किसानों की समृद्धि के लिये खेती का सम्पूर्ण स्वरूप अपनाना जरूरी

ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था
ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था

मधुमक्खी पालन, बकरी पालन इत्यादि कृषि से सम्बद्ध ऐसी गतिविधियाँ हैं, जिनसे न केवल देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को सहारा मिलता है, बल्कि किसानों को भी आर्थिक मजबूती मिलती है। खेती की एकीकृत प्रणाली इन सब गतिविधियों को एक साथ जोड़कर विकसित की गई एक पद्धति है जिसमें 2-25 एकड़ जमीन में ही सारे क्रियाकलापों की व्यवस्था की जाती है।

खेत के एक छोटे से हिस्से में फार्म पोेंड तैयार किया जाता है जिसमें मछलीपालन भी होता है और सिंचाई के लिये उसका इस्तेमाल भी। डेयरी में मौजूद गायों के गोबर और गोमूत्र से खेतों में जैविक खाद और कीटनाशकों की जरूरत पूरी होती है। मुर्गियों का मल मछलियों का भोजन बन जाता है। खेतों की मेड़ पर गायों के चारे की भी खेती होती है और खेतों में व्यावसायिक फसलें लगाई जाती हैं। इस तरह सब मिलाकर एक ऐसा मॉडल तैयार होता है, जिसमें किसान को पूरे साल आमदनी होती है।

देश में आजकल कृषि अर्थव्यवस्था एक नए विमर्श का गवाह बन रही है। यद्यपि इस विमर्श की शुरुआत प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य तय करने के साथ हुई, लेकिन इसने देश भर में एक ऐसे माहौल को जन्म दिया है, जिसमें किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिहाज से तमाम अलग-अलग तौर-तरीकों, तकनीकों और खेती के अलग-अलग मॉडलों की चर्चा होने लगी है। इस विमर्श का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा खेती को सही तरीके से परिभाषित करना भी है।

भारतीय परम्परा में खेती को कभी भी अलग-थलग काम नहीं माना गया था। खेती दरअसल एक पूर्ण चक्र का काम था, जिसे मैनेजमेंट की भाषा में 360 डिग्री अप्रोच कहा जाता है। हर किसान एकाध गाय या भैंस रखता ही था। मुर्गीपालन, बकरी पालन और मछली पालन भी देश के अलग-अलग हिस्सों के किसानों की खेती का हिस्सा हुआ करते थे। और ये सब गतिविधियाँ एक-दूसरे की पूरक हुआ करती थीं।

अब जब देश की अर्थव्यवस्था के सामने वापस छोटी अवधि में 8 प्रतिशत और दीर्घ अवधि में दोहरे अंकों की विकास दर हासिल करने की चुनौती हो, तो सकल घरेलू उत्पाद में 14 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाली कृषि को किसी भी हाल में 7 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करनी ही होगी।

पिछले पाँच साल के दौरान कृषि क्षेत्र की विकास दर ऋणात्मक से लेकर 4 प्रतिशत के बीच में रही है, ऐसे में 7 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करना वास्तव में किसी भी सरकार के लिये लोहे के चने चबाने के बराबर है। हालांकि यह असम्भव नहीं है।

खेती से जुड़ी अन्य गतिविधियों यानी डेयरी कुक्कुट पालन, बकरी पालन, मछली पालन, सेरीकल्चर (रेशम के कीड़ों का पालन), मोती की खेती इत्यादि पर सही रणनीति के साथ निवेश किया जाय तो इस लक्ष्य को आसानी से हासिल किया जा सकता है क्योंकि केवल इन क्षेत्रों का योगदान देश की जीडीपी में 8 प्रतिशत तक है। आइए, भारतीय अर्थव्यवस्था और किसानों के लिये इन सम्बद्ध गतिविधियों के विकास और महत्त्व को थोड़ा विस्तार से समझते हैं।

डेयरी उद्योग

भारत में डेयरी उद्योग की सफलता की कहानी किसी परी कथा से कम नहीं है। गुजरात में अमूल, दिल्ली-एनसीआर में मदर डेयरी, राजस्थान में सरस, बिहार में सुधा- ये सारे नाम सफलता के उस सफर में तैयार सितारे हैं, जिन्होंने देश को दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में विश्व का सिरमौर बना दिया है। देश ने डेयरी उद्योग में 5-6 प्रतिशत सालाना की वृद्धि दर हासिल की है, जो कि परम्परागत खेती के मुकाबले लगभग दोगुना है।

