कचरा: सभ्यता का हमसफर

यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो अनेक देशों ने पुर्नचक्रण को मान्यता दी है। वैसे जरूरी नहीं कि इसकी एकमात्र वजह पर्यावरण की बेहतरी ही हो। यह अनिवार्यता इसलिए भी बनती जा रही है, क्योंकि भूमि भराव वाली जमीनें बहुमूल्य हैं और इस प्रणाली में वास्तव में नागरिकों को ज्यादा लागत भुगतनी पड़ती है, क्योंकि बजाए इस भूमि से कुछ अर्जित करने के, इसमें कूड़ा करकट फेंका जाता है। कचरे से निपटने के प्रयत्न पिछले 5000 वर्षों से बदस्तूर जारी हैं। इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत में यह महामारी की तरह पांचों महाद्वीपों के प्रत्येक राष्ट्र में फैल रहा है। कुछ समृद्ध देश अपना कचरा गरीब देशों में फेंक रहे हैं। शहर अपना कचरा ट्रेचिंग ग्राउंड में फेंककर आसपास रह रहे गरीब लोगों का जीना मुहाल कर रहे हैं। जमीनों की बढ़ती कीमतों को धन्यवाद देना चाहिए, जिन्होंने ट्रेचिंग ग्राउंड के विकल्पों की ओर बढ़ने को प्रेरित किया है। अमेरिका के संस्थापकों में से एक बेंजामिन फ्रेंकलिन ने कहा था, जीवन में दो ही चीजें मृत्यु और कर सुनिश्चित हैं। लेकिन अब जीवन की तीसरी सुनिश्चितता कचरा बन गई है। हां वही बदबूदार पदार्थ जिसे हम अपनी निगाह और दिमाग से दूर रखना चाहते हैं, की ओर अब ध्यान देने की आवश्यकता है। डंपिंग या ट्रेचिंग ग्राउंड (जिस मैदान में कचरा फेंका जाता है) अपनी क्षमता पार कर रहे हैं और जलते हुए कचरे को लेकर बढ़ता विरोध अब भारत के लिए भी अनूठा नहीं रह गया है। कचरे को डंपिंग ग्राउंड तक ले जाने की अनाप-शनाप कीमतें वसूल करने के रहस्योद्घाटन और बढ़ता शुल्क भी चिंता के विषय हैं। (अपशिष्ट निपटान सुविधा और डंपिंग ग्राउंड प्रति टन के हिसाब से अपना शुल्क लेते हैं।)

आज से करीब 5000 वर्ष पहले ग्रीस के क्नोस्सोस में पहला भूमि भराव (लेंड फिल) स्थापित हुआ था। बड़े-बड़े गड्ढों में विशाल मात्रा में कचरा डाला जाता था फिर उसके ऊपर मिट्टी की परत बिछा दी जाती थी। तभी से भूमि भराव का विचार लोकप्रिय बना हुआ है। लेकिन आज इसकी वजह सिर्फ उपयोगिता नहीं बल्कि कचरे को ठिकाने लगाने के विकल्पों की कमी भी है। सवाल उठता है कि आखिर हम इस कचरे का क्या करें? इस नए युग में अपशिष्ट निपटान का विचार अनेक परीक्षणों और गलतियों से गुजरा है। सन् 1885 से 1908 के मध्य अमेरिका ने भस्मक के माध्यम से इस समस्या से निपटने का प्रयास किया। इन्हें उस समय विध्वंसक कहा जाता था। तब तकरीबन 200 भस्मक बनाए गए थे। सन् 1905 में तो न्यूयार्क शहर ने भस्मक का उपयोग इससे बिजली बनाकर विलियमबर्ग पुल को रोशन करने के लिए भी किया था। लेकिन सन् 1909 तक 180 में 102 भस्मक या तो बंद कर दिए गए या नष्ट कर दिए गए। इसकी एक वजह यह भी कि ये ठीक से बनाए ही नहीं गए थे और उनका उद्देश्य पूरा हो चुका था। दूसरा कारण संभवतः यह रहा होगा कि उस दौरान देश में बड़ी मात्रा में भूमि उपलब्ध रही होगी और वह आज के जितनी कीमत भी नहीं रखती होगी। अतएव डंपिंग ग्राउंड एक सस्ता विकल्प था। इसी के साथ शहरों के नजदीक दलदली इलाकों को पुनः प्राप्त (रिक्लेमिंग भराव के लिए एक आकर्षक शब्द) करने हेतु इन्हें कचरे से भरने को भी प्राथमिकता दी जाने लगी।

