एक जीवन पद्धति से दूसरे में जाने-आने के मामले में नागा संन्यासी तो मिसाल ही कहे जाएंगे। भले ही ये गृहस्थ न हो लेकिन संन्यास में भी वैराग्य और विरोध के तेवर में आते जाते रहे हैं। तभी तो धर्म पर आंच आते ही इन्होंने हथियार उठाने और चलाने में कभी देर नहीं की। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मौजदू हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं। इन्होंने सैकड़ों वर्षों से धर्म की रक्षा में अपनी भूमिका निभाई है। कुंभ पर्व शताब्दियों से भारत के चार नगरों, जो कि चार दिशाओं में विभिन्न नदियों के किनारे बसे हैं, में मनाया जाता है। किंतु लिखित रूप में वेद, पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों को छोड़कर ऐतिहासिक और प्रामाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं। महंत लालपुरी जी ने अपनी पुस्तक दशनामनागा संन्यासी और श्री पंचायत अखाड़ महानिर्वाणी में कुंभ पर्व का विकास नाम अध्याय में लिखा है- कुंभ मेले के वर्तमान रूप में विकास के विषय में एक मत यह भी है कि भारतीय इतिहास के स्वर्णिम युग गुप्त साम्राज्य (320-600 ईस्वी) के समय, जैसे पुराणिक साहित्य पुनः संपादित वर्तमान रूप में आए। उसी प्रकार पुरण एवं ज्योतिष साहित्य के आधार पर कुंभ पर्वों के स्थान तथा काल स्थाई रूप से निर्णित होकर वर्तमान रूप में विकसित हुए। किंतु इसे केवल एक विचार ही माना जाएगा। कोई तथ्य पूर्ण या प्रामाणिक इतिहास वचन नहीं। कारण कि स्थान एवं काल का निर्णय गुप्त साम्राज्य के बहुत पहले से ही इसी रूप में चला आ रहा है, अतः इस संबंध में कुछ कहना व्यर्थ है। बल्कि इस विषय में गहन ऐतिहासिक खोज की आवश्यकता है। किंतु खेद का विषय तो यह है कि इतिहासकारों ने इसे मात्र साधु-संतों का मेला या पर्व मानकर दुर्लक्ष्य किया है।
कुछ लोग कुंभ पर्व की शुरुआत सम्राट हर्षवर्धन (सन् 612-647 ईस्वी) से मानते हैं। सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वर्णन में लिखा है- पांच साल तक संग्रह की हुई अपनी सारी संपत्ति को राजा शीलादित्य (हर्षवर्धन) अपने पूर्वजों की तरह प्रयाग की पुण्यभूमि में, सर्वप्रथम भगवान बुद्ध की प्रतिमा के सामने समर्पित करता था। फिर उस संपत्ति को स्थानीय पंडों-पुजारियों, फिर बाहर के पंडों-पुजारियों, फिर प्रमुख विद्वानों, फिर विधर्मियों को और अंत में विधवाओं, असहायों, भिखारियों, अपंगों, गरीबों और साधुओं में बांट देता था। इस तरह राजा अपना सारा कोष और भोजन-भंडार बांटने के बाद अपना कीमती राजमुकुट, जड़ाऊ कंठहार और यहां तक कि पहने हुए कपड़े भी दान कर देता था। अंत में सब कुछ दे चुकने के बाद राजा प्रसन्नतापूर्वक कहता था-मैंने अपना सब कुछ ऐसे कोष में दे दिया है जो कभी खाली नहीं होगा।
