तमाम प्रगति और तरक्की के दावों के बावजूद भारत की छवि दुनियाभर में कूड़े-कचरे से घिरे देश की बन रही है। महानगरों और नगरों में पसरी गंदगी तो लाइलाज हो चुकी है। यहां तक कि मनोरम पर्यटन और तीर्थस्थल भी साफ-सुथरे नहीं रह गए। देश में पनप रहे इस नए खतरे का जायजा ले रही हैं कविता वाचक्नवी।
अपने वातावरण के प्रति जागरूकता प्रत्येक में होनी ही चाहिए वर्ना पूरे देश को कूड़े के ढेर में बदलने में समय ही कितना लगता है? विदेश में रहने वालों के लिए इसीलिए भारत को देखना बहुधा असह्य हो जाता है और हास्यास्पद भी। प्रकृति की ओर से जिस देश को सर्वाधिक संसाधन और सौगात मिली है, प्रकृति ने जिसे सबसे अधिक संपन्न और तराशे हुए रूप के साथ बनाया है, वह देश अगर पूरा का पूरा हर जगह कचरे के ढेर में बदल चुका है, सड़ता दिखता है तो उसका पूरा दायित्व केवल सरकार का नहीं, नागरिकों का भी है। विदेशों-खासकर, यूरोप, अमेरिका और विकसित देशों में कचरे-कूड़े की व्यवस्था बहुत बढ़िया ढंग से होती है। हर परिवार के पास काउंसिल के बिंस एंड वेस्ट कलेक्शन विभाग की ओर से बड़े आकार के तीन वेस्ट बिंस खासकर मिले हुए होते हैं, जो घर के बाहर, लॉन में एक ओर या गैरेज या मुख्यद्वार के आसपास कहीं रखे रहते हैं। परिवार स्वयं अपने घर के भीतर रखे दूसरे छोटे कूड़ेदानों में अपने कचरे को तीन प्रकार से डालता रहता होता है। इसलिए घर के भीतर भी कम से कम तीन तरह के कूड़ेदान होते हैं। एक ऑर्गेनिक कचरा, दूसरा रिसाइकिल हो सकने वाला और तीसरा जो एकदम नितांत गंदगी है, इन दोनों से अलग। हफ्ते में एक सुनिश्चित दिन, विभाग की तीन तरह की गाड़ियां आती हैं, उससे पहले या (भर जाने पर यथा इच्छा) अपने घर के भीतर के कूड़ेदनों से निकाल कर तीनों प्रकार के बाहर रखे बिंस में स्थानांतरित कर देना होता है, जिसे वे निर्धारित दिन पर आकर एक-एक कर अलग-अलग ले जाती हैं।
इसके अलावा, पुराने कपड़े, बिजली का सामान, पॉलिथीन थैलियां, बैटरियां और घरेलू वस्तुएं-जैसे फर्नीचर, टीवी, इलेक्ट्रॉनिक सामग्री, जूते, कांच वगैरह को एक निश्चित स्थान पर पहुंचाने की जिम्मेदारी स्वयं नागरिक की होती है। बड़ी चीजों को कचरे में फेंकने के लिए उलटे शुल्क भी देना पड़ता है। इस पूरी प्रक्रिया की वजह से लोगों में कचरे के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता बनी रहती है। जबकि ध्यान देने की बात यह भी है कि यूरोप वगैरह के देश ठंडे हैं और यहां ठंडक के कारण रासायनिक प्रकिया बहुत धीमे होता है। इसलिए कचरा सड़ने की गति बहुत कम है, इसलिए भारत की तरह बदबू और रोगों का अनुपात भी कम। ऐसा होने के बावजूद विकसित देशों की कचरे के प्रति यह अत्यधिक जागरूकता देश के वातावरण और नागरिकों को ही नहीं, बल्कि पर्यावरण और प्रकृति को भी बहुत संबल देती हैं।
