कीटनाशकों को लेकर एक फैसला, पंजाब के कृषि एवं कल्याण विभाग ने बीती 30 जनवरी को लिया; दूसरा फैसला, 06 फरवरी को उत्तर प्रदेश की कैबिनेट ने। उत्तर प्रदेश कैबिनेट ने कीट रोग नियंत्रण योजना को मंजूरी देते हुए जैविक कीटनाशकों और बीज शोधक रसायनों के उपयोग के खर्च का 75 प्रतिशत तथा लघु-सीमांत किसानों को कृषि रक्षा रसायनों, कृषि रक्षा यंत्रों तथा दाल, तिलहन व अनाजों के घरेलू भण्डार में काम आने वाली बखारों (ड्रमों) पर खर्च का 50 प्रतिशत अनुदान घोषित किया। उत्तर प्रदेश कैबिनेट का फैसला, उत्तर प्रदेश में कीट प्रकोप के कारण फसलों में 15 से 25 प्रतिशत नुकसान के आँकड़े के आइने में आया।
पंजाब कृषि व कल्याण विभाग ने कीटनाशकों के कारण इंसान, पर्यावरण तथा आर्थिक व्यावहारिकता के पहलू को सामने रखते हुए आदेश जारी किया। विभाग के विशेष सचिव ने एक निर्देश जारी कर पंजाब में 20 कीटनाशकों की बिक्री पर तुरन्त प्रभाव (30 जनवरी, 2018) से रोक लगा दी। विभाग के निदेशक के नाम जारी सम्बन्धित निर्देश पत्र में कीटनाशक विक्रेताओं के लाइसेंसों की समीक्षा करने तथा एक फरवरी, 2018 से नया कोई कीटनाशक बिक्री लाइसेंस नहीं जारी करने का भी निर्देश दिया गया है।
उक्त विवरण से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश का फैसला, कृत्रिम रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग को थोड़ा कम तथा जैविक कीटनाशकों को थोड़ा ज्यादा प्रोत्साहन देने के लिये है और पंजाब का निर्देश, कीटनाशकों के प्रयोग का नियमन करने के लिये। कौन सा कदम ज्यादा बेहतर है? इसका उत्तर पाने के लिये हमें जरा विस्तार से जानना होगा। आइए, जानें।
प्रकृति का कीट नियमन तंत्र
यूँ तो प्रकृति अपना नियमन खुद करती है। इसके लिये उसने एक पूरी खाद्य शृंखला बनाई है। इस खाद्य शृंखला में यदि उसने ऐसे कीट बनाए हैं, जो वनस्पति को खा डालते हैं, तो उसने ऐसे कीट भी बनाए हैं, जो वनस्पति को चट कर जाने वाले कीटों को चट कर डालते हैं। जाहिर है कि मांसाहारी कीट, फसलों के मित्र हैं और फसलों को चट कर डालने वाले कीट, फसलों के दुश्मन।
कृत्रिम कीटनाशकों का प्रवेश द्वार बनी हरित क्रान्ति
जब तक हम प्राकृतिक खेती करते थे, प्रकृति के इस नियमन तंत्र पर भरोसा रखते थे। 'हरित क्रान्ति' की जरूरत ने भारतीय कृषि में कई अतिरिक्त प्रयोगों का प्रवेश कराया। रासायनिक उर्वरक, खरपतवारनाशक तथा रासायनिक कीटनाशक भी ऐसे प्रयोग की वस्तु बनकर आये और पूरे भारत के खेतों पर बिछ गए। उत्पादन बढ़ने से इनके प्रति, भारतीय किसानों की दीवानगी बढ़ती गई।
