कहानी का अंत ऐसा न हो!

लोगों की ज़मीन, जंगल, जल और जीविका का क्या होगा, इसकी कोई चिंता नहीं दिख रही थी। इसके बाद मैंने रिपोर्ट देखी। रिपोर्ट में एक नक्शा तक नहीं था, जिसमें बसाहट या खेतों को दिखाया गया हो। रिपोर्ट में बड़े ही लापरवाह अंदाज में यह जिक्र है कि खनन परियोजना के ईर्द-गिर्द तालाब या नदी नहीं है। सड़कों और खदानों पर जल छिड़काव से लोगों को मिल रहे पानी की मात्रा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कुछ दूरी पर बहने वाली साल नदी और यहां तक कि अरब सागर पर पड़ने वाले असर के बारे में चर्चा की गई। लेकिन पहाड़ियों से निकलकर खेतों को सींचने वाली जलधाराओं का कोई जिक्र नहीं है। दक्षिणी गोवा का क्यूपेम तालुका। शांतादुर्गा मंदिर के सामुदायिक भवन की सारी कुर्सियां भर चुकी हैं। कुछ ही देर में शक्ति बॉक्साइट खदान के मामले में जन-सुनवाई शुरू होने वाली है। तभी फुसफुसाहट शुरू हो जाती है। मंदिर समिति को मंदिर प्रांगण में जनसुनवाई पर आपत्ति है। जनसुनवाई टाल दी जाती है। भीड़ छंट जाती है। इस बार भी तीस दिन पहले नोटिस देने के नियम को तोड़ा गया। महज दो दिन पहले पंचायत ने लोगों को बॉक्साइट परियोजना के खिलाफ अपनी आपत्ति दर्ज करने के लिए बुलाया था। धान की खेती वाले गोवा के इस इलाके में बॉक्साइट खदान के विस्तार की योजना है और इसकी क्षमता एक लाख से बढ़ाकर दस लाख टन की जानी है। बॉक्साइट की खुदाई अब 26 हेक्टेयर से बढ़ाकर 826 हेक्टेयर क्षेत्र में की जानी है।

मैंने मंदिर के चारों ओर पुलिस टुकड़ियों को जमा होते देख लिया था। बॉक्साइट का ढुलाई करने वाले दबंग ट्रांसपोर्टर खदान के विस्तार की राह में आ रही अड़चनों को जल्द दूर होता देखने के लिए आतुर थे। अब गांव वालों की बारी था। दोनों ओर से गर्मा-गर्मी बढ़ गई और गाली-गलौज वाला माहौल बन गया। दोनों ओर के लोग एक-दूसरे से भिड़ने को तैयार थे, लेकिन जिला प्रशासन के अधिकारियों के साथ आए विधायक ने हस्तक्षेप किया और जन-सुनवाई तय समय पर शुरू हो गई।

बॉक्साइट की खुदाई करने वाली कंपनी से अपने प्रोजेक्ट के बारे में बताने को कहा गया। पावरपॉइंट के जरिये अंग्रेजी में प्रोजेक्ट के बारे में बताया जा रहा था। साथ-साथ कोंकणी में अनुवाद भी चल रहा था। कई तकनीकी पहलुओं के बारे में बातें हुईं। इलाके की भूगर्भीय स्थिति से लेकर, ड्रिलिंग तकनीक और देश की तरक्की में बॉक्साइट के योगदान के बारे में जानकारी दी गई। यह भी बताया गया कि प्रोजेक्ट के लिए हरी झंडी मिल चुकी है और खनन इस तरह होगा कि पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचे।

कंपनी के प्रतिनिधियों के प्रजेंटेशन से ऐसा लग रहा था कि हर चीज का ध्यान रखा जा रहा है। मसलन कंपनी खनन के दौरान पैदा होने वाले कचरे को उड़ने से रोकने के लिए पेड़ लगाएगी। गड्ढों को दोबारा भरेगी। खनन के दौरान यह ध्यान रखा जाएगा कि भूजल स्तर को नुकसान नहीं पहुंचे और सबसे बड़ा वादा यह कि कंपनी पर्यावरण प्रबंधन के लिए अलग से एक कोष बनाएगी। लेकिन गाँववालों (इनमें सब शामिल थे, नेता से लेकर चर्च के प्रतिनिधि तक।) ने जब बोलना शुरू किया तो उस रिपोर्ट की चिंदियां उड़ गईं, जो कंपनी के प्रतिनिधियों ने किसी सलाहकार एजेंसी से तैयार करवाई थी। कंपनी का कहना था कि जहां खनन होगा, उसका ज्यादातर हिस्सा बंजर है। गांव वालों का कहना था कि कंपनी को न तो इस इलाके में रहने वाले लोगों की तादाद के बारे में पता है और न ही यह जानती है कि यहां की ज़मीन का क्या इस्तेमाल हो रहा है। बंजर बताकर कंपनी जिस भूमि पर नजरें गड़ाए हुए है, वह सामुदायिक जमीन है और उसका इस्तेमाल खेती करने और मवेशियों को चराने में होता है।

