कर्नाटक और तमिलनाडु की जीवनरेखा मानी जाने वाली नदी कावेरी के जल को लेकर दोनों राज्यों में एक बार फिर विवाद गहरा गया है। दरअसल तमिलनाडु में इस साल कम बारिश होने के कारण पानी की जबरदस्त किल्लत है। इस समस्या के तात्कालिक निदान के लिये तमिलनाडु ने सर्वोच्च न्यायालय से पानी देने की गुहार लगाई थी।
तमिलनाडु ने कम बारिश के कारण राज्य में हुई दयनीय स्थिति को उजागार करते हुए कहा था कि प्रदेश की चालीस हजार एकड़ में फसल बर्बाद हो रही है, इसलिये उसे कृषि और किसानों की आजीविका के लिये तुरन्त पानी की जरूरत है। इस बाबत अदालत ने 2 सितम्बर को कर्नाटक सरकार से कहा था कि ‘जियो और जीने दो’ की तर्ज पर 15 हजार क्यूसेक पानी रोजाना 10 दिन तक तमिलनाडु को देने का आदेश दे दिया।
हालांकि कर्नाटक ने अदालत को उत्तर देते हुए कहा था कि कम बारिश के कारण तमिलनाडु के अधिकतर जलाशय खाली हैं, इसलिये पानी देना मुमकिन नहीं है। इस आदेश के जारी होने के बाद कर्नाटक में मंड्या, मैसूर व हासन सहित कई जिलों में उग्र विरोध व प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया। बंगलुरु-मैसूर हाईवे जाम कर दिया गया।
हिंसा पर आमादा लोगों को खदेड़ने के लिये पुलिस को बल प्रयोग तक करना पड़ा। यही नहीं हालात से निपटने के लिये प्रशासन को केन्द्रीय सुरक्षा बल तक कावेरी नदी क्षेत्र में सुरक्षा के लिये लगाने पड़े। इसके उलट तमिलनाडु सरकार का कहना है कि 15000 क्यूसेक पानी हमारे लिये पर्याप्त नहीं है। किसान संगठनों ने भी पानी की मात्रा बढ़ाने के लिये शीर्ष न्यायालय जाने की माँग उठा दी।
भारत में नदियों के जल का बँटवारा, बाँधों का निर्माण और राज्यों के बीच उसकी हिस्सेदारी एक गम्भीर व अनसुलझी रहने वाली समस्या का रूप धारण किये हुए है। इसका मुख्य कारण है कि नदी जैसे प्राकृतिक संसाधन के समुचित, तर्क-संगत उपयोग की जगह राजनीतिक सोच से प्रेरित होकर नदियों के जल का दोहन करना है।
कर्नाटक में जल विवाद के सामने आते ही पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने क्षेत्रीय मानसिकता से काम लेते हुए इस मुद्दे को गरमाने का काम शुरू कर दिया है। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर लड़ाई जीतने के लिये राजनीतिक पार्टियों व जनता को एकजुट होना होगा। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी नाराजगी जताते हुए गौड़ा ने कहा है, ‘तमिलनाडु के किसान एक साल में तीन फसल उगा रहे हैं, जबकि कर्नाटक के पास एक फसल के लिये भी पानी नहीं है। ऐसे में उन्हें पानी देना कैसे सम्भव है। इसके विरोध में हमें तमिलनाडु के लोगों की तरह एकजुट होना होगा।’
देश के प्रधानमंत्री रहे व्यक्ति भी जब किसी विवाद को सुलझाने की बजाय क्षेत्रीयता के आधार पर लोगों को उकसाने की बात करें तो तय है, विवाद सुलझने वाला नहीं है। ऐसी ही एकपक्षीय धारणाओं की वजह से कर्नाटक-तमिलनाडु के बीच कावेरी जल विवाद आजादी के पहले से ही स्थायी बना हुआ है। इस पर बनाए प्राधिकरण के फैसले के मुताबिक कर्नाटक, तमिलनाडु व पांडिचेरी को जल का उपयोग व उसकी बचत की मात्रा तय कर दी गई है, लेकिन कोई भी पक्ष इसे स्वीकार नहीं कर रहा है। नतीजतन 1892 से लेकर अब तक यह विवाद अदालती लड़ाई के चक्रव्यूह में फँसा है।
