पहाड़ों के घेरे में एक छोटा-सा गाँव था.
गाँव में लुभावने सीढ़ीनुमा खेतों के छोरों पर एक छोटे दरवाजे व दो छोटी खिड़कियों वाला एक सुंदर व मजबूत घर था. पहाड़ी ढलान के ऊपरी हिस्से से इसमें सीधे, बिना सीढ़ी के दूसरे मंज़िल में प्रवेश होता था और ढलान के निचले हिस्से से पहली मंज़िल में. पहली और दूसरी मंज़िल के बीच का भाग मज़बूत लठ्ठों पर टिका था, फर्श भी लकड़ी के फट्टों से ही बना था. यह पहली मंज़िल की छत थी. चांदनी रात में पूरा घर रोशनी से नहाया लगता.
यहाँ कार्तिक रहता था. सातवीं कक्षा में पढ़ता एक निडर विद्यार्थी. हंसमुख व होनहार. मिलनसार. खूब खुराफाती लेकिन ग़ज़ब की सूझ-बूझ का धनी. सबका कहना था कि कार्तिक के लम्बे कद पर गोरा रंग खूब फबता था. उसकी नाक तीखी थी और आवाज़ में एक करारा मीठापन.
वह अपनी मेहनती माँ के साथ पौ फटते न फटते सुबह जल्दी ही जाग जाता और छुट्टियों के रोज़ माँ के कामों में हाथ बंटाता. माँ मना करती कि अभी वह बहुत छोटा है तो उसके तर्क होते कि हम सभी काम करते हुए ही सीखते हैं. सीखना हमेशा ही अच्छा होता है तब भला आप मुझे मना क्यों करती है ? यूँ अपने तर्को से वह माँ को लाजवाब कर देता, अपनी बातों से कायल कर लेता. कभी माँ के साथ जंगल जाकर लकड़ियां काटता, कभी दोस्तों के साथ भांति-भांति के खेल खेलता या कभी गाँव के पुस्तकालय में चला जाता और वहाँ अलग अलग विषयों की किताबें पढ़ता.
कुछ किताबें समझ में आती, कुछ नहीं पर वह कोशिश करता. पूरा ध्यान व दिल लगा कर पढ़ता. किताबें उसे एक ऐसी दुनिया में ले जाती जो इतनी विशाल व अपार थी कि उसके विस्मय व जिज्ञासा का तापमान बढ़ता जाता. किताबों के अलावा उसे छोटे-बड़े आकार के कोन जमा करने का शौक था. नदी में तैरने का भी. पर वह जानता था कि अगर पानी का बहाव तेज़ हो तो नदी में नहीं उतरना चाहिए.
यूँ कार्तिक तरह तरह के खेलों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता था और अक्सर इनमें अव्वल आता. जब विभिन्न स्कूलों की आपस में प्रतियोगिताएं आयोजित होती तो वह अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व करता–कभी किसी विषय पर वाद-विवाद की प्रतियोगिता में, कभी लम्बी दौड़ में. इसलिए कम उम्र में ही वह अपने यहाँ के जीवन व वातावरण से अलग दूसरे स्कूलों व दूसरे गांवों तथा दूसरे राज्यों के बारे में जानने लगा था. जब वह दूसरी जगहों पर जाता तो वहाँ नये दोस्त बनते जिनकी बोली-बानी से लेकर पहनावा तक कार्तिक से बहुत भिन्न तरह का होता. यह सब उसे बहुत अच्छा लगता. उसका अनुभव बड़ा होता जाता, चीज़ों को जानने की इच्छाएं भी.
इन यात्राओं में एक बार उसकी मुलाक़ात अरिन से हुई. अरिन मरू-प्रदेश–राजस्थान–से था. दोनों एक ही कमरे में ठहरे. वह देखता सोने से पहले रोज़ रात में अरिन पहले अपनी डायरी में पूरे दिन की आपबीती व अपने विचार व अनुभव लिखता फिर हाथ-मुंह धोता, दातुन करता और तब बिस्तर पर सोने जाता. कार्तिक को अरिन की यह आदतें बहुत काम की जान पड़ी सो उसने भी इन्हें अपने जीवन में अपनाना शुरू कर दिया. अपने दोस्तों को चिठ्ठियां तो वह पहले भी लिखता था लेकिन अब वह डायरी भी लिखने लगा.
