केदारनाथ आपदा के बाद गठित विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों पर केन्द्र की नजर

उत्तराखण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, नागालैण्ड, त्रिपुरा, आसाम जोन 4 में तथा जम्मू कश्मीर हिमाचल प्रदेश जोन 4-5 में स्थित है। जिसके कारण बाढ़, भूकम्प और भूस्खलन की त्रासदी बार-बार झेल रहे हैं। सभी हिमालयी राज्यों के ग्लेशियर पिछले लम्बे समय से औसत 18-20 मीटर पीछे हटे हैं। जलवायु परिवर्तन इसका एक कारण हो सकता है। लेकिन ग्लेशियरों के पास लाखों की संख्या में जाने वाले पर्यटक, जंगलों में लगने वाली आग, भूगर्भिक हलचलें और बांधों के लिये विस्फोटों के द्वारा खोदी जाने वाली सुरंगे आदि के कई कारण नजरअन्दाज नहीं किए जा सकते हैं। देर आए, दुरूस्त आए। आखिर केन्द्र सरकार ने विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों को माना है कि विकास और पर्यावरण के बीच में सन्तुलित सम्बन्ध बनाना होगा। इसके साथ ही सरकार उच्चतम न्यायलय में कुछ जल विद्युत परियोजनाएँ जिन्हें उत्तराखण्ड की आपदा के समय विनाशकारी बताया गया था उन्हें बन्द करने सम्बन्धी फैसले की ओर दिखाई दे रही है।

सरकार में खुलकर इतनी संवेदनशीलता पहले नहीं देखी गई है। इसके चलते सरकार ने उत्तराखण्ड में 16-17 जून, 2013 की भयानक आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर बनाई गई विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट पर सहमति जताई है। इस फैसले से उत्तराखण्ड के मुख्यमन्त्री हरीश रावत दुःखी अवश्य हैं। उनका ऊर्जा प्रदेश का सपना टूट रहा है। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी 1 महीने पहले ही उन्होंने छोटी पनबिजली बनाने पर अहम् फैसले लिये हैं, जिसका स्वागत भी हुआ है।

अब हिमालय की भूगभर्गिक स्थिति को ध्यान में रखकर काम करने की मजबूत पहल करने का वक्त आ गया है। इससे पहले भी केन्द्र में जल संसाधन मंत्री रहते हुए भी उत्तराखण्ड में सुरंग बाँधों पर उन्होंने असहमति जताई है। इसके लिये उन्होंने सांसद रहते नदियों को बचाने की पहल हरिद्वार में की थी।

नदियों पर बन रहे बाँधों के प्रभाव के लिये गठित विशेषज्ञ समिति में कोई ऐसे लोग नहीं हैं कि उनको भारत के किसी भूगर्भवेत्ता और जल विज्ञानी से कम आँका जा सकता हो। उन्होंने हरेक पहलू को सामने लाकर उत्तराखण्ड ही नहीं, बल्कि सभी हिमालयी राज्यों के विकास के लिये जल विद्युत निर्माण के सम्बन्ध में पुनर्विचार के लिये केन्द्र सरकार को मजबूर कर दिया है।

उत्तराखण्ड में वर्ष 16-17 जून 2013 को जब आपदा आई थी, तो उस समय कोई भी राजनेता, नौकरशाह, वैज्ञानिक, पंचायत प्रतिनिधि चाहे वह बाँध समर्थक ही क्यों न रहा हो, सभी का कहना था कि अधिक जल प्रलय के पीछे बाँधों का अनियोजित निर्माण है। इसके लिये जितनी भी पर्यावरण स्वीकृति और जन-सुनवाईयाँ उत्तराखण्ड में हुई होगी, उसकी पोल पहले भी कई बार खुल चुकी थी।

ऐसे कई उदाहरण हैं कि केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकनी नदी पर आपदा के कारण ध्वस्त हुई फाटा-व्योंग जल विद्युत परियोजना के निर्माण के लिये वहाँ के पंचायत प्रतिनिधियों को सीधे ऑफिस में बुलाकर जन सुनवाई के नाम पर मुहर लगाई गई थी। इसी तरह का रवैया डेवलपर्स एजेन्सियों के द्वारा भागीरथी, अलकनन्दा आदि नदियों पर निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिये की गई है।