दक्षिण भारत की गंगा मानी जाने वाली कावेरी नदी कर्नाटक तथा उत्तरी तमिलनाडु में बहने वाली जीवनदायी सदानीरा नदी हैं। यह पश्चिमी घाट के ब्रह्मगिरी पर्वत से निकली है। यह 800 किलोमीटर लम्बी हैं। इसके आसपास के दोनों राज्यों के हिस्सों में खेती होती है। तमिल भाषा में कावेरी को ‘पोन्नी’ कहते हैं। पोन्नी का अर्थ सोना उगाना है।
दोनों राज्यों की स्थानीय आबादी में ऐसी लोकमान्यता है कि कावेरी के जल में धूल के कण मिले हुए हैं। इस लोकमान्यता को हम इस अर्थ में ले सकते हैं कि कावेरी के पानी से जिन खेतों में सिंचाई होती है, उन खेतों से फसल के रूप में सोना पैदा होता है। इसीलिये यह नदी कर्नाटक और तमिलनाडु की कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मूलाधार है।
ब्रह्मगिरी पर्वत कर्नाटक के कुर्ग क्षेत्र में आता है, जो कर्नाटक के अस्तित्व में आने से पहले मैसूर राज्य में था। यहीं से यह नदी मैसूर राज्य को सिंचित करती हुई दक्षिण पूर्व की ओर बहती हुई तमिलनाडु में प्रवेश करती है और फिर इस राज्य के बड़े भू-भाग को जल से सिंचित करती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
1892 व 1924 में मैसूर राज्य व मद्रास प्रेसिडेंसी (वर्तमान तमिलनाडु) के बीच जल-बँटवारे को लेकर समझौते हुए थे। आजादी के बाद मैसूर का कर्नाटक में विलय हो गया। इसके बाद से कर्नाटक को लगने लगा कि मद्रास प्रेसिडेंसी पर अंग्रेजों का प्रभाव अधिक था, इसलिये समझौता मद्रास के पक्ष में किया गया है।
तमिलनाडु ने कम बारिश के कारण राज्य में हुई दयनीय स्थिति को उजागार करते हुए कहा था कि प्रदेश की चालीस हजार एकड़ में फसल बर्बाद हो रही है, इसलिये उसे कृषि और किसानों की आजीविका के लिये तुरन्त पानी की जरूरत है। इस बाबत अदालत ने 2 सितम्बर को कर्नाटक सरकार से कहा था कि ‘जियो और जीने दो’ की तर्ज पर 15 हजार क्यूसेक पानी रोजाना 10 दिन तक तमिलनाडु को देने का आदेश दे दिया। हालांकि कर्नाटक ने अदालत को उत्तर देते हुए कहा था कि कम बारिश के कारण तमिलनाडु के अधिकतर जलाशय खाली हैं, इसलिये पानी देना मुमकिन नहीं है। लिहाजा वह इस समझौते को नहीं मानता है। जबकि तमिलनाडु का तर्क है कि पूर्व समझौते के मुताबिक उसने ऐसी कृषि योग्य भूमि विकसित कर ली है, जिसकी खेती कावेरी से मिलने वाले सिंचाई हेतु जल के बिना सम्भव ही नहीं है। इस बाबत 1986 में तमिलनाडु ने विवाद के निपटारे के लिये केन्द्र सरकार से एक ट्रिब्युनल बनाने की माँग की।
नदी विवाद जल अधिनियम के तहत 1990 में ट्रिब्युनल बनाया गया। इस ट्रिब्युनल ने कर्नाटक को तमिलनाडु के हिस्से का पानी देने का आदेश दिया। किन्तु कर्नाटक ने इस आदेश को मानने से इनकार करते हुए कहा कि कावेरी पर हमारा पूरा हक है, इसलिये हम पानी नहीं देंगे।
कर्नाटक का तर्क है कि अंग्रेजों के शासनकाल में कुर्ग मैसूर रियासत का हिस्सा था और तमिलनाडु मद्रास प्रेसिडेंसी के रूप में फिरंगी हुकूमत का गुलाम था। गोया, 1924 के फैसले को सही नहीं ठहराया जा सकता है। हालांकि अभी भी ट्रिब्युनल के इसी फैसले और अदालत के दबाव में कर्नाटक मजबूरीवश तमिलनाडु को पानी दे रहा है, लेकिन उसकी पानी देने की मंशा कतई नहीं है। यह पानी कर्नाटक में कावेरी नदी पर बने कृष्ण-राजा सागर बाँध से तमिलनाडु के लिये दिया जाता है।
दरअसल, भारत में नदियों के जल बँटवारे और बाँधों की ऊँचाई से जुड़े अन्तरराज्जीय जल विवाद अब राज्यों की वास्तविक जरूरत के बजाय सस्ती लोकप्रियता हासिल करने और वोट बैंक की राजनीति का शिकार होते जा रहे हैं। जैसा कि देवगौड़ा के बयान से परिलक्षित होता है। इसीलिये जल विवाद केवल कावेरी नदी से जुड़ा इकलौता विवाद नहीं है, बल्कि कई और भी विवाद इसी तरह दशकों से बने चले आ रहे हैं।
