कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दर्ज सूचनाओं की पुष्टि शिलालेखों और पुरातात्विक अवशेषों से होती है। चाणक्य के नाम से विख्यात कौटिल्य भारत के प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (321-297 ई.पू.) के मंत्री और गुरु थे। राजनीति और प्रशासन पर प्रामाणिक ग्रंथ माने गए अर्थशास्त्र की तुलना सदियों बाद के मेकियावली के ग्रंथ द प्रिंस से की जाती है। ‘विभाग प्रमुखों के कार्य’ नामक अध्याय में कौटिल्य ने लिखा हैः
“उसे प्राकृतिक जल स्रोत या कहीं और से लाए गए पानी के उपयोग से सिंचाई व्यवस्थाओं का निर्माण करना चाहिए। इन व्यवस्थाओं का निर्माण करने वालों को उसे भूमि, अच्छा रास्ता, वृक्ष और उपकरणों आदि से सहायता करनी चाहिए और पवित्र स्थलों तथा उद्यानों के निर्माण में भी सहायता करनी चाहिए। अगर कोई सिंचाई के काम में भाग नहीं लेता तो उसके श्रमिकों तथा बैलों आदि को उसके बदले काम में लगाना चाहिए और उसे व्यय वहन करना चाहिए, परंतु उसे सिंचाई व्यवस्था का कोई लाभ नहीं मिलना चाहिए। सिंचाई व्यवस्था के अधीन मछलियों, बत्तखों और हरी सब्जियों पर राजा का स्वामित्व होना चाहिए।”
“अगर जलाशय, नहर या पानी जमाव के कारण किसी के खेत या बीज को क्षति पहुंचती है तो उसे क्षति के अनुपात में क्षतिपूर्ति की जानी चाहिए। अगर जल जमाव, उद्यान या बांध के कारण दोहरी क्षति हो तो दोगुनी क्षतिपूर्ति की जानी चाहिए।
“ऊंचाई पर बने तालाब से जिस खेत को पानी मिलता है उसमें उसके बाद उससे नीचे बने तालाब के पानी से बाढ़ नहीं आनी चाहिए। ऊपर की सतह पर बने तालाब को नीचे की सतह पर बने तालाब में पानी भरने से रोकना नहीं चाहिए, बशर्ते यह तीन साल के प्रयोग में नहीं लाया जा रहा हो इस व्यवस्था के उल्लंघन के लिए दंड, हिंसा और तालाब खाली करने पर मिलने वाले दंड जैसा ही हो।
“पांच साल से प्रयोग में लाई जा रही जल व्यवस्था का स्वामित्व लोप हो जाएगा, बशर्ते स्वामी किसी खास कष्ट में न हो। जब नए तालाब और बांध बनाए जाते हैं तो उस पर पांच वर्षों के लिए कर मुक्ति दी जाएगी, नष्ट या परित्यक्त तालाब या बांध के लिए चार वर्षों के लिए उनमें से खरपतवार आदि की सफाई के लिए तीन वर्षों के लिए, और सूखी भूमि पर पुनः खेती के लिए दो वर्षों के लिए कर मुक्ति दी जाएगी। खेत को बंधक रखा जा सकता है या बेचा जा सकता है।
“नदी या तालाब से नहर बनाने वाले लोग खेतों, उद्यानों या बगीचों की सिंचाई के बदले में, होने वाली पैदावार का एक हिस्सा ले सकते हैं या दूसरे लोगों से भी, जो उनका लाभ उठाते हों। और जो लोग इनका उपयोग पट्टे, किराए पर या हिस्सेदारी के एवज में करते हैं या इसका अधिकार हासिल करके करते हैं उन्हें इनकी मरम्मत वगैरह भी करवानी होगी। मरम्मत न कराने पर दंड क्षति का दोगुना भरना पड़ेगा। बारी से पहले बांध से पानी छोड़ने का दंड भरना होगा और दूसरे की बारी आने पर लापरवाही से उसका पानी रोकने पर भी इतना ही दंड होगा।”
