कचरे की ऊर्जा से बढ़ेगी समस्याएं

कचरे से बिजली बनाने के लिए दिल्ली में बनाई जा रही परियोजना समाधान की बजाए समस्याएं अधिक खड़ी करेगी। इससे प्रदूषण, बेरोजगारी में वृद्धि तो होगी साथ ही संसाधनों का पुर्नचक्रीकरण न होने से प्राकृतिक संसाधनों पर भी भार बढ़ेगा।

कचरा प्रबंधन का प्रमुख कार्यक्रम स्वच्छ विकास प्रबंध (सीडीएम) भारत में अपनी कारपोरेट झुकाव और तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता के कारण धराशायी हो गया है। यह कार्बन क्रेडिट प्रणाली के मोर्चे पर भी असफल सिद्ध हुआ है जिससे कि जलवायु परिवर्तन में इस कार्यक्रम की भूमिका भी न्यूनतम हो गई है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी को ध्यान में रखते हुए क्योटो प्रोटोकॉल में इसे लेकर लचीली व्यवस्था की गई थी। सीडीएम के अंतर्गत उत्सर्जन में कमी (या समाप्त) करने वाली परियोजनाओं के तहत विकासशील देश अधिमान्य उत्सर्जन में कमी हेतु क्रेडिट अर्जित कर सकते थे। इस क्रेडिट को औद्योगिक देशों को बेचा जा सकता है जो कि इसका इस्तेमाल क्योटो प्रोटोकॉल के अंतर्गत उत्सर्जन में कमी लाने की उनकी सीमा को प्राप्त करने में करेंगे।

दिल्ली कचरा प्रबंधन की चुनौतियां -


बढ़ते शहरीकरण की वजह से विकासशील देशों में कचरा प्रबंधन एक समस्या बन गया है और कचरे की मात्रा में दिनोंदिन वृद्धि हो रही है। इसी के साथ शहरी कचरे का स्वरूप भी बदल रहा है और इसमें प्लास्टिक व इलेक्ट्रॉनिक्स की बहुतायत होती जा रही है। भारत की राजधानी दिल्ली में प्रतिदिन 7000 टन कचरे का उत्पादन (?) होता है।

यदि असंगठित क्षेत्र के माध्यम से कचरे को निपटाने की व्यवस्था नहीं होती तो स्थितियां और भी बद्तर हो जातीं। इस कार्य में एक लाख कचरा बीनने वाले मदद करते हैं। वे कचरे में से काम में आ सकने वाले धातु, कागज, कार्ड बोर्ड और प्लास्टिक को अलग करते हैं। इन्हें साफ करके उद्योग को बेचा जाता है जो कि इसे अपनी नए उत्पाद हेतु कच्चे माल की तरह इस्तेमाल करता है। दिल्ली की रिसायकलिंग (पुनःचक्रण) अर्थव्यवस्था के अंतर्गत 1600 टन कचरा प्रतिदिन प्रयोग में आता है। यानि कि कुल कचरे का करीब 15 से 20 प्रतिशत। कचरा बीनने वालों की वजह से नगर निगम को अपनी परिचालन लागत में प्रतिदिन 14000 डॉलर यानि 658000 रुपए प्रतिदिन और वार्षिक करीब 24 करोड़ रुपए की बचत होती है। इस अनौपचारिक रिसायकल क्षेत्र में कचरा प्रबंधन के सबसे बड़े हिस्से जैसे खाद्य सामग्री और अन्य जैविक पदार्थ काम में नहीं आते। इसे नगर निगम इकट्ठा कर भराव वाले क्षेत्रों में ले जाती है। परिणामस्वरूप बदबू, कीड़े-मकोड़े, आग और जहरीलेपन की समस्याएं सामने आती हैं। इससे जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों को ठेस पहुंचती है। परंतु दिल्ली का अनुभव बताता है कि कारपोरेट पहल वाला उच्च तकनीक वाला कचरा प्रबंधन कमोवेश असफल ही सिद्ध हो गया है।