स्वच्छता का सबसे कारगर ढंग होता है कि गंदगी कम से कम की जाए। अगर एक व्यक्ति किसी स्थान पर दिन-भर कुछ न कुछ गिराता-फैलाता रहे और दूसरा व्यक्ति पूरा दिन झाड़ू लेकर वहां सफाई भी करता रहे, तब भी वह स्थान कभी साफ नहीं हो सकता। इसलिए, स्वच्छता का पहला नियम ही यह है कि गंदगी कम से कम की जाए। इसे व्यवहार में लाने के ले हर नागरिक में स्वच्छता का संस्कार और गंदगी के प्रति वितृष्णा का भाव उत्पन्न होना अनिवार्य है। आधुनिक उन्नत देशों में एक छोटा-सा बच्चा भी गंदगी न करने के प्रति इतना सचेत और प्रशिक्षित होता है कि देखते ही बनता है। मैंने डेढ़ साल के बच्चे को उसके माता-पिता द्वारा बिखेरे फल की छिलकों को उठाकर दूर जाकर डिब्बे में डालते देखा है। अपने परिवेश के प्रति ऐसी चेतना भारतीय परिवारों में नाममात्र की है। वहां गंदगी तो परिवार और समाज का हर सदस्य धड़ल्ले से फैला सकता है, लेकिन सफाई का दायित्व बहुधा गृहणियों और सफाई कर्मचारियों का ही होता है। इसलिए सबसे पहले तो भारत में कचरा प्रबंधन के लिए लोगों में इस आदत के विरोध में जागरूकता पैदा करनी होगी स्वच्छता ‘सफाई करने’ से होती है। उन्हें यह संस्कार बचपन ही से ग्रहण करना होगा कि स्वच्छता ‘गंदगी न करने’ से होती है। ‘सफाई करने’ और ‘गंदगी न करने’ में बड़ा भारी अंतर है।
विकसित देशों की जिस व्यवस्था, सफाई, हरितिमा, पर्यावरण की शुद्धता वगैरह की प्रशंसा होती है और जिसका आकर्षण आम भारतीय सहित किसी अन्य एशियाई या (दूसरों) के मन में भी जगता है, वे लोग स्वयं भी संस्कार के रूप में अंकित, गंदगी फैलाते चले जाने वाले अपने अभ्यास से, विकसित देशों में रहने के बावजूद मुक्त नहीं हो पाते हैं और उन देशों की व्यवस्था को लुके-छिपे बिगाड़ते हैं, ऐसे लोग सार्वजनिक रूप से भले व्यवस्था भंग करने का दुस्साहस नहीं कर पाते, लेकिन अपने देश, लौटने पर फिर आचरण में वही ढिलाई बरतते हैं।
अब रही कचरा प्रबंधन के तरीकों को अपनाए जाने की बात। यह ‘अपनाया जाना’ भारतीय परिवेश में (ऊपर बताए कारण के चलते भी) बहुत संभव नहीं दिखता, क्योंकि लोग इस सारी जिम्मेदारी से बचने के लिए कचरे को नदी-नालों में फेंक देते हैं, देंगे। यही मानसिकता सबसे बड़ा अवरोध है, किसी भी स्वच्छता के इच्छुक समाज, व्यवस्था, देश या संस्था के लिए। दूसरा अवरोध एक और है। यहां विकसित देशों में प्रत्येक वस्तु और पदार्थ पैकेट, कंटेनर, कार्टन में बंद मिलते हैं और उस पर अंकित होता है कि उसकी पैकिंग और उस पदार्थ-वस्तु के किस-किस कचरा विभाग में डालना है। भारत में लोगों को कचरे के सही विभाग का यह निर्णय लेने के लिए न्यूनतम शिक्षा, जानकारी और जागरूकता तो चाहिए ही, साथ ही जीवन में इस्तेमाल होने वाली हर वस्तु और उत्पाद से जुड़े घटकों पर यह अंकित होना निर्माण के समय से ही जरूरी है कि उनका अंत क्या हो, कैसे हो, कहां हो। सरकार उत्पादनकर्ताओं पर ऐसा नियंत्रण और नियम लागू करेगी, यह संभव नहीं दिखता, उत्पाद खुले में मिलते हैं, उनका विसर्जन कैसे होगा- यह अलग नया विषय होगा।