राजस्थान में उसने अपनी डायरी में लिखा–
’’यहाँ कुछ ही लड़के-लड़कियां ऐसे हैं जिन्होंने ’’भूकम्प’’ के बारे में सुना है, बाक़ी बहुतों को तो इस शब्द का अर्थ भी नहीं मालूम.’’
डायरी में अपने से बातचीत करने का यह नया ढंग उसे एक अलग तरह का रोमाँ च देता. जब कभी अपने लिखे को कई दिनों बाद वह दुबारा पढ़ता तो यह जानकर उसे गहरा अचरज होता कि उसके अन्दर कितना कुछ छिपा है जो डायरी के पन्नों पर धड़ाधड़ उतरता चला जाता है. उसे यह अपने ही भीतर छिपे-दबे ऐसे अपार खज़ाने को खोज लेने सा लगता जो हर रोज़ नया व अनूठा होता. इससे उसकी लिखावट पहले से सुन्दर होने लगी और सोच ज़्यादा साफ़ व सटीक. भाषा में भी सधाव आने लगा. अब कार्तिक अपने सब दोस्तों को डायरी लिखने के फ़ायदे बताने लगा. स्वयं को भाषा में व्यक्त करने के लिए वह सभी को प्रोत्साहित करता.
उसके दोस्त आकाश ने एक दिन अपनी डायरी में दर्ज़ किया–’’मुझे सब दिन अच्छे लगते हैं. सब बातें, सब विषय. बड़े हमारे लिए उस बरगद के घने पेड़ की तरह है जिसकी छांव में होना हम बच्चों को सुरक्षा देता व हमारे मन में अभय लाता है, लेकिन ऐसा क्यों होता है कि हमारी कक्षा की सारी किताबें बड़े ही तैयार करते हैं ? इन किताबों को बनाते समय हमसे क्यों नहीं पूछा जाता ? और तो और आज जिस विषय पर वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित थी उसका विषय भी गुरूओं ने ही तय किया था–इस विषय पर भाग लेने वाले विद्यार्थियों ने नहीं. मानो हम बच्चे बड़ों के हाथों की कठपुतली मात्र हो. जब मैं बड़ा हो कर गुरूजी बन जाऊंगा तो अपने विद्यार्थियों से कहूँगा कि अपने पढ़ने की किताबें वे स्वयं ही मिल कर बनाएं और प्रतियोगिताओं वग़ैरह के विषय भी ख़ुद ही तय करे. इससे सब विद्यार्थियों को वैसा ही आनन्द मिलेगा जैसा कि मुझे अपनी साइकिल चलाने से मिलता है.
अभी तो हर बार जब देखो तब पुरस्कार में चुन्नू-मुन्नू या परियों की कहानियां ही देते रहते हैं जबकि इन किताबों को पढ़ने में मुझे अब उतना रस नहीं आता जितना कि तब आता जब अगर–जैसा कि कार्तिक अरिन के बारे में इतनी बातें बताता है कि काश–अरिन जहां रहता है वहाँ के बारे में पढ़ने-जानने को मिलता. कार्तिक बता रहा था कि जिस इलाके में अरिन रहता है वहाँ चारों ओर रेत ही रेत है, जंगल या झरने तो कहीं है ही नहीं. तब वे सब पानी कहां से लाते होंगे ?’’
ऐसे ही कार्तिक की दोस्त ऋचा जब स्कूल में पढ़ाये जाते पाठों को याद करते थक जाती तो सोचने लगती कि वह थक क्यों जाती है जबकि नये नये प्रश्न उसके मन में जगने-जन्म लेने लगते हैं तब तो वह थकती नहीं उल्टा पहले से ज़्यादा ताज़ा व खिल-सा जाती है. क्या यह वही अवस्था है जिसके लिए पापा कहते हैं कि हमें मौलिक व रचनात्मक होना चाहिए न कि तोते जैसा रटंतू ?
दरअसल, कार्तिक व उसके दोस्त सयाने इतने थे कि अपने मासूम सवालों से बड़े बड़ों के कान कतर लेते. कभी पूछते–’’जब सब इंसान बराबर है तो कक्षा में हम लड़के लड़कियों को अलग अलग क्यों बिठाया जाता है ? क्यों कुछ बच्चे स्कूल आकर पढ़ते नहीं ? क्यों कुछ बच्चों को किसी ढाबे या कहीं और काम पर चले जाना पड़ता है बजाय स्कूल आने के ?’’
