पिछले कुछ वर्षों से हिमालय क्षेत्र में होने वाली परिस्थितिकीय गड़बड़ियां जो बेलाकूची, तवाघाट, डबराणी और टौसघाटी की तबाही के रूप में प्रकट हुई है और इस वर्ष कौथा, रिवाड़ी और शिशना के भयंकर भू-स्खलन के पश्चात् यह आशा की जाती थी कि उत्तर प्रदेश सरकार इनके कारणों की तह तक जाएगी। इस वर्ष का अप्रत्याशित सूखा प्रकृति की ओर से एक नई चेतावनी है। परन्तु बाढ़, भू-स्खलन और सूखे से सर्वाधिक प्रभावित राज्य उत्तर प्रदेश ने अपने पर्वतीय क्षेत्र के वनों की नीलामी कर इस ओर अपनी उदासीनता का ताजा सबूत दे दिया है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि वनों की आमदनी के मोह में अन्धी सरकार ने पिछले गणतंत्र दिवस पर और उसके पश्चात् हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की स्वर्णजयन्ती समारोह के उद्घाटन के अवसर पर राष्ट्रपति द्वारा हिमालय की परिस्थितिकीय गड़बड़ियों का गंगा के मैदान की कृषि पर पड़ने वाले कुप्रभावों आदि चेतावनियों की चिन्ता नहीं की।
टिहरी और गढ़वाल में वनों की नीलामी हो गयी है। जिस प्रकार सशस्त्र पुलिस के कड़े पहरे के अन्दर यह काम सम्पन्न हुआ है उससे यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार असलियत समझती है। पिछले कई वर्षों से पर्वतीय जनता वनों की नीलामी का विरोध करती आ रही है। केवल नीलामी के मंच पर ही नहीं बल्कि जहां कुल्हाड़ी वाले प्रत्यक्ष पेड़ काटने के लिए आये, वहां लोगों ने और मुख्यतः महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर पेड़ों की रक्षा की। इस दलील के पुनर्जनन के लिए पेड़ काटे जाते हैं। दो वर्ष पूर्व हेंवल घाटी के अद्वाणी गांव की महिलाओं ने वनाधिकारी को दिन दुपहरी जलती हुई लालटेन दिखाकर जवाब दे दिया था। वनों पर बढती हुई जनसंख्या का जो दबाव पड़ रहा है, उससे स्वयं सरकारी कार्य योजना रिपोर्टों के अनुसार पुनर्जनन की गति मन्द हो गई। आंकडे कुछ भी कहें प्रत्यक्ष देखने वाले लोककवि 'सैलानी' को इन पक्तियों की कि 'जंगलु देखी औदी रोई' को अक्षरशः सत्य बताते है।
वनों की कटाई के पक्षधर, जो इसे वैज्ञानिक दोहन का जामा पहनाकर औचित्य सिद्ध करना चाहते हैं, का कहना है कि केवल जंगलों में ही कटाई होती है। प्रकृति सन्तुलन का सम्बन्ध किसी एक क्षेत्र विशेष से नहीं होता। एक स्थान में सन्तुलन बिगड़ने पर उसका क्षेत्र बढ़ता जाता है। वनों के मामले में तो यह प्रक्रिया इतनी तीव्र होती है कि सारी परिस्थिति देखते-देखते बदल जाती है। जहां-जहां मोटर सड़कें पहुंची हैं वहां यह स्पष्ट दिखता है। एक दूसरे पहलू की ओर प्रख्यात भूगर्भ शास्त्रों डॉ. खड़ग सिंह वल्दिया ने हमारा ध्यान आकर्षित किया है, हिमालय के कतिपय क्षेत्रों में होने वाली भू-गर्भीय हलचलों से रक्षा, हरे-भरे पेड़ काटने व विस्फोटकों के उपयोग पर पाबन्दी आवश्यक है। परन्तु विडम्बना तो यह है कि अभी बड़ी संख्या में सड़क निर्माण के लिए, जो पहाड़ों में विकास का मुख्य कार्यक्रम माना गया है, पेड़ काटे जा रहे है और विस्फोटकों का प्रयोग हो रहा है।
21 सितम्बर को जब उत्तराखण्ड के प्रवेश द्वार मुनीकिरेती में टिहरी वन प्रभाग के चीड़ के वनों की नीलामी प्रारम्भ होने वाली थी तो अनेक लोगों ने इसका विरोध किया था।
बाढ़, भू-स्खलन और अभूतपूर्व सूखे के बावजूद भी, उत्तर प्रदेश राज्य सरकार इस वर्ष पुन: उत्तराखण्ड के वनों की नीलामी कर रही है। यह चिन्ता का विषय है। अच्छा हो, यदि सरकार हिमालय के इस हरित धन को बचाने के लिए इस निर्णय पर पुनः गौर करे।
स्रोत - कटते जंगल रोती धरती,आल इण्डिया पिंगलवाड़ा चैरीटेबल सोसाइटी
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