“अगर कोई उपयोग में आए पारंपरिक जल स्रोत का उपयोग रोकता है या ऐसा नया जल स्रोत बनाता है, जिसका पारंपरिक कामों के लिए उपयोग न किया सके, तो हिंसा के जो न्यूनतम दंड निर्धारित हैं वह उस पर लगाए जाएंगे। ऐसा ही दंड दूसरों की भूमि पर बांध, कुंआ, पवित्र स्थल, उद्यान या मंदिर बनाने वाले को दिया जाएगा। अगर कोई व्यक्ति स्वयं या दूसरों के माध्यम से किसी परमार्थिक जल व्यवस्था को बंधक रखता या बेचता है तो हिंसा के लिए निर्धारित मध्यम दंड दिया जाएगा और गवाहों को अधिकतम दंड। पर वह जल व्यवस्था नष्ट या परित्यक्त नहीं होनी चाहिए। स्वामी की अनुपस्थिति में ग्रामीण जन और परमार्थी जन उसकी मरम्मत कराएंगे।”
जल संचय व्यवस्था के लिए मूल पाठ में कई शब्दों का प्रयोग किया गया है- पानी जमा करने के लिए सेतु, नहर के लिए परिवह, तालाब के लिए तातक, नदी जल के लिए नद्ययतना, नदी पर बनने वाले बांध के लिए नदिनीबंधयतन, इस बांध से निकली नहर के लिए निबंधयतन और कुआं के लिए खट। कौटिल्य ने दो प्रकार के सेतु बताए हैं- प्राकृतिक झरने या जल बहाव वाला सेतु सहोदक; नहरों से लाए गए पानी से बना जलाशय आहर्ध्योदक। कौटिल्य ने एक शब्द का प्रयोग किया है- आधारपरिवाहकेद्रोपभोग्या यानी “जलागार की नहरों से सिंचित खेतों का उपयोग।”
कौटिल्य के अर्थशास्त्र से कुछ और दिलचस्प बिंदु उभरते हैं। जिस जमीन पर तालाब बनाया जाता था वह राज्य की होती थी (राजा स्वयं गच्छेत); स्थानीय निवासी सार्वजनिक उपोयग के लिए (संभूया सेतुबंधात्) तालाब बनाने के वास्ते अपने संसाधनों को इकट्ठा करते थे सिंचाई व्यवस्था के निर्माण में सहयोग न करने वाले के लिए दंड का प्रावधान था। साथ ही, तटबंधों को नुकसान पहुंचाने या ऊपर की सतह पर तालाब बनाकर निचली सतह के तालाब में बाढ़ की स्थिति पैदा करने के लिए भी जुर्माना ठोंका जाता था। कौटिल्य ने बांधों के पानी के गलत इस्तेमाल पर जुर्माना, करों में रियायत और तालाबों के रखरखाव या नदियों पर बने ढांचों की मरम्मत आदि में विफलता के लिए दंड आदि के बारे में विस्तृत ब्यौरे दिए हैं।
“उसे प्राकृतिक जल स्रोत या कहीं और से लाए गए पानी के उपयोग से सिंचाई व्यवस्थाओं का निर्माण करना चाहिए। इन व्यवस्थाओं का निर्माण करने वालों को उसे भूमि, अच्छा रास्ता, वृक्ष और उपकरणों आदि से सहायता करनी चाहिए और पवित्र स्थलों तथा उद्यानों के निर्माण में भी सहायता करनी चाहिए। अगर कोई सिंचाई के काम में भाग नहीं लेता तो उसके श्रमिकों तथा बैलों आदि को उसके बदले काम में लगाना चाहिए और उसे व्यय वहन करना चाहिए, परंतु उसे सिंचाई व्यवस्था का कोई लाभ नहीं मिलना चाहिए। सिंचाई व्यवस्था के अधीन मछलियों, बत्तखों और हरी सब्जियों पर राजा का स्वामित्व होना चाहिए।”
न्यायाधीशों से सबंधित एक अध्याय में उन्होंने लिखा हैः
“अगर जलाशय, नहर या पानी जमाव के कारण किसी के खेत या बीज को क्षति पहुंचती है तो उसे क्षति के अनुपात में क्षतिपूर्ति की जानी चाहिए। अगर जल जमाव, उद्यान या बांध के कारण दोहरी क्षति हो तो दोगुनी क्षतिपूर्ति की जानी चाहिए।
“ऊंचाई पर बने तालाब से जिस खेत को पानी मिलता है उसमें उसके बाद उससे नीचे बने तालाब के पानी से बाढ़ नहीं आनी चाहिए। ऊपर की सतह पर बने तालाब को नीचे की सतह पर बने तालाब में पानी भरने से रोकना नहीं चाहिए, बशर्ते यह तीन साल के प्रयोग में नहीं लाया जा रहा हो इस व्यवस्था के उल्लंघन के लिए दंड, हिंसा और तालाब खाली करने पर मिलने वाले दंड जैसा ही हो।
