केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना क्या वाकई उपयोगी है


कृत्रिम रूप से जीवनदायी नर्मदा और मोक्षदायिनी क्षिप्रा नदियों को जोड़ने के बाद केन और बेतवा नदियों को जोड़ने की तैयारी में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सरकारें हैं। किन्तु इस परियोजना में वन्य जीव समिति बड़ी बाधा के रूप में पेश तो आ ही रही है, यह आशंका भी जताई जा रही है कि इस परियोजना पर क्रियान्वयन होता है तो नहरों एवं बाँधों के लिये जिस उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा, वह नष्ट हो जाएगी।

इस भूमि पर फिलहाल जौ, बाजरा, दलहन, तिलहन, गेहूँ, मूँगफली, चना जैसी फसलें पैदा होती हैं। इन फसलों में ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती हैं। जबकि ये नदियाँ जुड़ती हैं, तो इस पूरे इलाके में धान और गन्ने की फसलें पैदा करने की उम्मीद जताई जा रही है। इन दोनों ही फसलों में पानी अत्यधिक लगता है।

पूरे बुन्देलखण्ड क्षेत्र में 4000 से भी ज्यादा तालाब हैं, यदि इन सभी तालाबों को सँवार लिया जाये तो इन नदियों को जोड़ने की जरूरत तो रह ही नहीं जाएगी, कई हजार करोड़ रुपए इस परियोजना पर खर्च होने से भी बच जाएँगे। इस परियोजना को पूरा करने का समय 10 साल बताया जा रहा है। लेकिन हमारे यहाँ भूमि अधिग्रहण और वन भूमि में स्वीकृति में जो अड़चनें आती हैं, उनके चलते यह परियोजना 20-25 साल में भी पूरी हो जाये मुश्किल है?

दोनों प्रदेशों की सरकारें दावा कर रही हैं कि यदि ये नदियाँ परस्पर जुड़ जाती हैं तो मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के सूखाग्रस्त बुन्देलखण्ड क्षेत्र में रहने वाली 70 लाख आबादी खुशहाल हो जाएगी। यही नहीं नदियों को जोड़ने का यह महाप्रयोग सफल हो जाता है तो अन्य 30 नदियों को जोड़ने का सिलसिला भी शुरू हो सकता है।

नदी जोड़ो कार्यक्रम मोदी सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजना है। इस परियोजना के तहत उत्तर प्रदेश के हिस्से में आने वाली पर्यावरण सम्बन्धी बाधाओं को दूर कर लिया गया है। मध्य प्रदेश में जरूर अभी भी पन्ना राष्ट्रीय उद्यान बाधा बना हुआ है और जरूरी नहीं कि जल्दी यहाँ से मंजूरी मिल जाये।

वन्य जीव समिति इस परियोजना को इसलिये मंजूरी नहीं दे रही है, क्योंकि पन्ना राष्ट्रीय उद्यान बाघों के प्रजनन, आहार एवं आवास का अहम वन क्षेत्र है। इसमें करीब 28 बाघ बताये जाते हैं। अन्य प्रजातियों के प्राणी भी बड़ी संख्या में हैं। हालांकि मध्य प्रदेश और केन्द्र में एक ही दल भाजपा की सरकारें हैं, लिहाजा उम्मीद की जा सकती है कि शायद बाधाएँ जल्दी दूर हो जाएँ?

केन नदी जबलपुर के पास कैमूर की पहाड़ियों से निकलकर 427 किमी उत्तर की ओर बहने के बाद बांदा जिले में यमुना नदी में जाकर गिरती है। वहीं बेतवा नदी मध्य प्रदेश के रायसेन जिले से निकलकर 576 किमी बहने के बाद उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में यमुना में मिलती है।

केन-बेतवा नदी जोड़ो योजना की राष्ट्रीय जल विकास प्राधिकरण (एनडब्ल्यूडीए) की रिपोर्ट के अनुसार डोढ़न गाँव के निकट 9000 हेक्टेयर क्षेत्र में एक बाँध बनाया जाएगा। इसके डूब क्षेत्र में छतरपुर जिले के बारह गाँव आएँगे। इनमें पाँच गाँवों आंशिक रूप से और सात गाँव पूर्ण रूप से डूब में आएँगे।

