तापमान बढे़गा, तो जैविक कचरे में सड़न की प्रक्रिया और तीव्र होगी। जैविक कचरा कम-से-कम समय में निष्पादित करने का कौशल अपनाना होगा; क्षमता बढ़ानी होगी। क्या उत्सर्जन रोकने का दावा पेश करने वाली सरकार इस बारे में भी कुछ सोच रही है? भारत सरकार का स्वच्छ भारत अभियान, क्या इस दिशा में भी कुछ हौसला दिखाएगा या शौचालय ही बनाता रह जायेगा? अभी तक का परिदृश्य सन्तोषजनक नहीं है। हमने कचरा प्रबन्धन के नाम पर कई नारे गढे; किन्तु हम कचरा कम करने की बजाय, बढ़ाने वाले साबित हो रहे हैं। गर्म प्रदूषक गैसें, कचरे से पैदा होती हैं। कचरा चाहे, तरल हो या ठोस; पानी में हो या तैलीय ईंधन में अथवा कोयले में। तपन, जलन, सड़न और दाब: ये चार प्रक्रिया, गैस की उत्पत्ति का माध्यम बनती हैं।
इसका मतलब है कि कचरा बढ़ने से भी उत्सर्जन बढ़ रहा है। ...तो क्या उत्सर्जन और तापमान बढ़ने से हवा-पानी में कचरा यानी प्रदूषक सामग्री भी बढ़ सकती है? जवाब है - हाँ; क्योंकि पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा जारी आँकड़े और समुद्री परिदृश्य तो यही कह रहे हैं।
आँकड़े बता रहे हैं कि 25 नवम्बर को कार्तिक पूर्णिमा के चलते काशी, कानपुर, गाज़ियाबाद आदि में देवदीपावली मनाई गई, किन्तु दिल्ली में ऐसा कुछ नहीं हुआ।
दिल्ली में न कोई व्यापक आतिशबाजी हुई और न अतिरिक्त प्रदूषण का कोई नया स्रोत दिखा, बावजूद इसके दिल्ली के वायुमंडल में प्रदूषण सामान्य से काफी अधिक दिखाई दिया - पी एम 10 का स्तर 382.9 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर, पी एम 2.5 का स्तर 234.4 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर। 26 नवम्बर को इसमें और वृद्धि हुई।
विचारने का विषय यह है कि प्रदूषण का यह स्तर दीवाली के दिन हुई व्यापक आतिशबाजी के परिणामस्वरूप बढ़े प्रदूषण स्तर से भी अधिक है। दीवाली के अगले दिन 12 नवम्बर को पी एम 10 का स्तर 376.5 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर तथा पी एम 2.5 का स्तर 229.5 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर पाया गया था। यह क्यों हुआ?
विज्ञान पर्यावरण केन्द्र ने तलाशा, तो हवा की रफ्तार काफी कम पाई। केन्द्र ने यह भी पाया कि तापमान कभी उतर रहा है और कभी चढ़ रहा है। मौसम विभाग के मुताबिक न्यूनतम और अधिकतम दोनों तापमान में सामान्य से एक-एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पाई गई।
पश्चिमी विक्षोभ के चलते पहाड़ों में बूँदाबाँदी हो रही है, किन्तु 25-26-27 नवम्बर की तारीखों में दिल्ली का औसतन तापमान बढ़ रहा है यानी मौसम अपने रुख में अस्थिरता दिखा रहा है। विशेषज्ञ मत है कि यह अस्थिरता खतरनाक है। इसी के कारण वाहनों से निकले उत्सर्जन को वायुमंडल में पूरी तरह घुलने का मौका मिल रहा है। यही 25 नवम्बर को दिल्ली के वायुमंडल में प्रदूषण वृद्धि का प्रमुख कारण है।