बेंगलूर में कचरा प्रबंधन के लिए हालांकि, अच्छे निर्णय लिए गए हैं, लेकिन इसका नतीजा अभी भविष्य के पेट में है। अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि कुछ सालों में यह ठीक हो जाएगा। भारत में जो लोग जागरूक और सचेत हैं वे अपने तईं कचरे का नियमन कर सकते हैं। अपने वातावरण के प्रति जागरूकता प्रत्येक में होनी ही चाहिए... वर्ना पूरे देश को कूड़े के ढेर में बदलने में समय ही कितना लगता है? विदेश में रहने वालों के लिए इसीलिए भारत को देखना बहुधा असह्य हो जाता है और हास्यास्पद भी। प्रकृति की ओर से जिस देश को सर्वाधिक संसाधन और सौगात मिली है, प्रकृति ने जिसे सबसे अधिक संपन्न और तराशे हुए रूप के साथ बनाया है, वह देश अगर पूरा का पूरा हर जगह कचरे के ढेर में बदल चुका है, सड़ता दिखता है तो उसका पूरा दायित्व केवल सरकार का नहीं, नागरिकों का भी है।
एक-एक व्यक्ति के थोड़े-से जिम्मेदार हो जाने से कितने-कितने लाभ हो सकते हैं यह साफ देखा जा सकता है। अन्यथा विधिवत विदेशी साहित्य और अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्मों- ऑस्कर विजेता ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ के साथ-साथ मीडिया में समूचे भारत को ‘सार्वजनिक शौचालय’ माना कहा जाता रहेगा। भावी पीढ़ियां कचरे के ढेर पर अपना जीवन बिताएंगी और उनके पास सांस लेने के लिए भी पर्याप्त साफ स्थान और वातावरण तक नहीं होगा। भारत में गंदगी का आलम यह है कि तीर्थस्थल और पर्यटन स्थल भी इससे बचे नहीं हैं। 2010 के अंत में हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में कुल्लू से 45 किलोमीटर दूर और मनाली से आगे पार्वती और व्यास नदियों के मध्य स्थित मणिकर्ण नामक अत्यधिक सुरम्य स्थल पर अत्यधिक उल्लास और चाव से यह लेखिका गई थी। लेकिन कार से बाहर पांव रखते ही ऐसा नजारा था कि पांव उतारने का भी मन नहीं होता था...सब ओर गंदगी के अंबार...उफ...उबकाई आ जाए। ऐसी स्थिति दूर-दूर तक थी। यह स्थल अपने गंधक के स्रोतों के कारण भी विश्व प्रसिद्ध है। नदी के एक किनारे पर स्थित पर्वत से खौलता हुआ ‘मिनरल वाटर’ बहता है जिसे नगर और होटलों वगैरह में स्नानादि के लिए भी धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है, जबकि उस पर्वत की तलहटी में बहती नदी का जल कल्पनातीत ढंग से बर्फीला और हाड़ कंपा देने वाला है। धार्मिक स्थल के रूप में भी इसका बड़ा माहात्म्य लोग सुनाते हैं।
लेकिन गंदगी में डूबे इस स्थल की प्राकृतिक संपदा और पर्यावरण की स्थिति को देख कर त्रस्त हो उठी थी। ऐसी ही स्थिति चामुंडा, धर्मशाला, मैक्लोडगंज और धौलाधार पर्वतमाला के आसपास के अन्य क्षेत्रों में थी। ये वे क्षेत्र हैं जो प्राकृतिक सुषमा की दृष्टि से अद्भुत हैं और हमारे जलस्रोत यहां से प्रारम्भ होते हैं। मैंने प्रत्यक्ष देखा की हमारी नदियां, हमारे जलस्रोत, अपने स्रोत स्थल पर ही प्रदूषण और गंदगी से अटे पड़े हैं। बाढ़ आदि विभीषिकाएं कालांतर में इसी का प्रतिफल हैं। पॉलीथिन वगैरह के प्रयोग और विसर्जन और रि-साइकिल हो सकने वाली वस्तुओं को गंदगी में फेंक कर दो-तरफा नुकसान किया जा रहा है। वृक्षों की कटाई का एक बड़ा पक्ष भी इस से जुड़ा है।
