किसानों और खेती को बचाने का यत्न

सेवाग्राम, वर्धा में 8 से 10 मार्च तक आयोजित किसान सम्मेलन में देशभर के किसान अपनी रक्षा और दिशा पर विचार करने के लिए इकट्ठा होंगे। प्रस्तुत आलेख एक प्रकार से इस सम्मेलन का बीज वक्तव्य है। इसके अध्ययन से हम अपने-अपने क्षेत्रों में भी इस कार्यकारी शुरुआत को तत्पर हो सकते हैं।

कृषि प्रधान भारत में 60 प्रतिशत से अधिक लोग कृषि आधारित जीवन जीते हैं, उसी देश में खेती-किसानी दीर्घकाल से गम्भीर संकटमय स्थिति से गुजर रही है। हर प्रदेश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। फिर चाहे वह वर्षा आधारित खेती करने वाला विदर्भ का किसान हो या सिंचाई खेती करने वाला पंजाब का जो जी रहे हैं, उन्हें जीवन मृत्यु से भी कठिन लग रहा है। देश के 77 प्रतिशत ऐसे लोग प्रतिदिन 20 रु. से कम आमदनी प्राप्त करते हैं, उसमें अधिकतम संख्या किसान और खेती मजदूरों की ही है। सन1991 से नई आर्थिक नीति लागू होने और विश्व व्यापार संगठन के अनुकूल नीतियाँ बनाई जाने से स्थिति लगातार गम्भीर बनती जा रही है। वर्तमान में खेती-किसानी पूर्णतः उपेक्षित हो चुकी हैं।

नीति निर्धारकों की खेती सम्बन्धी नीतियों के कारण कृषि उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिल पाता। खेती के सभी इनपुट बीज, खाद कीटनाशक, बिजली, पानी, सिंचाई के उपकरण आदि को बाजार और कम्पनियों के हवाले कर दिया है और उनकी कीमतें तय करने के अबाध अधिकार भी उन्हें सौंप दिए गए हैं।

दूसरी तरफ, किसानों की फसलों के दाम गिरा दिए जाते हैं, समर्थन मूल्य का खेल खेला जाता है। मुनाफा तो दूर की बात है, जिससे किसानों को उनके मेहनत का मूल्य नहीं मिल पाता। कृषि उपज के दाम गिराने के लिये आयात निर्यात ड्यूटी घटाने-बढ़ाने का काम किया जाता है।

बौद्धिक सम्पदा अधिकार के नाम पर किसानों को ज्ञान-विज्ञान व तन्त्रज्ञान से वंचित रखकर लूटा जाता है। खेती से गाय-बैल को बाहर करने की नीति अपनाई गयी है। सबसीडी और कर्ज माफी की राजनीति की जाती है। नीति निर्माताओं का यह तर्क अजीबो-गरीब है कि, किसानों को कृषि उपज के न्यायपूर्ण दाम दिये गये तो मँहगाई बढ़ेगी। यह नीति किसानों के अलावा कहीं और क्यों नहीं लागू होती।

उद्योगपतियों को अपने उत्पादन का मूल्य तय करने और उस पर मनमाना मुनाफा वसूलने की पूरी तरह छूट है। देश में सरकारी नौकरों के लिये अलग नियम हैं और किसान मजदूरों के लिये अलग। नौकरों के लिये एक के बाद एक वेतन आयोग बिठाया जाता है और किसानों को उनके मेहनत का सही मूल्य भी प्राप्त नहीं होने दिया जाता। देश में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को भी किसान से कई गुना अधिक मेहनताना मिलता है और साथ में भविष्य की सुरक्षा भी।

भारत में पारम्परिक बीजों को नष्ट करने का कार्य चल रहा है। रासायनिक खेती को सबसीडी माध्यम से बढ़ावा देकर जैवविविधतापूर्ण भारतीय पारम्परिक खेती पद्धति को नष्ट करने का काम किया गया। खेती को जानबूझकर घाटे का सौदा बनाया गया है। खेती किसानी और किसानों को बाजार के चक्रव्यूह में फँसाया गया है। इससे किसानों की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। किसानों की बिगड़ती फार्मिंग एवं कार्पोरेट फार्मिंग की शुरुआत हो चुकी है। पानी और सिंचाई व्यवस्था निजी हाथों में सौंपी जा रही है। बिजली के निजीकरण से किसानों को सिंचाई के लिये और ज्यादा कीमत देनी पड़ेगी। ग्लोबल वार्मिंग का संकट बढ़ रहा है। जैवविविधता नष्ट हो रही है।

अब समय की माँग है कि खेती किसानों के अस्तित्व को बनाये रखने, किसानों को सम्मान-पूर्ण जीवन प्रदान करने के लिए देश के सभी किसान आन्दोलन के संघर्षशील साथी चिन्तक इकट्ठा बैठकर जीवन पद्धति और शाश्वत विकास की राह निर्धारित करें ताकि इस देश के किसान को समृद्ध, स्वाभिमानी और सम्मान का जीवन प्राप्त हो सके। देश का किसान अपने न्यायोचित अधिकारों को प्राप्त कर सके और किसानों की अपनी कृषि नीति बने।

श्री विवेकानन्द माथने अमरावती में आजादी बचाओ आन्दोलन एवं सर्व सेवा संघ से जुड़े हैं।

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