इस दीवानगी का लाभ उठाकर, भारत में रासायनिक कीटनाशकों का एक भरापूरा उद्योग और बाजार तो खड़ा हो गया, लेकिन जैविक कीटनाशकों को प्रोत्साहित करने का विचार लम्बे समय तक हमारे वैज्ञानिकों और उद्योगपतियों के इरादे से गायब रहा। किसानों को जिन जैविक कीटनाशकों को प्रयोग की जानकारी व अनुभव था, उन्हें पिछड़ा बताकर वैज्ञानिकों ने उन पर से किसानों का भरोसा घटाया।
आधुनिक खेती के नाम पर वैज्ञानिक और सलाहकार भी रासायनिक कीटनाशकों का बाजार बढ़ाने में लग गए। खरपतवारनाशक दवाइयों की बिक्री बढ़ाने के लिये, कम्पनियाँ आज भी डीएपी जैसे रंगीन उर्वरकों तथा उन्नत बीजों में खरपतवार के रंगे बीजों की मिलावट कर खेतों में नए-नए तरह के खरपतवार पहुँचाने का अनैतिक कर्म कर रही हैं।
अविवेकपूर्ण प्रयोग
खैर, वैज्ञानिकों और कृषि सलाहकारों की सलाह से किसान ये तो समझ गए कि रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग कर फसल के नुकसान को तत्काल प्रभाव रोक सकता है, लेकिन रासायनिक कीटनाशकों का विवेकपूर्ण प्रयोग करना हमारे किसानों को आज तक नहीं आया। बाजारू खेल को समझने में उन्हें काफी समय लगेगा। वास्तविकता यह है कि नकली-असली कीटनाशक की पहचान, प्रतिबन्धित कीटनाशकों का ज्ञान, कीटनाशकों को चुनने तथा प्रयोग करने के लिये भारत का ज्यादातर किसान, आज भी उन स्थानीय बिक्री ऐसे दुकानदारों पर निर्भर हैं, जिन्हें खुद कीटनाशक प्रयोग के मानक, सुरक्षित सीमा व सुरक्षित तकनीक का आवश्यक ज्ञान नहीं है।
नियम पर्याप्त, पालना अधूरी
कीटनाशक अधिनियम, 1968 के तहत कीटनाशकों के निर्माण, लेबलिंग, पैकेजिंग, रख-रखाव, वितरण, बिक्री, लाने-ले जाने तथा आयात-निर्माण को नियंत्रित करने के लिये कई नियम हैं। कितने दुकानदारों को इसकी जानकारी है और कितने इसकी पालना करते हैं? एफएओ के मुताबिक, चाय बागानों में डीडीटी जैसे तमाम कीटनाशकों का इस्तेमाल हो रहा है, जिन्हें प्रतिबन्धित किया जा चुका है। टब्युफेनपाइराड नामक कीटनाशक तो भारत में पंजीकृत भी नहीं है; बावजूद इसके, चाय नमूनोें में इसकी उपस्थिति मिली है। ऐसे ही 2011 में उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिबन्धित एंडोसल्फान को आठ फीसदी चाय नमूनों में पाया गया।
दुष्प्रभाव व्यापक
दुर्याेग यह है कि ज्यादातर किसान आज भी नहीं सोच पा रहे कि कीेडों को मारने के इस्तेमाल होने वाली दवाएँ, अमृत तो हो नहीं सकती। जाहिर हैं कि ये जहर ही हैं। जितना हम छिड़कते हैं उसका एक फीसदी ही कीट पर पड़ता है; शेष 99 फीसदी तो मिट्टी, जल, फसल और हवा के हिस्से में ही आता है। अतः कीटनाशकों का अविवेकपूर्ण इस्तेमाल का खामियाजा वाया फसल, हवा, मिट्टी, जल, फसल उत्पाद के इंसान और कुदरत की दूसरी नियामतों को ही झेलना होगा। सब झेल रहे हैं; गिद्ध भी, गौरैया भी और इंसान भी।