जब हिमालय की तराई के क्षेत्रों की जहां जनसंख्या और उसका घनत्व कम है यह स्थिति है तो भारत के नगरों की दयनीय स्थिति पर खुद ही सोचा जा सकता है। कोई ऐसी जगह नहीं सूझ रहा जहां स्थिति दूभर न हो। उत्तर भारत का हाल तो भयावह है ही, दक्षिण भारत में भी स्थिति ठीक नहीं है। ऐसे-ऐसे नजारे देखने को मिलते हैं कि उबकाई आ जाए। देश में सर्वाधिक स्वच्छ नगर की उपाधि पाने वाले हैदराबाद, सिकंदराबाद जैसे महानगरों के आधुनिक परिवेश वाले स्थलों पर भी गंदगी के अंबार लगे होते हैं। सार्वजनिक मूत्रालयों को देखिए तो दूर तक गंदगी बिखरी मिलेगी। पीक और थूक का हर जगह ऐसा कहर दिखेगा कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। दुर्गंध और गंदगी से भभकते-खौलते सार्वजनिक कूड़ेदानों से बाहर तक फैली गंदगी में कुत्तों का मुंह मारते मचाया जाने वाला उत्पात असहनीय कहा जा सकता है।
इसी कूड़ा कचरा अव्यवस्था या अप्रबंधन के चलते कचरा बीनने वाले बच्चों का जीवन नष्ट हो जाता है। दिल्ली में एक युवक ने सप्रमाण पुष्टि की कि जब उसने एक कॉलोनी में साफ-सफाई के लिए अभियान चलाया तो एक माफिया ने से जान से मार देने की धमकियां दीं, क्योंकि बच्चों को चुराने और चुराकर उन्हें कचरे के ढेरों में झोंकने और फिर आगे कॉलोनियों में चोरी और हत्या आदि तक, इसी प्रक्रिया के माध्यम से सिरे तक पहुंचाए जाते हैं। पूरे अपराध-रैकेट इससे संबद्ध और इस पर केंद्रित होकर गतिशील रहते हैं। इस तरह की गतिविधियों में कितनों का जीवन तबाह और बर्बाद हो जाता है। दूसरी ओर अगर इसी कचरे का सही प्रबंधन किया जाए तो देश को कितने प्राकृतिक उर्वरक मिल सकते हैं और रि-साइकिल हो सकने वाली वस्तुओं के सही प्रयोग द्वारा कितनी राष्ट्रीय क्षति बचाई जा सकती हैं। पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा और उनके क्षय पर रोक भी लगेगी। स्वास्थ्य और जीवन रक्षक दवाओं पर होने वाला खर्च कम होगा, व्यक्ति का शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य उत्तरोत्तर सुधरेगा... विदेशी पर्यटकों की संख्या बढ़ेगी और इससे विदेशी पूंजी भी। देश की छवि जो सुधरेगी वह एक अतिरिक्त लाभ होगा।
एक-एक व्यक्ति के थोड़े-से जिम्मेदार हो जाने से कितने-कितने लाभ हो सकते हैं...यह साफ देखा जा सकता है। अन्यथा विधिवत विदेशी साहित्य और अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्मों – ऑस्कर विजेता ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ के साथ-साथ मीडिया में समूचे भारत को ‘सार्वजनिक शौचालय’ माना कहा जाता रहेगा। भावी पीढ़ियां कचरे के ढेर पर अपना जीवन बिताएंगी और उनके पास सांस लेने के लिए भी पर्याप्त साफ स्थान और वातावरण तक नहीं होगा। अच्छे स्थलों की खोज के कुछ वक्त के लिए अमीर तो विदेश घूम आएंगे, लेकिन मध्यमवर्ग और शेष समाज उसी त्राहि-त्राहि में जीवन जीने की शापित रहेगा। कचरे से उपजी विपदा की वजह से भारत एक गंभीर खतरे की कगार और विस्फोट के ढेर पर बैठा है। सोचना आपको है, निर्णय आपका! क्या देना चाहते हैं अपने बच्चों को विरासत में? केवल कूड़े-कचरे की विरासत और गंदगी का साम्राज्य! जो स्वयं, की भी हो जाने वाले विस्फोट पर टिका है।