अनुमान के मुताबिक डेयरी क्षेत्र का योगदान देश के सकल राष्ट्रीय आमदनी (जीएनआई) में करीब 15 प्रतिशत है (राजू, 2001)। वर्तमान कैलेंडर वर्ष 2018 मे देश का दूध उत्पादन 4.4 प्रतिशत बढ़कर 16.7 करोड़ टन होने की उम्मीद है, जबकि इस दौरान नॉन फैट ड्राई मिल्क (एनएफडीएम) का उत्पादन 6 लाख टन और मक्खन (बटर) तथा घी का उत्पादन 56 लाख टन रहने का अनुमान है। इस साल एनएफडीएम के 15,000 टन निर्यात का अनुमान है जबकि बटर का निर्यात 10.000 टन तक रह सकता है (यूएसडीए रिपोर्ट, 2017)। इन आँकड़ों के साथ यह जानना अहम है कि इनमें से लगभग 25 प्रतिशत उत्पादन कमर्शियल वैल्यू चेन यानी कोअॉपरेटिव और विभिन्न डेयरी फार्मों द्वारा होता है, जबकि 75 प्रतिशत असंगठित छोटे और सीमान्त किसानों की ओर से आता है। स्वाभाविक तौर पर ये छोटे किसान दूध के जरिए अपनी आमदनी में इजाफा कर रहे हैं। लेकिन इस वृद्धि का स्कोप समझने के लिये गुजरात में अमूल आन्दोलन के प्रभाव और किसानों की आमदनी पर हुए असर को जानना फायदेमन्द हो सकता है।

अमूल ने 2009-10 में अपने सदस्य किसानो को भैंस के दूध का भाव 24.30 रुपए दिया यानी प्रति किलो फैट के लिये 337 रु. जबकि 2016-17 में ये बढ़कर 49 रुपए प्रति लीटर यानी 680 रुपए प्रति किलो फैट हो गया। इसके साथ ही उत्पादन के आँकड़े पर भी नजर डाली जाय तो इस दौरान यह 90.9 लाख लीटर से बढ़कर 176.5 लाख लीटर प्रतिदिन हो गया। मतलब साफ है कि 2009-10 से 2016-17 के दौरान 7 साल में दूध से किसानों को होने वाली आमदनी में 4 गुना की वृद्धि हुई।

अमूल का उदाहरण इस बात का जीता-जागता प्रमाण है कि डेयरी उद्योग का देश और किसानों की आर्थिक स्थिति में किस तरह योगदान हो सकता है। और यह योगदान केवल आर्थिक हालात बेहतर करने में ही नहीं है, बल्कि इसने ग्रामीण भारत की सामाजिक स्थिति को मजबूत करने में भी काफी भूमिका निभाई है। उत्तराखण्ड और राजस्थान जैसे कई इलाकों में डेयरी से सीधे तौर पर महिला सशक्तिकरण में मजबूती मिली है।

पोल्ट्री उद्योग

पोल्ट्री या मुर्गीपालन या कुक्कुट पालन कृषि से सम्बद्ध गतिविधियों में नहीं, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था में सबसे तेजी से बढ़ता उद्योग है। भारत में अंडे और ब्रॉयलर उत्पादन में सालाना 18 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की जा रही है, जिसके बूते देश पोल्ट्री उद्योग में विश्व में छठे स्थान पर पहुँच चुका है। (फूड एंड एग्रीकल्चर अॉर्गेनाइजेशन, संयुक्त राष्ट्र)।

देश का सालाना पोल्ट्री उत्पादन 48 लाख टन तक पहुँच चुका है और भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के मुताबिक 2015-16 में इसका बाजार सालाना लगभग 80,000 करोड़ रुपए का था। अंडे का उत्पादन जो साल 2000 में 30 अरब था, 2014 तक बढ़कर 65 अरब हो चुका था और इस दौरान प्रति व्यक्ति अंडे की खपत भी 28 से बढ़कर 65 तक पहुँच गई यह सही है कि पोल्ट्री उद्योग में आई ये जबरदस्त वृद्धि व्यावसायिक स्तर पर बड़े खिलाड़ियों के कारण आई है, लेकिन इसके बावजूद ये आँकड़े किसानों के लिये पोल्ट्री उद्योग में मौजूद भारी अवसर बताने के लिये पर्याप्त हैं।