इस वर्णन से इतनी बात तो पता चलती है कि राजा शीलादित्य (हर्षवर्धन) अपने पूर्वजों की तरह छठे वर्ष प्रयाग में यह महादान महोत्सव त्रिवेणी (प्रयाग) के किनारे आयोजित करता था। परंतु कहीं यह सिद्ध नहीं होता है कि इस आयोजन को कुंभ कहते थे या फिर इसे हर्षवर्धन ने प्रारंभ किया था। क्योंकि इस विवरण में हर्षवर्धन को अपने पूर्वजों का ही अनुकरणकर्ता बताया गया है। इन सारे तथ्यों से ज्ञात होता है कि बौद्ध काल में कुंभ का प्रचलित रूप बदलकर महादान पर्व के रूप में आ गया होगा। जिसे बाद में वैदिक सनातन धर्म के आचार्यों ने पुनः व्यवस्थित स्वरूप प्रदान करके कुंभ पर्व घोषित किया होगा। आज भले ही यह परंपरा प्रतीकात्मक अधिक होती जा रही हो किंतु किसी समय में निश्चय ही साधु-संतों का इस प्रकार एकत्र होना, देश-विदेश से आए गृहस्थ समाज के साथ मिलकर बैठना, धर्मशास्त्रों से संबद्ध विविध विषयों की समालोचना और दार्शनिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श करना तथा अन्न-वस्त्रादि का मुक्त हस्त दान करना साथ ही यज्ञादि अनुष्ठान संपन्न कराना सारे समाज के लिए जहां अत्यंत प्रभावोत्पादक था वहीं कल्याणकारी भी। कतिपय लोगों का कथन यह भी है कि वर्तमान कुंभ पर्वों का स्वरूप आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित है। यह लोग अपनी दलील प्रस्तुत करते हुए निम्न तथ्य देते हैं-
झांसी गजेटियर में लिख है कि सन् 1751 ईस्वी में अहमद खां बंगस ने दिल्ली के वजीर और अवध के नवाब सफदरजंग को परास्त करके इलाहाबाद के किले को घेर लिया था। वह नगर पर अधिकार करने वाला ही था कि प्रयाग का कुंभ आ गया। उसमें सम्मिलितत होने के लिए देश के विभिन्न भागों से धर्मानुरागी लोगों का महान जनसम्मेलन हुआ। उसमें नागा संन्यासियों का एक विशाल जनसमूह भी राजेंद्र गिरि के नेतृत्व में आया। इन संन्यासियों की संख्या विभिन्न विवरणों के अनुसार छह हजार से पचास हजार तक थी। उन लोगों ने पहले कुंभ पर्व में किए जाने वाले अपने धार्मिक अनुष्ठानों को पूर्ण किया तत्पश्चात शस्त्र धारण किए। फरवरी से अप्रैल तक अहमद खां बंगस कि सेना के साथ युद्ध किया। उसको पराजित करके प्रयाग (इलाहाबाद) नगर की रक्षा की।
इस विवरण से कहीं यह सिद्ध नहीं होता है कि आदिशंकराचार्य ने कुंभ पर्वों का वर्तमान स्वरूप विकसित किया है। फिर आदिशंकराचार्य के काल में नागा संन्यासियों के अतिरिक्त श्री संप्रदाय (वैष्णव) और उदासीन संप्रदाय भी थे। जो कि उनके आचार्यगण अपने अनुयायियों और संतों के साथ कुंभ स्नान के लिए आते थे। इसलिए यह कहना कि कुंभ पर्व का वर्तमान स्वरूप आदिशंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित है, ऐतिहासिक नहीं जान पड़ता है। हां, यह अलग बात है कि आदिशंकराचार्य द्वारा किए गए वैदिक सनातन धर्मोद्धारक कार्यों का अपना विशिष्ट महत्व है। कोई भी सनातन धर्मी उनके कार्यों की अवहेलना नहीं कर सकता है। सन् 1050 ईस्वी के ग्रंथ दाबिस्तान में लिखा है कि 1050 ईस्वी में हरिद्वार के कुंभ मेला में बैरागियों और संन्यासियों में भयंकर युद्ध हुआ। जिसमें हजारों वैरागी-संन्यासी मारे गए। शेष बचे हुए वैरागी-संन्यासियों ने प्राण रक्षा हेतु तिलक, तुलसी माना त्यागकर कनकटे जोगियों का छद्म भेष बना लिया था। सन् 1310 ईस्वी तक महानिर्वाणी अखाड़ा हरिद्वार कुंभ में गंगापार नीलधारा में नीलेश्वर महादेव के पास था। किंतु सन् 1310 ईस्वी में महानिर्वाणी अखाड़े के 22 हजार नागाओं ने कनखल में रामानंदी वैष्णव पर हमला कर दिया। सप्ताहभर के युद्ध के पश्चात महानिर्वाणी अखाड़े के नागाओं ने वैष्णवों पर विजय प्राप्त करके कनखल चौक पर अपने अखाड़े का झंडा गाड़कर आधिपत्य जमा लिया।
