किसान हितैषी उल्लुओं का शिकार रोकना बेहद जरूरी

भारतीय ईगल उल्लू
भारतीय ईगल उल्लू

अधिकांश किसानों को यह मालूम ही नहीं कि उनके खेत-खलिहानों के आस-पास ऐसे परिन्दे भी डेरा डाले रहतें हैं जो किसी-न-किसी रूप में उनकी मदद करते रहतें हैं। ये हैं उल्लू प्रजाति के परिन्दे जो केवल रात्रि में ही हल-चल करते दिखाई पड़ते हैं। ये कब और कहाँ आते-जाते हैं इसकी जरा सी भनक किसी को भी नहीं लगने देते। दिखने में तेज-तर्रार व किसी को परेशान न करने वाले शान्त स्वभाव के ये खूबसूरत परिन्दे अब खतरे में हैं, अन्धविश्वास के चलते लोग बिना सोचे समझे इन्हें बेरहमी से मार देते है।

धार्मिक पर्वों के आने पर पोचर्स अथवा शिकारी लोग और अधिक सक्रिय होकर विभिन्न प्रजाति के उल्लुओं को पकड़ कर इन्हें ऊँचे दामों में भोपों, बाबे-तुमड़े, तांत्रिकों, फकीरों, काला-जादू व टोने-टोटके करने वालों को अक्सर बेच देतें है। ये अन्धविश्वासी लालची लोग इन पर्वों पर इन खूबसूरत पक्षियों का अपनी मनोकामना पूरी होने की चाहत में, सुख-समृधि, खुशहाली व धन सम्पदा पाने की लालसा में बेरहमी से कत्ल कर देते है। इसी अन्धविश्वास के चलते कई बार तो ये इन्हें अन्धा बना के छोड़ देते हैं या फिर जिन्दा ही जमीन में दफन कर देते हैं। भारतीय ईगल-उल्लू, खलिहान-उल्लू, डस्की ईगल उल्लू, भूरे मच्छली उल्लू तुलनात्मक ज्यादा पकड़े व मारे जाते हैं। परन्तु इन्हें यह नहीं मालूम कि इन पक्षियों के मारने से न केवल प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ता है बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र में मौजूद विभिन्न प्रकार की आहार-श्रंखलाएँ भी क्षतिग्रस्त होती है वहीं कई प्रकार की जानलेवा व खतरनाक बीमारियों के होने की सम्भावना रहती है।

भारत में उल्लुओं की लगभग ३० प्रजातियाँ है जो तरह-तरह के आवासों (ऊँचे-ऊँचे पर्वत-पहाड़ व इमारतें, बर्फीले क्षेत्र, गुफाएँ, खेत-खलिहान तथा रेगिस्तानी व मैदानी इलाके) में बेहतरीन ढली हुई बसर करती हैं। उल्लू रात्रिचर होते है और दिन में आराम व नींद लेते हैं इसीलिये इनका शिकार अक्सर दिन में किया जाता है। तांत्रिकों, भोपों, बाबे व फकीरों के अलावा इन परिन्दों के अंगों की राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय बाजार में भारी माँग होने से तस्कर इन जीवों का बड़े पैमाने पर भी शिकार करवाते हैं जिसकी वजह से वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम १९७२ के तहत ये संरक्षित उल्लू की कई प्रजातियाँ आज खतरे में है, वहीं कई उल्लू प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं।

वर्तमान में बढ़ते शहरीकरण से जहाँ कृषि भूमि घट रही है वहीं बहुमंजिला इमारतें दिनों-दिन और तेजी से खड़ी हो रही हैं। दूसरी ओर शहरों में खाली पड़े आवासीय भू-खण्डों में लोग खाद्य सामग्री व अन्य घरेलू कचरा फेंक देतें हैं, लेकिन इन्हें यह नहीं मालूम कि इससे यहाँ देखते-ही-देखते चूहों की कई बस्तियाँ भी विकसित हो जाती है। फलस्वरूप, इन्हें खाने के लालच में खलिहानों में बसर करने वाले खूबसूरत खलिहान-उल्लू शहरों की ओर आने लग गए। इन पक्षियों को इन बड़ी-बड़ी इमारतों पर अक्सर बैठे देखा जा सकता है। परन्तु लोग इन्हें बेरहमी से मार देतें हैं इससे इनकी आबादी में जबर्दस्त गिरावट आयी है।

प्रो. शांतिलाल चौबीसाप्रो. शांतिलाल चौबीसाकिसानों की फसलों को चूहे अथवा मूषक हर साल भारी नुकसान पहुँचाते हैं। इनमें जबर्दस्त प्रजनन क्षमता होने से इनकी आबादी हर साल कई गुना तेजी से बढ़ती ही जाती है। जो फसलों को और ज्यादा-से-ज्यादा नुकसान पहुँचाती है। उल्लू शातिर एवं कुशल शिकारी परिन्दे होते हैं तथा ये वहाँ जल्द पहुँच जाते हैं जहाँ चूहों-मूषकों का बाहुल्य हो। ये इनका पलक झपकते ही शिकार कर लेते हैं जिससे इनकी आबादी नियंत्रित रहती है। चूहे, साँप, छिपकली व खरगोश के अलावा कीट-पतंगें भी उल्लुओं का पसन्दीदा भोजन होने से इनकी आबादी भी नियंत्रण में रहती है जिसके कारण न केवल पर्यावरण में जैव-विविधता का सन्तुलन बना रहता है बल्कि कीटों द्वारा फसलों को होने वाला नुकसान भी कम हो जाता है।

चूहों द्वारा मनुष्यों में कई खतरनाक एवं जानलेवा बीमारियाँ फैलती हैं। इनसे होनी वाली प्रमुख बीमारियों में लेप्टोसिरोसिस, रेड-वाइट-फीवर, साल्मोनेलिसिस, हंटी वायरस पल्मोनरी सिंड्रोम, प्लेग शामिल है जो महामारी के रूप में भी फैल सकती है। चूहों का निरन्तर शिकार होने से इनकी आबादी नियंत्रित रहने से इन बीमारियों के होने की सम्भावना भी कम हो जाती है। बावजूद, लोग अन्धविश्वास व लालच में इन उल्लुओं का बड़े पैमाने पर शिकार व तस्करी आज भी कर रहें है जिन्हें रोकना बेहद जरूरी है। यदि वन कर्मी एवं आमजन सतर्कता बरतने लगें तो काफी हद तक इन पक्षियों के शिकार पर अंकुश लग सकता है। इनके संरक्षण हेतु प्रभावी कदम उठाने की भी जरूरत है, वहीं लोगों में इन खूबसूरत परिन्दों के होने से लाभ एवं पर्यावरण में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका की अधिक-से-अधिक जानकारियाँ देने से भी इनके संरक्षण में अपेक्षित सफलता मिलती है।

(डॉ. शांतिलाल चौबीसा, प्राणी शास्त्री एवं पर्यावरणविद, उदयपुर-राजस्थान)

 

 

 

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