भोपाल से प्रकाशित दैनिक अखबार भास्कर (13 सितम्बर, 2018) में ‘केरल की नई मुसीबत’ के शीर्षक से खबर छपी है। इस खबर के अनुसार जहाँ बाढ़ ने तबाही मचाई थी वहाँ नदियाँ और कुएँ सूखे। अखबार आगे लिखता है कि पिछले माह की 100 साल में सबसे भीषण बाढ़ से गुजरे केरल में अब सूखे का संकट मँडरा रहा है। मात्र तीन सप्ताह के अन्दर बाढ़ग्रस्त इलाकों की नदियों और कुओं का जलस्तर गिरना प्रारम्भ हो चुका है।
बाढ़ ने जैवविविधता के लिये विख्यात वायनाड जिले को तबाह कर दिया है। अखबार आगे लिखता है कि इससे चिन्तित राज्य सरकार ने जलस्तर गिरने का वैज्ञानिक अध्ययन कराने का निर्णय लिया है। केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन ने राज्य विज्ञान प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण परिषद को नदियों के जलस्तर गिरने और कुओं के सूखने के कारणों का अध्ययन करने और समस्या का सम्भावित समाधान बताने का निर्देश दिया है।
सेंटर फॉर वाटर रिसोर्सेस डेवलपमेंट और मेनेजमेंट (center for water resources development and management) भी अध्ययन करेगा। इसके अलावा, दक्षिण भारत से निकलने वाले अखबारों यथा हिन्दु, मातृभूमि, इण्डिया टाइम्स, फर्स्ट पोस्ट, फाइनेेंशियल एक्सप्रेस और इण्डियन एक्सप्रेस में भी नदियों तथा कुओं के जल स्तर के गिरने तथा सूखे की सम्भावना के बारे में विस्तार से खबर छपी है।
केरल में बरसात दक्षिण-पश्चिम तथा उत्तर-पूर्व मानसून से होती है। केरल में सबसे अधिक 3934 मिलीमीटर बरसात उत्तर केरल स्थित कुट्टीयादी बेसिन में और सबसे कम 1367 मिलीमीटर बरसात अमरावती बेसिन में होती है। इस साल जून से अगस्त के बीच केरल में 33 प्रतिशत अधिक बरसात हुई वहीं सितम्बर माह में उसकी मात्रा सामान्य बरसात (56 मिलीमीटर) का मात्र 14 प्रतिशत (7.9 मिलीमीटर) है।
मौसम विभाग को उम्मीद है कि 20 सितम्बर 2018 के बाद स्थिति में बदलाव होगा। कुछ लोग उत्तर-पूर्व मानसून से हालातों के बेहतर होने की उम्मीद लगा रहे हैं।
केरल की 41 नदियाँ पश्चिम दिशा में और केवल तीन नदियाँ पूर्व दिशा में बहती हैं। इन नदियों का रन-आफ लगभग 70,165 मिलियन क्यूबिक मीटर है। उसमें से लगभग 42,672 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी का उपयोग बाँध बनाकर किया जा सकता है। जहाँ तक भूजल का सम्बन्ध है तो सन 2013 में उसके उपयोग का प्रतिशत 47 था। पिछले 5 सालों में उसके उपयोग के प्रतिशत के बढ़ने की सम्भावना है।
इस साल 29 मई को मानसून ने केरल में दस्तक दी थी। उसके बाद अगस्त में आई तेज बारिश के कारण कई दिन तक उसकी लगभग सभी नदियाँ उफान पर थीं। उस दौरान लगभग सभी सिंचाई बाँधों से अतिरिक्त पानी भी छोड़ा गया था।
बाढ़ के दौरान केरल की पेरियार, भारतपुझा, पंपा, और कबानी सहित अनेक नदियाँ अकल्पनीय उफान पर थीं। अब उन नदियों का जलस्तर आश्चर्यजनक रूप से गिर रहा है। उनके थाले के कई कुएँ सूख गए हैं। अनेक कुएँ नष्ट हो गए हैं। इसके अलावा जलाशयों के जलस्तर में गिरावट आना तथा मिट्टी को उलटने-पलटने वाले केंचुओं का सामूहिक खात्मा, किसानों की पेशानी पर चिन्ता की लकीरों को बढ़ा रहा है। उनका मानना है कि केंचुओं की सामूहिक मृत्यु का कारण धरती का सूखना और उसमें कम होती नमी का नतीजा है। अखबार आगे लिखता है कि उपर्युक्त बदलाव के कारण मिट्टी की संरचना बदल रही है। इसके अतिरिक्त बाढ़ ने अनेक इलाकों के भूगोल को बदल दिया है।
सन 2013 में सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड (central ground water board) ने भारत के भूजल पुनर्भरण पर एटलस प्रकाशित किया था। उस एटलस में केरल के लगभग 28 प्रतिशत इलाके (लगभग 10,849 वर्ग किलोमीटर) ऐसे को चिन्हित किया था जिसमें कृत्रिम रीचार्ज की आवश्यकता है। उनका अनुमान था कि इसके लिये लगभग 1520 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी की आवश्यकता होगी।