पूर्वोत्तर भारत, खासतौर पर नागालैण्ड में छोटे किसानों ने लगभग शून्य लागत वाले कुक्कुट पालन का विकास किया है। वनराज और श्रीनिधी किस्म के मुर्गे-मुर्गियों का पालन राज्य के जनजातीय किसानों में काफी लोकप्रिय है। हालांकि देश में सबसे ज्यादा पोल्ट्री फार्मिंग आन्ध्र प्रदेश में होती है। इसके बाद तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, बिहार, उड़ीसा, केरल, असम, उत्तर प्रदेश और पंजाब का नम्बर आता है। पोल्ट्री कारोबार छोटे और सीमान्त किसानों के लिये काफी अनुकूल होते हैं, क्योंकि एक तो इनके लिये बड़े पैमाने पर शुरुआती निवेश की जरूरत नहीं होती और दूसरी तरफ बारहों महीने इनकी माँग बनी रहती है। इनके बाजार काफी स्थानीय स्तर तक होते हैं, इसलिये इनके विपणन में भी बहुत समस्या नहीं आती।

मछली पालन

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक 1947 के बाद से अब तक देश में मछली उत्पादन में 10 गुना की बढ़ोत्तरी हुई है। केवल 1990 से 2010 के बीच, यानी दो दशकों में यह दोगुना हुआ है। पूरी दुनिया के मछली उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 6 प्रतिशत है और विश्व के मछली उत्पादकों में यह तीसरे स्थान में है।

देश की जीडीपी में यह 1.1 प्रतिशत का योगदान देता है, जबकि कृषि जीडीपी में इसका हिस्सा 5.5 प्रतिशत है (राष्ट्रीय मछली पालन विकास बोर्ड) हाल के वर्षों में मछलीपालन किसानों के लिये अतिरिक्त आमदनी का एक बेहतरीन जरिया बनकर उभरा है। इसके निर्यात से देश को सालाना करीब 33,500 करोड़ रुपए की आमदनी हो रही है जोकि देश के कुल निर्यात का करीब 10 प्रतिशत और कृषि क्षेत्र के निर्यात का करीब 20 प्रतिशत है। ऐसे में स्वाभाविक है कि मछली पालन रोजगार के भी एक अहम क्षेत्र के रूप में उभरा है, जहाँ 1.5 करोड़ लोगों को रोजगार मिला है।

छोटे और सीमान्त किसानों के लिये मछली पालन की उपयोगिता बहुत अधिक है। इसके लिये बहुत छोटी जमीन की आवश्यकता होती है, जो खेत के एक हिस्से में भी हो सकता है और घर के सामने भी। दो-ढाई एकड़ जनीम के 10वें हिस्से में भी यदि किसान तालाब तैयार कर मछली पालन करें, तो उससे उसे न केवल अतिरिक्त आमदनी हासिल होती है, बल्कि उसके खेतों के लिये भूजल स्तर भी बढ़ता है और गर्मियों में सिंचाई के लिये बाहरी साधनों पर उसकी निर्भरता घटती है। सिंचाई की उसकी लागत में भी कमी आती है। इसका जीता-जागता उदाहरण महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में संगमनेर तहसील का हिवड़गाँव पावसा गाँव है। पहले यहाँ के किसान चना, गेहूँ, दाल और प्याज का उत्पादन करते थे। राज्य सरकार के जलयुक्त शिविर कार्यक्रम के तहत इस गाँव के खेतों में करीब 300 छोटे तालाब बने, जिसके बाद अब ये पूरा गाँव अनार की खेती का केन्द्र बन गया है।

रेशम उत्पादन

भारत दुनिया का अकेला देश है जहाँ रेशम की सभी पाँचों व्यावसायिक किस्मों, मलबेरी, उष्णकटिबंधीय तसर, ओक तसर, अर्गी और मुगा की खेती होती है। इनमें मुगा तो सुनहरे रंग का रेशम होता है, जो विश्व में केवल भारत में ही होती है। कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड और तमिलनाडु देश के प्रमुख रेशम उत्पादक राज्य हैं। पूर्वोत्तर भारत एकमात्र ऐसा इलाका है, जहाँ उष्णकटिबंधीय तसर को छोड़कर बाकी चारों किस्मों के रेशम का उत्पादन होता है। वर्ष 2015-16 में देश में कच्चे रेशम का कुल उत्पादन 28472 टन हुआ था, जिसमें से 18 प्रतिशत हिस्सा केवल पूर्वोत्तर भारत का था।

