पहाड़ी पर किला..!
किले में डोयले...!
डोयले में ढाई किलोमीटर दूर से सफर करती आ रही पानी की बूँदें......।
....यही है हैदरगढ़ के दिलचस्प जल प्रबंधन की कहानी का सार....!
विदिशा जिले के ग्यारसपुर तहसील से लगभग 20 किलोमीटर दूर उबड़-खाबड़ रास्तों से एक नायाब जगह हैदरगढ़ पहुँचा जा सकता है। यह स्थान हालाँकि अभी किसी विशेष रूप में नक्शे व प्रसिद्धि में नहीं है, लेकिन यह शानदार जगह है। हैदरगढ़ पहुँचते समय रास्तेभर एक तरफ तो विशाल पर्वतमालाएँ आपका इस्तकबाल करती हैं, वहीं सड़क के दोनों किनारों पर घने और हरे-भरे सागौन के वृक्ष मन खुश कर देते हैं। बरसात के समय तो आसमान से उठते बादल लगता है- जैसे हमारे करीब आकर निकल रहे हैं। हैदरगढ़ की बस्ती नीचे है और उसके ठीक ऊपर किला बना है। घने जंगलों के बीच बसी यह बस्ती और किला दोनों अपनी विशालता और भव्यता का अहसास कराते हैं।
नीचे करीब 2 एकड़ में नवाब साहब की एक कोठी (महल) बनी हुई है। करीब तीन विशाल दालानों में बँटा यह महल आज भी नवाब के वंशजों द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है। हालाँकि, अभी स्थिति जर्जर है- लेकिन, उनके रहने के स्थान बेहतर स्थिति में हैं। गाँव में आज भी नवाब साहब का बोलबाला है। यहाँ पहुँचने पर नवाब के वंशज नवाबजादा बख्तियार अली खां से हमारी मुलाकात होती है। बात ही बात में वे इस रियासत और यहाँ की जल संचय व जल व्यवस्था के बारे में परत-दर-परत खोलते जाते हैं। कभी यहाँ गौंड राजाओं का राज था। हालाँकि, किला इनके वंशजों ने बनाया, क्योंकि ‘वास्तव’ में उन्होंने ही यहाँ पर राज किया। आरम्भ में यहाँ अहसानउल्ला खां ने राज किया। यह तीन रियासतों हैदरगढ़,, कुरवाई व मोहम्मदगढ़ को मिलाकर बनाया गया था। बाद में यह अलग-अलग हो गए। पठान वंश से ताल्लुक रखने वाले इन नवाबों ने हैदरगढ़ के किले और बस्ती दोनों में जल प्रबंधन में विशेष ध्यान दिया। दुर्गम किले में पहुँचकर हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि यहाँ पर पानी निकल भी सकता है। व्यवस्थित जल प्रबंधन के साथ....!
घने जंगल के बीच एक तालाब का निर्माण करवाया गया था। इसे मोतिया तालाब के नाम से जाना जाता है। यह तालाब महल की लगभग समानांतर ऊँचाई पर है। पत्थरों से निर्मित इस किले के साथ-साथ तालाब को भी व्यस्थित तरीके से बनवाया गया था। इस तालाब से करीब साढ़े पाँच फीट चौड़ी एक नहर निकाली गई, जिसे मोरी कहा जाता था। करीब ढाई किलोमीटर जंगल के टेढ़े-मेढ़े व खुले रास्तों में से गुजरने के बाद यह मोरी कुछ दूरी तक जमीन के अंदर ही अंदर ले जाई गई है। यह रास्ता किले के शानदार मुख्य द्वार से कुछ पहले से आरम्भ होकर करीब सौ फुट जमीन में से गुजरता है। कोठी कहलाने वाली मुख्य इमारत के नीचे से निकलकर यह मोरी दो भागों में बँट जाती है। मोरी के आरम्भ में तालाब पर एक गेट सा बना हुआ है, जो पानी के प्रवाह नियन्त्रण का कार्य करता था।
सीधे हाथ वाली मोरी करीब एक सौ बीस फुट चलने के बाद एक पक्के चौकोर कुण्ड में जाकर मिल जाती है। बख्तियार खां साहब इसके बारे में बताते हैं कि इन्हें डोयले कहा जाता था। इसकी गहराई करीब चालीस फुट, जबकि चौड़ाई करीब 60 फुट और लम्बाई 70 फुट है। यह डोयला चूने की जुड़ाई से ईंट लगाकर बनाया गया है। यही इसकी मजबूती का कारण भी है। सैकड़ों सालों से इसमें पानी भरा हुआ है और आज भी इसमें जरा भी खराबी नहीं आई है। इसकी संरचना के समय इस बात का खास ध्यान रखा गया था। कुंड के पास ही एक मस्जिद भी बनाई गई थी, जो आज केवल खंडहर के रूप में है। उसमें वजू के वास्ते पानी ले जाने के लिए पाट-सा लम्बा स्थान आज भी दिखाई देता है। यहाँ पर खड़े होकर वजू के लिए पानी खींचा जाता था।
इसके पास ही एक दूसरा डोयला बना हुआ है। यह डोयला पहले वाले से बड़ा है। दोनों ही डोयलों को बनाने में एक बात का खास ध्यान रखा गया है कि इसमें आस-पास का पानी आकर नहीं मिले। उसके लिए इसे जमीन से करीब पाँच फीट ऊपर तक बनवाया गया है। इससे उनकी दूरदृष्टि जाहिर होती है, क्योंकि केवल मोरी का पानी ही इसमें आ सकता है। तालाब में मोरी की मौजूदगी उज्जैन जिले के लेकोड़ा के टंकारिया तालाब में भी रही है, लेकिन उस तालाब की मुख्य नहर इतनी लम्बी नहीं थी। उसका मक्सद भी खेती के लिए पानी उपलब्ध कराना रहा था।