तमिलनाडु व केरल के बीच मुल्ला पेरियार बाँध की ऊँचाई को लेकर भी विवाद गहराया हुआ है। तमिलनाडु इस बाँध की ऊँचाई 132 फीट से बढ़ाकर 142 फीट करना चाहता है, वहीं केरल इसकी ऊँचाई कम रखना चाहता है। इस परिप्रेक्ष्य में केरल का दावा है कि यह बाँध खतरनाक है, इसीलिये इसकी जगह नया बाँध बनना चाहिए। जबकि तमिलनाडु ऐसे किसी खतरे की आशंका को सिरे से खारिज करता है।
गौरतलब है कि पेरियार नदी पर बँधा यह बाँध 1895 में अंग्रेजों ने मद्रास प्रेसिडेंसी को 999 साल के पट्टे पर दिया था। जाहिर है, अंग्रेजों ने अपने शासन काल में अपनी सुविधा और जरूरत के मुताबिक बाँधों का निर्माण व अन्य विकास कार्य किये। लेकिन स्वतंत्र भारत में उन कार्यों, फैसलों और समझौतों की राज्यों की नई भौगोलिक सीमा के गठन व उस राज्य में रहने वाली जनता की सुविधा व जरूरत के हिसाब से पुनर्व्याख्या करने की जरूरत है। क्योंकि अब राज्यों के तर्क वर्तमान जरूरतों के हिसाब से सामने आ रहे हैं।
इस लिहाज से केरल का तर्क है कि इस पुराने बाँध की उम्र पूरी हो चुकी है, लिहाजा यह कभी भी टूटकर धराशायी हो सकता है। अब इस आशंका की तकनीकी समीक्षा हो और अगर शंका निर्मूल है तो जनता को जागरूक करने की जरूरत है।
इस परिप्रेक्ष्य में तमिलनाडु की शंका है कि केरल जिस नए बाँध के निर्माण का प्रस्ताव रख रहा है, तो यह जरूरी नहीं कि वह तमिलनाडु को पूर्व की तरह पानी देता रहेगा। इसलिये प्रस्ताव में दोनों राज्यों के हितों से जुड़ी शर्तों का पहले अनुबन्ध हो, तब बाँध को तोड़ा जाये। केरल के सांसदों ने राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन से भी इस मुद्दे में हस्तक्षेप की अपील की है। इन विवादों के चलते इस मसले का भी निवारण नहीं हो पा रहा है।
इसी तरह पाँच नदियों वाले प्रदेश पंजाब में रावी व ब्यास नदी के जल बँटवारे पर पंजाब और हरियाणा पिछले कई दशकों से अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं। इनके बीच दूसरा जल विवाद सतलुज और यमुना लिंक का भी है। प्रस्तावित योजना के तहत सतलुज और यमुना नदियों को जोड़कर नहर बनाने से पूर्वी व पश्चिमी भारत के बीच अस्तित्व में आने वाले जलमार्ग से परिवहन की उम्मीद बढ़ जाएगी। इस मार्ग से जहाजों के द्वारा सामान का आवागमन शुरू हो जाएगा।
मसलन सड़क के समानान्तर जलमार्ग का विकल्प खुल जाएगा। हरियाणा ने तो अपने हिस्से का निर्माण कार्य पूरा कर लिया है, लेकिन पंजाब को इसमें कुछ नुकसान नजर आया तो उसने विधानसभा में प्रस्ताव लाकर इस समझौते को ही रद्द कर दिया। लिहाजा अब यह मामला भी अदालत में है। इसी तरह कर्नाटक, महाराष्ट्र और गोवा राज्यों के बीच महादयी नदी के जल बँटवारे को लेकर दशकों से विवाद गहराया हुआ है।
गौरतलब है कि न्यायाधीश जेएम पंचाल व महादयी नदी जल ट्रिब्युनल ने तीनों राज्यों को सलाह दी है कि जल बँटवारे का हल परस्पर बातचीत व किसी तीसरे पक्ष के बिना हस्तक्षेप के सुलझाएँ। यह मसला सुलझता है या नहीं यह तो बातचीत के नतीजे सामने आने के बाद पता चलेगा।
बहरहाल अन्तरराज्जीय जल विवादों का राजनीतिकरण होता रहा तो जल विवाद कालान्तर में भी सुलझ जाएँगे यह कहना फिलहाल मुश्किल ही है।
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