कुल 7000 लोग प्रभावित होंगे इन्हें विस्थापित करने में इसलिये समस्या नहीं आएगी, क्योंकि ये ग्राम जिन क्षेत्रों में आबाद हैं, वह पहले से ही वन-सरंक्षण अधिनियम के तहत अधिसूचित हैं। इस कारण रहवासियों को भूमि-स्वामी होने के बावजूद जमीन पर खेती से लेकर खरीद-बिक्री में परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसलिये ग्रामीण यह इलाका मुआवजा लेकर आसानी से छोड़ने को तैयार हैं।

ऐसा दावा प्राधिकरण की रिपोर्ट में किया गया है। जबकि सच्चाई यह है कि इन ग्रामों में कमजोर आय वर्ग और अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति के लोग रहते हैं। इन लाचारों को समर्थों की अपेक्षा विस्थापित करना आसान होता है।

यह परियोजना के बहुआयामी होने के दावे किये जा रहे हैं। बाँध के नीचे दो जल-विद्युत संयंत्र लगाए जाएँगे। 220 किलोमीटर लम्बी नहरों का जाल बिछाया जाएगा। ये नहरें छतरपुर, टीकमगढ़ और उत्तर प्रदेश के महोबा एवं झाँसी जिले से गुजरेंगी। जिनसे 60,000 हेक्टेयर कृषि भूमि की सिंचाई होगी।

विस्थापन और पुनर्वास के लिये 213.11 करोड़ रुपए की आर्थिक मदद की जरूरत पड़ेेगी, जिसके मिलने की उम्मीद केन्द्र सरकार से की जा रही है। क्योंकि हम जानते हैं कि धन भले ही कोई सरकार दे, विस्थापितों का पुनर्वास और मुआवजा किसी भी परियोजना में सन्तोषजनक नहीं रहा।

नर्मदा बाँध की डूब में आने वाले हरसूद के लोग आज भी मुआवजे और उचित पुनर्वास के लिये आज भी भटक रहे हैं। कमोबेश यही अन्याय मध्य प्रदेश के ही कूनो-पालपुर अभयारण्य के विस्थापितों का है।

डीपीआर के मुताबिक उत्तर प्रदेश को केन नदी का अतिरिक्त पानी देने के बाद मध्य प्रदेश करीब इतना ही पानी बेतवा की ऊपरी धारा से निकाल लेगा। परियोजना के दूसरे चरण में मध्य प्रदेश चार बाँध बनाकर रायसेन और विदिशा जिलों में नहरें बिछाकर सिंचाई के इन्तजाम करेगा।

बुन्देलखण्ड क्षेत्र में 4000 से भी ज्यादा तालाब हैं, यदि इन सभी तालाबों को सँवार लिया जाये तो इन नदियों को जोड़ने की जरूरत तो रह ही नहीं जाएगी, कई हजार करोड़ रुपए इस परियोजना पर खर्च होने से भी बच जाएँगे। इस परियोजना को पूरा करने का समय 10 साल बताया जा रहा है। लेकिन हमारे यहाँ भूमि अधिग्रहण और वन भूमि में स्वीकृति में जो अड़चनें आती हैं, उनके चलते यह परियोजना 20-25 साल में भी पूरी हो जाये मुश्किल है? ऐसा कहा जा रहा है कि इन प्रबन्धनों से केन में अक्सर आने वाली बाढ़ से बर्बाद होने वाला पानी बेतवा में पहुँचकर हजारों एकड़ खेतों में फसलों को लहलहाएगा। मध्य प्रदेश का यही वह मालवा क्षेत्र है, जहाँ की मिट्टी उपजाऊ होने के कारण सोना उगलती है।

