कहां खो गए प्याऊ..


बदलते वक्त के साथ ऐसी कई छवियां स्मृति-पटल से ओझल होती जा रही हैं, जो एक समय तक हमारे लिए बेहद सामान्य थीं। सड़कों के किनारे चंद मटकों से सुसज्जित ‘प्याऊ’ भी उनमें से एक है। बोतलबंद और ढेरों खूबियों वाले मिनरल वॉटर के युग में मिट्टी के मटकों का सौंधी खुशबू वाला ठंडा और गला तर कर देने वाले पानी की उपलब्धता अब न्यून हो गई है। या यूं कह लें कि अब इनका चलन नहीं रहा। सदियों पुरानी ‘प्याऊ’ परम्परा आधुनिकता की भेंट चढ़ चुकी है।

आज भी ‘प्याऊ’ की वह प्यास बुझाती छवि आंखों के आगे तैर जाती है, तो मन जैसे तृप्त-सो हो जाता है। जेठ की तपती दोपहरी में दो-चार मटके जगह-जगह रख दिए जाते थे, जिन पर टाट या लाल रंग का कपड़ा बंधा होता था। इन्हें हमेंशा गीला रखा जाता था, ताकि मटकों के अंदर रखा पानी बाहर से भी ठंडक ग्रहण कर सके। पास ही एक लम्बी डंडीनुमा कटोरी सी लिए या गांवों में आज भी यदा-कदा दिख जाने वाली जलौटी लिए कोई महिला या पुरुष बैठे रहते थे। वहां जाकर जैसे हाथों की मुद्रा खुद-ब-खुद बदल जाती थी। और दोनों हथेलियां चुल्लू बन जाती थीं। बिना कुछ कहे-सुने प्याऊ पर बैठी महिला या पुरुष उस चुल्लू में तब तक पानी डालता रहता था, जब तक पीने वाले का सिर संतुष्टि का भाव लिए न हिल जाये। फिर पानी पीने वाले चेहरे पर जितना सुकून और तृप्ति देखने मिलती थी, वो सबसे अलग थी। संतुष्ट व्यक्ति हजारों दुआएं देता आगे बढ़ जाता था। इसी दौरान राहगीर से चंद बातें भी हो जातीं।

आधुनिकता के चलते बोतलबंद मिनरल वॉटर की उपलब्धता तो आज सब जगह है, लेकिन प्याऊ कहीं गुम हो गए हैं। पहले अपने बुजुर्गों और आत्मीयजनों की स्मृति में धर्मार्थ स्वरूप प्याऊ का निर्माण कराया जाता था। कई शहरों में तो प्याऊ को मील का पत्थर मान शहरवासी अपने परिचितों को रास्ता दिखाया करते थे। यह सब अब नहीं होता। इसके अलावा अस्पतालों, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन आदि सार्वजनिक जगहों पर भी प्याऊ का निर्माण कराया जाता था। हालांकि यह आज भी हैं, लेकिन सिर्फ नाम के। यदा-कदा सुनने मिल जाता है कि फलां जगह के स्थानीय जनप्रतिनिधि ने आम जनता की सुविधाओं के मद्देनजर प्याऊ का उद्घाटन किया, लेकिन प्यासों की कमी और मशीनी पानी पर हमारी आत्मनिर्भरता ने इन जैसे प्याऊ को भी बंद होने पर मजबूर कर दिया है। जिन जगहों पर प्याऊ हैं भी, तो वहां पिलाने वालों के मुख-मंडल पर वह परोपकार का भाव नहीं दिखता। यह विकास और विकासशील होने की निशानी जरूर हो सकती है, लेकिन सदियों से चली आ रही इस परम्परा को खोने के लिए मजबूर करना भी उचित नहीं होगी। आने वाले समय में यदि यह परम्परा लुप्त हो गई, तो हम अपने बच्चों को निःस्वार्थ सेवा का महत्व क्या दिखाकर समझाएंगे? इस ओर विचार कीजिए कि किस तरह ‘प्याऊ’ परम्परा को जीवित रखा जा सकता है, वर्ना बच्चों की किताबों में लिखे ‘प्याऊ’ शब्द की व्याख्या करना भी मुश्किल हो जाएगा।

आज भी गांवों में घरों के बाहर आम लोगों के लिए पानी के मटके और गिलास रखे जाते हैं। जो भी प्यासा राहगीर निकलता है, वह स्वेच्छा से मटके का पानी पीकर गला तर कर लेता है। आप चाहें, तो अपने स्तर पर इस परम्परा को बाकायदा जीवित रख सकते हैं, अपने घर के बाहर एक मटका रखकर, निःस्वार्थ सेवा का मन बनाएं। प्यास बुझाने वाला राहगीर आपको दुआएं ही देगा।
 
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