कभी पूछते–’’ऐसा क्यों है कि कुछ बच्चे किसी स्कूल में जाते हैं तो कुछ दूसरे किसी स्कूल में ? सभी बच्चों के लिए एक-सी सुविधाओं वाली एक ही बड़ी स्कूल क्यों नहीं होती जबकि सब गुरूजी कहते हैं कि हम सभी को मिल-जुलकर रहना चाहिए ?’’
ऐसे ही एक रोज़ जब कार्तिक शहर के एक स्कूल में लम्बी दौड़ की प्रतियोगिता में भाग लेने गया तो वहाँ उसने टेनिस और बैडमिंटन के खेल को क़रीब से देखा. जब बल्ले को हाथ में लिया तो यह जानकर उसे बहुत गुस्सा आया कि ये बल्ले उस अंगू पेड़ से बने हैं जिसकी हल्की व मजबूत लकड़ी काटने के लिए उसके अपने वहाँ के अधिकारियों ने उन्हें मना कर दिया था जबकि उसके गाँव में इस पेड़ की लकड़ी को हल के लिए जुआ बनाने वास्ते लाते हैं. उसे उन दिनों की साफ़ याद थी कि पुराने हल से खेत जोतने में उसके चाचा को कितनी तकलीफ़ होती थी.
कार्तिक को बहुत धक्का लगा और उसने गुरूजी से पूछ ही लिया कि ’’हमारे यहाँ अधिकारी अंगू को काटने से मना करते हैं. हम इसे जुआ बनाने के लिए उपयोग में लाते हैं जबकि यहाँ तो इससे खेलने के लिए बल्ले बनाए गये हैं. ऐसा क्यों ?’’ कार्तिक के प्रश्न से गुरूजी सकपका गये. उन्होंने उसे डपटते हुए कहा–’’खेलने में ध्यान दो. फालतू की बातों में नहीं.’’
उस दिन रात में कार्तिक ने जीवन में पहली बार बुरा सपना देखा. वह सपने में बहुत दुखी था और चीख चीख कर पूछ रहा था–’’बड़े हमारी बात क्यों नहीं सुनते ?’’
अगले दिन अपने गाँव लौट कर कार्तिक दोपहर में संस्था वाली दीदी–मेधा–के पास चला गया. मेधादी के पास बैठना उसे उतना ही प्रेरणाप्रद लगता जितना अपने बूढ़े दादा के पास बैठना. दादा उसे अपने युवा दिनों के रोचक क़िस्से सुनाते थे जिससे उसे पहले के लोगों तथा अपने गाँव के बड़े-बुजुर्गो के जीवन व संस्कृति के बारे में बहुत कुछ जानने को मिलता था तो मेधादी के साथ रहने में उसे अपने ही गाँव में आ रहे नये परिवर्तन व चीज़ों के बारे में सीखने व इनमें शामिल होने का मौक़ा मिलता. कभी कभार यहाँ भी वह मेधादी के सामने ऐसे सवाल उठा देता कि उन्हें इसका जवाब देना बहुत कठिन लगता. मसलन, कार्तिक पूछ बैठता–
’’पहले जब आप सब लोग हमारे गाँव में नहीं आते थे तब हम ’’बाढ़ या भू-स्खलन’’ को ’’रग्वाडो’’ या ’’नालों’’ को ’’गधेरे’’ कहते थे या इसी तरह हमारे यहाँ अपनी ही बोली-शैली के बहुत सारे शब्द आम चलन में थे लेकिन आपके आने के बाद से धीरे धीरे उन शब्दों की जगह अब आपके शब्दों ने ले ली है और हमारे अपने शब्द व व्यवहार ग़ायब होते जा रहे हैं; ऐसा क्यों होता या हो रहा है ? क्या आप सब शहर जाकर हमारे शब्दों को अपना रहे हैं ?’’
कार्तिक के ऐसे प्रश्नों पर मेधादी उसे शाबासी देकर प्रोत्साहित करती लेकिन ख़ुद किसी जटिल सोच में डूब जाती मानो किसी गहरे कुएं में. कुछ देर चुप रहती. फिर अच्छे से समझाने लगती–
’’हमें आपस में एक दूसरे से सीखना चाहिए. अच्छे अच्छे काम करते चले जाना चाहिए. ताकि धीरे धीरे गाँव शहर में और शहर गाँव तक ऐसे विस्तार ले लें कि दोनों एक हो जाय. अपनी अपनी पहचान बनाए रखते हुए भी गाँव -शहर का भेद ही न बचा रह जाय. फिर गाँव का ज्ञान शहर के काम आएगा और शहर का ज्ञान गाँव के.’’
