हमारा अस्तित्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से है। भारतीय चिंतन के ये पांच महाभूत हैं। सभी प्राणी और वनस्पतियां इन्हीं पर निर्भर हैं। कायदे से इनका भी मौलिक अधिकार होना चाहिए। संविधान में हम सबको अनेक मौलिक अधिकार हैं। लेकिन इन्हें जीवन का भी मौलिक अधिकार नहीं है। नदियां जल प्रवाह हैं। जल से ही जीवन की गति है.. प्रकृति आदरणीय है। वैदिक साहित्य इसी आदर से भरापूरा है। प्रकृति के अनेक पर्याय हैं यहां। एक शक्ति का नाम ‘अदिति’ है। ऋग्वेद में उन्हें पृथ्वी व अंतरिक्ष गाया गया है। उन्हें सबका माता, पिता व पुत्र भी बताया गया है। ऋषि की अनुमति गहरी है। हम प्रकृति से उगते हैं, जन्म पाते हैं। तब यह माता पिता है। यही प्रकृति हमारे माध्यम से संतति विस्तार पाती है, तब वही पुत्र या पुत्री भी होती है। कहा गया है कि जो भूतकाल में हो गया, जो वर्तमान में है और जो आगे होगा, वह सब ‘अदिति’ है। अदिति को नमस्कार है। ठीक ऐसी ही अनुमति पुरुष सूक्त में है। पुरुष साधारण बोलचाल वाला पुरुष-स्त्री के जोड़े वाला पुरुष नहीं है। पुरुष संपूर्ण विश्व, अंतरिक्ष और परमव्योम को घेरे हुए है, उसके भीतर भी है। जो भूतकाल में हो गया, जो वर्तमान में है और जो आगे होगा, वह सब पुरुष ही है। संपूर्णता के अनेक नाम हो सकते हैं।
भौतिकवादी इसे प्रकृति कहते हैं। तुलसीदास ने संपूर्णता को ‘सीयराम’ गाकर प्रणाम किया था- सीयराम मय सब जग जानी/ करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी। समूचे जगत को नमस्कार भारत की प्राचीन परंपरा है। यह नमस्कार प्रकृति की सामूहिकता को है और अलग-अलग पशु-पक्षी, वन-पर्वत, नदियों और समुद्रों को। आकाश, चंद्र-सूर्य और नक्षत्रों को भी।
नमस्कार में प्रेम और आदर की गहन त्वरा होती है। नमस्कार के प्रारंभ में हम अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। फिर झुकते हैं- उसी अस्तित्व के प्रति। वह व्यक्ति/प्रतीक या प्रतिमा विराट प्रकृति का भाग है। हमारा नमस्कार प्रत्यक्ष रूप में इकाई के प्रति होता है। किसी मनुष्य के प्रति, किसी नदी के प्रति, पेड़ या पौधे के प्रति। लेकिन वस्तुत: वह संपूर्ण अस्तित्व के प्रति व्यक्त धन्यवाद भाव है। सामाजिक परंपराएं ऐसे शिष्टाचार से भरी पूरी हैं। ऋग्वेद नमस्कार संस्कृति का ही दस्तावेज है। यहां कीट-पतंग और वनस्पति, नदी सहित प्रकृति के सभी रूपों को नमस्कार किया गया है। ऋषि बता गए हैं कि नमस्कार में बड़ी ऊर्जा है। नमस्कार देवता हैं। हम नमस्कार को भी नमस्कार करते हैं। अनुभूति उचित है। हम जिसे नमस्कारों के योग्य जानते हैं, उसके प्रति हिंसक नहीं हो सकते। नदियों को नमस्कार करने वाले नदियों में ही कचरा, शव या मल नहीं डाल सकते। वनस्पतियों को देवता जानकर नमस्कार करने वाले लकड़कट्टा नहीं हो सकते। कीट-पतंगों, पशुओं-पक्षियों को भी नमस्कार करने वाले उन्हें जीवित देखना ही चाहेंगे। लेकिन सबकुछ उलट गया है। मनुष्य ने पूरी प्रकृति को अपने इस्तेमाल वाली उपभोक्ता सामग्री जान लिया है। अधिकारवाद बढ़ा है, कर्तव्य-बोध शून्य हो गया है।
