केंद्रीय जलसंसाधन मंत्री के बयान के निहितार्थ

mithi river
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“बीते 65 वर्षों में भारत में उपयोग लायक पानी की उपलब्धतता एक -तिहाई रह गई है।’’

भूमि अधिग्रहण का कानून सामुदायिक, कृषि, वन व नदियों की जमीनों को बचाने के लिए बनें न कि मुआवजा बढ़ाने के लिए। धरती की उर्वरा शक्ति बढ़ाने का देसज रास्ता अपनाना होगा। बायो तकनीकों को इसी दिशा में विकसित करना होगा। प्रदूषण नियंत्रण का ऐसा तंत्र, नीति व कायदा विकसित करने की जरूरत है, जो प्रदूषण को उसके मूल स्रोत पर ही नियंत्रित करती हो। कैंसर का निदान मूल स्रोत से ही संभव होता है, न कि वहां से जहां लक्षण दिखाई देते हैं। प्रदूषण एक तरह का कैंसर ही है।

केंद्रीय जलसंसाधन मंत्री पवन कुमार बंसल के मुंह से निकले इस आंकड़े ने किसी को चौंकाया, किसी को डराया और किसी ने इसमें जलापूर्ति को निजीकरण के रास्ते पर ढकेलने का षड़यंत्र देखा। यदि पेयजल की दृष्टि से देखें, तो ये सभी निहितार्थ सच हो सकते हैं। महाराष्ट्र की 187 नदियां नाला बन चुकी हैं। वहां मात्र 2.07 प्रतिशत ही पीने योग्य बचा है। पूरा महाराष्ट्र सूख रहा है। अभी पारा पूरी तरह चढ़ा भी नहीं है कि हर शहर की जलापूर्ति में बड़ी कटौती चालू हो गई है। भारत का एक भी शहर ऐसा नहीं, जहां की नदी नाला न बन गई हो। नदियों में डाला गया जहर यदि अब धरती की नसों से होता हुआ भूजल में पसर गया है, तो इसमें ताज्जुब क्या है? पंचनद के प्रदेश पंजाब का मालवा क्षेत्र जलजनित बीमारियों के लिए पहले से ही चर्चा में है। उत्तराखंड के श्रीनगर गढ़वाल की गंगा में बढ़ते जैविक प्रदूषण ने लोगों का हाजमा खराब करना शुरू कर दिया है।

पश्चिम उत्तर प्रदेश वह इलाका है, जहां के खेतों में रसायन व उर्वरक की सर्वाधिक प्रति एकड़ मात्रा में झोंकी जाती है। यह ऐसा इलाका भी है, जहां औद्योगिक प्रदूषण बेलगाम है। प्रदूषित अवजल को सीधे धरती में डालकर भूजल को बड़े पैमाने पर प्रदूषित करने की कारगुजारियां यहां आम हैं। दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में ज्यादातर मरीज इसी इलाके से आते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि दिल्ली का भूजल सुरक्षित है। दिल्ली के भूजल में भी कैडमियम, क्रोमियम जैसी सेहत के लिए खतरनाक धातुओं की मात्रा बढ़ने की रिपोर्ट आ ही रही हैं। बुदेलखंड, सोनभद्र, म.प्र., बिहार, झारखंड, उड़ीसा, राजस्थान समेत देश के तमाम पत्थर, कोयला, लोहा आदि खनन क्षेत्रों में भूजल प्रदूषण के बारे में किसी रिपोर्ट की जरूरत नहीं होती। वहां लोगों की सेहत ही बताने लगी है कि पानी उपयोग लायक नहीं। फ्लोरिसिस के शिकार इलाकों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।

जब गंगा जैसी अमृतमयी धारा के किनारे के साहेबगंज, पाकुड़, मुर्शिदाबाद के इलाकों के पानी में आर्सेनिक जैसे खतरनाक जहर की उपलब्धता दर्ज होने लगे, तो जलसंसाधन मंत्री के बयान पर शक करने लायक क्या रह जाता है। जौनपुर में आर्सेनिक के बारे में तो मैं पहले से जानता था। इधर बहराइच के 792 इंडिया मार्का हैंडपम्पों में आर्सेनिक रिमूवल संयंत्रों को लगा देखकर झटका लगा और संयंत्र लगाने के लिए 82 नये गांवों का चयन किया गया है। बहराइच के पूरे 10 ब्लॅाक आर्सेनिक की चपेट में हैं: मिहीपुरवा, शिवपुर, बलहा, महसी, तेजवापुर, चित्तौरा, फखरपुर, कैसरगंज, जरवल और हुजूरपुर।

समझने की जरूरत है कि भूजल में आर्सेनिक आमतौर पर तभी मिल सकता है, पानी कम से कम 20 मीटर गहराई से निकला जाये। बहराइच में आर्सेनिक का प्रभाव उन्हीं ब्लॉकों में ज्यादा है, जो घाघरा और सरयू नदी से सटे ब्लॉक हैं। जाहिर है कि भारत में नदियों के किनारे का पानी उतर रहा है। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि सभ्यतायें भले ही नदी किनारे जन्मी हों, लेकिन प्रदूषण के कारण अब नदियों के किनारे रहना सभ्यताओं की मौत का सबब बनता जा रहा है।