इस क्षेत्र में सिंचाई के लिये पर्याप्त पानी उपलब्ध हो जाता है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि खेत साल में 2 से लेकर 3 फसलें तक देने लग जाएँगे? लेकिन मालवा की जो बहुफसली भूमि बाँध और नहरों में नष्ट होगी, उससे होने वाले नुकसान का आकलन प्राधिकरण के पास नहीं है।

देश की विभिन्न नदियों को जोड़ने का सपना स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद देखा गया था। इसे डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया, डॉ. राममनोहर लोहिया और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जैसी हस्तियों का समर्थन मिलता रहा है। हालांकि परतंत्र भारत में नदियों को जोड़ने की पहली पहल ऑर्थर कॉटन ने बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में की थी। लेकिन इस माध्यम से फिरंगी हुकूमत का मकसद देश में गुलामी के शिकंजे को और मजबूत करने के साथ, बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदा का दोहन भी था।

क्योंकि उस समय भारत में सड़कों और रेल-मार्गों की संरचना पहले चरण में थी, इसलिये अंग्रेज नदियों को जोड़कर जल-मार्ग विकसित करना चाहते थे। हालांकि आजादी के बाद 1971-72 में तत्कालीन केन्द्रीय जल एवं ऊर्जा मंत्री तथा अभियन्ता डॉ कनूरी लक्ष्मण राव ने गंगा-कावेरी को जोड़ने का प्रस्ताव भी बनाया था।

राव खुद जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इन्दिरा गाँधी की सरकारों में जल संसाधन मंत्री भी रहे थे। लेकिन जिन सरकारों में राव मंत्री रहे, उन सरकारों ने इस महत्त्वाकांक्षी प्रस्ताव को कभी गम्भीरता से नहीं लिया, क्योंकि ये प्रधानमंत्री जानते थे कि नदियों को जोड़ना आसान तो है ही नहीं, यदि यह परियोजना अमल में लाई जाती हैं, तो नदियों की अविरलता खत्म होने की आशंका भी इन दूरदृष्टाओं को थी।

करीब 13500 किमी लम्बी ये नदियाँ भारत के सम्पूर्ण मैदानी क्षेत्रों में अठखेलियाँ करती हुईं मनुष्य और जीव-जगत के लिये प्रकृति का अनूठा और बहुमूल्य वरदान बनी हुई हैं। 2528 लाख हेक्टेयर भू-खण्डों और वन प्रान्तरों में प्रवाहित इन नदियों में प्रति व्यक्ति 690 घनमीटर जल है।

कृषि योग्य कुल 1411 लाख हेक्टेयर भूमि में से 546 लाख हेक्टेयर भूमि इन्हीं नदियों की बदौलत प्रति वर्ष सिंचित की जाकर फसलों को लहलहाती हैं। यदि नदियाँ जोड़ अभियान के तहत केन-बेतवा नदियाँ जुड़ जाती हैं तो इनकी अविरल बहने वाली धारा टूट सकती है।

उत्तराखण्ड में गंगा नदी पर टिहरी बाँध बनने के बाद एक तरफ तो गंगा की अविरलता प्रभावित हुई है, वहीं दूसरी तरफ पूरे उत्तराखण्ड में बादल फटने और भूस्खलन की आपदाएँ बढ़ गई हैं। गोया, नदियों को जोड़ने से पहले टिहरी बाँध के गंगा पर पड़ रहे प्रभाव और उत्तराखण्ड में बढ़ रही प्राकृतिक आपदाओं का भी आकलन करना जरूरी है? इससे अच्छा है बुन्देलखण्ड में जो 4000 तालाब हैं, उन्हें और उनमें मिलने वाली जलधाराओं को सँवारा जाये?

इस काम में धन भी कम खर्च होगा और एक-एक कर तालाबों को सँवारने में समय भी कम लगेगा। इनके सँवरते ही पेयजल व सिंचाई की सुविधाएँ भी तत्काल बुन्देलखण्डवासियों को मिलने लग जाएँगी, क्योंकि ज्यादातर तालाब नहरों से पहले से ही जुड़े हुए हैं।


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