सन् 1393 ईस्वी के बाद पड़े सन् 1398 के हरिद्वार कुंभ मेला के अवसर पर तैमूर लंग हरिद्वार आया था, उसने यात्रियों को लूटा। हजारों को मौत के घाट उतारा। उसने मंदिरों और मूर्तियों को खंडित किया। हर की पौड़ी के समीप डाट वाली हवेली में एक विशाल विष्णु मंदिर था। तैमूर लंग ने उसको भी तोड़ा। काफी तादाद में हिंदुओं को बंदी बनाकर अपने साथ ले गया, जहां जम्मू प्रांत के समीप वहां के महाराजा मालदेव ने बड़ी भीषण लड़ाई के बाद इन्हें मुक्त कराया सन् 1621 ईस्वी में कुंभ पर्व पर प्रथम स्नान को लेकर उदासी और वैरागी साधुओं में भयंकर लड़ाई हुई। उस समय तत्कालीन मुगल सम्राट जहांगीर स्वयं घटना स्थल पर गया था। परंतु साधुओं की लड़ाई देखने की इच्छा से शाही सैनिकों को लड़ाई में हस्तक्षेप करने से उसने मना कर दिया। सन् 1666 ईस्वी के हरिद्वार कुंभ मेला के अवसर पर सम्राट और औरंगजेब के सैनिकों ने आक्रमण किया। जिनका मुकाबला नागा संन्यासियों के साथ मिलकर साधु-संतों ने किया।
इस लड़ाई में संतों की धर्म-ध्वजाएं देखकर मुगल सेना के मराठे भी संतों के साथ दल में मिल गए। औरंगजेब को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा। सन् 1690 ईस्वी के त्र्यंबकेश्वर कुंभ में संन्यासियों और वैरागियों के बीच युद्ध के प्रमाण मिलते हैं। 1760 ईस्वी में हरिद्वार के कुंभ मेले का जिक्र करते हुए अंग्रेज लेखक विल्सन ने अपने संस्मरण में लिखा है-संन्यासियों और वैरागियों में भयंकर मार-काट हुई। इसी कुंभ मेले से वैष्णव महात्माओं ने कुंभ में जाना बंद कर दिया। यह लोग अपना कुंभ पर्व वृंदावन में मनाने लगे थे। बाद में हरिद्वार में अंग्रेजों का आधिपत्य हो जाने पर वैरागियों ने पुनः हरिद्वार कुंभ में आना प्रारंभ किया था, किंतु आज भी उस परंपरा के अनुसार वैष्णव अनी अखाड़े प्रथम स्नान हरिद्वार कुंभ में न करके वृंदावन में ही करते हैं। दूसरे तथा तीसरे स्नान के समय अन्य अखाड़ों के साथ अनी अखाड़ों के लोग साथ शाही स्नान करते हैं। वैष्णव संत शिवरात्रि के स्नान के बजाय तीसरा स्नान अकेले ही करते हैं। सन् 1796 ईस्वी के हरिद्वार कुंभ के अवसर पर वैष्णव और सिख साधुओं के बीच लड़ाई का मुख्य कारण पटियाला के राजा के संरक्षण में निर्मल संप्रदाय के साधु भी कुंभ में शाही स्नान करना चाहते थे। किंतु अन्य संप्रदायों ने इन्हें अखाड़े के साथ शाही स्नान करने की अनुमति नहीं दी। नतीजतन क्षुब्ध निर्मल संप्रदाय के संतों ने अन्य संतों से समझौतों के तहत निर्मल अखाड़ा स्थापित किया उसे मान्यता देते हुए अपने साथ शाही स्नान में शामिल होने की अनुमति प्रदान की। अंग्रेज लेखक कैप्टन टॉम्स हार्डविक, जो उस समय घटना स्थल पर उपस्थित थे, ने लिखा है कि उस साल के कुंभ मेले में 20 लाख लोग आए थे। अंग्रेज लेखक फेलिक्स विंसेट रेपर ने लिखा है कि सन् 1808 ईस्वी में हरिद्वार कुंभ मेला के अवसर पर शैव और वष्णवों के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। पुराणविद आर.सी. हाजरा बारहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच कुंभ और अर्धकुंभ पर्वों के विकास का जिक्र करते हैं। इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने 13वीं शताब्दी के आस पास कुंभ पर्वों का आरंभ माना है। उन्होंने 1253 के नागा संन्यासियों द्वारा वैष्णव और वैरागियों पर विजय प्राप्त करने की घटना उल्लेख करते हुए कुंभ की बात कही है। इतिहासकारों ने 1514 ईस्वी में प्रयाग के कुंभ में चैतन्य महाप्रभु के उपस्थित होने का भी जिक्र किया है।