हमारा अस्तित्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से है। भारतीय चिंतन के ये पांच महाभूत हैं। सभी प्राणी और वनस्पतियां इन्हीं पर निर्भर हैं। कायदे से इनका भी मौलिक अधिकार होना चाहिए। संविधान में हम सबको अनेक मौलिक अधिकार हैं। लेकिन इन्हें जीवन का भी मौलिक अधिकार नहीं है। नदियां जल प्रवाह हैं। जल से ही जीवन की गति है। जल प्रवाह नदियों का स्वभाव है। लेकिन विकास के नाम पर उनके जल प्रवाह बाधित हैं। गंगा मरणासन्न है और यमुना कचरापेटी। उत्तर प्रदेश की गोमती और सई जैसी नदियां भी जीवन के अधिकार से वंचित हैं। औद्योगिक कंपनियों द्वारा जल प्रवाहों में कचरा डाला जा रहा है। वायु से ही आयु है। वायु प्राण है। वायु में तरह-तरह के प्रदूषण हैं। इसकी काया भी छीज रही है। हमारी औद्योगिक सभ्यता ने आकाश को भी घायल किया है। ओजोन परत भी असुरक्षित है। प्रकृति में अनेक तरह के जीव हैं। पर्यावरण बनाए रखने में सबकी भूमिका है। मनुष्य के अलावा दूसरा कोई जीव पर्यावरण चक्र पर हमला नहीं करता। लेकिन कीट-पतंगों सहित सभी जीवों के अस्तित्व पर संकट है। जल प्रदूषित है, जंगल उजड़ गए, जीव कहां रहे? कैसे जिएं? जैव विविधिता तहस-नहस हो रही है।
वैदिक ऋषियों ने वनस्पतियों को देवता गाया है। वे प्राण वायु का कारखाना हैं। लेकिन वनस्पतियां उजाड़ दी गई हैं। मनुष्य अपनी सभ्यता-संस्कृति पर गर्व करता है। लेकिन आधुनिकता में अपने मौलिक अधिकार के अलावा दूसरे के अस्तित्व का स्वीकार भी नहीं है। कोई मनुष्य अकेले होकर ही सभ्य नहीं होता। सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत ही ‘अन्य’ से होती है और यही गहराकर अनन्य अनुभूति बनती है। प्रत्यक्ष रूप में कीट-पतंग और सारे जीव अन्य हैं। नदी, पर्वत, जंगल और वनस्पतियां भी अन्य हैं। सारे मनुष्य भी अन्य हैं। अधिकारवाद में अपनी ही चिंता है और कर्तव्यबोध में अन्य की। भारतीय जीवन दर्शन में कर्तव्य पर जोर रहा है। नदी, समुद्र, वन, पर्वत और कीट पतंग के प्रति भी हमारे कुछ कर्तव्य हैं। पशु जगत के प्रति भी हमारे कर्तव्य हैं। यह अलग बात है कि पशुओं सहित अनेक प्राणी व वनस्पतियां हमारे लिए उपयोगी भी हैं। वे उपयोगी न भी हों तो भी उन्हें जीवन के अधिकार से वंचित नहीं किया जाता। पेड़-पौधों की संवेदनशीलता आधुनिक विज्ञान की पकड़ में आ चुकी है। वे लकड़कट्टा मनुष्य को दूर से ही पहचान लेते हैं। उसे देखकर दुखी होते हैं और पानी देनेवाले माली को देखकर खिल भी उठते हैं। गाय, बैल, भैंसे, बकरियां भी संवेदनशील हैं, लेकिन उन्हें काटा जा रहा है।
पशु जगत के पास जीवन का मौलिक अधिकार नहीं है। मांस खाने की उपयोगिता या अनुपयोगिता पर बहस की गुंजाइश है, लेकिन अपनी स्वाद लालसा के चलते किसी प्राणी को जीवन से ही वंचित करना कहां का न्याय है? जीवन का अधिकार प्राकृतिक है। जीवन प्रकृति की उमंग का विस्तार है। प्रकृति ही एक निश्चित समय पर जीवन को वापस लेती है। हरेक पौधा, पशु, पक्षी या कोई भी जीव, नदी, ओस कण या नन्हा कीट सबके सब प्रकृति की सृजन शक्ति