विशेषज्ञ समिति ने जन सुनवाईयों से लेकर पर्यावरण स्वीकृति के तमाम दस्तावेजों के साथ केन्द्र सरकार को बाँधों के निर्माण से पहले ईमानदार पहल की जोरदार वकालत की हैं। यदि सचमुच में गत् वर्ष की आपदा के प्रभाव को विनाशकारी बनाने वाले कारकों के प्रति राज्य और केन्द्र मिलकर विचार कर सकें तो, विकास और पर्यावरण के बीच में तालमेल बैठ सकता है।

विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट का महत्व ऐसे वक्त में अधिक बढ़ गया है जब केन्द्र में भाजपा की सरकार गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिये नमामि गंगे योजना पर काम प्रारम्भ कर रही है। हिमालय क्षेत्र में डायवर्टिंग ऑफ द रीवर के सिद्धान्त पर बिजली परियोजनाओं के निर्माण से हिमालयी आपदाएँ अधिक विकराल स्थिति पैदा कर सकती हैं। वर्ष 2002 से लेकर 2013 के बीच में उत्तराखण्ड में ही नहीं बल्कि तमाम हिमालयी राज्यों की नदियाँ अपने सदियों पूर्व स्थान पर लौट रही हैं।

नदी तटों पर विकास के नाम पर जहाँ नई बस्तियाँ बनी थी, वह मलबे में तब्दील होती नजर आ रही है। आपदा पुनः निर्माण के नाम पर जितने निर्माण कार्य मन्दाकनी, भागीरथी, अलकनन्दा के क्षेत्र में चल रहे हैं उसकी कोई गारण्टी नहीं है कि भविष्य की आपदा से बचा जा सकेगा। इसलिये नदियों को उद्गम से लेकर आगे 150 कि.मी. तक के संवेदनशील क्षेत्र को लोगों की जीवन एवं जीविका के संसाधनों की बहाली का ध्यान रखते हुए, आपदा प्रबन्धन के साथ-साथ विकास के पृथक मॉडल पर पुनर्विचार करना चाहिए।

गत् वर्ष उत्तराखण्ड में जल प्रलय के बाद भागीरथी, अलकनन्दा, मन्दाकनी इनकी सहायक नदियों पर प्रस्तावित 24 पनबिजली परियोजनाओं पर न्यायालय ने रोक लगा दी थी। यहाँ 2000 मीटर से ऊपर की चट्टानें बार-बार खिसकते रहते हैं। यह क्षेत्र भूकम्प सम्भावित है।

अब सरकार का कहना है कि वह उत्तराखण्ड में गत् वर्ष आई त्रासदी को लेकर चिन्तित और सजग है क्योंकि उसमें जान-माल का भारी नुकसान हुआ इसलिये विकास परियोजनाओं में विशेषकर पनबिजली परियोजनाओं के बारे में तभी फैसला किया जा सकता है जब तक उसका कोई मजबूत आधार न हो।

काबिले गौर है कि प्रदेश में बिना सुरंग वाली छोटी जलविद्युत परियोजनाओं की अपार संभावनाएँ हैं। उत्तराखण्ड में बड़ी मात्रा में सिंचाई नहरें, घराट और कुछ शेष बची जलराशि अवश्य है, लेकिन पानी की उपलब्धता के आधार पर ही छोटी टरबाइनें लगाकर हजारों मेगावाट से अधिक बिजली पैदा करने की क्षमता है। इसको ग्राम पंचायतों से लेकर जिला पंचायतें बना सकती हैं। यह काम लोगों के निर्णय पर यदि किया जाय तो, उत्तराखण्ड की बेरोजगारी समाप्त होगी।

मौजूदा स्थिति में उत्तराखण्ड में 16 हजार सिंचाई नहरें हैं जो निष्क्रिय पड़ी रहती हैं। इन्हें बहुआयामी दृष्टि से संचालित करके इनसे सिंचाई और विद्युत उत्पादन दोनों काम एक साथ चल सकते हैं। केवल इन्हीं सिंचाई नहरों से 30 हजार मेगावाट बिजली बन सकती है। उत्तराखण्ड राज्य की आवश्यकता तो 1,500 मेगावाट से पूरी हो जाती है। शेष बिजली से यहाँ के लोगों की भाग्य की तस्वीर बदल सकती है और उत्तराखण्ड से पलायन हो चुके लगभग 35 लाख लोगों को अपने घरों में पुर्नस्थापित करके रोजगार दिया जा सकता है और बाकी बिजली निश्चित ही देश को मिलेगी।