भारतीय धर्मशास्त्रों के अनुसार आचार्य ब्रज बल्लभ पाठक के मुताबिक कुंभ पर्व के साथ सूर्य, चंद्र, गुरू और शनि का नाम जुड़ा है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार समुद्र मंथन से निकले अमृत कुंभ की रक्षा के लिए जयंत जब इसे लेकर चले तो सूर्य ने अमृत कलश को फूटने से बचाया। चंद्र ने गिरने से रोका। गुरू ने असुरों से इसकी रक्षा की तथा शनि ने जयंत पर यह निगरानी रखी कि कहीं वह स्वयं ही अमृत न पी जाए। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में पारंपरिक रूप से कुंभ इसी विशेष ग्रह स्थितियों में संपन्न होते हैं। स्कंदपुराण के अवंति खंड सहित अन्य खंडों में भी कुंभ के उल्लेख इस बात के प्रमाण है कि पुराण काल के पूर्व से यह मान्यता विद्यमान है। इन चारों कुंभों की परंपरा को लेकर धर्माचार्यों में भी कोई विवाद नहीं है। शारदापीठ, द्वारकापीठ और ज्योतिर्पीठ, बदरीनाथ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती मानते हैं कि शास्त्रों के अनुसार सतयुग में सागर मंथन से कुंभ की परंपरा प्रारंभ हुई। एक विशेष स्थिति और पर्व में सूर्य की किरणों का प्रभाव जल में अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। इसमें स्नान का विशेष महत्व होता है।
ज्योतिष का मान्य ग्रंथ ‘कृतसमुंचय’ में भी बताया है कि ‘माघ, माया, मृगे, भानु, मेख राशि गते गुरू। कुंभ योगो भवेत तत्र प्रयागे त्वति दुर्लभव।’ अर्थात मघा नक्षत्र हो और मकर राशि का सूर्य हो। मेष राशि के गुरू हो। ऐसे योग में कुंभ योग होता है। ऐसा योग इलाहाबाद के प्रयाग में होता है। इसे अति दुर्लभ योग कहा जाता है। पुराणों की कथा के मुताबिक प्रयाग को तीर्थों का राजा कहा जाता है। प्रयाग सभी तीर्थों के अधिपति हैं। सप्तपुरी-अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, अवंतिका और पुरी प्रयाग की रानियां हैं। गंगा, यमुना की धाराएं पूरे प्रयाग को तीन क्षेत्रों में बांटती है।
तीनों भाग अग्निस्वरूप यज्ञ वेदी माने जाते हैं। इनमें गंगा, यमुना के मध्य का भाग ग्राहपत्य अग्नि कहा जा है। गंगा के पार का घाट (प्रतिष्ठानपुर-झूंसी) आवाहनीय हवि कहते हैं। यमुना पार का भाग अलरकपुर हवि कहते हैं। इसे दक्षिणार्थ माना जाता है। इन भागों से पवित्र होकर एक-एक रात्रि बिताने से उपासना का फल प्राप्त होता है। प्रयाग में प्रति माघ में कल्पवास का भी बहुत महत्व बताया गया है। यहां प्रति बारहवें वर्ष जब बृहस्पति वृष राशि में सूर्य मकर राशि में होते हैं तो प्रयाग में कुंभ होता है।