नवम्बर के महीने में इस तरह की मौसमी अस्थिरता एक तरह का अपवाद है। यह अपवाद, आगे अपवाद न होकर, नियमित क्रम हो सकता है। यह अस्थिरता आगे और बढ़ सकती है। प्रदूषण नियंत्रकों के लिये यह विशेष चिन्ता का विषय होनी चाहिए। क्यों? क्योंकि दुनिया में 40 प्रतिशत मौत पानी, मिट्टी और हवा में बढ़ आये प्रदूषण की वजह से हो रही हैं।
भारत में हर रोज करीब 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा पहले से ही होता है। इलेक्ट्रानिक कचरा, वायु प्रदूषण बढ़ाने वाला एक नया प्रदूषक बनकर इन मौतों को और बढ़ाएगा।
कहते हैं कि बिना शोधन किये, ई कचरा और रासायनिक कचरे का निष्पादन नहीं करना चाहिए। ऐसा न करने पर, ऐसी जगहों पर अगले 15 साल तक गैसों के अलावा घुलनशील नाईट्रेट आदि प्रदूषण कारक तत्वों का उत्सर्जन होता रहता है। अन्ततः यह उत्सर्जन वायुमंडल में ही हो रहा है।
जैविक कचरे पर क्या असर होगा? फ्रिज में रहने पर भोजन सामग्री, सामान्य से अधिक समय तक खराब नहीं होती। यह हम जानते हैं। अणु, परमाणु की तरह जीवाणु, विषाणु, कीटाणु से हम परिचित हैं। गर्मी में इनकी प्रजनन दर बढ़ जाती है। यह भी हम जानते हैं।
स्पष्ट है कि तापमान बढे़गा, तो जैविक कचरे में सड़न की प्रक्रिया और तीव्र होगी। जैविक कचरा कम-से-कम समय में निष्पादित करने का कौशल अपनाना होगा; क्षमता बढ़ानी होगी। क्या उत्सर्जन रोकने का दावा पेश करने वाली सरकार इस बारे में भी कुछ सोच रही है?
भारत सरकार का स्वच्छ भारत अभियान, क्या इस दिशा में भी कुछ हौसला दिखाएगा या शौचालय ही बनाता रह जायेगा? अभी तक का परिदृश्य सन्तोषजनक नहीं है। हमने कचरा प्रबन्धन के नाम पर कई नारे गढे; किन्तु हम कचरा कम करने की बजाय, बढ़ाने वाले साबित हो रहे हैं। कचरे के पुनर्चक्रीकरण यानी रिसाइक्लिंग की हमारी रफ्तार अत्यन्त धीमी है।
अभी हम कुल कचरे की मात्र एक प्रतिशत मात्रा को रिसाइकल कर पा रहे हैं। यह परिदृश्य चिन्तित करता है। हम चिन्तित हों, चिन्तन करें और क्रियान्वयन करें।
गौर करें कि कुदरत का कैलेंडर से, विश्व मौसम संगठन के आकलन का कैलेंडर छोटा है। इसलिये विश्व मौसम संगठन ने वर्ष 2015 को अब तक का सबसे गर्म वर्ष करार दिया है।
मनुस्मृति का प्रलयखण्ड पढ़ा होता, तो शायद वह ऐसा न करता; फिर भी विश्व मौसम संगठन के रिकॉर्ड का सबसे गर्म वर्ष तो 2015 ही है; 19वीं शताब्दी के औसत तापमान की तुलना में एक डिग्री सेल्सियस अधिक! गौर कीजिए कि पृथ्वी पर जीवन के लिये इस एक डिग्री की वृद्धि का बहुत मायने है। वायुमंडल की 90 प्रतिशत गर्मी सोखने का काम महासागर ही करते हैं।
कार्बन अवशोषण में मानव की सीधी भूमिका भले ही 10 प्रतिशत दिखती हो, किन्तु मूूँगा भित्तियों के नाश का कारण ढूँढेगे, तो यह भूमिका पूरे 100 फीसदी अवशोषण में दिखेगी। खैर, इस एक डिग्री के बढ़ने से महासागरों में उथल-पुथल मच गई है।
2015 के पहले छह महीने का महासागरीय तापमान, 1993 से लेकर अब तक के किसी भी वर्ष के पहले छह माह की तुलना में ज्यादा हो गया है। जलवायु परिवर्तन पर बनाई एक इंटर गवर्नमेंटल पैनल (आईपीसीसी) के अनुसार, इस सदी में धरती का तापमान में 1.4 से लेकर 5.8 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है। इससे ध्रुवों और ग्लेशियरों से बर्फ पिघलने की रफ्तार बढे़गी।
