जैविक खाद की तुलना में रासायनिक उर्वरक का उपयोग करने रहने पर सिंचाई में पानी ज्यादा लगता है। पहले चना, मटर, सरसों बिना सिंचाई के हो जाती थी। इनकी फसल के दौरान आसमान से उतरी एक-आध फुहार ही इनके लिये काफी होती थी। किन्तु अब ये फसलें भी कम-से-कम एक सिंचाई चाहती हैं। रासायनिक उर्वरकों के कारण मिट्टी के बँधे ढेलों के टूट जाते हैं। लिहाजा ऊपरी मिट्टी में पानी सोखकर रखने की क्षमता कम हो जाती है। प्रकृति का एक नियम है कि हम उसे जो देंगे, वह हमें किसी-न-किसी रूप में उसे लौटा देगी। जो खाएँगे, पखाने के रूप में वही तो वापस मिट्टी में मिलेगा। सभी जानते हैं कि हमारे उपयोग की वस्तुएँ जितनी कुदरती होंगी, हमारा पर्यावरण उतनी ही कुदरती बना रहेगा; बावजूद इसके दिखावट, सजवाट और स्वाद के चक्कर में हम अपने खपत सामग्रियों में कृत्रिम रसायनों की उपस्थिति बढ़ाते जा रहे हैं।
गौर कीजिए कि कुदरती हवा को हम सिर्फ धुआँ उठाकर अथवा शरीर से बदबूदार हवा छोड़कर खराब नहीं करते; ऐसी हजारों चीजें और प्रक्रियाएँ हैं, जिनके जरिए हम कुदरती हवा में मिलावट करते हैं। जिस भी चीज में नमी है; तापमान बढ़ने पर वह वाष्पित होती ही है। वाष्पन होता है तो उस चीज की गन्ध तथा अन्य तत्व हवा में मिलते ही हैं। होठों पर लिपस्टिक, गालों में क्रीम-पाउडर, बालों में मिनरल आॅयलयुक्त तेल-शैम्पू-रंग, शरीर पर रासायनिक इत्र.. अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में कृत्रिम रसायन की ऐसी चीजों की सूची बनाइए। फिर सोचिए कि धुएँ के अलावा हम कितनी चीजों के जरिए भी हवा में मिलावट करते हैं।
कुदरती की गारंटी देना मुश्किल
भोजन पर निगाह डालिए। नाश्ते-लंच के हमारे मीनू में तसल्ली से बने घर के भोजन से ज्यादा 'रेडी टु ईट' शामिल हो गया है। घर में बनाएँ तो भी गारंटी नहीं। सब्जी है तो रंगी हुई; दवा छिड़कर कीड़ों से बचाई हुई। दाल है तो पाॅलिश की हुई; आम है तो कार्बेट से पकाया हुआ, तेल है तो रसायन डालकर रिफाइंड किया हुआ। दूध-घी तो छोड़िए, जानवरों का चारा तक प्राकृतिक नहीं रहा।
अंग्रेजी दवा पद्धति ने बाजार के साथ मिलकर देशी-कुदरती भारतीय दवा पद्धतियों से हमें दूर कर दिया है। नैचुरल और हर्बल टैग के साथ आ रहे बाजारू सामान ही नहीं, खुद अपने खेतों के बोई फसल को अब आप पूरी तरह प्राकृतिक नहीं कह सकते। हरित क्रान्ति ने भारत के गोदाम भरे, लेकिन उपज के प्राकृतिक होने की गारंटी छीन ली। हमने मिट्टी तो मिट्टी, जलवायु तक में मिलावट की है।
नदियों, तालाबों और धरती की शिराओं में जल के कुदरती होने की गारंटी तो हम कब की छिन चुके। इस छीन ली गई गारंटी का नतीजा यह है कि अब हम इस बात की गारंटी कतई नहीं दे सकते कि ताकत और पौष्टिकता के नाम पर खाया-खिलाया गया पदार्थ हमें सेहतमन्द ही बनाएगा। फलों-मेवों में छिपकर बैठे कृत्रिम रसायन हमारे शरीर में घुसकर हमारे शरीर का खेल बिगाड़ देंगे; यह आशंका अब हरदम है। खुली हवा में साँस लेना अब स्वस्थ बनाने से ज्यादा, बीमार बनाने का नुस्खा हो गया है।
क्यों मुश्किल है कुदरती हवा?
सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम चाहकर भी अपने खान-पान, साँस-हवा को कुदरती नहीं बना पा रहे। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिये है क्योंकि हम न इलाज पर ठीक से ध्यान दे रहे हैं और न रोकथाम पर। मीडिया में कहा गया कि सबसे बड़ा खतरा तो फसलों के अवशेष जलाने से है। फसल कटने के बाद अवशेष को जलाने पर रोक भी लगा दी गई। किसान कहते हैं कि हाथ से कटाई महंगी, मुश्किल और अधिक समय खाने वाली होती जा रही है।
डिजाइन करने वालों ने कटाई मशीनें ऐसी डिजाइन की हैं, जिनसे भूसा-पुआल कम मिलता है और धान-गेहूँ की डंठल खेत मे ज्यादा छूट जाती है। उसे सड़ाने के लिये पर्याप्त पानी भी चाहिए और समय भी। यदि धान की फसल देर से तैयार हो और उसी खेत में अगली फसल बोने का समय निकला जा रहा हो, तो बचे हुए को खेत में सड़ाना सम्भव नहीं होता। इसलिये फसलों के बचे हुए को जलाने की मजबूरी है। दूसरी मजबूरी समझिए।
खेतों में नए-नए तरह के खर-पतवार ज्यादा पैदा हो रहे हैं। किसान या तो उन्हें जलाये या फिर रसायन छिड़क कर नष्ट कर दे। दोनों ही तरीके कुदरती नहीं हैं। तीसरी मजबूरी यह है कि अलाव जलाए बगैर गाँव मे ठंड काटना मुश्किल है। चूल्हे के लिये सबसे सहज, सुलभ और स्वावलम्बी ईंधन अभी भी लकड़ी-उपला ही हैं। इसे अचानक रोका नहीं जा सकता।
यह सही है कि ये सब हवा में मिलावट के काम हैं। कुदरती होना ही गाँवों का गुण है और शक्ति भी। गाँव की इस शक्ति का क्षरण होना शुरू हो चुका है। इसे नकार नहीं सकते। किन्तु यहाँ यह भी सही है कि गाँववासी हवा में जितनी मिलावट करते हैं, उससे कहीं ज्यादा उसकी कुदरती तत्व अपनी हरी-हरी फसलों और बागीचों के जरिए हवा को लौटा देते हैं।
अतः जरूरी है कि गाँव क्या कर सकता है; उसे बताएँ, लेकिन इस उपदेश की आड़ में एयरकंडीशनर, फ्रिज, गर्म धुआँ छोड़ते वाहनों, उद्योगों, नदियों-झीलों में मिलावट के जरिए हवा में मिलावट करने वाली बजबजाती नालियों, ठोस कचरायुक्त नालों और बाँधों के जलाशयों जैसे बड़े मिलावटखोरों को भूल न जाएँ। इन खतरनाक मिलावटखोरों पर रोक का दिखावा ज्यादा है, संजीदा कोशिश कम। यही वजह है कि हवा को हम कुदरती बनाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ पा रहे।
रासायनिक हुई माटी-खेती
जब से रासायनिक उर्वरकों का उपयोग होने लगा, देसी घी में सुगन्ध नहीं रही; दाल-सब्जियों का अपना स्वाद नहीं रहा, अनाज में मिठास नहीं रही; गाँव के नए पट्ठों में भी उतना दम नहीं रहा, अतः अब साठा सो पाठा की कहावत भी सटीक नहीं रही। ऐसी चर्चा हमारी बतकही में आम हैं। किसान यह भी अनुभव कर रहा है कि पिछली बार की तुलना में अगली बार अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरक न डाला जाये, तो उपज कम होती जाती है।