इलाहाबाद विवि के मध्यकालीन इतिहास के प्रोफेसर हेरंब चुतर्वेदी कहते हैं- सभी धार्मिक अखाड़ों के पास मुगल बादशाहों के द्वारा दिए गए मदद-ए-मास दस्तावेज़ उपलब्ध है। जिनकी प्रतियाँ राष्ट्रीय अभिलेखागारों में देखी जा सकती है। इनमें कुल आयोजनों का जिक्र है। वह यह भी बताते हैं कि मुगलकाल में तीर्थयात्रा कर लेने का जो चलन था वह साधारणतया तीर्थों में जाने की जगह इसी तरह के विशिष्ट आयोजनों के लिए बनाया गया ता। औरंगजेब ने काशी के कोतवाल को जो फरमान जारी किया था उसका जिक्र करते हुए प्रो. चतुर्वेदी कहते हैं- 1820 ईस्वी में एक कस्टम कलक्टर हुआ करते थे मि. पॉक्स। इनकी पत्नी सैनी पॉक्स की इलाहाबाद पर लिखी गई दो खंड वाली किताब और फादर हैवर के नोट्स इस बात को लेकर यकीन करना लाज़मी नहीं है कि कुंभ का वर्तमान स्वरूप अंग्रेजों की देन है। क्योंकि यह मेला और इसके आयोजनों के प्रमाण हर्ष काल से तो लगातार मिलते चले आ रहे हैं। अखाड़ों के इतिहास में भी कुंभ का साफ-साफ जिक्र है। वर्तमान में देश में जितने अखाड़ों हैं सब सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के बीच आकार ले चुके थे।
कुछ लोग कुंभ पर्व की शुरुआत सम्राट हर्षवर्धन (सन् 612-647 ईस्वी) से मानते हैं। सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वर्णन में लिखा है- पांच साल तक संग्रह की हुई अपनी सारी संपत्ति को राजा शीलादित्य (हर्षवर्धन) अपने पूर्वजों की तरह प्रयाग की पुण्यभूमि में, सर्वप्रथम भगवान बुद्ध की प्रतिमा के सामने समर्पित करता था। फिर उस संपत्ति को स्थानीय पंडों-पुजारियों, फिर बाहर के पंडों-पुजारियों, फिर प्रमुख विद्वानों, फिर विधर्मियों को और अंत में विधवाओं, असहायों, भिखारियों, अपंगों, गरीबों और साधुओं में बांट देता था। इस तरह राजा अपना सारा कोष और भोजन-भंडार बांटने के बाद अपना कीमती राजमुकुट, जड़ाऊ कंठहार और यहां तक कि पहने हुए कपड़े भी दान कर देता था। अंत में सब कुछ दे चुकने के बाद राजा प्रसन्नतापूर्वक कहता था-मैंने अपना सब कुछ ऐसे कोष में दे दिया है जो कभी खाली नहीं होगा।
इस वर्णन से इतनी बात तो पता चलती है कि राजा शीलादित्य (हर्षवर्धन) अपने पूर्वजों की तरह छठे वर्ष प्रयाग में यह महादान महोत्सव त्रिवेणी (प्रयाग) के किनारे आयोजित करता था। परंतु कहीं यह सिद्ध नहीं होता है कि इस आयोजन को कुंभ कहते थे या फिर इसे हर्षवर्धन ने प्रारंभ किया था। क्योंकि इस विवरण में हर्षवर्धन को अपने पूर्वजों का ही अनुकरणकर्ता बताया गया है। इन सारे तथ्यों से ज्ञात होता है कि बौद्ध काल में कुंभ का प्रचलित रूप बदलकर महादान पर्व के रूप में आ गया होगा। जिसे बाद में वैदिक सनातन धर्म के आचार्यों ने पुनः व्यवस्थित स्वरूप प्रदान करके कुंभ पर्व घोषित किया होगा। आज भले ही यह परंपरा प्रतीकात्मक अधिक होती जा रही हो किंतु किसी समय में निश्चय ही साधु-संतों का इस प्रकार एकत्र होना, देश-विदेश से आए गृहस्थ समाज के साथ मिलकर बैठना, धर्मशास्त्रों से संबद्ध विविध विषयों की समालोचना और दार्शनिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श करना तथा अन्न-वस्त्रादि का मुक्त हस्त दान करना साथ ही यज्ञादि अनुष्ठान संपन्न कराना सारे समाज के लिए जहां अत्यंत प्रभावोत्पादक था वहीं कल्याणकारी भी। कतिपय लोगों का कथन यह भी है कि वर्तमान कुंभ पर्वों का स्वरूप आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित है। यह लोग अपनी दलील प्रस्तुत करते हुए निम्न तथ्य देते हैं-