इसकी पूरी व्यवस्था पर नजर डालें तो आश्चर्यजनक है। मोतिया तालाब बादलों द्वारा बरसाये गये जल और आस-पास के जंगलों से बहकर आने वाले पानी से भर जाता था। जब यह लबालब हो जाता और ओवर-फ्लो होने लगता तो मोरी में पानी जा शुरू हो जाता। वास्तव में यह प्रक्रिया बहुत सोचे-समझे तरीके से अपनाई गई थी, क्योंकि इस मोरी के पानी को करीब ढाई किलोमीटर के रास्ते से गुजारा जाना था और इसके लिए पानी में गति और तेजी की आवश्यकता थी। जब तालाब पूरा भर जाता था तो पानी की गति स्वमेव तेज हो जाती थी। इस प्रकार इस मोरी से चला पानी इन डोयलों में इकट्ठा हो जाता। मोरी को देखें तो यह जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे गहरी होती जाती है और साथ में संकरी भी। इसका फिल्टर सिस्टम भी देखने लायक है। चूँकि यह मोरी जंगलों से होकर गुजरती थी। अतः इसमें कचरा, पत्तियाँ इत्यादि इकट्ठा हो जाता था, जो मोरी को जाम करने के साथ-साथ पानी को भी गंदा करता। इसके लिए जगह-जगह पर छोटे छेद वाले पत्थर और लोहे की जालियाँ लगाई गई थीं। इससे कचरा तो इन्हीं जालियों में रह जाता और पानी आगे निकल जाता। बताते हैं कि इस कचरे को साफ करने के लिए बाकायदा लोगों की नियुक्ति की गई थी।
इसके फिल्टर सिस्टम के पीछे जानकारी मालूम करने पर पता चला कि एक तो यह पानी पीने के उपयोग में लाया जाता था और दूसरा मस्जिद में वजू के लिए। इस प्रकार इसकी स्वच्छता पहला मापदंड था। जब स्वच्छ पानी से एक डोयला पूरी तरह भर जाता तो एक हुई मोरी का रास्ता बन्द कर दिया जाता और दूसरी मोरी का रास्ता खोल दिया जाता। इस प्रकार दूसरे डोयले को भी भरा जाता और इसके बाद हैदरगढ़वासी पानी के लिए निश्चिंत हो जाते। पूरी बरसात यही प्रक्रिया अपनाई जाती और सालभर भरे इन डोयलों से पानी पिया व उपयोग किया जाता। पूरी गर्मी वे इसकी मदद से निश्चिंत रहते। बीच में अगर पानी की और जरूरत होती तो इन मोरियों के रास्ते को फिर खोल दिया जाता।
वैसे, बख्तियार खां साहब और एक पुराने व्यक्ति अनवर शेख बताते हैं कि इसके अतिरिक्त किले से नीचे नवाब साहब की कोठी के पास स्थित एक कुँआ भी है। इसमें किले से अंदर ही अंदर एक रास्ता बना हुआ है। इस विशाल रास्ते से हाथी भी निकल जाता था। गर्मियों में किले से लोग व जानवर पानी लेने नीचे आया-जाया करते थे। यह कुँआ आज भी है और इसमें बना गेट भी। इसके अतिरिक्त मृगननाथ मंदिर के पास भी एक तालाब स्थित है। बताते हैं कि उस समय नवाबों ने जल व्यवस्था तथा प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया। पूरी रियासत में कुल 250 से 300 कुएँ होना इसका जीवन्त प्रमाण है इनमें से आज भी करीब 150 कुएँ जीवित हैं। इससे लोग पीने के पानी के साथ-साथ खेती व अन्य आवश्यकताएँ भी पूरी करते थे। यह सब कुएँ अत्यन्त गहरे यानी करीब 45 फीट से कम नहीं हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ पर कई बावड़ियाँ भी हैं। नवाब साहब इन्हें जल के परम्परागत स्रोत के साथ-साथ पुराने स्वीमिंग पूल का नाम भी देते हैं। नीचे कोठी के पास स्थित सुरई बावड़ी हो या फिर शमावली व गीतावली बावड़ियाँ भी प्रसिद्ध थीं। यह आज तक भी खेती के लिए उपयेाग की जाती रही हैं। इन बावड़ियों, कुँओं में पानी की आव तालाबों के रिसाव से होती थी।
बाद में नवाब परिवार नीचे बस्तिी में स्थित अपनी कोठियों/महलों में आकर रहने लगा। तत्कालीन नवाब अयूबअली खां के लिए पीने का पानी जब भी ऊपर के डोयलों से ही लाया जाता था। पहाड़ों व जंगलों के मध्य से कई औषधीय जड़ी-बूटियों व पत्तियों के बीच से निकला पानी उन्हें बड़ा ही स्वादिष्ट लगता था। वे इसे पाचक भी मानते थे।
... कुल मिलाकर हैदरगढ़ का जल प्रबंधन उसकी खूबसूरती व बसाहट के हिसाब से न केवल उत्कृष्ट, बल्कि अन्य स्थानों को प्रेरणा देने वाला भी रहा है।
मध्य प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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