जैविक खाद की तुलना में रासायनिक उर्वरक का उपयोग करने रहने पर सिंचाई में पानी ज्यादा लगता है। पहले चना, मटर, सरसों बिना सिंचाई के हो जाती थी। इनकी फसल के दौरान आसमान से उतरी एक-आध फुहार ही इनके लिये काफी होती थी। किन्तु अब ये फसलें भी कम-से-कम एक सिंचाई चाहती हैं। रासायनिक उर्वरकों के कारण मिट्टी के बँधे ढेलों के टूट जाते हैं। लिहाजा ऊपरी मिट्टी में पानी सोखकर रखने की क्षमता कम हो जाती है।
परिणामस्वरूप, ऊपरी परत में नमी बहुत जल्दी गायब हो जाती है। किसानों को इन सीधे नुकसानों का आभास है। उन्होंने जैविक खेती की चर्चा भी सुनी है, किन्तु वह जैविक खेती अपनाने के लिये तेजी से आगे नहीं आ रहा। क्यों? मैंने जानने की कोशिश की। आप भी जानें।
किसानों के तर्क
जब मैंने एक किसान से कहा कि भाई जब आपके पास खेत हैं, तो कम-से-कम अपने और मवेशी के खाने भर का अनाज-सब्जी-चारा तो देसी खाद से पैदा करो। इस पर जवाब आया- ''भैया, चाहते तो हम भी हैं, किन्तु क्या करें। देसी बीज हमने बचाकर रखे नहीं। बाजार के बीज रासायनिक शोधन के साथ ही आते हैं। हमारे खेतों की मिट्टी इतनी कमजोर हो गई है कि रासायनिक उर्वरक न डालो, तो पौधा बढ़ता नहीं; उपज कम होती है। इस नए जमाने में जाने कैसी तो हवा चलती है कि कीटनाशक डाले बगैर कीड़े फसल छोड़ते नहीं। नई-नई तरह की खर-पतवार ऐसी जमने लगी है कि खोदते-खोदते थक जाओ; वह अगली फसल में फिर तैयार मिलती है। उसके लिये भी दवाई छिड़कनी ही पड़ती है। अब नीम की पत्ती अकेले डालने से काम चलता नहीं। अब तो गेहूँ-धान-दाल में दवाई डालकर भण्डारण न करो, तो उसमें भी घुन-पई लग जाती हैं।.....तो भैया अकेले देसी खाद डाल देने से तो खेती कृत्रिम रसायन से मुक्त होने से रही।''
परिस्थितियों के हिसाब से किसान की बात ठीक थी। मैं क्या कहता? दूसरे किसान ने कहा- ''भैया, हम तुम्हारी बात मान भी लें, तो इतनी देसी खाद लाएँ कहा से कि हर साल हर खेत में खाद पहुँच जाये? अब इतना गोबर भी नहीं होता। पहले 25-40 आदमी का एक परिवार होता था। 10-12 मवेशी रखने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। अब घर में मैं, पत्नी, दो बिटिया, एक बेटा और अम्मा-बाबू... कुलजमा सात प्राणी हैं। अम्मा-बाबू की उम्र और शक्ति कुछ करने की बची नहीं। बच्चों को स्कूल से फुरसत नहीं। बचे हम दो प्राणी। क्या-क्या करें? चारागाह बचे नहीं। भूसा-भरसीम-चरी के बूते भैंस-गाय पालना बूते का रहा नहीं... और फिर कंडा-उपला के लिये भी गोबर चाहिए। गैस पर खाना पकाएँ, तो एक सिलेण्डर एक महीना भी न चले। इतना पैसा कहाँ से लाएँ?''