का ही विस्तार हैं। मनुष्य अपनी युक्ति शक्ति के कारण सब पर भारी है। इसी शक्ति के चलते वह डायनामाइट से पहाड़ गिरा देता है और पहाड़ का जीवन नष्ट हो जाता है। जल कण का भी व्यक्तित्व है। मनुष्य इस व्यक्तित्व में जहर घोलता है। मनुष्य की क्षुधा अनंत हो गई है। वह स्वाद से नहीं अघाता। गगनचुंबी घर बनाता है। पर्यावरण पर हमला करता है। लालसा तो भी नहीं रुकती। उपनिषद के ऋषियों ने बार-बार चेताया है कि ऐसी आसक्ति फिर-फिर प्यास जगाती है। गांधीजी ने ठीक लिखा था कि पृथ्वी के पास सबको सुखी जीवन देने की क्षमता है, लेकिन कामनापूर्ति की क्षमता नहीं। कामनाएं अनंत हैं। अपने अधिकार की सीमा में ही कामनाएं अनंत हैं। अपने अधिकार की सीमा में ही कामनाएं पूरी करने का प्रयास मनुष्य का अधिकार है, लेकिन प्रकृति के अन्य घटकों के मौलिक अधिकार भी ध्यान में रखने चाहिए।
ऋतुचक्र गड़बड़ा रहा है। चेतावनियां बेअसर हैं। अस्तित्व गलती नहीं करता। प्रकृति के गर्भ से ही अनेक जीव, वन, पर्वत, झरने, झीलें और नदियां निकलते हैं। प्रकृति के गर्भ को ही वैदिक पूर्वजों ने 'हिरण्यगर्भ' कहा है। हम सब मनुष्य भी हिरण्यगर्भ से उगे हैं। प्रकृति के सभी जीव और रूप हमारे सगे संबंधी हैं। वे अन्य नहीं, अनन्य ही हैं। प्रकृति अपनी संपूर्णता में एक है। प्रकृति या संसार जीवों, वनस्पतियों, पर्वतों या भूमि, समुद्र का संघ नहीं है। एक जीवमान परमसत्ता-आर्गेनिक यूनिटी है। ऋग्वेद से लेकर ब्रह्मसूत्र, बुद्ध, शंकराचार्य और स्टीफेन हाकिंस तक अनुभूति और अनुभव का यही अंतिम तल है।
अधिकारवाद की परिभाषा में इसके हरेक घटक को जीवन का वैसा ही मौलिक अधिकार है, जैसा हम मनुष्यों ने अपने लिए तय किया है। विचार अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार खूबसूरत है। हम सब इसका सदुपयोग दुरुपयोग की हद तक करते हैं। लेकिन कुत्तों के भूंकने या बिल्ली के म्याऊं करने के मौलिक अधिकार का सम्मान नहीं करते। पौधे, फूल या फल देकर विचार अभिव्यक्ति ही करते हैं। अस्तित्व भी प्रतिफल अभिव्यक्ति ही हो रहा है। सृष्टि के हरेक जीव, वनस्पति और रूप आकार के मौलिक अधिकार का संरक्षण होना चाहिए।
ईमेल- aksharvarchas@gmail.com
भौतिकवादी इसे प्रकृति कहते हैं। तुलसीदास ने संपूर्णता को ‘सीयराम’ गाकर प्रणाम किया था- सीयराम मय सब जग जानी/ करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी। समूचे जगत को नमस्कार भारत की प्राचीन परंपरा है। यह नमस्कार प्रकृति की सामूहिकता को है और अलग-अलग पशु-पक्षी, वन-पर्वत, नदियों और समुद्रों को। आकाश, चंद्र-सूर्य और नक्षत्रों को भी।