बीते वर्ष 2017 में जुलाई से अक्टूबर के बीच महाराष्ट्र के यवतमाल, अकोला, बुलढाना, वर्धा, नागपुर, चंद्रपुर और धुले में कीटनाशक छिड़काव करते हुए 51 किसान की मौत हुई और 783 विषबाधा के शिकार हुए। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, कीटनाशक से मरने वालों में से करीब 20,000 मरने वाले खेती में काम करने वाले पाये गए हैं।
फैलता दायरा, बिगड़ती सेहत
चूँकि कीटनाशकों का इस्तेमाल का दायरा कृषि से फैलकर खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, पैकेजिंग उद्योग, घर-फैक्टरी और स्वच्छता कार्यों तक बढ़ चला है। डबलरोटी, शीतल पेय, चाय आदि में कीटनाशकों की उपस्थिति और दुष्प्रभाव को लेकर क्रमशः विज्ञान पर्यावरण केन्द्र तथा ग्रीनपीस की रिपोतार्ज से हम अवगत ही हैं। यहाँ तक कि भूजल और नदियों तक में कीटनाशकों के अंश पाये गए हैं। अतः इनके दुष्प्रभाव का दायरा भी व्यापक हो चला है।
जाहिर है कि कीटनाशकों का अविवेकपूर्ण इस्तेमाल, हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर और अंगों को बीमार कर रहा हैं। शरीर में कीटनाशकों के प्रवेश से पेट की तकलीफ, जननांगों में विकार, तंत्रिका सम्बन्धी समस्याएँ तथा कैंसर जैसी बीमारियों के खतरे लगातार बढ़ रहे हैं। लंदन फूड कमीशन ने पाया कि ब्रिटेन में बढ़ रहे कैंसर तथा जन्म विकारों का सम्बन्ध ऐसे कीटनाशकों से भी है, जिन्हें वहाँ मान्यता प्राप्त है।
अमेरिका की नेशनल एकेडमी आॅफ साइंस की रिपोर्ट कहती है कि अमेरिका में कैंसर के 10 लाख अतिरिक्त मामले खाने-पीने के सामान में कीटनाशकों की उपस्थिति के कारण हैं। भिन्न कीटनाशकों की वजह से खासकर अन्य जीवों में पक्षी, मधुमक्खी, मित्र कीट तथा जलीय जीव सबसे ज्यादा दुष्प्रभावित हो रहे हैं।
पोषण क्षमता खोती मिट्टी-खेती
सोचिए कि किसी भी बीमारी से हम तभी लड़ सकते हैं, जब हमारा खाना-पीना पोषक तत्वों से भरपूर हो। यदि यह खाना और पानी, दोनों ही कीटनाशकों से भरपूर हो, तो बीमारियों से लड़ने की ताकत कहाँ से आएगी? कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग के फलस्वरूप, यही हाल हमारी मिट्टी और खेती की सेहत का हुआ है। मृदा जल संरक्षण एवं अनुसन्धान संस्थान, देहरादून की रिपोर्ट के मुताबिक उर्वरकों और कीटनाशक दवाइयों के अविवेकपूर्ण इस्तेमाल से प्रतिवर्ष 5334 लाख टन मिट्टी नष्ट हो रही है।
औसतन 16.4 टन प्रति हेक्टेयर उपजाऊ मिट्टी प्रतिवर्ष समाप्त हो रही है। मिट्टी समाप्त होने का मतलब है मिट्टी के भीतर मौजूद सूक्ष्म व सूक्ष्मतम तत्वों तथा सहायक जीवों का नाश। मिट्टी में पोषक तत्वों में इस नाश के परिणामस्वरूप, एक ओर जहाँ हमारे कृषि उत्पादों में पोषक तत्व तेजी से कम हुए हैं, वहीं खेत की उर्वरा शक्ति भी लगातार घट रही है। कम उर्वरा शक्ति वाली भूमि से अधिकाधिक उत्पादन लेने के चक्कर में, किसान अपने खेतों में उर्वरकों की मात्रा को बढ़ाते जा रहे हैं।
