कीटनाशक का कहर

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मंडियों में फलों-सब्जियों वगैरह की आवक विभिन्न इलाकों से होती है। हर खेप की जांच करना आसान नहीं है। फिर केवल स्वास्थ्य विभाग की मुस्तैदी से प्रतिबंधित कीटनाशकों के उपयोग पर रोक लगा पाना संभव नहीं है। इसके लिए कृषि, रसायन एवं उर्वरक आदि विभागों की मुस्तैदी भी जरूरी है। मगर सबसे बड़ी चुनौती कृषि प्रणाली को बदलने की है। जब भी रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पैदा होने वाले स्वास्थ्य संबंधी खतरों की बात उठती है,

फलों-सब्जियों और खाद्यान्न में कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल पर रोक लगाने की जरूरत लंबे समय से रेखांकित की जाती रही है। इसके मद्देनजर कुछ कीटनाशकों को प्रतिबंधित भी किया गया है। मगर उत्पादन बढ़ाने और उपज को अपेक्षया अधिक समय तक महफूज रखने की मंशा से कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ता गया है। वहीं फल-सब्जियां ज्यादा ताजा या चमकदार दिखें, इस चक्कर में विक्रेता भी उन पर कई तरह के रसायन इस्तेमाल करते हैं। फलों-सब्जियों का आकार कृत्रिम रूप से बड़ा करने के लिए ऑक्सीटोसीन का प्रयोग भी बढ़ा है। इस तरह बाजार में आते-आते फल-सब्जियां सेहत के लिए मुफीद नहीं रह जाते। इसलिए एक याचिका पर सुनवाई के बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने उचित ही इस मामले में दिल्ली और केंद्र सरकार को कार्रवाई करने को कहा है। अनेक अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अधिक उपयोग से जहां जमीन की उर्वरा-शक्ति क्षीण हो रही है, वहीं किसानों और खेतिहर मजदूरों की सेहत पर भी बुरा असर पड़ रहा है। इन रसायनों के जमीन में रिसते जाने की वजह से बहुत सारी जगहों का भूजल किसी न किसी हद तक जहरीला हो चुका है। ये रसायन बह कर नदियों-तालाबों में भी पहुंच जाते हैं। इससे जल-जीवों और पशु-पक्षियों में तरह-तरह के रोग पैदा हो रहे हैं। कीटनाशकों के इस्तेमाल वाली फसलों को खाने से पंछियों की अनेक प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। फलों-सब्जियों और अनाज के साथ शरीर में पहुंचने वाली कीटनाशकों की मात्रा लोगों में कैंसर और गुर्दे, हृदय आदि से जुड़ी गंभीर बीमारियों का सबब बन रही है। मगर सरकारों में कीटनाशकों के उपयोग को सीमित करने की कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र और दिल्ली सरकार से कहा है कि वे प्रतिबंधित कीटनाशकों के इस्तेमाल और इस तरह उगाए गए फलों और सब्जियों की बिक्री पर रोक लगाने के व्यावहारिक उपाय करें। फिलहाल दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य विभाग का कहना है कि चूंकि यहां के बाजारों में फलों और सब्जियों की बाहर से काफी आपूर्ति होती है, इसलिए इनकी जांच खासी जटिल प्रक्रिया है। इसके लिए मंडियों में नियुक्त किए गए कर्मचारी नमूनों की जांच और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मंडियों में फलों-सब्जियों वगैरह की आवक विभिन्न इलाकों से होती है। हर खेप की जांच करना आसान नहीं है। फिर केवल स्वास्थ्य विभाग की मुस्तैदी से प्रतिबंधित कीटनाशकों के उपयोग पर रोक लगा पाना संभव नहीं है। इसके लिए कृषि, रसायन एवं उर्वरक आदि विभागों की मुस्तैदी भी जरूरी है। मगर सबसे बड़ी चुनौती कृषि प्रणाली को बदलने की है। जब भी रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पैदा होने वाले स्वास्थ्य संबंधी खतरों की बात उठती है, यह दलील दी जाती है कि इन पर रोक लगाने से पैदावार कम हो जाएगी और खाद्य सुरक्षा प्रभावित होगी। मगर खाद्य सुरक्षा का मतलब बस किसी तरह पेट भरना नहीं होता। खाद्य ऐसा होना चाहिए जो सेहत के लिए मुफीद हो। फिर जब जमीन के उपजाऊपन में लगातार कमी आने के तथ्य हों, तो कृषि पैदावार घटने का तर्क किस आधार पर दिया जाता है! यह सही है कि एक समय हरित क्रांति ने अनाज के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने में अहम योगदान दिया, पर इसने ऐसी कृषि प्रणाली को बढ़ावा दिया जिसमें रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अलावा पानी की भी अधिक खपत होती है। आज की जरूरत कृषि को पर्यावरण के अनुकूल बनाने की है, जिसमें स्वास्थ्य संबंधी मुद्दा भी शामिल है।

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