नमस्कार में प्रेम और आदर की गहन त्वरा होती है। नमस्कार के प्रारंभ में हम अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। फिर झुकते हैं- उसी अस्तित्व के प्रति। वह व्यक्ति/प्रतीक या प्रतिमा विराट प्रकृति का भाग है। हमारा नमस्कार प्रत्यक्ष रूप में इकाई के प्रति होता है। किसी मनुष्य के प्रति, किसी नदी के प्रति, पेड़ या पौधे के प्रति। लेकिन वस्तुत: वह संपूर्ण अस्तित्व के प्रति व्यक्त धन्यवाद भाव है। सामाजिक परंपराएं ऐसे शिष्टाचार से भरी पूरी हैं। ऋग्वेद नमस्कार संस्कृति का ही दस्तावेज है। यहां कीट-पतंग और वनस्पति, नदी सहित प्रकृति के सभी रूपों को नमस्कार किया गया है। ऋषि बता गए हैं कि नमस्कार में बड़ी ऊर्जा है। नमस्कार देवता हैं। हम नमस्कार को भी नमस्कार करते हैं। अनुभूति उचित है। हम जिसे नमस्कारों के योग्य जानते हैं, उसके प्रति हिंसक नहीं हो सकते। नदियों को नमस्कार करने वाले नदियों में ही कचरा, शव या मल नहीं डाल सकते। वनस्पतियों को देवता जानकर नमस्कार करने वाले लकड़कट्टा नहीं हो सकते। कीट-पतंगों, पशुओं-पक्षियों को भी नमस्कार करने वाले उन्हें जीवित देखना ही चाहेंगे। लेकिन सबकुछ उलट गया है। मनुष्य ने पूरी प्रकृति को अपने इस्तेमाल वाली उपभोक्ता सामग्री जान लिया है। अधिकारवाद बढ़ा है, कर्तव्य-बोध शून्य हो गया है।
हमारा अस्तित्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से है। भारतीय चिंतन के ये पांच महाभूत हैं। सभी प्राणी और वनस्पतियां इन्हीं पर निर्भर हैं। कायदे से इनका भी मौलिक अधिकार होना चाहिए। संविधान में हम सबको अनेक मौलिक अधिकार हैं। लेकिन इन्हें जीवन का भी मौलिक अधिकार नहीं है। नदियां जल प्रवाह हैं। जल से ही जीवन की गति है। जल प्रवाह नदियों का स्वभाव है। लेकिन विकास के नाम पर उनके जल प्रवाह बाधित हैं। गंगा मरणासन्न है और यमुना कचरापेटी। उत्तर प्रदेश की गोमती और सई जैसी नदियां भी जीवन के अधिकार से वंचित हैं। औद्योगिक कंपनियों द्वारा जल प्रवाहों में कचरा डाला जा रहा है। वायु से ही आयु है। वायु प्राण है। वायु में तरह-तरह के प्रदूषण हैं। इसकी काया भी छीज रही है। हमारी औद्योगिक सभ्यता ने आकाश को भी घायल किया है। ओजोन परत भी असुरक्षित है। प्रकृति में अनेक तरह के जीव हैं। पर्यावरण बनाए रखने में सबकी भूमिका है। मनुष्य के अलावा दूसरा कोई जीव पर्यावरण चक्र पर हमला नहीं करता। लेकिन कीट-पतंगों सहित सभी जीवों के अस्तित्व पर संकट है। जल प्रदूषित है, जंगल उजड़ गए, जीव कहां रहे? कैसे जिएं? जैव विविधिता तहस-नहस हो रही है।
वैदिक ऋषियों ने वनस्पतियों को देवता गाया है। वे प्राण वायु का कारखाना हैं। लेकिन वनस्पतियां उजाड़ दी गई हैं। मनुष्य अपनी सभ्यता-संस्कृति पर गर्व करता है। लेकिन आधुनिकता में अपने मौलिक अधिकार के अलावा दूसरे के अस्तित्व का स्वीकार भी नहीं है। कोई मनुष्य अकेले होकर ही सभ्य नहीं होता। सभ्यता और संस्कृति की शुरुआत ही ‘अन्य’ से होती है और यही गहराकर अनन्य अनुभूति बनती है। प्रत्यक्ष रूप में कीट-पतंग और सारे जीव अन्य हैं। नदी, पर्वत, जंगल और वनस्पतियां भी अन्य हैं। सारे मनुष्य भी अन्य हैं। अधिकारवाद में अपनी ही चिंता है और कर्तव्यबोध में अन्य की। भारतीय जीवन दर्शन में कर्तव्य पर जोर रहा है। नदी, समुद्र, वन, पर्वत और कीट पतंग के प्रति भी हमारे कुछ कर्तव्य हैं। पशु जगत के प्रति भी हमारे कर्तव्य हैं। यह अलग बात है कि पशुओं सहित अनेक प्राणी व वनस्पतियां हमारे लिए उपयोगी भी हैं। वे उपयोगी न भी हों तो भी उन्हें जीवन के अधिकार से वंचित नहीं किया जाता। पेड़-पौधों की संवेदनशीलता आधुनिक विज्ञान की पकड़ में आ चुकी है। वे लकड़कट्टा मनुष्य को दूर से ही पहचान लेते हैं। उसे देखकर दुखी होते हैं और पानी देनेवाले माली को देखकर खिल भी उठते हैं। गाय, बैल, भैंसे, बकरियां भी संवेदनशील हैं, लेकिन उन्हें काटा जा रहा है।