अपने वातावरण के प्रति जागरूकता प्रत्येक में होनी ही चाहिए वर्ना पूरे देश को कूड़े के ढेर में बदलने में समय ही कितना लगता है? विदेश में रहने वालों के लिए इसीलिए भारत को देखना बहुधा असह्य हो जाता है और हास्यास्पद भी। प्रकृति की ओर से जिस देश को सर्वाधिक संसाधन और सौगात मिली है, प्रकृति ने जिसे सबसे अधिक संपन्न और तराशे हुए रूप के साथ बनाया है, वह देश अगर पूरा का पूरा हर जगह कचरे के ढेर में बदल चुका है, सड़ता दिखता है तो उसका पूरा दायित्व केवल सरकार का नहीं, नागरिकों का भी है। विदेशों-खासकर, यूरोप, अमेरिका और विकसित देशों में कचरे-कूड़े की व्यवस्था बहुत बढ़िया ढंग से होती है। हर परिवार के पास काउंसिल के बिंस एंड वेस्ट कलेक्शन विभाग की ओर से बड़े आकार के तीन वेस्ट बिंस खासकर मिले हुए होते हैं, जो घर के बाहर, लॉन में एक ओर या गैरेज या मुख्यद्वार के आसपास कहीं रखे रहते हैं। परिवार स्वयं अपने घर के भीतर रखे दूसरे छोटे कूड़ेदानों में अपने कचरे को तीन प्रकार से डालता रहता होता है। इसलिए घर के भीतर भी कम से कम तीन तरह के कूड़ेदान होते हैं। एक ऑर्गेनिक कचरा, दूसरा रिसाइकिल हो सकने वाला और तीसरा जो एकदम नितांत गंदगी है, इन दोनों से अलग। हफ्ते में एक सुनिश्चित दिन, विभाग की तीन तरह की गाड़ियां आती हैं, उससे पहले या (भर जाने पर यथा इच्छा) अपने घर के भीतर के कूड़ेदनों से निकाल कर तीनों प्रकार के बाहर रखे बिंस में स्थानांतरित कर देना होता है, जिसे वे निर्धारित दिन पर आकर एक-एक कर अलग-अलग ले जाती हैं।
इसके अलावा, पुराने कपड़े, बिजली का सामान, पॉलिथीन थैलियां, बैटरियां और घरेलू वस्तुएं-जैसे फर्नीचर, टीवी, इलेक्ट्रॉनिक सामग्री, जूते, कांच वगैरह को एक निश्चित स्थान पर पहुंचाने की जिम्मेदारी स्वयं नागरिक की होती है। बड़ी चीजों को कचरे में फेंकने के लिए उलटे शुल्क भी देना पड़ता है। इस पूरी प्रक्रिया की वजह से लोगों में कचरे के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता बनी रहती है। जबकि ध्यान देने की बात यह भी है कि यूरोप वगैरह के देश ठंडे हैं और यहां ठंडक के कारण रासायनिक प्रकिया बहुत धीमे होता है। इसलिए कचरा सड़ने की गति बहुत कम है, इसलिए भारत की तरह बदबू और रोगों का अनुपात भी कम। ऐसा होने के बावजूद विकसित देशों की कचरे के प्रति यह अत्यधिक जागरूकता देश के वातावरण और नागरिकों को ही नहीं, बल्कि पर्यावरण और प्रकृति को भी बहुत संबल देती हैं।