अन्दाजा लगाया गया है कि बर्फों के पिघलने के असर को न जोड़ा जाये, तो महज इस तापमान वृद्धि के सीधे असर के कारण ही समुद्रों का तापमान 35 इंच तक बढ़ सकता है। तापमान यदि सचमुच यह आँकड़ा छूने में सफल रहा, तो समुद्री चक्रवातों की संख्या और बढ़ेगी।
हिन्द महासागर से लेकर प्रशान्त महासागर तक सुन्दरबन, बांग्लादेश, मिस्र और अमेरिका के फ्लोरिडा जैसे निचले प्रान्त सबसे पहले इसका ख़ामियाज़ा भुगतेंगे। बांग्लादेश का लगभग 15 फीसदी और हमारे शानदार सुन्दरबन का तो लगभग पूरा क्षेत्रफल ही पानी में डूब जाएगा।
हालांकि भारतीय महासागर में समुद्र तल में बढ़ोत्तरी को लेकर भारत के पृथ्वी विज्ञान विभाग मंत्रालय का मानना है कि इसका कारण जलवायु परिवर्तन या तापमान वृद्धि ही है; यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। अटकलें लगाई जा रही हैं कि यह नदियों में पानी बढ़ने अथवा भूकम्प के कारण समुद्री बेसिन में सिकुड़न की वजह से भी हो सकता है। इसका कारण प्रत्येक साढ़े 18 वर्ष में आने वाला टाइड भी हो सकता है, किन्तु समुद्रों का सामने दिख रहा सच कुछ और नहीं हो सकता।
जमे हुए ग्रीनलैंड की बर्फ भी अब पिघलने लगी है। हिमालयी ग्लेशियरों का 2077 वर्ग किलोमीटर का रकबा पिछले 50 वर्षों में 500 वर्ग किमी घट गया है। पिछले दशक की तुलना में धरती के समुद्रों का तल भी 6 से 8 इंच बढ़ गया है। समुद्रों का तल 6 से 8 इंच बढ़ने की खबर का असर, भारत के सुन्दरबन से लेकर पश्चिमी घाटों तक नुमाया हो गया है।
समुद्र हर बरस हमारे और करीब आता जा रहा है। इसका मतलब है कि समुद्र फैल रहा है। इसका यह भी मतलब है कि उसका जलस्तर बढ़ रहा है; मुम्बई, विशाखापतनम, कोचीन और सुन्दरबन में क्रमशः 0.8, 0.9, 1.2 और 3.14 मिलीमीटर प्रतिवर्ष। इसका मतलब है कि भारतीय समुद्र के जलस्तर में प्रतिवर्ष औसतन 1.29 मिमी की बढ़ोत्तरी हो रही है। करीब 13 साल पहले प्रशान्त महासागर के एक टापू किरीबाटी को हम समुद्र में खो चुके हैं।
ताज्जुब नहीं कि वनुबाटू द्वीप के लोग द्वीप छोड़ने को विवश हुए। न्यू गिनी के लोगों को भी एक टापू से पलायन करना पड़ा। भारत के सुन्दरबन इलाके में स्थित लोहाचारा टापू भी आखिरकार डूब ही गया। जिस अमेरिका में पहले वर्ष में 5-7 समुद्री चक्रवात का औसत था, उसकी संख्या 25 से 30 हो गई है। न्यू आर्लियेंस नामक शहर ऐसे ही चक्रवात में नेस्तनाबूद हो गया। क्या सुनामी, समुद्री चक्रवातों की आवृत्ति और समुद्र के जलस्तर में वृद्धि के संकेतों को हम नजरअन्दाज कर सकते हैं?
तिब्बत में हर दस साल में 0.3 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ रहा है और चीन, 2015 का सबसे गर्म देश घोषित कर दिया गया है; पनबिजली बाँधों के कारण डेल्टा बढ़ रहे हैं। समुद्र के काम में खलल पड़ रहा है; बावजूद इसके चीन क्या कर रहा है?