आँकड़ों के अनुसार केरल में 17678 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी उपलब्ध है। आगे दिये चित्रों में कृत्रिम रीचार्ज के लिये उपयुक्त इलाकों तथा इंजेक्शन वेल एवं छत के पानी को उतारने हेतु उपयुक्त स्थलों को दर्शाया गया है।
अब बात जलस्रोतों तथा नदियों में जलस्तर के कम होने की। सभी जानते हैं कि भारतीय प्रायद्वीप की नदियों के प्रवाह के दो स्रोत हैं-
पहला, बरसात के दिनों में कछार की धरती पर बरसे पानी का वह हिस्सा जो सतह से बहकर नदी को मिलता है। केरल में यह एक साल में दो बार होता है। अर्थात नदियों को रन-आफ का दो बार फायदा मिलता है। दूसरा हिस्सा वह पानी है जो सूखे दिनों में धरती की उथली भूगर्भीय परतों से बाहर आकर नदियों को मिलता है पर यह तभी सम्भव है जब वह नदी तल को मिले।
केरल को भूजल रीचार्ज का भी एक साल में दो बार अवसर मिलता है। उल्लेखनीय है कि भारत में भूजल पुनर्भरण का काम अन्तिम पायदान पर है। इसका कुप्रभाव जलस्रोतों की पानी देने की क्षमता पर पड़ता है। यह पूरे देश में हो रहा है। केरल उससे अछूता नहीं है।
सितम्बर माह में ही नदियों और कुओं के जलस्तर की गिरावट का सीधा-सीधा सम्बन्ध भूजल स्तर के गिरने से है। चूँकि नदियों के स्तर की गिरावट का अध्ययन प्रस्तावित है तो विदित हो कि केरल में 1668 अवलोकन कुओं पर भूजल स्तर की माप के लिये ली जाती है। सम्भव है उनमें अनेक क्षतिग्रस्त हुए होंगे पर जितने भी कुएँ सही हालत में हैं उनकी मदद से भूजल स्तर की वास्तविक स्थिति मालूम की जा सकती है।
गिरावट के आँकड़े हासिल किये जा सकते हैं पर वास्तविकता यही प्रतीत होती है कि इस साल भूजल रीचार्ज अप्रत्याशित रूप से कम हुआ है। इस कारण, वह, बहुत कम मात्रा में धरती की उथली परतों से छलककर बाहर आ पा रहा है। विदित हो कि नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह का सीधा सम्बन्ध भूजल भण्डारों के छलकने या छलकना बन्द होने से है।
यदि हम केरल की नदियों के प्रवाह के कारणों की सैद्धान्तिक चर्चा करें तो कह सकते हैं कि उन कारणों को निम्न दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है -
1. प्राकृतिक कारणों से प्रवाह में कमी
2. कृत्रिम कारणों से प्रवाह में कमी
प्रवाह में कमी के प्राकृतिक कारण
किसी भी नदी या नदीतंत्र में प्रवाह की कमी का मुख्य प्राकृतिक कारण होता है प्राकृतिक तरीके से होने वाली आपूर्ति में कमी। यह कमी पिछले साल के भूजल स्तर की गिरावट की भरपाई के नहीं होने के कारण भी हो सकती है। यह कमी भूजल भण्डारों के जल के नदी या झरनों में डिस्चार्ज होने के कारण भी हो सकती है। केरल में सम्भवतः यही हुआ है। अध्ययन से सही बात सामने आ सकती है।
केरल में बरसाती पानी 48 से 72 घंटों में नदियों के माध्यम से समुद्र में मिल जाता है। वह प्रवाह का आधार नहीं होता। भूजल को इससे कई गुना अधिक समय लगता है पर यदि भूजल भण्डार रीते रह गए तो उनका नदियों को सपोर्ट करना सम्भव नहीं होता है। नदियों के प्रवाह की कमी का एक अन्य प्राकृतिक कारण भूजल भण्डारों की परतों की घटती मोटाई है। यह मिट्टी के कटाव से जुड़ा मामला है।
इस साल की बरसात ने मिट्टी के कटाव को पूर्व की तुलना में बहुत अधिक बढ़ाया है। मिट्टी की परतों की मोटाई के कम होने के कारण प्रतीत होता है कि उनकी भूजल संचय क्षमता घट गई है। भूजल संचय क्षमता घटने के कारण उनका योगदान घट गया। योगदान के घटने के कारण नदियों का प्रवाह कम हो रहा है और उसकी अवधि भी घट जाएगी।
प्रवाह में कमी के कृत्रिम कारण
प्रवाह की कमी के प्रमुख कृत्रिम कारण हैं भूजल का अतिदोहन, नदी जल की सीधी पम्पिंग और बाँधों के कारण प्रवाह में व्यवधान। केरल के प्रकरण में पहले दो कारण जिम्मेदार प्रतीत नहीं होते। तीसरे कारण का अध्ययन किया जाना चाहिए। लेकिन सौ टके की बात यह है कि अध्ययन का मुकाम क्या होगा? भविष्य में देश को ऐसी त्रासदी नहीं भोगनी होगी, उसका रोडमैप क्या होगा? उस अध्ययन के सबक जमीन पर कैसे पहुँचेंगे?
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