झांसी गजेटियर में लिख है कि सन् 1751 ईस्वी में अहमद खां बंगस ने दिल्ली के वजीर और अवध के नवाब सफदरजंग को परास्त करके इलाहाबाद के किले को घेर लिया था। वह नगर पर अधिकार करने वाला ही था कि प्रयाग का कुंभ आ गया। उसमें सम्मिलितत होने के लिए देश के विभिन्न भागों से धर्मानुरागी लोगों का महान जनसम्मेलन हुआ। उसमें नागा संन्यासियों का एक विशाल जनसमूह भी राजेंद्र गिरि के नेतृत्व में आया। इन संन्यासियों की संख्या विभिन्न विवरणों के अनुसार छह हजार से पचास हजार तक थी। उन लोगों ने पहले कुंभ पर्व में किए जाने वाले अपने धार्मिक अनुष्ठानों को पूर्ण किया तत्पश्चात शस्त्र धारण किए। फरवरी से अप्रैल तक अहमद खां बंगस कि सेना के साथ युद्ध किया। उसको पराजित करके प्रयाग (इलाहाबाद) नगर की रक्षा की।
इस विवरण से कहीं यह सिद्ध नहीं होता है कि आदिशंकराचार्य ने कुंभ पर्वों का वर्तमान स्वरूप विकसित किया है। फिर आदिशंकराचार्य के काल में नागा संन्यासियों के अतिरिक्त श्री संप्रदाय (वैष्णव) और उदासीन संप्रदाय भी थे। जो कि उनके आचार्यगण अपने अनुयायियों और संतों के साथ कुंभ स्नान के लिए आते थे। इसलिए यह कहना कि कुंभ पर्व का वर्तमान स्वरूप आदिशंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित है, ऐतिहासिक नहीं जान पड़ता है। हां, यह अलग बात है कि आदिशंकराचार्य द्वारा किए गए वैदिक सनातन धर्मोद्धारक कार्यों का अपना विशिष्ट महत्व है। कोई भी सनातन धर्मी उनके कार्यों की अवहेलना नहीं कर सकता है। सन् 1050 ईस्वी के ग्रंथ दाबिस्तान में लिखा है कि 1050 ईस्वी में हरिद्वार के कुंभ मेला में बैरागियों और संन्यासियों में भयंकर युद्ध हुआ। जिसमें हजारों वैरागी-संन्यासी मारे गए। शेष बचे हुए वैरागी-संन्यासियों ने प्राण रक्षा हेतु तिलक, तुलसी माना त्यागकर कनकटे जोगियों का छद्म भेष बना लिया था। सन् 1310 ईस्वी तक महानिर्वाणी अखाड़ा हरिद्वार कुंभ में गंगापार नीलधारा में नीलेश्वर महादेव के पास था। किंतु सन् 1310 ईस्वी में महानिर्वाणी अखाड़े के 22 हजार नागाओं ने कनखल में रामानंदी वैष्णव पर हमला कर दिया। सप्ताहभर के युद्ध के पश्चात महानिर्वाणी अखाड़े के नागाओं ने वैष्णवों पर विजय प्राप्त करके कनखल चौक पर अपने अखाड़े का झंडा गाड़कर आधिपत्य जमा लिया।
सन् 1393 ईस्वी के बाद पड़े सन् 1398 के हरिद्वार कुंभ मेला के अवसर पर तैमूर लंग हरिद्वार आया था, उसने यात्रियों को लूटा। हजारों को मौत के घाट उतारा। उसने मंदिरों और मूर्तियों को खंडित किया। हर की पौड़ी के समीप डाट वाली हवेली में एक विशाल विष्णु मंदिर था। तैमूर लंग ने उसको भी तोड़ा। काफी तादाद में हिंदुओं को बंदी बनाकर अपने साथ ले गया, जहां जम्मू प्रांत के समीप वहां के महाराजा मालदेव ने बड़ी भीषण लड़ाई के बाद इन्हें मुक्त कराया सन् 1621 ईस्वी में कुंभ पर्व पर प्रथम स्नान को लेकर उदासी और वैरागी साधुओं में भयंकर लड़ाई हुई। उस समय तत्कालीन मुगल सम्राट जहांगीर स्वयं घटना स्थल पर गया था। परंतु साधुओं की लड़ाई देखने की इच्छा से शाही सैनिकों को लड़ाई में हस्तक्षेप करने से उसने मना कर दिया। सन् 1666 ईस्वी के हरिद्वार कुंभ मेला के अवसर पर सम्राट और औरंगजेब के सैनिकों ने आक्रमण किया। जिनका मुकाबला नागा संन्यासियों के साथ मिलकर साधु-संतों ने किया।