स्वच्छता का सबसे कारगर ढंग होता है कि गंदगी कम से कम की जाए। अगर एक व्यक्ति किसी स्थान पर दिन-भर कुछ न कुछ गिराता-फैलाता रहे और दूसरा व्यक्ति पूरा दिन झाड़ू लेकर वहां सफाई भी करता रहे, तब भी वह स्थान कभी साफ नहीं हो सकता। इसलिए, स्वच्छता का पहला नियम ही यह है कि गंदगी कम से कम की जाए। इसे व्यवहार में लाने के ले हर नागरिक में स्वच्छता का संस्कार और गंदगी के प्रति वितृष्णा का भाव उत्पन्न होना अनिवार्य है। आधुनिक उन्नत देशों में एक छोटा-सा बच्चा भी गंदगी न करने के प्रति इतना सचेत और प्रशिक्षित होता है कि देखते ही बनता है। मैंने डेढ़ साल के बच्चे को उसके माता-पिता द्वारा बिखेरे फल की छिलकों को उठाकर दूर जाकर डिब्बे में डालते देखा है। अपने परिवेश के प्रति ऐसी चेतना भारतीय परिवारों में नाममात्र की है। वहां गंदगी तो परिवार और समाज का हर सदस्य धड़ल्ले से फैला सकता है, लेकिन सफाई का दायित्व बहुधा गृहणियों और सफाई कर्मचारियों का ही होता है। इसलिए सबसे पहले तो भारत में कचरा प्रबंधन के लिए लोगों में इस आदत के विरोध में जागरूकता पैदा करनी होगी स्वच्छता ‘सफाई करने’ से होती है। उन्हें यह संस्कार बचपन ही से ग्रहण करना होगा कि स्वच्छता ‘गंदगी न करने’ से होती है। ‘सफाई करने’ और ‘गंदगी न करने’ में बड़ा भारी अंतर है।
विकसित देशों की जिस व्यवस्था, सफाई, हरितिमा, पर्यावरण की शुद्धता वगैरह की प्रशंसा होती है और जिसका आकर्षण आम भारतीय सहित किसी अन्य एशियाई या (दूसरों) के मन में भी जगता है, वे लोग स्वयं भी संस्कार के रूप में अंकित, गंदगी फैलाते चले जाने वाले अपने अभ्यास से, विकसित देशों में रहने के बावजूद मुक्त नहीं हो पाते हैं और उन देशों की व्यवस्था को लुके-छिपे बिगाड़ते हैं, ऐसे लोग सार्वजनिक रूप से भले व्यवस्था भंग करने का दुस्साहस नहीं कर पाते, लेकिन अपने देश, लौटने पर फिर आचरण में वही ढिलाई बरतते हैं।
अब रही कचरा प्रबंधन के तरीकों को अपनाए जाने की बात। यह ‘अपनाया जाना’ भारतीय परिवेश में (ऊपर बताए कारण के चलते भी) बहुत संभव नहीं दिखता, क्योंकि लोग इस सारी जिम्मेदारी से बचने के लिए कचरे को नदी-नालों में फेंक देते हैं, देंगे। यही मानसिकता सबसे बड़ा अवरोध है, किसी भी स्वच्छता के इच्छुक समाज, व्यवस्था, देश या संस्था के लिए। दूसरा अवरोध एक और है। यहां विकसित देशों में प्रत्येक वस्तु और पदार्थ पैकेट, कंटेनर, कार्टन में बंद मिलते हैं और उस पर अंकित होता है कि उसकी पैकिंग और उस पदार्थ-वस्तु के किस-किस कचरा विभाग में डालना है। भारत में लोगों को कचरे के सही विभाग का यह निर्णय लेने के लिए न्यूनतम शिक्षा, जानकारी और जागरूकता तो चाहिए ही, साथ ही जीवन में इस्तेमाल होने वाली हर वस्तु और उत्पाद से जुड़े घटकों पर यह अंकित होना निर्माण के समय से ही जरूरी है कि उनका अंत क्या हो, कैसे हो, कहां हो। सरकार उत्पादनकर्ताओं पर ऐसा नियंत्रण और नियम लागू करेगी, यह संभव नहीं दिखता, उत्पाद खुले में मिलते हैं, उनका विसर्जन कैसे होगा- यह अलग नया विषय होगा।