मरते मित्र कीट, बढ़ती शाकाहारी कीटों की प्रतिरोधक क्षमता
कीटनाशकों के लगातार प्रयोग का दूसरा दुष्प्रभाव, मांसाहारी कीटों की घटती संख्या है। मांसाहारी कीटों की घटती संख्या के कारण बचे-खुचे शाकाहारी कीटों की जीवन आयु बढ़ी है। परिणामस्वरूप, शाकाहारी कीटों के प्रति अपनी प्रतिरोधक क्षमता इतनी बढ़ा ली है कि मानक मात्रा में किया गया छिड़काव अब उन पर असर ही नहीं करता है।
एक अध्ययन के मुताबिक, दुनिया के 504 जीवों और कीटों ने कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा ली है। मच्छर पर डीडीटी के असर न होने के बारे में तो 1952 में ही पता चल गया था। हरी सुण्डी में साइपरमेथ्रिन और डायमंड बैक मोथ की इल्ली और सफेद मक्खी पर साइपरमेथ्रिन फैनवरलेट और डेल्टामेथ्रिन असरहीन साबित हो रहे हैं। इन्हें नियंत्रित करने के लिये इस्तेमाल की मात्रा बढ़ती जा रही है और कृषि खर्च भी।
बढ़ती खपत, बढ़ता नकली कीटनाशक बाजार
आँकड़े गवाह हैं कि पिछले 12 वर्षों में भारत में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग छह गुना अधिक बढ़ गया है। कीटनाशकों का कारोबार बढ़कर, 19 हजार करोड़ रुपए तक पहुँच गया है। इसमें से पाँच हजार करोड़ रुपए का कारोबार, नकली कीटनाशकों का है।
भारतीय व्यापारियों एवं उद्योगपतियों के संगठन ‘फिक्की’ के अनुसार, भारत में नकली कीटनाशकों का कारोबार, कुल कीटनाशक कारोबार का करीब 30 फीसदी है। बिना रुकावट पंजीकरण के कारण, नकली कीटनाशकों का यह कारोबार 20 फीसदी सालाना वृद्धि की रफ्तार से आगे बढ़ रहा है। नकली कीटनाशक का सबसे ज्यादा कारोबार उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, हरियाणा और कर्नाटक में होता है।
कितना लाभकारी ज्यादा उपयोग?
गौर कीजिए कि रासायनिक उर्वरक, खरपतवारनाशक और कीटनाशकों का कारोबार बढ़ रहा है, लेकिन हरित क्रान्ति के प्रथम 15 वर्ष की तुलना में, बाद के 52 वर्षों में कृषि उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर की रफ्तार घट रही है। एक अनुमान के मुताबिक, नकली कीटनाशकों के दुष्प्रभाव के कारण, बीते 10 वर्ष में किसानों के करीब 12000 करोड़ रुपए डूब चुके हैं।
कीटनाशकों की उपस्थिति की वजह से कितने कृषि और खाद्य उत्पाद पैदा होने के बाद भारतीय खरीददार तथा विदेशी आयातकों द्वारा अस्वीकार कर दिये जाते हैं। स्पष्ट है कि कर्ज लेकर नकदी फसलों की खेती करने वाले किसानों द्वारा घाटे में पहुँच जाने के अनेक कारणों में एक कारण कीटनाशक भी हैं। इस तरह भारतीय खेती रासायनिक उर्वरक, रासायनिक कीटनाशक तथा रासायनिक खरपतवार नाशकों के चक्रव्यूह में बुरी तरह फँस चुकी है। अब यह उबरे, तो उबरे कैसे?
