1987 के विश्व बैंक के आंकड़ों के मुतबिक, दुनिया की आबादी का दो फीसदी भाग कचरा निपटान के धंधे में संलग्न है। 2010 में उन्होंने अपने एक अध्ययन में कामचलाऊ स्तर पर यह माना था कि भारत में कचरा उद्योग से जुड़े कुल बाल श्रमिकों की तादाद 15 लाख है। हाल ही में कूड़ा बीनने वाले किशोरों के एक समूह के साथ लगातार दो दिन तक हुई लंबी बातचीत के दौरान कुछ अद्भुत जानकारियों से दो-चार होने का मौका मिला। इन किशोरों में लड़के और लड़कियां दोनों ही शामिल थे। देश के किसी मेट्रो शहर के किशोर न होकर ये आगरा जैसी मध्यम श्रेणी की औद्योगिक बसावट वाले नगर के बच्चे थे। दूरदराज राज्यों या शहरों के प्रवासी न होकर ये सभी आगरा और आस-पास के कस्बों और देहातों से माता-पिता या अन्य परिजनों के साथ आकर बसने वाले किशोर थे, जो गुजरे 20-30 सालों में देश भर में कुकरमुत्ते की मानिंद उपजे इस उद्योग के साथ जुड़ गए हैं।
बातचीत में आधे से ज्यादा लड़कों ने बताया कि वे तकरीबन हर दिन एक या दो हिंदी फिल्में देखते हैं। मुंबईया ‘तिलिस्म’ के इन नए-नकोरे मुरीदों में कुछ तो शानदार अभिनय क्षमता वाले भी थे, जो बिना किसी प्रशिक्षण के क्षण भर में या तो सलमान खान बन जाते या अक्षय कुमार। इनके गलों से फिल्मी गानों के शानदार स्वर फूटते और कमर की लोच किसी भी सरोज खान को हैरत में डाल देने वाली थी। अफसोस महज इतना है कि इन्हें प्रशिक्षण देने के लिए इनके इर्द-गिर्द कोई छोटे या बड़े ‘एनएसडी’ या ‘एफटीटीआई’ नहीं खुले हैं जो इन्हें अपने यहां आकर्षित कर सकें! दूसरी तरफ समूह में मौजूद सभी 10 से 14 साल की लड़कियों का अपने जीवन में कभी सिनेमा न देख पाने का दर्द बयान करना, लिंग भेद के इस प्रकार के अंतर को जानने का मेरा अनोखा अनुभव था। क्या पता उनके भीतर भी आलिया भट्ट, दीपिका पादुकोन और विद्या बालन के दर्जनों अवतार छिपे हों।
यूं तो दुनिया में ही कचरा उद्योग से जुड़े कुल मजदूरों की तादाद के बारे में कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, भारत की कौन कहे। 1987 के विश्व बैंक के आंकड़ों के मुतबिक, दुनिया की आबादी का दो फीसदी भाग कचरा निपटान के धंधे में संलग्न है। 2010 में उन्होंने अपने एक अध्ययन में कामचलाऊ स्तर पर यह माना था कि भारत में कचरा उद्योग से जुड़े कुल बाल श्रमिकों की तादाद 15 लाख है। फिलहाल यह आंकड़ा 20 लाख के पार पहुंचना चाहिए लेकिन जानकारों की राय में यह संख्या दरअसल और बड़ी हो सकती है। मुद्दत से आंकलन किया जा रहा है कि 1987 और 2015 के बीच विश्व की शहरी आबादी दोगुनी हो जाएगी। इस आबादी का 90 प्रतिशत हिस्सा विकासशील देशों का होगा। इस आबादी का बड़ा हिस्सा मलिन बस्तियों में अपना ठिकाना बनाने को मजबूर है।
‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ की हैबिटेट आवासीय रिपोर्ट में माना गया है कि सात अरब से ज्यादा की दुनिया की एक तिहाई आबादी, ‘स्लम’ की दुनिया है। कचरा उद्योग में इस स्लम का योगदान दो स्तर पर है। एक ओर जहां इस आबादी में ताबड़तोड़ बढ़ोतरी कचरा बटोरने वाले श्रमिकों की तादाद बढ़ा रही है वहीं दूसरी तरफ कचरे की मात्रा में भी बेशुमार इजाफा कर रही है। दुनिया भर के शहरी प्रबंधन तंत्रों के पास कूड़ा निपटान का कोई पर्याप्त ‘इंफ्रास्ट्रक्चर’ मौजूद न होने के चलते आबादी की इस बेहिसाब वृद्धि ने अनौपचारिक कचरा उद्योग को फलने-फूलने में जबरदस्त मदद की है।
सारी दुनिया की नगरीय प्रबंधन एजेंसियां अपना 30 से 50 प्रतिशत बजट लगाने के बावजूद महज 50 प्रतिशत कचरे का ही निपटान कर पाती हैं, जबकि बाकी का निपटान कूड़ा उद्योग के इन्हीं ‘फौजियों’ के हाथ में है, जिनमें 60-65 फीसद वैसे ही बच्चे और किशोर हैं जिनसे मेरी मुलाकात हुई। भारत में पिछले तीन से पांच दशकों के बीच कृषिगत पेशों में आई जबरदस्त गिरावट, किसानी के लगातार टूटने और कृषि मजदूरों के बेरोजगार होने की सतत प्रक्रिया अकुशल श्रमिकों की जिस फौज को हर दिन निकटवर्ती शहरों में भेजती रहती है, ये किशोर उसी भीड़ के वंशज थे जिनसे मैं मिला था।
मुझे याद है कि जब कभी क्लास में मैडम बच्चों से ज्यादा लिखाई करवा लेतीं। नतीजतन भला-बुरा बड़बड़ाते स्कूल बस से उतर कर जब मेरे बेटे घर में दाखिल होते और अपने दुखते हाथ अपनी दादी को दिखाते तो सारा दिन और शाम अपने बगल में लिटा कर दादी उनके हाथों की मालिश करती रहतीं। 14 साल वाले ‘भसड़’ के हाथ लेकिन चुटियल हैं। कचरा बटोरते में उसका ध्यान चूका और कांच की टूटी बोतल भीतर धंस गई। उनके बीच काम कर रहे एनजीओ के ‘वॉलेंटियर्स’ ने आज चौथे दिन जबरदस्ती उसके हाथ में पट्टी बांध दी। भसड़ दो दिन से टालमटोल कर रहा था। पट्टी बंध जाने से कचरा बटोरने में व़क्त ज्यादा लगता है और शाम को ठेकेदार का भुगतान कम बनता है।
काम के दौरान कचरा बीनने वाले बच्चों का ज़ख्मी हो जाना एक आम बात है। इस बात के कोई राष्ट्रव्यापी आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन पुणे, बंगलुरू, नोएडा जैसी जगहों पर हुए कुछेक छुटपुट अध्ययन बताते हैं कि ये छोटे-बड़े जख्म उन्हें टेटनिस जैसी भयावह बीमारियों से गुजारकर मृत्युद्वार तक ले जाते हैं। उनके पीठ, कंधे, हाथ, बांह और पांव में दर्द का स्थायी भाव एक गंभीर बीमारी है, इसका पता ही उन्हें तब चल पाता है, जब स्वयंसेवी संगठनों के स्वास्थ्य शिविर में डॉक्टर उनकी जांच करते हैं। यह बात दीगर है कि इस जानकारी के हो जाने पर भी इनमें से ज्यादातर की जिंदगी उसी टूटी-फूटी ऱफ्तार से आगे भी चलती रहती है। ‘टॉक्सिक’ पदार्थों से सने कागजों, रसायनिकों की तलछट सहेजे डिब्बे और बोतल तथा संक्रमित सुइयां और सर्जरी वाले ब्लेड अल्पायु में ही उनका काम तमाम कर डालते हैं।