कंपनी की रिपोर्ट में इस तथ्य को सिरे से नज़रअंदाज़ कर दिया गया था। गांव वाले एक के बाद एक बोलते गए। अब यह पूरी तरह से साफ हो गया कि गांव वालों की ज़मीन पर खनन होना है और पर्यावरण पर पड़ने वाले असर का आकलन करने के नाम पर रिपोर्ट में लीपा-पोती ही की गई। लोगों की ज़मीन, जंगल, जल और जीविका का क्या होगा, इसकी कोई चिंता नहीं दिख रही थी। इसके बाद मैंने रिपोर्ट देखी। रिपोर्ट में एक नक्शा तक नहीं था, जिसमें बसाहट या खेतों को दिखाया गया हो। रिपोर्ट में बड़े ही लापरवाह अंदाज में यह जिक्र है कि खनन परियोजना के ईर्द-गिर्द तालाब या नदी नहीं है। सड़कों और खदानों पर जल छिड़काव से लोगों को मिल रहे पानी की मात्रा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कुछ दूरी पर बहने वाली साल नदी और यहां तक कि अरब सागर पर पड़ने वाले असर के बारे में चर्चा की गई। लेकिन पहाड़ियों से निकलकर खेतों को सींचने वाली जलधाराओं का कोई जिक्र नहीं है। सुनवाई के दौरान गांव वालों ने इन धाराओं को गिनाना शुरू किया। एक जमाने में पूरे इलाके में पानी की कमी थी। लेकिन सरकार ने वाटरशेड मैनेजनंट पर थोड़ा पैसा खर्च किया और चेक डैम बनाए गए। पेड़ लगाए गए और लगातार कोशिशों से भूजलस्तर ऊपर आ गया। इन कोशिशों से अच्छी खेती के लिए लोगों को पर्याप्त पानी मिलने लगा। लोगों को अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि जिस सरकार ने पहले पानी मुहैया कराने के लिए ख़ासी रकम खर्च की, वही अब खनन परियोजना को हरी झंडी देने को क्यों तैयार बैठी है। यह परियोजना उन्हें बर्बाद कर देगी। मनमानी रोकने के लिए खदान बंद करने या दूसरे नियम बस दिखानेभर के लिए हैं। कंपनी पहले से ही एक छोटे से इलाके में खनन कर रही है। इसने हर नियम का उल्लंघन किया है और लोगों के विश्वास के साथ खिलवाड़ किया है। पहले ही खदान ने लोगों का जीवन नरक कर रखा है और अगर विस्तार हुआ तो स्थिति और खराब होगी। लोगों से उनकी और जमीनें छीनी जाएंगी, जल धाराएं नष्ट की जाएंगी और खदान से निकला कचरा बारिश के पानी में बहकर गाद बन जाएगा।

मेरे सहयोगी चंद्रभूषण कहते हैं, मैं इस कहानी का अंत जानता हूं। जनसुनवाई में लोगों ने जो सवाल उठाए हैं वो पर्यावरण और वन मंत्रालय को भेजे जाएंगे। मंत्रालय की एक्सपर्ट कमेटी विवादास्पद मानकर इस पर जवाब देने में देर लगाएगी और फिर कुछ दिनों तक फाइल दबाए रहेगी। फिर कुछ दिनों के बाद कंपनी के प्रतिनिधि को बुलाया जाएगा और उनसे पूछा जाएगा कि वो लोगों की आपत्तियों का क्या हल निकालेंगे। इसके बाद फिर कंपनी के लोग गांव वालों के बीच जाएंगे और एक और पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन देंगे। लेकिन इस बार कंसलटेंट दूसरा होगा। कुछ और तर्क-वितर्क होंगे। नई शर्तें रखी जाएगी और इन शर्तों के साथ ही खनन विस्तार के प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिल जाएगी। लोगों का विरोध धरा का धरा रह जाएगा। लेकिन मैं चाहती हूं कि कहानी का अंत ऐसा न हो।

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