सरकारी प्रयास
ऐसा नहीं है कि सरकार ने खेती को इस चक्रव्यूह से निकालने की बिलकुल ही कोशिश नहीं की। असली-नकली कीटनाशक और इनके अविवेकपूर्ण इस्तेमाल की सम्भावना और खतरों को देखते हुए ही भारत सरकार ने 1968 में कीटनाशक अधिनियम लागू किया। अधिनियम की पालना के लिये कीटनाशक निरीक्षक अधिसूचित किये। फरीदाबाद में केन्द्रीय, चंडीगढ़ व कानपुर में क्षेत्रीय तथा 68 राज्य कीटनाशक परीक्षण प्रयोगशालाएँ खोली। एकीकृत कीट प्रबन्धन कार्यक्रम बनाया।
दो दिवसीय तथा पाँच दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए। मृदा जाँच व सुधार के लिये, सरकार ने मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना शुरू की। वर्ष 2015-16 में 568 करोड़ का अलग से बजट भी रखा। 2016-17 में 2296 मिट्टी परीक्षण छोटी प्रयोगशालाओं को भी मंजूरी दी गई। भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने 04 जनवरी, 2017 को एक राजपत्र जारी कर 18 कीटनाशकों को पर्यावरण के लिये घातक मानते हुए कृषि में प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इनमें से 12 कीटनाशकों के उत्पादन को 01 जनवरी, 2018 को रोकने को कहा गया। शेष 06 कीटनाशकों के उत्पादन को 31 दिसम्बर, 2020 तक रखी गई।
वस्तुस्थिति यह है कि प्रतिबन्ध के इनमें से कई कीटनाशक दवाएँ बाजार में बेरोकटोक मिल रही है और किसान, अज्ञानतावश उनका इस्तेमाल भी कर रहा है। इसी के मद्देनजर, मध्य प्रदेश शासन ने वर्ष 2017 में 10 अक्टूबर और 05 नवम्बर को नियम संशोधित कर यह सुनिश्चित किया कि खाद व कीटनाशक बिक्री के लिये केवल रसायन, कृषि और कृषि विज्ञान स्नातकों को ही कारोबार के लाइसेंस जारी किये जाएँगे।
मौजूदा कारोबारियों को इस न्यूनतम अर्हता को पूरी करने के लिये दो साल का वक्त दिया गया। कीटनाशकों को लेकर पेश इस देशव्यापी परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए शायद हम सही जवाब पा सकें कि क्या सही है? कीटनाशकों के उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिये अनुदान देना अथवा कीटनाशकों के उपयोग के नियमन के लिये कुछ के उपयोग तथा नए लाइसेंस पर प्रतिबन्ध लगाना तथा लाइसेंसों की समीक्षा करना?
मिथक टूटे, तो बात बने
मेरा मानना है कि कृत्रिम रसायनों और कीटनाशकों के चक्रव्यूह में फँस चुकी भारतीय कृषि को उबारने के लिये सबसे पहले इस मिथक को तोड़ना जरूरी है कि कृत्रिम रसायनों का उपयोग किये बिना, खेत की उत्पादकता बढ़ाना सम्भव नहीं है। इस मिथक को तोड़ने के लिये दुनिया में सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं।
सिक्किम का एक पूर्ण जैविक प्रदेश होते हुए भी किसानों की आत्महत्या के आँकड़े से मुक्त होना, एक अनुपम उदाहरण है। महाराष्ट्र, बुन्देलखण्ड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, केरल समेत देश के कई इलाकों के काफी किसान, जैविक व पूर्ण प्राकृतिक खेती की दिशा में कदम आगे बढ़ाकर घाटे से उबर गए हैं। जरूरी है कि जैविक व पूर्ण प्राकृतिक खेती का ज्ञान तथा इसे अपनाने हेतु प्रोत्साहन बढ़े। रासायनिक कीटनाशकों के कहर से पूर्ण मुक्ति तभी सम्भव होगी।
सारणी - एक, कृषि मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित 18 कीटनाशक वेनोमाइल, कार्बराइल, डायजिनोन, फेनारिमोल, फेंथिओन, लिनुरोन, मेथोक्सी ईथाइल, मिथाइल पेराथिओन, सोडियम साइनाइड, थियोमेटोन, ट्राइडेमोर्फ, ट्राइफ्लूरेलिन, अलाक्लोर, डाइक्लोरोक्स, फोरेट, फोस्फोमिडोन, ट्रायाजोफोज, ट्राईक्लोरोफोर्न। |
सारणी - दो, कृषि एवम् किसान कल्याण विभाग, पंजाब द्वारा प्रतिबंधित 20 कीटनाशक फॉसफेमिडॉन, ट्राइक्लोरोफोन, बेन्फ्युरोकर्ब, डाईकोफोल, मिथोमाइल, थियोफॉनेट मिथाइल, एन्डोसल्फॉन, बेफेंर्थिन, कार्बोसल्फॉन, क्लोरफेनापर, डाजोमेट, डाईफ्लुबेंजुरॉन, फेनिट्रोथिन, मेटलडीहाइड, कसुगामाइसिन, इथोफेनप्रोक्स (इटोफेनप्रोक्स) फोरेट, ट्राइज़ोफॉस, अलाकोलोर, मोनोक्रोटोफॉस। |
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