कील गड़ाई

आजादी के बाद इस प्रथा के स्वरूप को विकृत कर दिया गया और घाट की बंदोबस्ती नीलामी द्वारा की जाने लगी। तब इस धंधे में असामाजिक तत्व और जरायम पेशा लोग आने लगे और उन्होंने न सिर्फ नाव की कील गड़ाई का पैसा वसूलना शुरू किया बल्कि उस पर लदे सामान पर भी मनमाना पैसा वसूलना शुरू कर दिया।

इसके अलावा किसान विरोधी दूसरी व्यवस्था कील गड़ाई की है। इसकी शुरुआत ब्रिटिश अमल में हो गयी थी कि कहीं भी अगर नाव से नदी पार करने के लिए घाट है तो जो भी आदमी घाट पर नाव खड़ी करने के लिए खूंटा गाड़ेगा उसे सरकार को टैक्स देना पड़ेगा। उस समय सरकार का जो नुमाइंदा वहाँ रहता था वह नाव की कील गाड़ने के लिए सरकार से नियत पैसा नाव वाले से लेता था और उसके बदले में नाव और उस पर लदे हुए सामान की सुरक्षा की गारंटी देता था। आजादी के बाद इस प्रथा के स्वरूप को विकृत कर दिया गया और घाट की बंदोबस्ती नीलामी द्वारा की जाने लगी। तब इस धंधे में असामाजिक तत्व और जरायम पेशा लोग आने लगे और उन्होंने न सिर्फ नाव की कील गड़ाई का पैसा वसूलना शुरू किया बल्कि उस पर लदे सामान पर भी मनमाना पैसा वसूलना शुरू कर दिया। अब अगर आपके बोरे में 50 किलोग्राम अनाज है तो घाट वाला जो भी फीस प्रति बोरा मांगे, आप उसे दीजिये। यह महसूल 10 रुपये प्रति बोरा तक हो सकता है।

शहरों या कस्बों में जो ट्रक या टैक्सी स्टैण्ड होते हैं वहाँ ट्रक के हिसाब से टैक्स लगता है, उस पर लदे माल के हिसाब से नहीं। आप अपनी नाव से अपना अनाज अपने खेत से अपने घर ले जा रहे हैं और कहीं घाट पार करना पड़े तो घाट वाला 100 बोरे का हजार रुपया मांगेगा और ले भी लेगा। इस पैसे में थाने का, ब्लॉक ऑफिस का हिस्सा होता है और इन्हीं के पास आप शिकायत लेकर जायेंगे। वहाँ दो टूक जवाब मिलता है कि घाट वाले ने नीलामी में घाट खरीदा है तो वह तो पैसा लेगा ही। इतना ही नहीं, यह हिस्सा हर उस जगह पहुँचता है जहाँ किसान शिकायत लेकर जा सकता है। अगर कोई यह टैक्स नहीं देना चाहता तो वह खेती करना छोड़ दे या खुद को घाट वाले से ज्यादा मजबूत साबित कर दे। दूसरा रास्ता जरा कठिन है और बहुत से किसान इस ज्यादती के चलते खेती ही छोड़ बैठते हैं।

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Post By: tridmin
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