“पांच साल से प्रयोग में लाई जा रही जल व्यवस्था का स्वामित्व लोप हो जाएगा, बशर्ते स्वामी किसी खास कष्ट में न हो। जब नए तालाब और बांध बनाए जाते हैं तो उस पर पांच वर्षों के लिए कर मुक्ति दी जाएगी, नष्ट या परित्यक्त तालाब या बांध के लिए चार वर्षों के लिए उनमें से खरपतवार आदि की सफाई के लिए तीन वर्षों के लिए, और सूखी भूमि पर पुनः खेती के लिए दो वर्षों के लिए कर मुक्ति दी जाएगी। खेत को बंधक रखा जा सकता है या बेचा जा सकता है।
“नदी या तालाब से नहर बनाने वाले लोग खेतों, उद्यानों या बगीचों की सिंचाई के बदले में, होने वाली पैदावार का एक हिस्सा ले सकते हैं या दूसरे लोगों से भी, जो उनका लाभ उठाते हों। और जो लोग इनका उपयोग पट्टे, किराए पर या हिस्सेदारी के एवज में करते हैं या इसका अधिकार हासिल करके करते हैं उन्हें इनकी मरम्मत वगैरह भी करवानी होगी। मरम्मत न कराने पर दंड क्षति का दोगुना भरना पड़ेगा। बारी से पहले बांध से पानी छोड़ने का दंड भरना होगा और दूसरे की बारी आने पर लापरवाही से उसका पानी रोकने पर भी इतना ही दंड होगा।”
प्रथा के उल्लंघन पर एक अध्याय में कौटिल्य ने लिखा हैः
“अगर कोई उपयोग में आए पारंपरिक जल स्रोत का उपयोग रोकता है या ऐसा नया जल स्रोत बनाता है, जिसका पारंपरिक कामों के लिए उपयोग न किया सके, तो हिंसा के जो न्यूनतम दंड निर्धारित हैं वह उस पर लगाए जाएंगे। ऐसा ही दंड दूसरों की भूमि पर बांध, कुंआ, पवित्र स्थल, उद्यान या मंदिर बनाने वाले को दिया जाएगा। अगर कोई व्यक्ति स्वयं या दूसरों के माध्यम से किसी परमार्थिक जल व्यवस्था को बंधक रखता या बेचता है तो हिंसा के लिए निर्धारित मध्यम दंड दिया जाएगा और गवाहों को अधिकतम दंड। पर वह जल व्यवस्था नष्ट या परित्यक्त नहीं होनी चाहिए। स्वामी की अनुपस्थिति में ग्रामीण जन और परमार्थी जन उसकी मरम्मत कराएंगे।”
जल संचय व्यवस्था के लिए मूल पाठ में कई शब्दों का प्रयोग किया गया है- पानी जमा करने के लिए सेतु, नहर के लिए परिवह, तालाब के लिए तातक, नदी जल के लिए नद्ययतना, नदी पर बनने वाले बांध के लिए नदिनीबंधयतन, इस बांध से निकली नहर के लिए निबंधयतन और कुआं के लिए खट। कौटिल्य ने दो प्रकार के सेतु बताए हैं- प्राकृतिक झरने या जल बहाव वाला सेतु सहोदक; नहरों से लाए गए पानी से बना जलाशय आहर्ध्योदक। कौटिल्य ने एक शब्द का प्रयोग किया है- आधारपरिवाहकेद्रोपभोग्या यानी “जलागार की नहरों से सिंचित खेतों का उपयोग।”
कौटिल्य के अर्थशास्त्र से कुछ और दिलचस्प बिंदु उभरते हैं। जिस जमीन पर तालाब बनाया जाता था वह राज्य की होती थी (राजा स्वयं गच्छेत); स्थानीय निवासी सार्वजनिक उपोयग के लिए (संभूया सेतुबंधात्) तालाब बनाने के वास्ते अपने संसाधनों को इकट्ठा करते थे सिंचाई व्यवस्था के निर्माण में सहयोग न करने वाले के लिए दंड का प्रावधान था। साथ ही, तटबंधों को नुकसान पहुंचाने या ऊपर की सतह पर तालाब बनाकर निचली सतह के तालाब में बाढ़ की स्थिति पैदा करने के लिए भी जुर्माना ठोंका जाता था। कौटिल्य ने बांधों के पानी के गलत इस्तेमाल पर जुर्माना, करों में रियायत और तालाबों के रखरखाव या नदियों पर बने ढांचों की मरम्मत आदि में विफलता के लिए दंड आदि के बारे में विस्तृत ब्यौरे दिए हैं।
Path Alias
/articles/kaautailaya-kaa-arathasaasatara-aura-jala
Post By: admin