‘इंटरनेशनल रिवर्स’ नामक संगठन के मुताबिक, चीन तिब्बत से सागर तक जाने वाली 5000 किलोमीटर लंबी मेकांग नदी पर 6 मेगा बाँध बना चुका है, 14 और की योजना बना रहा है। इसी तर्ज पर लाओस, कम्बोडिया, थाईलैंड और वियतनाम भी लोअर मेकांग पर बाँधों की शृंखला बनाने की सोच रहे हैं। भारत भी अपनी हिमालयी नदियों पर यही कर रहा है।
हमारा कचरा और हमारे कृत्य मिलकर, हमारे पानी, मिट्टी, वायु और शरीर को विष से भर देंगे। जलवायु परिवर्तन, इसमें सहायक होगा। यह चित्र साफ है; फिर भी सोच नहीं रहे। आइए, इस अन्तर्सम्बन्ध के बारे में सोचें और कचरा, समुद्र, नदी और अपनी जीवनशैली में सन्तुलन साधने के प्रयास तेज कर दें। जलवायु परिवर्तन के समुद्री और हवाई परिदृश्य का सबक फिलहाल यही है।
इसका मतलब है कि कचरा बढ़ने से भी उत्सर्जन बढ़ रहा है। ...तो क्या उत्सर्जन और तापमान बढ़ने से हवा-पानी में कचरा यानी प्रदूषक सामग्री भी बढ़ सकती है? जवाब है - हाँ; क्योंकि पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा जारी आँकड़े और समुद्री परिदृश्य तो यही कह रहे हैं।
आँकड़े बता रहे हैं कि 25 नवम्बर को कार्तिक पूर्णिमा के चलते काशी, कानपुर, गाज़ियाबाद आदि में देवदीपावली मनाई गई, किन्तु दिल्ली में ऐसा कुछ नहीं हुआ।
दिल्ली में न कोई व्यापक आतिशबाजी हुई और न अतिरिक्त प्रदूषण का कोई नया स्रोत दिखा, बावजूद इसके दिल्ली के वायुमंडल में प्रदूषण सामान्य से काफी अधिक दिखाई दिया - पी एम 10 का स्तर 382.9 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर, पी एम 2.5 का स्तर 234.4 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर। 26 नवम्बर को इसमें और वृद्धि हुई।
विचारने का विषय यह है कि प्रदूषण का यह स्तर दीवाली के दिन हुई व्यापक आतिशबाजी के परिणामस्वरूप बढ़े प्रदूषण स्तर से भी अधिक है। दीवाली के अगले दिन 12 नवम्बर को पी एम 10 का स्तर 376.5 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर तथा पी एम 2.5 का स्तर 229.5 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर पाया गया था। यह क्यों हुआ?
वायु प्रदूषण रही है, मौसमी अस्थिरता
विज्ञान पर्यावरण केन्द्र ने तलाशा, तो हवा की रफ्तार काफी कम पाई। केन्द्र ने यह भी पाया कि तापमान कभी उतर रहा है और कभी चढ़ रहा है। मौसम विभाग के मुताबिक न्यूनतम और अधिकतम दोनों तापमान में सामान्य से एक-एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पाई गई।
पश्चिमी विक्षोभ के चलते पहाड़ों में बूँदाबाँदी हो रही है, किन्तु 25-26-27 नवम्बर की तारीखों में दिल्ली का औसतन तापमान बढ़ रहा है यानी मौसम अपने रुख में अस्थिरता दिखा रहा है। विशेषज्ञ मत है कि यह अस्थिरता खतरनाक है। इसी के कारण वाहनों से निकले उत्सर्जन को वायुमंडल में पूरी तरह घुलने का मौका मिल रहा है। यही 25 नवम्बर को दिल्ली के वायुमंडल में प्रदूषण वृद्धि का प्रमुख कारण है।
चिन्तित हों कचरा-प्रदूषण नियंत्रक
नवम्बर के महीने में इस तरह की मौसमी अस्थिरता एक तरह का अपवाद है। यह अपवाद, आगे अपवाद न होकर, नियमित क्रम हो सकता है। यह अस्थिरता आगे और बढ़ सकती है। प्रदूषण नियंत्रकों के लिये यह विशेष चिन्ता का विषय होनी चाहिए। क्यों? क्योंकि दुनिया में 40 प्रतिशत मौत पानी, मिट्टी और हवा में बढ़ आये प्रदूषण की वजह से हो रही हैं।
भारत में हर रोज करीब 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा पहले से ही होता है। इलेक्ट्रानिक कचरा, वायु प्रदूषण बढ़ाने वाला एक नया प्रदूषक बनकर इन मौतों को और बढ़ाएगा।
कहते हैं कि बिना शोधन किये, ई कचरा और रासायनिक कचरे का निष्पादन नहीं करना चाहिए। ऐसा न करने पर, ऐसी जगहों पर अगले 15 साल तक गैसों के अलावा घुलनशील नाईट्रेट आदि प्रदूषण कारक तत्वों का उत्सर्जन होता रहता है। अन्ततः यह उत्सर्जन वायुमंडल में ही हो रहा है।
जैविक कचरे पर क्या असर होगा? फ्रिज में रहने पर भोजन सामग्री, सामान्य से अधिक समय तक खराब नहीं होती। यह हम जानते हैं। अणु, परमाणु की तरह जीवाणु, विषाणु, कीटाणु से हम परिचित हैं। गर्मी में इनकी प्रजनन दर बढ़ जाती है। यह भी हम जानते हैं।
स्पष्ट है कि तापमान बढे़गा, तो जैविक कचरे में सड़न की प्रक्रिया और तीव्र होगी। जैविक कचरा कम-से-कम समय में निष्पादित करने का कौशल अपनाना होगा; क्षमता बढ़ानी होगी। क्या उत्सर्जन रोकने का दावा पेश करने वाली सरकार इस बारे में भी कुछ सोच रही है?