मेधादी और भी बहुत कुछ बताती-समझाती पर कार्तिक का मन शान्त नहीं होता. वह पूछता–
’’जिसे आप विकास कह रही है वह तो अच्छा ही है. कहीं बांध बन रहा है, कहीं कोई बड़ी सड़क. लेकिन पहाड़ों को काटकर, बारूद के बड़े बड़े धमाकों से उड़ा कर ही ये सब विकास के काम किए जा रहे हैं–क्या इनका दूरगामी परिणाम घातक नहीं होगा ? धरती तो हम सब की माँ है और दोस्त भी. वह बोलती नहीं लेकिन कितना कुछ देती है–फल-फूल से लेकर पानी तक. तब धरती-माँ से इस तरह शत्रु-सा हिंसक बरताव क्या जायज है ? अगर वह कभी नाराज़ हो गयी तो ? क्या हमें दूसरे विकल्प नहीं तलाश करने चाहिए ?’’
कभी कहता–
’’अच्छा फिर ऐसा क्यों है कि हमारे गाँवों में मोबाइल आ गया है लेकिन बिजली अभी तक ठीक तरह से नहीं पहुंची है ?’’
यूँ कार्तिक अपनी रौ में आगे बोलता चला जाता–
’’जब शहर जाता हूँ और वहाँ बने अपने नये दोस्तों से बातें करता हूँ तो मुझे गहरा अचरज होता है कि उनके पास दुनिया-जहान की जानकारियां तो बहुत है लेकिन वे अपने ही आसपास से बेखबर है जबकि यहाँ गांवों में हमें अपने आसपास का पूरा ज्ञान बचपन से ही संस्कार के रूप में मिलता चला जाता है जिससे हमें खेती-बाड़ी से लेकर तमाम चीज़ों का पता रहता है कि किससे क्या बनता है या कि किस चीज़ का क्या क्या उपयोग है. हम भीमल के पेड़ की छाल से रस्सियां तक बनाना जानते हैं.’’
एक दिन उसने कहा–
’’मुझे शहर में मिला अपना वह विलायती दोस्त याद आ रहा है जो यह सोचता है कि दूध थैलियों से ही बनता व आता है–उसे यह भी नहीं पता कि दूध तो गाय-भैंस देती है और फिर थैलियों में इसे बाद में पैक किया जाता है. उसे यह जान कर भी गहरा आश्चर्य हुआ था कि हम अपने गाँवों में अभी कुछ साल पहले तक ताला भी नहीं लगाते थे जबकि उसके वहाँ बिना ताला लगाये कोई अपने घर से बाहर निकलना अपने खयाल तक में नहीं ला सकता था. तब भला यह कैसी दुनिया है जिसमें मनुष्य ने अपने को ही ताले में बंद कर लिया है ?’’
कार्तिक जब यह सब बोल ही रहा था तभी मेधादी के दोस्त व स्कूल में नये आए युवा गुरूजी–दिनेश सर–ने मेधादी से कुछ ऐसा कहा जिसे सुनना कार्तिक को अच्छा लगा पर उसे वह ठीक तरह से बूझ नहीं सका.
सर कह रहे थे–’’कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन्हें कार्तिक अपने जीवन की स्थितियों के रूप में देखता है और उसी तरह से उसके निदान के उपाय भी खोजता है, उन्हें हम बजाय स्थितियों की तरह देखने के, समस्याओं के रूप मे लेने-देखने लगते हैं ? स्थितियों और समस्याओं के बुनियादी फ़र्क़ को क्या हमें नहीं समझना चाहिए ?’’
उस दिन तीनों देर तक बातें करते रहे.