हमारे देश में ऐसा कोई अध्ययन उपलब्ध नहीं है लेकिन ब्राजील का उदाहरण ही दुनिया की तस्वीर दिखाने को काफी है। वहां युवा होने वाले औसत बच्चों और किशोरों की तुलना में कचरा बीनने वाले दो तिहाई बच्चे ही युवावस्था की दहलीज तक कदम रख पाते हैं। देश में बाल श्रमिकों की तादाद बढ़ाने में कचरा बीनने वाले इन बच्चों का सबसे बड़ा योगदान है। जिन हालात में वे गुजर-बसर करते हैं, सरस्वती का वास इनके यहां हो तो कैसे! मजदूरों और बाल मजदूरों की चिंता करती बहुत सी सरकारें आयीं और कुछ करे-धरे बिना चली गईं लेकिन कचरा बीनने वाले बच्चों और वयस्कों का तो किसी ने जिक्र करना भी जरूरी नहीं समझा।
भसड़ और उसके मित्रों के लिए यह बात कल्पना से परे है कि उनकी जिंदगी में कभी कोई रद्दोबदल हो सकती है। उनके लिए यह बात स्वीकार करना और भी ज्यादा बेमानी है कि इसके लिए पहले उन्हें, उन जैसे आगरा के दूसरे बच्चों के साथ एकजुट होना होगा, फिर आगरा के बच्चों को हिंदुस्तान के दूसरे बच्चों के साथ और सबसे अंत में हिन्दुस्तान के कचरा संसार से जुड़े बच्चों को सारी दुनिया के बच्चों के साथ मिलकर गोलबंद होना होगा। यह सही है कि आज की तारीख में दुनिया में कचरा बीनने वाले बच्चों के अंतरराष्ट्रीय संगठन अपने गठन की शुरुआती प्रक्रिया में हैं लेकिन बीसवीं सदी के 80 के दशक से पहले तो दुनिया में वयस्क कचरा बीनने वाले के भी कोई संगठन नहीं थे। भसड़ और उसके दोस्तों को कोई कैसे समझाए कि लैटिन अमेरिकी देशों में आज कचरा बीनने वालों की जिंदगी में तेजी से बदलाव आ रहे हैं। उनके बच्चे अब कचरा नहीं बीनते, स्कूल जाते हैं। ब्राजील, कोलम्बिया, अर्जेंटीना, चिली और उरुग्वे जैसे देशों के संगठनों की गूंज से समूचा अमेरिका और यूरोप थर्रा रहा है।
(लेखक वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी हैं।)
बातचीत में आधे से ज्यादा लड़कों ने बताया कि वे तकरीबन हर दिन एक या दो हिंदी फिल्में देखते हैं। मुंबईया ‘तिलिस्म’ के इन नए-नकोरे मुरीदों में कुछ तो शानदार अभिनय क्षमता वाले भी थे, जो बिना किसी प्रशिक्षण के क्षण भर में या तो सलमान खान बन जाते या अक्षय कुमार। इनके गलों से फिल्मी गानों के शानदार स्वर फूटते और कमर की लोच किसी भी सरोज खान को हैरत में डाल देने वाली थी। अफसोस महज इतना है कि इन्हें प्रशिक्षण देने के लिए इनके इर्द-गिर्द कोई छोटे या बड़े ‘एनएसडी’ या ‘एफटीटीआई’ नहीं खुले हैं जो इन्हें अपने यहां आकर्षित कर सकें! दूसरी तरफ समूह में मौजूद सभी 10 से 14 साल की लड़कियों का अपने जीवन में कभी सिनेमा न देख पाने का दर्द बयान करना, लिंग भेद के इस प्रकार के अंतर को जानने का मेरा अनोखा अनुभव था। क्या पता उनके भीतर भी आलिया भट्ट, दीपिका पादुकोन और विद्या बालन के दर्जनों अवतार छिपे हों।