भारत सरकार का स्वच्छ भारत अभियान, क्या इस दिशा में भी कुछ हौसला दिखाएगा या शौचालय ही बनाता रह जायेगा? अभी तक का परिदृश्य सन्तोषजनक नहीं है। हमने कचरा प्रबन्धन के नाम पर कई नारे गढे; किन्तु हम कचरा कम करने की बजाय, बढ़ाने वाले साबित हो रहे हैं। कचरे के पुनर्चक्रीकरण यानी रिसाइक्लिंग की हमारी रफ्तार अत्यन्त धीमी है।
अभी हम कुल कचरे की मात्र एक प्रतिशत मात्रा को रिसाइकल कर पा रहे हैं। यह परिदृश्य चिन्तित करता है। हम चिन्तित हों, चिन्तन करें और क्रियान्वयन करें।
गौर करें कि कुदरत का कैलेंडर से, विश्व मौसम संगठन के आकलन का कैलेंडर छोटा है। इसलिये विश्व मौसम संगठन ने वर्ष 2015 को अब तक का सबसे गर्म वर्ष करार दिया है।
मनुस्मृति का प्रलयखण्ड पढ़ा होता, तो शायद वह ऐसा न करता; फिर भी विश्व मौसम संगठन के रिकॉर्ड का सबसे गर्म वर्ष तो 2015 ही है; 19वीं शताब्दी के औसत तापमान की तुलना में एक डिग्री सेल्सियस अधिक! गौर कीजिए कि पृथ्वी पर जीवन के लिये इस एक डिग्री की वृद्धि का बहुत मायने है। वायुमंडल की 90 प्रतिशत गर्मी सोखने का काम महासागर ही करते हैं।
कार्बन अवशोषण में मानव की सीधी भूमिका भले ही 10 प्रतिशत दिखती हो, किन्तु मूूँगा भित्तियों के नाश का कारण ढूँढेगे, तो यह भूमिका पूरे 100 फीसदी अवशोषण में दिखेगी। खैर, इस एक डिग्री के बढ़ने से महासागरों में उथल-पुथल मच गई है।
एक डिग्री वृद्धि का समुद्री मायने
2015 के पहले छह महीने का महासागरीय तापमान, 1993 से लेकर अब तक के किसी भी वर्ष के पहले छह माह की तुलना में ज्यादा हो गया है। जलवायु परिवर्तन पर बनाई एक इंटर गवर्नमेंटल पैनल (आईपीसीसी) के अनुसार, इस सदी में धरती का तापमान में 1.4 से लेकर 5.8 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है। इससे ध्रुवों और ग्लेशियरों से बर्फ पिघलने की रफ्तार बढे़गी।
अन्दाजा लगाया गया है कि बर्फों के पिघलने के असर को न जोड़ा जाये, तो महज इस तापमान वृद्धि के सीधे असर के कारण ही समुद्रों का तापमान 35 इंच तक बढ़ सकता है। तापमान यदि सचमुच यह आँकड़ा छूने में सफल रहा, तो समुद्री चक्रवातों की संख्या और बढ़ेगी।
हिन्द महासागर से लेकर प्रशान्त महासागर तक सुन्दरबन, बांग्लादेश, मिस्र और अमेरिका के फ्लोरिडा जैसे निचले प्रान्त सबसे पहले इसका ख़ामियाज़ा भुगतेंगे। बांग्लादेश का लगभग 15 फीसदी और हमारे शानदार सुन्दरबन का तो लगभग पूरा क्षेत्रफल ही पानी में डूब जाएगा।
हालांकि भारतीय महासागर में समुद्र तल में बढ़ोत्तरी को लेकर भारत के पृथ्वी विज्ञान विभाग मंत्रालय का मानना है कि इसका कारण जलवायु परिवर्तन या तापमान वृद्धि ही है; यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। अटकलें लगाई जा रही हैं कि यह नदियों में पानी बढ़ने अथवा भूकम्प के कारण समुद्री बेसिन में सिकुड़न की वजह से भी हो सकता है। इसका कारण प्रत्येक साढ़े 18 वर्ष में आने वाला टाइड भी हो सकता है, किन्तु समुद्रों का सामने दिख रहा सच कुछ और नहीं हो सकता।