इसी बीच अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई तेजी ने उपभोक्ताओं को सिरमौर बना दिया और राष्ट्रपति आईजनहावर की आर्थिक सलाहकार परिषद ने घोषणा कर दी कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था का चरम उद्देश्य है अधिक से अधिक उपभ¨क्ता वस्तुओं का उत्पादन करना। इसी के साथ अधिक कचरा भी आया। 20वीं शताब्दी के पहले तीन दशकों में बड़ी मात्रा कागज, प्लास्टिक, टिन और एल्युमिनियम के पेकिंग सामग्री के रूप में प्रयोग में आने से अपशिष्ट प्रबंधन का झुकाव पुर्नचक्रण (रिसाइकलिंग) एवं कम्पोस्टिंग (खाद बनाने) की ओर हुआ। सन् 1976 में अमेरिका ने संसाधन संरक्षण एवं पुर्नप्राप्ति अधिनियम पारित किया। इसमें यह अनिवार्य किया गया था कि कूढ़े के ढेरों को सेनेटरी भूमि भराव से निपटाया जाए। इससे कचरे के निपटान की लागत में वृद्धि हुई और राज्य सरकारें संसाधन संरक्षण और पदार्थ की पुर्नप्राप्ति की ओर मुड़ीं।

यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो अनेक देशों ने पुर्नचक्रण को मान्यता दी है। वैसे जरूरी नहीं कि इसकी एकमात्र वजह पर्यावरण की बेहतरी ही हो। यह अनिवार्यता इसलिए भी बनती जा रही है, क्योंकि भूमि भराव वाली जमीनें बहुमूल्य हैं और इस प्रणाली में वास्तव में नागरिकों को ज्यादा लागत भुगतनी पड़ती है, क्योंकि बजाए इस भूमि से कुछ अर्जित करने के, इसमें कूड़ा करकट फेंका जाता है।

यूरोपीय यूनियन, उत्तरी अमेरिका और एशिया के कई क्षेत्रों में नागरिकों से ट्रक में फेंके गए कचरे की मात्रा के हिसाब से शुल्क वसूला जाता है। गौरतलब है कि वहां ऐसी अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाने लगा है, जिससे कि नागरिकों की किसी भी गलत क्रिया पर उन्हें दंडित किया जा सकता है और प्रत्येक रहवासी के कचरे की मात्रा को उस पर लगे टेग से रेडियो फ्रीक्वेंसी के माध्यम से तलाशा जा सकता है। इससे रहवासी इलाकों के कचरे में 10 से 40 प्रतिशत की कमी आई है और पुनर्चक्रण की दरों में 30 से 40 प्रतिशत तक की वृद्धि हो गई है।

स्पष्ट है कि लोगों से अनुरोध करना होगा कि वे कम कचरा पैदा करें और पुनर्चक्रण करें। केवल अच्छा महसूस (हम भारतीय ऐसा ही करते हैं) करने से बात नहीं बनेगी। सवाल उठता है कि यदि अत्यधिक पुनर्चक्रण (रिसायकलिंग) होगा, तो क्या होगा? पुर्नचक्रण उत्पाद बाजारों (हां ये अस्तित्व में हैं और ऐसे उत्पाद की कीमतों में वर्ष 2009 एवं 2012 के मध्य विश्वव्यापी कमी आई है।) फाजिल्स ईंधन की कीमतों में भी आई गिरावट से पुर्नचक्रित रेजिन की कीमतों में कमी आई। अमेरिका के रिसाइकलिंग उत्पाद बाजार में कारोगेटेड बक्सों (गत्ते के बक्से) की मांग एवं कीमतें बहुत निकटता से चीनी अर्थव्यवस्था से जुड़ी हुई हैं। जैसे ही अर्थव्यवस्था धीमी पड़ती है, मांग में कमी आ जाती है और कीमतें भी गिर जाती हैं। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि टेबलेट कम्प्यूटर की लोकप्रियता, ई-समाचार पत्र एवं ई-बिलिंग की वजह से समाचार पत्रों की रद्दी की कीमतें भी गिरेंगी। पुनर्चक्रण की मूल्य निर्धारण श्रृंखला विश्व अर्थव्यवस्था से निकटता से जुड़ी है। स्थानीय पुनर्चक्रण बाजार भी मांग और पूर्ति के सिद्धांत से जुड़े हैं। वैसे उन पर उतना बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। यदि इन रिसायकलिंग सुविधाओं को सीमित करने का प्रयास किया गया तो लोग वही करने लगेंगे, जो वह पहले करते थे। यानि पुर्नचक्रण हो सकने वाली वस्तुओं को भी वे डंपिंग ग्राउंड में भेजने लगेंगे।

इसका यह मतलब नहीं है कि पुर्नचक्रण खराब है या भूमि भराव (अव्यवस्थित या अंधाधुंध कूढ़ा फेंकना, अलग बात है) ही आखिरी विकल्प है। सरकारों को ऐसे अभिनव उपायों के बारे में सोचना चाहिए जिससे कि नागरिक (अधिकांशतः मजबूर) जिम्मेदारीपूर्वक अपने कचरे का प्रबंधन कर सकें। इसके लिए ठोस ज्ञान एवं दूरंदेशिता के साथ मजबूत इच्छाशक्ति का होना भी आवश्यक है।

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