केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की नई गाइडलाइन मूर्ति विसर्जन से जलाशयों के प्रदूषण को रोकेगी 

मुर्तियों के विसर्जन से फैलता प्रदूषण
मुर्तियों के विसर्जन से फैलता प्रदूषण

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मूर्ति विसर्जन के पुराने नियमों में बदलाव किए हैं। देश में अब कहीं भी प्लास्टिक, प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी), थर्मोकोल जैसी चीजों से बनी हुई मूर्तियां अब जलाशयों में विसर्जन नहीं की जा सकेंगी। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने बहुत साफ और स्पष्ट तौर पर देश में पर्यावरण के अनुकूल तरीके से मूर्ति विसर्जन के लिए अपनी गाइडलाइन में कई संशोधन किए हैं और देवी देवताओं की मूर्तियां प्लास्टिक थरमोकोल प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनाने पर रोक लगा दी है। सीपीसीबी ने मूर्ति विसर्जन के संबंध में अपनी पुराने 2010 के दिशा-निर्देशों को विभिन्न लोगों की राय जानने के आधार पर अब संशोधित किया है। सीपीसीबी ने अपने नए गाइडलाइन में विशेष तौर पर प्राकृतिक रूप से मौजूद मिट्टी से मूर्ति बनाने और उन पर सिंथेटिक पेंट एवं रसायनों के बजाय प्राकृतिक रंगों के उपयोग पर जोर देने की बात कही है। 

दैनिक जागरण में 14 मई 2020 को छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक सीपीसीबी ने साफ तौर पर कहा है कि मूर्तियों के निर्माण में केवल पर्यावरण के अनुकूल सामग्री का होगा इस्तेमाल। सीपीसीबी ने कहा है कि एक बार इस्तेमाल करने योग्य प्लास्टिक और थर्मोकोल से मूर्तियां बनाने की अनुमति बिल्कुल नहीं दी जाएगी और केवल पर्यावरण के अनुकूल सामग्री का इस्तेमाल मूर्तियां, पंडाल, ताजिया बनाने और सजाने में किया जा सकेगा, जिससे कि जलाशयों में प्रदूषण नहीं हो। संशोधित दिशानिर्देश मंगलवार को जारी किए गए, जिनमें कहा गया, 'मूर्तियों के आभूषण बनाने के लिए सूखे फूलों का उपयोग किया जा सकता है, वहीं मूर्तियों को आकर्षक बनाने के उद्देश्य से चमक लाने के लिए पेड़ों से निकलने वाला गोंदनुमा प्राकृतिक राल उपयोग में लाया जा सकता है।' देश में हर साल गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा जैसे उत्सवों के दौरान मूर्ति विसर्जन के बाद जलाशय और नदियां प्रदूषित हो जाती हैं। ये मूर्तियां आमतौर पर पारंपरिक मिट्टी के बजाय रसायनिक पदार्थो की बनाई जाती हैं। 

मूर्ति विसर्जन से जलाशयों के प्रदूषण पर अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के एक अध्ययन के बारे में ‘द वायर’ में सुभाष गाताडे का एक आलेख छपा है। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के मुताबिक मोटे आकलन के हिसाब से अकेले महाराष्ट्र के लगभग दो करोड़ परिवारों में से एक करोड़ परिवार गणेश की मूर्ति स्थापित करते हैं। घरों में स्थापित यह छोटी मूर्तियां सामान्यतः डेढ फुट उंचाई, डेढ़ किलो वजन की होती हैं। इसका मतलब हर साल औसतन डेढ़ करोड़ किलो ‘प्लास्टर आफ पेरिस’ सैकड़ों टन रंगों के साथ जलाशयों में पहुँचता है। और औसतन पचास लाख किलो फूल-माला आदि भी पानी में बहाया जाता है। और इस तरह नदियां, तालाब, नहरें, झरने, कुएँ आदि विभिन्न किस्म के जलाशय प्रदूषित होते रहते हैं। समिति के लोग अपने प्रचार मुहिम में लोगों को याद दिलाते हैं कि आज की तारीख में अधिकतर मूर्तियां ‘प्लास्टर ऑफ पेरिस’ से (जो पानी में घुलता नहीं हैं) बनी होती हैं जिन्हें पारा एवं लेड जैसे खतरनाक रासायनिक पदार्थों से बने रंगों से रंगा जाता है। और अगर ऐसा पानी मनुष्य सेवन करें तो उसे कैंसर हो सकता है या उसका दिमागी विकास भी बाधित हो सकता है। दूसरी तरफ, पानी का विषाक्त होने से जलीय-जीवों, मछलियों एवं अन्य प्राणियों के लिए मौत की सौगात बन कर आता है। स्वयं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी उत्सवों के दिनों में नदियों के ‘दम घुटने’ की बात की ताईद की है, जिसका अध्ययन नवरात्रों के बाद दिल्ली में यमुना के प्रदूषण पर केंद्रित था। बोर्ड के निष्कर्षों के मुताबिक सामान्य काल में पानी में पारे की मात्रा लगभग न के बराबर होती है, लेकिन उत्सवों के काल में वह अचानक बढ़ जाती है। 

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मूर्ति विसर्जन से जलाशयों पर पड़ने वाले प्रभाव का नियमित अध्ययन करने का घोषणा की है। सीपीसीबी ने संबंधित राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड/ प्रदूषण नियंत्रण समितियों को टियर-1 शहरों (जिनमें एक लाख से ज्यादा की आबादी) के लिए यह निश्चित किया है कि तीन स्तरों पर, विसर्जन से पहले, विसर्जन के समय, और विसर्जन के बाद जलाशयों में पानी की गुणवत्ता का आकलन करेंगे।

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