पशु जगत के पास जीवन का मौलिक अधिकार नहीं है। मांस खाने की उपयोगिता या अनुपयोगिता पर बहस की गुंजाइश है, लेकिन अपनी स्वाद लालसा के चलते किसी प्राणी को जीवन से ही वंचित करना कहां का न्याय है? जीवन का अधिकार प्राकृतिक है। जीवन प्रकृति की उमंग का विस्तार है। प्रकृति ही एक निश्चित समय पर जीवन को वापस लेती है। हरेक पौधा, पशु, पक्षी या कोई भी जीव, नदी, ओस कण या नन्हा कीट सबके सब प्रकृति की सृजन शक्ति का ही विस्तार हैं। मनुष्य अपनी युक्ति शक्ति के कारण सब पर भारी है। इसी शक्ति के चलते वह डायनामाइट से पहाड़ गिरा देता है और पहाड़ का जीवन नष्ट हो जाता है। जल कण का भी व्यक्तित्व है। मनुष्य इस व्यक्तित्व में जहर घोलता है। मनुष्य की क्षुधा अनंत हो गई है। वह स्वाद से नहीं अघाता। गगनचुंबी घर बनाता है। पर्यावरण पर हमला करता है। लालसा तो भी नहीं रुकती। उपनिषद के ऋषियों ने बार-बार चेताया है कि ऐसी आसक्ति फिर-फिर प्यास जगाती है। गांधीजी ने ठीक लिखा था कि पृथ्वी के पास सबको सुखी जीवन देने की क्षमता है, लेकिन कामनापूर्ति की क्षमता नहीं। कामनाएं अनंत हैं। अपने अधिकार की सीमा में ही कामनाएं अनंत हैं। अपने अधिकार की सीमा में ही कामनाएं पूरी करने का प्रयास मनुष्य का अधिकार है, लेकिन प्रकृति के अन्य घटकों के मौलिक अधिकार भी ध्यान में रखने चाहिए।
ऋतुचक्र गड़बड़ा रहा है। चेतावनियां बेअसर हैं। अस्तित्व गलती नहीं करता। प्रकृति के गर्भ से ही अनेक जीव, वन, पर्वत, झरने, झीलें और नदियां निकलते हैं। प्रकृति के गर्भ को ही वैदिक पूर्वजों ने 'हिरण्यगर्भ' कहा है। हम सब मनुष्य भी हिरण्यगर्भ से उगे हैं। प्रकृति के सभी जीव और रूप हमारे सगे संबंधी हैं। वे अन्य नहीं, अनन्य ही हैं। प्रकृति अपनी संपूर्णता में एक है। प्रकृति या संसार जीवों, वनस्पतियों, पर्वतों या भूमि, समुद्र का संघ नहीं है। एक जीवमान परमसत्ता-आर्गेनिक यूनिटी है। ऋग्वेद से लेकर ब्रह्मसूत्र, बुद्ध, शंकराचार्य और स्टीफेन हाकिंस तक अनुभूति और अनुभव का यही अंतिम तल है।
अधिकारवाद की परिभाषा में इसके हरेक घटक को जीवन का वैसा ही मौलिक अधिकार है, जैसा हम मनुष्यों ने अपने लिए तय किया है। विचार अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार खूबसूरत है। हम सब इसका सदुपयोग दुरुपयोग की हद तक करते हैं। लेकिन कुत्तों के भूंकने या बिल्ली के म्याऊं करने के मौलिक अधिकार का सम्मान नहीं करते। पौधे, फूल या फल देकर विचार अभिव्यक्ति ही करते हैं। अस्तित्व भी प्रतिफल अभिव्यक्ति ही हो रहा है। सृष्टि के हरेक जीव, वनस्पति और रूप आकार के मौलिक अधिकार का संरक्षण होना चाहिए।
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