यूं तो दुनिया में ही कचरा उद्योग से जुड़े कुल मजदूरों की तादाद के बारे में कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, भारत की कौन कहे। 1987 के विश्व बैंक के आंकड़ों के मुतबिक, दुनिया की आबादी का दो फीसदी भाग कचरा निपटान के धंधे में संलग्न है। 2010 में उन्होंने अपने एक अध्ययन में कामचलाऊ स्तर पर यह माना था कि भारत में कचरा उद्योग से जुड़े कुल बाल श्रमिकों की तादाद 15 लाख है। फिलहाल यह आंकड़ा 20 लाख के पार पहुंचना चाहिए लेकिन जानकारों की राय में यह संख्या दरअसल और बड़ी हो सकती है। मुद्दत से आंकलन किया जा रहा है कि 1987 और 2015 के बीच विश्व की शहरी आबादी दोगुनी हो जाएगी। इस आबादी का 90 प्रतिशत हिस्सा विकासशील देशों का होगा। इस आबादी का बड़ा हिस्सा मलिन बस्तियों में अपना ठिकाना बनाने को मजबूर है।
‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ की हैबिटेट आवासीय रिपोर्ट में माना गया है कि सात अरब से ज्यादा की दुनिया की एक तिहाई आबादी, ‘स्लम’ की दुनिया है। कचरा उद्योग में इस स्लम का योगदान दो स्तर पर है। एक ओर जहां इस आबादी में ताबड़तोड़ बढ़ोतरी कचरा बटोरने वाले श्रमिकों की तादाद बढ़ा रही है वहीं दूसरी तरफ कचरे की मात्रा में भी बेशुमार इजाफा कर रही है। दुनिया भर के शहरी प्रबंधन तंत्रों के पास कूड़ा निपटान का कोई पर्याप्त ‘इंफ्रास्ट्रक्चर’ मौजूद न होने के चलते आबादी की इस बेहिसाब वृद्धि ने अनौपचारिक कचरा उद्योग को फलने-फूलने में जबरदस्त मदद की है।
सारी दुनिया की नगरीय प्रबंधन एजेंसियां अपना 30 से 50 प्रतिशत बजट लगाने के बावजूद महज 50 प्रतिशत कचरे का ही निपटान कर पाती हैं, जबकि बाकी का निपटान कूड़ा उद्योग के इन्हीं ‘फौजियों’ के हाथ में है, जिनमें 60-65 फीसद वैसे ही बच्चे और किशोर हैं जिनसे मेरी मुलाकात हुई। भारत में पिछले तीन से पांच दशकों के बीच कृषिगत पेशों में आई जबरदस्त गिरावट, किसानी के लगातार टूटने और कृषि मजदूरों के बेरोजगार होने की सतत प्रक्रिया अकुशल श्रमिकों की जिस फौज को हर दिन निकटवर्ती शहरों में भेजती रहती है, ये किशोर उसी भीड़ के वंशज थे जिनसे मैं मिला था।
मुझे याद है कि जब कभी क्लास में मैडम बच्चों से ज्यादा लिखाई करवा लेतीं। नतीजतन भला-बुरा बड़बड़ाते स्कूल बस से उतर कर जब मेरे बेटे घर में दाखिल होते और अपने दुखते हाथ अपनी दादी को दिखाते तो सारा दिन और शाम अपने बगल में लिटा कर दादी उनके हाथों की मालिश करती रहतीं। 14 साल वाले ‘भसड़’ के हाथ लेकिन चुटियल हैं। कचरा बटोरते में उसका ध्यान चूका और कांच की टूटी बोतल भीतर धंस गई। उनके बीच काम कर रहे एनजीओ के ‘वॉलेंटियर्स’ ने आज चौथे दिन जबरदस्ती उसके हाथ में पट्टी बांध दी। भसड़ दो दिन से टालमटोल कर रहा था। पट्टी बंध जाने से कचरा बटोरने में व़क्त ज्यादा लगता है और शाम को ठेकेदार का भुगतान कम बनता है।