जमे हुए ग्रीनलैंड की बर्फ भी अब पिघलने लगी है। हिमालयी ग्लेशियरों का 2077 वर्ग किलोमीटर का रकबा पिछले 50 वर्षों में 500 वर्ग किमी घट गया है। पिछले दशक की तुलना में धरती के समुद्रों का तल भी 6 से 8 इंच बढ़ गया है। समुद्रों का तल 6 से 8 इंच बढ़ने की खबर का असर, भारत के सुन्दरबन से लेकर पश्चिमी घाटों तक नुमाया हो गया है।
समुद्र हर बरस हमारे और करीब आता जा रहा है। इसका मतलब है कि समुद्र फैल रहा है। इसका यह भी मतलब है कि उसका जलस्तर बढ़ रहा है; मुम्बई, विशाखापतनम, कोचीन और सुन्दरबन में क्रमशः 0.8, 0.9, 1.2 और 3.14 मिलीमीटर प्रतिवर्ष। इसका मतलब है कि भारतीय समुद्र के जलस्तर में प्रतिवर्ष औसतन 1.29 मिमी की बढ़ोत्तरी हो रही है। करीब 13 साल पहले प्रशान्त महासागर के एक टापू किरीबाटी को हम समुद्र में खो चुके हैं।
ताज्जुब नहीं कि वनुबाटू द्वीप के लोग द्वीप छोड़ने को विवश हुए। न्यू गिनी के लोगों को भी एक टापू से पलायन करना पड़ा। भारत के सुन्दरबन इलाके में स्थित लोहाचारा टापू भी आखिरकार डूब ही गया। जिस अमेरिका में पहले वर्ष में 5-7 समुद्री चक्रवात का औसत था, उसकी संख्या 25 से 30 हो गई है। न्यू आर्लियेंस नामक शहर ऐसे ही चक्रवात में नेस्तनाबूद हो गया। क्या सुनामी, समुद्री चक्रवातों की आवृत्ति और समुद्र के जलस्तर में वृद्धि के संकेतों को हम नजरअन्दाज कर सकते हैं?
फिर भी जारी तथाकथित विकास
तिब्बत में हर दस साल में 0.3 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ रहा है और चीन, 2015 का सबसे गर्म देश घोषित कर दिया गया है; पनबिजली बाँधों के कारण डेल्टा बढ़ रहे हैं। समुद्र के काम में खलल पड़ रहा है; बावजूद इसके चीन क्या कर रहा है?
‘इंटरनेशनल रिवर्स’ नामक संगठन के मुताबिक, चीन तिब्बत से सागर तक जाने वाली 5000 किलोमीटर लंबी मेकांग नदी पर 6 मेगा बाँध बना चुका है, 14 और की योजना बना रहा है। इसी तर्ज पर लाओस, कम्बोडिया, थाईलैंड और वियतनाम भी लोअर मेकांग पर बाँधों की शृंखला बनाने की सोच रहे हैं। भारत भी अपनी हिमालयी नदियों पर यही कर रहा है।
सबक
हमारा कचरा और हमारे कृत्य मिलकर, हमारे पानी, मिट्टी, वायु और शरीर को विष से भर देंगे। जलवायु परिवर्तन, इसमें सहायक होगा। यह चित्र साफ है; फिर भी सोच नहीं रहे। आइए, इस अन्तर्सम्बन्ध के बारे में सोचें और कचरा, समुद्र, नदी और अपनी जीवनशैली में सन्तुलन साधने के प्रयास तेज कर दें। जलवायु परिवर्तन के समुद्री और हवाई परिदृश्य का सबक फिलहाल यही है।
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