बेंगलूर में कचरा प्रबंधन के लिए हालांकि, अच्छे निर्णय लिए गए हैं, लेकिन इसका नतीजा अभी भविष्य के पेट में है। अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि कुछ सालों में यह ठीक हो जाएगा। भारत में जो लोग जागरूक और सचेत हैं वे अपने तईं कचरे का नियमन कर सकते हैं। अपने वातावरण के प्रति जागरूकता प्रत्येक में होनी ही चाहिए... वर्ना पूरे देश को कूड़े के ढेर में बदलने में समय ही कितना लगता है? विदेश में रहने वालों के लिए इसीलिए भारत को देखना बहुधा असह्य हो जाता है और हास्यास्पद भी। प्रकृति की ओर से जिस देश को सर्वाधिक संसाधन और सौगात मिली है, प्रकृति ने जिसे सबसे अधिक संपन्न और तराशे हुए रूप के साथ बनाया है, वह देश अगर पूरा का पूरा हर जगह कचरे के ढेर में बदल चुका है, सड़ता दिखता है तो उसका पूरा दायित्व केवल सरकार का नहीं, नागरिकों का भी है।
एक-एक व्यक्ति के थोड़े-से जिम्मेदार हो जाने से कितने-कितने लाभ हो सकते हैं यह साफ देखा जा सकता है। अन्यथा विधिवत विदेशी साहित्य और अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्मों- ऑस्कर विजेता ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ के साथ-साथ मीडिया में समूचे भारत को ‘सार्वजनिक शौचालय’ माना कहा जाता रहेगा। भावी पीढ़ियां कचरे के ढेर पर अपना जीवन बिताएंगी और उनके पास सांस लेने के लिए भी पर्याप्त साफ स्थान और वातावरण तक नहीं होगा। भारत में गंदगी का आलम यह है कि तीर्थस्थल और पर्यटन स्थल भी इससे बचे नहीं हैं। 2010 के अंत में हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में कुल्लू से 45 किलोमीटर दूर और मनाली से आगे पार्वती और व्यास नदियों के मध्य स्थित मणिकर्ण नामक अत्यधिक सुरम्य स्थल पर अत्यधिक उल्लास और चाव से यह लेखिका गई थी। लेकिन कार से बाहर पांव रखते ही ऐसा नजारा था कि पांव उतारने का भी मन नहीं होता था...सब ओर गंदगी के अंबार...उफ...उबकाई आ जाए। ऐसी स्थिति दूर-दूर तक थी। यह स्थल अपने गंधक के स्रोतों के कारण भी विश्व प्रसिद्ध है। नदी के एक किनारे पर स्थित पर्वत से खौलता हुआ ‘मिनरल वाटर’ बहता है जिसे नगर और होटलों वगैरह में स्नानादि के लिए भी धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है, जबकि उस पर्वत की तलहटी में बहती नदी का जल कल्पनातीत ढंग से बर्फीला और हाड़ कंपा देने वाला है। धार्मिक स्थल के रूप में भी इसका बड़ा माहात्म्य लोग सुनाते हैं।
लेकिन गंदगी में डूबे इस स्थल की प्राकृतिक संपदा और पर्यावरण की स्थिति को देख कर त्रस्त हो उठी थी। ऐसी ही स्थिति चामुंडा, धर्मशाला, मैक्लोडगंज और धौलाधार पर्वतमाला के आसपास के अन्य क्षेत्रों में थी। ये वे क्षेत्र हैं जो प्राकृतिक सुषमा की दृष्टि से अद्भुत हैं और हमारे जलस्रोत यहां से प्रारम्भ होते हैं। मैंने प्रत्यक्ष देखा की हमारी नदियां, हमारे जलस्रोत, अपने स्रोत स्थल पर ही प्रदूषण और गंदगी से अटे पड़े हैं। बाढ़ आदि विभीषिकाएं कालांतर में इसी का प्रतिफल हैं। पॉलीथिन वगैरह के प्रयोग और विसर्जन और रि-साइकिल हो सकने वाली वस्तुओं को गंदगी में फेंक कर दो-तरफा नुकसान किया जा रहा है। वृक्षों की कटाई का एक बड़ा पक्ष भी इस से जुड़ा है।