अब दिनेश सर कार्तिक से कुछ इस तरह का दोस्ताना व्यवहार करते कि कार्तिक और उनके बीच का उम्र का फासला आड़े न आकर पट-सा जाता. वह और उसके दोस्त खुलकर दिनेश सर से बहस करते और दिनेश सर उन्हें अपने काम-काज में बाक़ायदा शामिल कर लेते. इससे सर और विद्यार्थियों के बीच की घनिष्ठता का दायरा फैलने लगा. धीरे धीरे बच्चे यह जानने लगे कि उनके गाँव के विकास तथा उन्नति के लिए कितने कितने तरह के कामों में कितने कितने तरह के लोग कितने धीरज व विवेक के साथ जुटे हैं.
बच्चे देखते कि कैसे दिनेश सर गाँव में सभी लोगों को आपदाओं के ख़तरों के बारे में जानकारी देने के अलावा यह भी बताते हैं कि सभी इन गाहे-बगाहे घट जाने वाली आपदाओं की रोकथाम कैसे करें और इससे बचने के लिए किस तरह की तैयारियों के प्रति सक्रिय व जागरूक हो.
ऐसे ही एक बार दिनेश सर ने स्कूल में एक बिलकुल नये तरह का प्रयोग किया. उन्होंने स्कूल के बच्चों के साथ आपदा पर आधारित एक ऐसी प्रश्नावली तैयार की जिसके माध्यम से यह पता लगाया जा सके कि सभी बच्चों के माता-पिता व उनके परिवार के बड़े सदस्य आपदाओं के बारे में असल में कितना जानते हैं. बच्चों के लिए यह एक बढिया खेल बन गया क्योंकि घर पर उन्हें ही सबसे प्रश्नावली के सवालों को पूछना और जवाब लेना था. इससे बच्चे प्रश्नकर्ता बन गये–यानि स्वयं गुरूजी की भूमिका में आ गये. अपने अपने घर जाकर सभी बच्चों ने तरह तरह से अपने अपने माता-पिता से इन सवालों को पूछा. ऋचा ने अपनी माँ से यह पूछा–
’’क्या आपको पता है जिस गाँव में हम रहते हैं वहाँ भूकम्प आने की सम्भावना ज़्यादा है ?’’
तब पता चला कि ऋचा की माँ को इस बारे में कुछ पता ही नहीं था. फिर ऋचा ने उन्हें विस्तार से बताया–
’’उनका गाँव भूकम्प-संवेदनशील क्षेत्र है इसलिए उन्हें कई तरह की सावधानियां रखनी चाहिए जैसे अगर कभी भूकम्प या और कोई आपदा आ जाय और सब इससे बचने के समय अगर आपस में बिछड़ जाय तो फिर यह बताने के लिए कि वे सब सुरक्षित हैं या यह कि उन्हें मदद चाहिए तो घर में हम सभी के पास अपने किसी ऐसे रिश्तेदार का फोन नम्बर होना चाहिए जिसे हम आपातकाल के दौरान सूचित करके अपने बारे में बता सके क्योंकि भूकम्प के समय लम्बी दूरी का फ़ोन आसानी से लग जाता है.’’
यह सुनकर ऋचा की माँ पहले थोड़ा सोचती रही फिर कहा–’’हां, तेरी बात सही है. तेरे मामा जो दस गाँव छोड़कर रहते हैं उनके घर का फ़ोन नम्बर लेकर हम सभी अपने अपने पास रख लेते हैं.’’
ऐसे ही आकाश ने अपने पिता से यह सवाल किया–
’’क्या हमारा घर इतने मजबूत तरह से बना है कि अगर कभी भूकम्प आ जाय तो वह भूकम्प का सामना कर पाएगा ? भूकम्प के तेज़ कम्पन से कम से कम घर की छत इतनी मजबूत रहे कि वह सलामत बची रह जाय ताकि भूकम्प के दौरान घर टूटने की वजह से उन पर जान का खतरा न आ जाय ? क्या हमारा घर उस तरह से बना है जिसे ’भूकम्परोधी तकनीक’’ कहते हैं ?’’
आकाश के पिता को इधर-उधर से सुनी थोड़ी बहुत जानकारी थी लेकिन ठीक ठीक नहीं पता था कि यह ’’भूकम्परोधी तकनीक’’ क्या होती है और न ही इस बात का पूरा भरोसा था कि अगर भूकम्प आ गया तो उनका घर बच सकेगा या नहीं. उन्होंने आकाश से कहा–
’’मैं कल ही किसी अच्छे राजमिस्त्री के बारे में पता करके उससे मिलूंगा और उनसे हमारे घर को भूकम्प के प्रभाव से बचाने के उपायों के बारे में जानूंगा और चर्चा करूंगा.’’