ओखला-तिमारपुर कचरे से ऊर्जा परियोजना-


नवम्बर 2007 में सीडीएम कार्यकारी बोर्ड ने करीब 2050 टन प्रतिदिन कचरा, जो कि दिल्ली का करीब एक चैथाई होता है, के निपटान के लिए तिमारपुर-ओखला वेस्ट मैनेजमेंट कंपनी का दो सुविधाओं हेतु पंजीयन किया। इसके अंतर्गत कचरे को सुखा कर उसके टुकड़े करके उसे एक रेशे बनाने वाली प्रक्रिया के माध्यम से बायलर में ले जाकर उससे बिजली निर्माण की योजना थी। घोषणा के बाद स्थानीय निवासियों, कचरा बीनने वालों और पर्यावरणविदों के कान खड़े हुए क्योंकि यह कोई पहला भस्मक नहीं था जो कि तिमारपुर में स्थापित होने जा रहा था।

इससे पहले सन् 1987 में नवीनीकरण एवं रिन्युबल ऊर्जा विभाग तिमारपुर में 25 करोड़ की लागत से भस्मक सह बिजली संयंत्र प्रारंभ कर चुका था। जिसकी क्षमता प्रतिदिन 300 टन कचरे से 3.77 मेगावाट बिजली तैयार करने की थी। संयंत्र ने 21 दिन का परीक्षण संचालन भी किया लेकिन कचरे की गुणवत्ता ठीक न होने से संयंत्र को बंद करना पड़ा। भारत के कचरे में जैविक पदार्थ अधिक होते हैं और कागज, प्लास्टिक, कार्ड बोर्ड आदि कम। धनी देशों के मुकाबले भारत में इस तरह का कचरा कम ही उत्सर्जित होता है। परंतु सरकारी अफसरों ने इससे सबक नहीं सीखा।

सुस्थिर विकास गरीबों पर लागू नहीं होता-


चार्टर के अनुसार सीडीएम केवल उन्हीं परियोजनाओं की सहायता करेगा जो कि सुस्थिर विकास में सहायक होगी। लेकिन इसकी निगरानी की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सरकारों की है और भारत में इसका जिम्मा पर्यावरण एवं वन मंत्रालय पर है।

यदि परियोजना वास्तव में दिल्ली का एक चैथाई कचरे का निपटान करेगी तो राजधानी के अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत अनेकों रिसायकलिंग कर्मचारियों की जीविका ही छिन जाएगी क्योंकि इस भस्मक को चलाने के लिए बड़ी मात्रा में प्लास्टिक, कागज, कार्डबोर्ड लगेगा। यही वह मूल्यवान वस्तुएं हैं जो कि अनौपचारिक क्षेत्र के काम आती हैं। इसके दृष्टिगत दिल्ली के कचरा बीनने वालों ने संघर्ष प्रारंभ कर दिया और पहली बार इनके अधिकारों के लिए कार्यरत समूहों व पर्यावरणविदों ने भी इनका साथ दिया।

वहीं दूसरी तरफ भारत के बड़े कारपोरेट घराने इस परियोजना के माध्यम से सिर्फ कार्बन क्रेडिट बेच कर 370 लाख अमेरिकी डॉलर की कार्बन क्रेडिट कमाएंगे। इस परियोजना से आई.एल. एण्ड एफ.एस. एवं जिंदल के साथ सार्वजनिक कंपनियां जैसे आंध्रप्रदेश तकनीक विकास केंद्र भी लाभ कमाएंगे। लेकिन इन्हें लाभ अंततः कचरा बीनने वालों की हानि से ही होगा।