जब हिमालय की तराई के क्षेत्रों की जहां जनसंख्या और उसका घनत्व कम है यह स्थिति है तो भारत के नगरों की दयनीय स्थिति पर खुद ही सोचा जा सकता है। कोई ऐसी जगह नहीं सूझ रहा जहां स्थिति दूभर न हो। उत्तर भारत का हाल तो भयावह है ही, दक्षिण भारत में भी स्थिति ठीक नहीं है। ऐसे-ऐसे नजारे देखने को मिलते हैं कि उबकाई आ जाए। देश में सर्वाधिक स्वच्छ नगर की उपाधि पाने वाले हैदराबाद, सिकंदराबाद जैसे महानगरों के आधुनिक परिवेश वाले स्थलों पर भी गंदगी के अंबार लगे होते हैं। सार्वजनिक मूत्रालयों को देखिए तो दूर तक गंदगी बिखरी मिलेगी। पीक और थूक का हर जगह ऐसा कहर दिखेगा कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। दुर्गंध और गंदगी से भभकते-खौलते सार्वजनिक कूड़ेदानों से बाहर तक फैली गंदगी में कुत्तों का मुंह मारते मचाया जाने वाला उत्पात असहनीय कहा जा सकता है।
इसी कूड़ा कचरा अव्यवस्था या अप्रबंधन के चलते कचरा बीनने वाले बच्चों का जीवन नष्ट हो जाता है। दिल्ली में एक युवक ने सप्रमाण पुष्टि की कि जब उसने एक कॉलोनी में साफ-सफाई के लिए अभियान चलाया तो एक माफिया ने से जान से मार देने की धमकियां दीं, क्योंकि बच्चों को चुराने और चुराकर उन्हें कचरे के ढेरों में झोंकने और फिर आगे कॉलोनियों में चोरी और हत्या आदि तक, इसी प्रक्रिया के माध्यम से सिरे तक पहुंचाए जाते हैं। पूरे अपराध-रैकेट इससे संबद्ध और इस पर केंद्रित होकर गतिशील रहते हैं। इस तरह की गतिविधियों में कितनों का जीवन तबाह और बर्बाद हो जाता है। दूसरी ओर अगर इसी कचरे का सही प्रबंधन किया जाए तो देश को कितने प्राकृतिक उर्वरक मिल सकते हैं और रि-साइकिल हो सकने वाली वस्तुओं के सही प्रयोग द्वारा कितनी राष्ट्रीय क्षति बचाई जा सकती हैं। पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा और उनके क्षय पर रोक भी लगेगी। स्वास्थ्य और जीवन रक्षक दवाओं पर होने वाला खर्च कम होगा, व्यक्ति का शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य उत्तरोत्तर सुधरेगा... विदेशी पर्यटकों की संख्या बढ़ेगी और इससे विदेशी पूंजी भी। देश की छवि जो सुधरेगी वह एक अतिरिक्त लाभ होगा।
एक-एक व्यक्ति के थोड़े-से जिम्मेदार हो जाने से कितने-कितने लाभ हो सकते हैं...यह साफ देखा जा सकता है। अन्यथा विधिवत विदेशी साहित्य और अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्मों – ऑस्कर विजेता ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ के साथ-साथ मीडिया में समूचे भारत को ‘सार्वजनिक शौचालय’ माना कहा जाता रहेगा। भावी पीढ़ियां कचरे के ढेर पर अपना जीवन बिताएंगी और उनके पास सांस लेने के लिए भी पर्याप्त साफ स्थान और वातावरण तक नहीं होगा। अच्छे स्थलों की खोज के कुछ वक्त के लिए अमीर तो विदेश घूम आएंगे, लेकिन मध्यमवर्ग और शेष समाज उसी त्राहि-त्राहि में जीवन जीने की शापित रहेगा। कचरे से उपजी विपदा की वजह से भारत एक गंभीर खतरे की कगार और विस्फोट के ढेर पर बैठा है। सोचना आपको है, निर्णय आपका! क्या देना चाहते हैं अपने बच्चों को विरासत में? केवल कूड़े-कचरे की विरासत और गंदगी का साम्राज्य! जो स्वयं, की भी हो जाने वाले विस्फोट पर टिका है।
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