काम के दौरान कचरा बीनने वाले बच्चों का ज़ख्मी हो जाना एक आम बात है। इस बात के कोई राष्ट्रव्यापी आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन पुणे, बंगलुरू, नोएडा जैसी जगहों पर हुए कुछेक छुटपुट अध्ययन बताते हैं कि ये छोटे-बड़े जख्म उन्हें टेटनिस जैसी भयावह बीमारियों से गुजारकर मृत्युद्वार तक ले जाते हैं। उनके पीठ, कंधे, हाथ, बांह और पांव में दर्द का स्थायी भाव एक गंभीर बीमारी है, इसका पता ही उन्हें तब चल पाता है, जब स्वयंसेवी संगठनों के स्वास्थ्य शिविर में डॉक्टर उनकी जांच करते हैं। यह बात दीगर है कि इस जानकारी के हो जाने पर भी इनमें से ज्यादातर की जिंदगी उसी टूटी-फूटी ऱफ्तार से आगे भी चलती रहती है। ‘टॉक्सिक’ पदार्थों से सने कागजों, रसायनिकों की तलछट सहेजे डिब्बे और बोतल तथा संक्रमित सुइयां और सर्जरी वाले ब्लेड अल्पायु में ही उनका काम तमाम कर डालते हैं।
हमारे देश में ऐसा कोई अध्ययन उपलब्ध नहीं है लेकिन ब्राजील का उदाहरण ही दुनिया की तस्वीर दिखाने को काफी है। वहां युवा होने वाले औसत बच्चों और किशोरों की तुलना में कचरा बीनने वाले दो तिहाई बच्चे ही युवावस्था की दहलीज तक कदम रख पाते हैं। देश में बाल श्रमिकों की तादाद बढ़ाने में कचरा बीनने वाले इन बच्चों का सबसे बड़ा योगदान है। जिन हालात में वे गुजर-बसर करते हैं, सरस्वती का वास इनके यहां हो तो कैसे! मजदूरों और बाल मजदूरों की चिंता करती बहुत सी सरकारें आयीं और कुछ करे-धरे बिना चली गईं लेकिन कचरा बीनने वाले बच्चों और वयस्कों का तो किसी ने जिक्र करना भी जरूरी नहीं समझा।
भसड़ और उसके मित्रों के लिए यह बात कल्पना से परे है कि उनकी जिंदगी में कभी कोई रद्दोबदल हो सकती है। उनके लिए यह बात स्वीकार करना और भी ज्यादा बेमानी है कि इसके लिए पहले उन्हें, उन जैसे आगरा के दूसरे बच्चों के साथ एकजुट होना होगा, फिर आगरा के बच्चों को हिंदुस्तान के दूसरे बच्चों के साथ और सबसे अंत में हिन्दुस्तान के कचरा संसार से जुड़े बच्चों को सारी दुनिया के बच्चों के साथ मिलकर गोलबंद होना होगा। यह सही है कि आज की तारीख में दुनिया में कचरा बीनने वाले बच्चों के अंतरराष्ट्रीय संगठन अपने गठन की शुरुआती प्रक्रिया में हैं लेकिन बीसवीं सदी के 80 के दशक से पहले तो दुनिया में वयस्क कचरा बीनने वाले के भी कोई संगठन नहीं थे। भसड़ और उसके दोस्तों को कोई कैसे समझाए कि लैटिन अमेरिकी देशों में आज कचरा बीनने वालों की जिंदगी में तेजी से बदलाव आ रहे हैं। उनके बच्चे अब कचरा नहीं बीनते, स्कूल जाते हैं। ब्राजील, कोलम्बिया, अर्जेंटीना, चिली और उरुग्वे जैसे देशों के संगठनों की गूंज से समूचा अमेरिका और यूरोप थर्रा रहा है।
(लेखक वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी हैं।)
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