उत्सर्जन बढ़ाने के लिए कार्बन क्रेडिट -


अपनी ही गणना के अनुसार तिमारपुर ओखला परियेाजना 2,62,741 टन कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में कमी करेगी। दिल्ली से प्रतिवर्ष करीब 9,62,133 टन कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन होता है। वास्तविकता यह है कि इससे तो उतनी ही कार्बन क्रेडिट प्राप्त होगी जितनी कि दिल्ली स्वयं उत्सर्जित करती है। अतएव सीडीएम ने बिना किसी गणना के बड़ी मात्रा में कार्बन क्रेडिट आबंटित कर दी। यूरोप कार्बन क्रेडिट का सबसे बड़ा खरीददार है और उनके अपने ही नियम है जो इस तरह की योजना के अनुकूल नहीं हैं। यदि इस प्रक्रिया में पुर्नचक्रण वाले ईंधन की खपत बढ़ाई गई तो स्थितियां और भी बद्तर हो जाएंगी।

बायो जैविक, उत्सर्जन की मात्रा में बढ़ोत्तरी से स्थितियां और भी खराब हो सकती हैं। सीडीएम साधारणतया कंपनियों के इस दावे को मान लेता है कि जैविक उत्सर्जन घातक नहीं है लेकिन वैज्ञानिकों की सोच इसके ठीक विपरीत है। यदि तिमारपुर की बात करें तो यहां जलने वाले कचरे में से मात्र 16 प्रतिशत से कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन बताया गया है और 84 प्रतिशत को जैविक उत्सर्जन की श्रेणी में रखा गया है।

पड़ौसियों को जहरीला उत्सर्जन नापसंद -


सीडीएम को प्रस्तुत रिपोर्ट में कंपनी ने कहा है कि ‘परियोजना में पड़ौसियों की भूमिका लाभ प्राप्तकर्ता की होगी तथा इससे स्थानीय व्यक्तियों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलेगा। परियोजना में किसी भी समुदाय को विस्थापित करने का कोई प्रयास नहीं है, और वह क्षेत्र के लोगों से सीधे संघर्ष में भी नहीं है।’ जबकि वास्तविकता यह है कि यह कचरा बीनने वालों को विस्थापित करेगा। यह परियोजना स्थानीय निवासियों से भी तगड़ा विरोध का सामना कर रही है क्योंकि इसकी स्थापना नजदीकी निवास स्थानों से मात्र 100 मीटर की दूरी पर होगी और इसके आसपास तीन अस्पताल भी स्थित हैं। निवासियों की चिंता स्वाभाविक है क्योंकि भस्मक से जहरीली गैस निकलेगी। दिसम्बर 2010 में ब्रिटेन के वेल्स में ऐसे ही एक भस्मक को बंद करना पड़ा है और अमेरिका में भस्मक परिचालक उत्सर्जन कानून के उल्लंघन के आरोप में लाखों डॉलर का दंड भर रहे हैं।

अनेक राष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन के बावजूद दिल्ली सरकार इसको बढ़ावा दे रही है। अंततः पर्यावरण और वन मंत्रालय ने हस्तक्षेप कर इस परियोजना की समीक्षा के आदेश दिए हैं और इस हेतु एक विशेष समिति का गठन भी किया है।

विकल्प -


सौभाग्य से कचरा क्षेत्र के निजीकरण के अलावा भी कई विकल्प मौजूद हैं। मुंबई एवं पुणे में स्थानीय शासन की मदद से श्रोत पर छटाई की व्यवस्था में सफलता पाई गई है। कचरे में 70 प्रतिशत जैविक पदार्थ हैं जिससे कि मिथेन गैस के उत्सर्जन से बचते हुए कमपोस्ट खाद बनाई जा रही है। इससे आमदनी का नया जरिया भी सामने आ रहा है। इस तरह की संरचनाओं के निर्माण से स्थानीय निवासियों, नगरपालिका इकाइयों एवं शहरी गरीबों, सभी को फायदा मिलता है लेकिन विशाल बहुराष्ट्रीय फर्मों की भागीदारी की गुंजाइश बहुत कम हो जाती है।

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