डॉ. खुरला तहसील सरकाघाट, जिला मंडी से प्रवक्ता हैं)
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