इसी तरह सड़कों का निर्माण ग्रीन कंसट्रक्शन के आधार पर होना चाहिए। जिसमें सड़कों के निर्माण से निकलने वाले मलबे से नई जमीन का निर्माण हो। पहाड़ी ढलानों के गड्डों को इस मलबे से पाट दिया जाय और लोगों की टेढ़ी-मेढ़ी जमीन में भी सड़कों के निर्माण से निकलने वाली उपजाऊ मिट्टी से कृषि क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार की नई जमीन पर होर्टीकल्चर का निर्माण हो सकता है।

भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तराखण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, नागालैण्ड, त्रिपुरा, आसाम जोन 4 में तथा जम्मू कश्मीर हिमाचल प्रदेश जोन 4-5 में स्थित है। जिसके कारण बाढ़, भूकम्प और भूस्खलन की त्रासदी बार-बार झेल रहे हैं। सभी हिमालयी राज्यों के ग्लेशियर पिछले लम्बे समय से औसत 18-20 मीटर पीछे हटे हैं। जलवायु परिवर्तन इसका एक कारण हो सकता है। लेकिन ग्लेशियरों के पास लाखों की संख्या में जाने वाले पर्यटक, जंगलों में लगने वाली आग, भूगर्भिक हलचलें और बांधों के लिये विस्फोटों के द्वारा खोदी जाने वाली सुरंगे आदि के कई कारण नजरअन्दाज नहीं किए जा सकते हैं।

16-17 जून 2013 को केदारनाथ में चोराबारी ग्लेशियर के अकस्मात् पिघलने से केदारनाथ मन्दिर के पीछे भारी मलबा एकत्रित हुआ था जो आगे पहुँचकर मन्दाकनी नदी के आर-पार बाँधों के लिये खोदे गए पहाड़ों से निकले मलबे के साथ मिलकर तबाही का कारण बना है।

आपदा पर उत्तराखण्ड की आवाज नामक एक नागरिक रिपोर्ट में लिखा गया है कि 16-17 जून की आपदा से 5-6 वर्ष पहलेे ही पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, मौसमविदों और आम जन ने जिस तरह से संयमित विकास का सुझाव सरकार को दिया था यदि उसे अनसुना न किया जाता तोेेे जान-माल का इतना नुकसान नहीं हो सकता था।

मौसम विभाग ने 9-10 जून 2013 को ही उत्तराखण्ड में एक बड़ी आपदा आने की सूचना के संकेत पहले ही दे दिए थे। इस रिपोर्ट में आगे लिखा है कि इसकी सूचना देने पर भी हजारों यात्रियों को केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ जाने दिया गया था। उत्तराखण्ड में आपदा प्रभावित दलितों की आवाज नामक रिपोर्ट में बताया गया है कि एक ओर तो आपदा सभी के लिये बुरे दिन लेकर आती है वहीं आपदा राहत वितरण में दलित समाज को जाति का दंश झेलना पड़ता है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि रुद्रप्रयाग जिले के डमार गाँव के अनुसूचित जाति के परिवारों को जब सरकार ने पास के गाँव के सुरक्षित घरों में पहुँचाया तो उन्हें वहाँ पर खाना बनाने के लिये आग तक नहीं जलाने दी गई है। इसके अलावा उन्हें पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिला है। यहाँ से कुछ ही दूरी पर चन्द्रापुरी गाँव की दलित बस्ती को सुरक्षित स्थान पर बसाने के लिये कई बार प्रशासन से गुहार करनी पड़ रही है।

जहाँ पिछले वर्ष जून 2013 तक लगभग ढाई लाख यात्री केवल गंगोत्री-यमुनोत्री आए थे वहीं इस बार केवल 35 हजार यात्री ही यहाँ पहुँचे हैं। जिसके कारण लगभग 40 हजार से अधिक लोगों का रोजगार प्रभावित हुआ है। इन सब स्थितियों को इस हिमालय क्षेत्र के विषय पर विशेषज्ञ समिति का नजरिया सरकार के काम आ सकता है।

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Post By: Shivendra
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