जागृति जरूरी है
परिस्थिति के हिसाब से किसानों के तर्क व्यावहारिक हैं। उनकी बातों से यह भी स्पष्ट हुआ कि वे केंचुआ खाद, कचरा कम्पोस्ट आदि से परिचित नहीं है। गोबर गैस प्लांट उनकी पकड़ में नहीं है। हरी खाद पैदा करने के लिये हर साल जो अतिरिक्त खेत चाहिए, उनके पास उतनी जमीन नहीं है। जिला कृषि कार्यालय के अधिकारी-कर्मचारी गाँव में आते-जाते नहीं। सच यही है कि जैविक खेती के सफल प्रयोगों की भनक देश के ज्यादातर किसानों को अभी भी नहीं है। कुछ ने सुना है, तो आँखों से नहीं देखा।
जैविक खेती करने वालों के अनुभवों को मौकों पर जाकर खुद सुना नहीं, सो अभी भरोसा भी नहीं है। प्रमाणपत्र के बगैर जैविक उत्पाद को रासायनिक उर्वरकों से की खेती उत्पादों की तुलना में महंगा बेचना सम्भव नहीं होता। जैेविक प्रमाणपत्र और प्रमाणित करने की प्रक्रिया से तो वे बिल्कुल ही वाकिफ नहीं हैं। वाकिफ हो जाएँ, तो सोचते हैं कि उसे हासिल करना मुश्किल है।
भारत के ज्यादातर किसान जैविक खेती की व्यावहारिकता को लेेकर इसी स्थिति में हैं। जरूरी है कि उन्हें जैविक खेती के सफल प्रयोग, तकनीक और अनुभवों से उनका सीधे साक्षात्कार कराया जाये। यदि हम चाहते हों कि हमारी खेती कुदरती हो जाये, तो हमारी कृषि वैज्ञानिक, अधिकारी और सरकारें उर्वरक तथा बाजारू बीज कम्पनियों की एजेंट बनने का भूमिका त्यागें। किस प्राकृतिक खाद-पदार्थ में कौन सा रसायन है? किस प्राकृतिक पदार्थ को सीधे अथवा सिंचाई के माध्यम से खेत की मिट्टी में मिलाने से मिट्टी की जरूरत के हिसाब से किस रसायन की पूर्ति की जा सकती है? इस जानकारी के अभाव में मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं से आई जागृति किसान को कम्पोस्ट की बजाय, कृत्रिम रसायन उर्वरकों की ओर ही प्रेरित कर रही हैं।
बी आॅर्गेनिक, बी नैचुरल, बी वेल्दी, रिमेन हेल्दी
मेरी माँ साग-भाजी छोड़कर और किसी फसल के बीज बाजार से नहीं खरीदती। इस बार गाँव गया, तो उसने 20 वर्षों से संजोकर रखा सवां पकाकर मुझे खिलाया। स्पष्ट है कि मेरी माँ 20 वर्ष पुराने सवां के बीजों को बचाकर रखना जानती है। यदि वह अनपढ़ होकर भी यह कर सकती है, तो देश के और किसान क्यों नहीं? यह साधारण कला है, किन्तु अनपढ़ को गँवार कहने और हम जैसे पढ़े-लिखों की जानकारी में न होने के कारण अब असाधारण हो गई है। जरूरी है कि देशी बीजों को संजोकर रखने के प्रयास फिर से शुरू हों।
हमारे बाजार, हमारी जीवनशैली, हमारी तात्कालिक जरूरतें, हमारी सरकारें, हम खुद.....निस्सन्देह, चुनौतियाँ बहुत हैं। खेती, माटी, जल, हवा को फिर से 100 फीसदी कुदरती बनाना इतना आसान नहीं है। आदम युग में लौटा नहीं जा सकता। किन्तु किसी एक पहलू से व्यापक शुरुआत तो की जा सकती है। सिक्किम ने पहल कर दी है; हम भी करें। किसानों को भी चाहिए कि वे सरकार की ओर ताकने की बजाय, 'अपना बीज, अपनी खाद, अपनी दवाई, अपना चारागाह, अपना तालाब' बचाने के काम खुद शुरू करें। पंचायतों को इसके सामूहिक प्रयास शुरू करने चाहिए।
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Post By: RuralWater