कुल मिलाकर जो पानी परिदृश्य सामने दिखाई दे रहा है, हम कह सकते हैं कि पहली बार किसी जलसंसाधन मंत्री ने पानी की गुणवत्ता के बारे में सच बोलने की हिम्मत दिखाई है। लेकिन वहीं अब केंद्रीय जलसंसाधन मंत्री को यह सच बोलने की हिम्मत भी दिखानी होगी कि इसका समाधान मशीने नहीं हैं। यदि पानी को उपयोग लायक बनाने के लिए मशीनों को लगाने की परियोजना बनाई गई; कर्ज लिया गया; नदियों में आने वाले प्रदूषित अवजल के शोधन के नाम पर पैसे की बंदरबांट की कोशिश हुई;’’ भारत में 97 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को पाइप से जलापूर्ति सुलभ नहीं है।’’ -यदि यह कहकर गांवों में पानी से पैसा वसूली का तंत्र खड़ा किया गया, तो पवन कुमार बंसल साहब! आपके उक्त बयान के निहितार्थ भी षड़यंत्र व भ्रष्टाचार ही मायने जायेंगे। कारण कि इन उपायों से पानी उपयोग लायक तो हो जायेगा, लेकिन उसकी उपलब्धता बढ़ेगी नहीं। हम मशीनों के मोहताज हो जायेंगे। अभी हैंडपम्प व घर के नलों में प्रदूषण निवारक संयंत्र लगाने पड़ रहे हैं, क्या कल सीधे तालाब व कुंए में आर ओ लगायेंगे? यह तो यही होगा कि पहले प्रदूषित कीजिए और फिर उसे साफ कीजिए। यह मैले की मैली राजनीति होगी।

मुंबई को अपना पानी पीलाने वाली मीठी नदी कचरा ढोने की साधन हो गई हैमुंबई को अपना पानी पीलाने वाली मीठी नदी कचरा ढोने की साधन हो गई हैयदि देश में उपयोग लायक पानी की उपलब्धता बढ़ानी है, तो कारण ही निवारण है। जाहिर है कि पानी जितना नीचे उतरता है, प्रदूषण उतना ऊपर चढ़ता है। पानी का नीचे उतरना रोकना होगा। धरती के खाते में वाटर बैलेंस बढ़ाना होगा। यह तभी संभव है जब जितना पानी धरती से लिया जाये, उससे ज्यादा उसे दिया जाये। क्रेडिट, डेबिट से ज्यादा हो। इसकी चर्चा बहुत है, लेकिन जमीनी प्रयास बहुत नहीं।

अविरलता के बगैर निर्मलता नहीं आती। यदि प्रमुख नदियों का प्रवाह बढ़ाना है, उन्हें समृद्ध करने वाली छोटी से छोटी नदी के पुनरुद्धार का देशव्यापी अभियान चलाना होगा। तालाबों को कब्जामुक्त कराना जरूरी हो गया है। जलसंरचनाओं का सीमांकन कर यह सुनिश्चित करना भी जरूरी हो गया है कि भविष्य में इन पर कब्जे न हों। भूमि अधिग्रहण का कानून सामुदायिक, कृषि, वन व नदियों की जमीनों को बचाने के लिए बनें न कि मुआवजा बढ़ाने के लिए। धरती की उर्वरा शक्ति बढ़ाने का देसज रास्ता अपनाना होगा। बायो तकनीकों को इसी दिशा में विकसित करना होगा। प्रदूषण नियंत्रण का ऐसा तंत्र, नीति व कायदा विकसित करने की जरूरत है, जो प्रदूषण को उसके मूल स्रोत पर ही नियंत्रित करती हो। कैंसर का निदान मूल स्रोत से ही संभव होता है, न कि वहां से जहां लक्षण दिखाई देते हैं। प्रदूषण एक तरह का कैंसर ही है।

न मालूम यही बातें कितने सेमिनारों व लेखों में वर्षों से दोहराई जा रही हैं। फिर भी सरकार व समाज दोनों ही हैं कि चेत नहीं रहे। ईमानदारी का अभाव दोनों तरफ होता जा रहा है। सरकार पानी का व्यापार बढ़ाने वालों के चंगुल में है और समाज अपनी ही अकर्मण्यता के खुमारी में। चेतना का अभाव दोनों तरफ है। जो पिछले 65 सालों से “हम पानी पिलायेंगे, हम पानी पिलायेंगे’’ का ढोल पीटते रहे, वे अब “हमारे बस का नहीं है’’ हालात बहुत खराब है कहकर निजी कंपनियों और मशीनों की आवक का रास्ता खोलने में लग गये हैं। जलदोहन और जलोपयोग क्षमता में सुधार के नाम पर पानी को पहले सीधे सरकारी और फिर कंपनियों के नियंत्रण में लाने के संकेत प्रधानमंत्री जी द्वारा कर ही दिये गये हैं।

बंसल साहब! यदि आपके बयान की परिणति भी यदि इसी रूप में होने वाली है, तो तय है कि इस देश को एक और जंग के लिए कमर कस लेनी चाहिए। पानी को सौदागरों के हाथों जाने से रोकने की जंग! यदि देश को इस जंग के लिए विवश किया गया, तो यह जंग बहुत खतरनाक होगी। शुरुआत हो चुकी है। खंडवा एकजुट हो रहा है। दिल्ली की जलापूर्ति तीन निजी कंपनियों को देने के ताजा निर्णय के साथ दिल्ली जलबोर्ड की मुख्य कार्यकारी अधिकारी बदल दी गईं है। जाने दिल्ली कब बदलेगी?

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