इस लड़ाई में संतों की धर्म-ध्वजाएं देखकर मुगल सेना के मराठे भी संतों के साथ दल में मिल गए। औरंगजेब को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा। सन् 1690 ईस्वी के त्र्यंबकेश्वर कुंभ में संन्यासियों और वैरागियों के बीच युद्ध के प्रमाण मिलते हैं। 1760 ईस्वी में हरिद्वार के कुंभ मेले का जिक्र करते हुए अंग्रेज लेखक विल्सन ने अपने संस्मरण में लिखा है-संन्यासियों और वैरागियों में भयंकर मार-काट हुई। इसी कुंभ मेले से वैष्णव महात्माओं ने कुंभ में जाना बंद कर दिया। यह लोग अपना कुंभ पर्व वृंदावन में मनाने लगे थे। बाद में हरिद्वार में अंग्रेजों का आधिपत्य हो जाने पर वैरागियों ने पुनः हरिद्वार कुंभ में आना प्रारंभ किया था, किंतु आज भी उस परंपरा के अनुसार वैष्णव अनी अखाड़े प्रथम स्नान हरिद्वार कुंभ में न करके वृंदावन में ही करते हैं। दूसरे तथा तीसरे स्नान के समय अन्य अखाड़ों के साथ अनी अखाड़ों के लोग साथ शाही स्नान करते हैं। वैष्णव संत शिवरात्रि के स्नान के बजाय तीसरा स्नान अकेले ही करते हैं। सन् 1796 ईस्वी के हरिद्वार कुंभ के अवसर पर वैष्णव और सिख साधुओं के बीच लड़ाई का मुख्य कारण पटियाला के राजा के संरक्षण में निर्मल संप्रदाय के साधु भी कुंभ में शाही स्नान करना चाहते थे। किंतु अन्य संप्रदायों ने इन्हें अखाड़े के साथ शाही स्नान करने की अनुमति नहीं दी। नतीजतन क्षुब्ध निर्मल संप्रदाय के संतों ने अन्य संतों से समझौतों के तहत निर्मल अखाड़ा स्थापित किया उसे मान्यता देते हुए अपने साथ शाही स्नान में शामिल होने की अनुमति प्रदान की। अंग्रेज लेखक कैप्टन टॉम्स हार्डविक, जो उस समय घटना स्थल पर उपस्थित थे, ने लिखा है कि उस साल के कुंभ मेले में 20 लाख लोग आए थे। अंग्रेज लेखक फेलिक्स विंसेट रेपर ने लिखा है कि सन् 1808 ईस्वी में हरिद्वार कुंभ मेला के अवसर पर शैव और वष्णवों के बीच भयंकर युद्ध हुआ था। पुराणविद आर.सी. हाजरा बारहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच कुंभ और अर्धकुंभ पर्वों के विकास का जिक्र करते हैं। इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने 13वीं शताब्दी के आस पास कुंभ पर्वों का आरंभ माना है। उन्होंने 1253 के नागा संन्यासियों द्वारा वैष्णव और वैरागियों पर विजय प्राप्त करने की घटना उल्लेख करते हुए कुंभ की बात कही है। इतिहासकारों ने 1514 ईस्वी में प्रयाग के कुंभ में चैतन्य महाप्रभु के उपस्थित होने का भी जिक्र किया है।
भारतीय धर्मशास्त्रों के अनुसार आचार्य ब्रज बल्लभ पाठक के मुताबिक कुंभ पर्व के साथ सूर्य, चंद्र, गुरू और शनि का नाम जुड़ा है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार समुद्र मंथन से निकले अमृत कुंभ की रक्षा के लिए जयंत जब इसे लेकर चले तो सूर्य ने अमृत कलश को फूटने से बचाया। चंद्र ने गिरने से रोका। गुरू ने असुरों से इसकी रक्षा की तथा शनि ने जयंत पर यह निगरानी रखी कि कहीं वह स्वयं ही अमृत न पी जाए। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में पारंपरिक रूप से कुंभ इसी विशेष ग्रह स्थितियों में संपन्न होते हैं। स्कंदपुराण के अवंति खंड सहित अन्य खंडों में भी कुंभ के उल्लेख इस बात के प्रमाण है कि पुराण काल के पूर्व से यह मान्यता विद्यमान है। इन चारों कुंभों की परंपरा को लेकर धर्माचार्यों में भी कोई विवाद नहीं है। शारदापीठ, द्वारकापीठ और ज्योतिर्पीठ, बदरीनाथ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती मानते हैं कि शास्त्रों के अनुसार सतयुग में सागर मंथन से कुंभ की परंपरा प्रारंभ हुई। एक विशेष स्थिति और पर्व में सूर्य की किरणों का प्रभाव जल में अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। इसमें स्नान का विशेष महत्व होता है।
ज्योतिष का मान्य ग्रंथ ‘कृतसमुंचय’ में भी बताया है कि ‘माघ, माया, मृगे, भानु, मेख राशि गते गुरू। कुंभ योगो भवेत तत्र प्रयागे त्वति दुर्लभव।’ अर्थात मघा नक्षत्र हो और मकर राशि का सूर्य हो। मेष राशि के गुरू हो। ऐसे योग में कुंभ योग होता है। ऐसा योग इलाहाबाद के प्रयाग में होता है। इसे अति दुर्लभ योग कहा जाता है। पुराणों की कथा के मुताबिक प्रयाग को तीर्थों का राजा कहा जाता है। प्रयाग सभी तीर्थों के अधिपति हैं। सप्तपुरी-अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, अवंतिका और पुरी प्रयाग की रानियां हैं। गंगा, यमुना की धाराएं पूरे प्रयाग को तीन क्षेत्रों में बांटती है।
तीनों भाग अग्निस्वरूप यज्ञ वेदी माने जाते हैं। इनमें गंगा, यमुना के मध्य का भाग ग्राहपत्य अग्नि कहा जा है। गंगा के पार का घाट (प्रतिष्ठानपुर-झूंसी) आवाहनीय हवि कहते हैं। यमुना पार का भाग अलरकपुर हवि कहते हैं। इसे दक्षिणार्थ माना जाता है। इन भागों से पवित्र होकर एक-एक रात्रि बिताने से उपासना का फल प्राप्त होता है। प्रयाग में प्रति माघ में कल्पवास का भी बहुत महत्व बताया गया है। यहां प्रति बारहवें वर्ष जब बृहस्पति वृष राशि में सूर्य मकर राशि में होते हैं तो प्रयाग में कुंभ होता है।
इलाहाबाद विवि के मध्यकालीन इतिहास के प्रोफेसर हेरंब चुतर्वेदी कहते हैं- सभी धार्मिक अखाड़ों के पास मुगल बादशाहों के द्वारा दिए गए मदद-ए-मास दस्तावेज़ उपलब्ध है। जिनकी प्रतियाँ राष्ट्रीय अभिलेखागारों में देखी जा सकती है। इनमें कुल आयोजनों का जिक्र है। वह यह भी बताते हैं कि मुगलकाल में तीर्थयात्रा कर लेने का जो चलन था वह साधारणतया तीर्थों में जाने की जगह इसी तरह के विशिष्ट आयोजनों के लिए बनाया गया ता। औरंगजेब ने काशी के कोतवाल को जो फरमान जारी किया था उसका जिक्र करते हुए प्रो. चतुर्वेदी कहते हैं- 1820 ईस्वी में एक कस्टम कलक्टर हुआ करते थे मि. पॉक्स। इनकी पत्नी सैनी पॉक्स की इलाहाबाद पर लिखी गई दो खंड वाली किताब और फादर हैवर के नोट्स इस बात को लेकर यकीन करना लाज़मी नहीं है कि कुंभ का वर्तमान स्वरूप अंग्रेजों की देन है। क्योंकि यह मेला और इसके आयोजनों के प्रमाण हर्ष काल से तो लगातार मिलते चले आ रहे हैं। अखाड़ों के इतिहास में भी कुंभ का साफ-साफ जिक्र है। वर्तमान में देश में जितने अखाड़ों हैं सब सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के बीच आकार ले चुके थे।
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