किसानों की आमदनी बढ़ाने में रेशम उत्पादन के महत्त्व को स्वीकार करते हुये भारत सरकार ने बाकायदा राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत रेशम उत्पादन को कृषि कार्यों के तहत मान्यता दी है। इस कारण रेशम के कीड़ों के पालने वाले किसानों को भी इस योजना के तहत दी जाने वाली सारी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं।

सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन कर गैर-मलबेरी रेशम की खेती को वन-आधारित गतिविधि में शामिल कर लिया है ताकि किसानों को वन्य रेशमी कीड़ों को जंगल के माहौल में पालने में मदद मिले। सरकार ने तमाम पंचवर्षीय योजनाओं में लक्ष्य तय कर किसानों को रेशम उत्पादन के लिये प्रेरित किया है और इन कोशिशों से असंगठित क्षेत्र में कम पूँजी और औसत से बेहतर रिटर्न के कारण यह किसानों के बीच खासा लोकप्रिय हुआ है। डीजीसीआईएंडएस के मुताबिक एक एकड़ में मलबरी रेशम की खेती से किसानों को सालाना 45,000 रुपए की आमदनी हो सकती है।

मोती की खेती

मछली पालन की ही तरह मोती की खेती भी धीरे-धीरे किसानों में काफी लोकप्रिय हो रही है। खास बात यह है कि मछली पालन के लिये जहाँ जमीन के एक ठीक-ठाक हिस्से की जरूरत पड़ती है, वहीं मोती की खेती कोई भी घर में भी कर सकता है। मोती की खेती में पहला चरण ओएस्टर की तलाश से शुरू होता है, जो बीज का काम करते हैं।

मीठे पानी के मोती की खेती में लगभग 8 सेमी या उससे ज्यादा की लम्बाई की होनी चाहिए। इसके बाद उनका 2-3 दिन तक प्री-कल्चर किया जाता है। फिर सर्जरी कर उसमें मोती बनाने के लिये दाने डाले जाते हैं। यह पूरी प्रक्रिया एक उच्च तकनीक आधारित खेती है, जिसमें किसान को काफी प्रशिक्षण और सावधानियों की जरूरत होती है। भारतीय मोतियों का एक अच्छा बाजार है, जिसमें आकार के लिहाज से एक मोती को 250 से लेकर 1500 रुपए तक का भाव मिल जाता है। मीठे पानी मे मोती की खेती का प्रशिक्षण भुवनेश्वर में मिलता है।

इन उपायों के अलावा मधुमक्खी पालन, बकरी पालन इत्यादि कृषि से सम्बद्ध ऐसी गतिविधियाँ हैं, जिनसे न केवल देश की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को सहारा मिलता है, बल्कि किसानों को भी आर्थिक मजबूती मिलती है। खेती की एकीकृत प्रणाली इन सब गतिविधियों को एक साथ जोड़कर विकसित की गई एक पद्धति है, जिसमें 2-2.5 एकड़ जमीन में ही सारे क्रियाकलापों की व्यवस्था की जाती है।

खेत के एक छोटे से हिस्से में फार्म पोंड तैयार किया जाता है, जिसमें मछली पालन भी होता है और सिंचाई के लिये उसका इस्तेमाल भी। डेयरी में मौजूद गायों के गोबर और गोमूत्र से खेतों में जैविक खाद और कीटनाशकों की जरूरत पूरी होती है। मुर्गियों का मल मछलियों का भोजन बन जाता है। खेतों की मेड़ पर गायों के चारे की भी खेती होती है और खेतों में व्यावसायिक फसलें लगाई जाती हैं। इस तरह सब मिलाकर एक ऐसा मॉडल तैयार होता है, जिसमें किसान को पूरे साल आमदनी होती है। इस मॉडल से प्रति एकड़ सालाना 3-4 लाख रुपए तक की भी आमदनी हासिल हो सकती है यदि किसान ठीक योजना के साथ खेती करे।

(लेखक कृषि और आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

ई-मेलःbhaskarbhuwan@gmail.com

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