इसी तरह किसी के कॉलेज में पढ़ने वाले बड़े भाई ने कुछ बताया तो किसी के किसान चाचा ने कुछ. जब पांचवीं कक्षा के छात्र विशेष ने दिनेश सर से यह पूछा कि उसकी माँ को पढ़ना-लिखना आता ही नहीं तो अब वह क्या करे ? तब दिनेश सर ने कहा कि इससे क्या हुआ, उसे अपनी माँ से बातचीत करनी चाहिए और जिन बातों के बारे में उन्हें नहीं पता उनके बारे में उसे अपनी माँ को समझाना-बताना चाहिए.
विशेष की बात से दिनेश सर को एकदम से यह सूझा कि क्यों न शनिवार के रोज़ सब बच्चों के माता-पिता या उनके परिवार के किसी वयस्क सदस्य को स्कूल में बुलाया जाय और आपदा से बचाव, सावधानियों के बारे में एक खुली चर्चा इस तरह से की जाय कि इसका संचालन भी स्वयं बच्चे ही करे और सवालों के जवाब भी इस विषय पर तैयारी करके स्वयं बच्चे ही देने की कोशिश करें ताकि बच्चे व बड़ों सहित स्कूल के दूसरे विषयों के शिक्षकों को भी आपदा-विषय पर पर्याप्त जानकारी भी मिल सके और वे इसके बारे में सक्रिय व जागरूक भी हो सके. दिनेश सर का यह सुझाव स्कूल के प्रधानाध्यापक जी को बहुत पसंद आया. उन्होंने कहा–’’हां, यह अच्छा रहेगा और इसमें अपने गाँव के प्रधान भाई जगदीश जी को भी बुला लेते हैं ताकि उनके स्तर की ज़िम्मेदारियां उन्हें सौंपी जा सके.’’
शनिवार का यह दिन इतना महत्वपूर्ण साबित हुआ कि स्कूल की बड़ी और छोटी कक्षाओं के लड़के-लड़कियों को आपस में मिलाकर कई तरह की टोलियां भी बना ली गयी और फिर सब बच्चे अब अपनी अपनी टोलियों के साथ हर छुट्टी के दिन तरह तरह से विभिन्न तरह की आपदाओं जैसे भूकम्प या बादल फटना या बिजली गिरना या जंगल में आग लग जाना इत्यादि पर जागरूकता कार्यक्रम बनाने लगे और उन्हें पूरे गाँव में इधर-उधर आयोजित करने लगे. सबको इन कामों में आनन्द आता क्योंकि इन कामों को अपनी तरह से करने की उन्हें पूरी आज़ादी होती. बच्चे अपने से पहल करना और बड़ों की तरह चीज़ों को अपने हाथ में लेना सीखने लगते. कभी कोई एक टोली स्कूल के गुरूओं की सहायता से आपदा पर वाद-विवाद या चित्रकला प्रतियोगिता आयोजित करती, कभी कोई दूसरी टोली गाँव की चौपाल पर नुक्कड़ नाटक के माध्यम से आपदाओं से बचने के उपाय रोचक व सरल तरह से बताती–अपने गाँव की बोली-बानी में ताकि खास तौर से वे सब बच्चे व महिलाएं उनकी बातों को ठीक तरह से समझ सके जिन्हें अपनी बोली के अलावा दूसरी भाषा नहीं आती थी.
एक टोली ने पंचायत भवन के बरामदे में एक ऐसा नक़्शा बना कर टांग दिया जिसमें आपदा-संवेदनशील गाँव व क्षेत्र आते थे. तीसरी कक्षा के चार बच्चे–गट्टू, टुन्नू, बिट्टी और रानी–एक दिन जब वहाँ बरामदे में खेल रहे थे तब उनकी नज़र इस नक्शे पर पड़ी और वे इसमें अपना गाँव ढूंढने लगे. तभी बिट्टी ने नक़्शे में अपना घर भी खोज लिया और मारे ख़ुशी के उछल पड़ी. लेकिन टुन्नू का घर गाँव के परले ओर पड़ता था–थोड़ा दूर था–सो वह एकदम से चिंता में भर कर बोला–
’’अरे ! मेरा घर इतनी दूर है कि अगर कभी कोई आपदा आ गयी तो मैं भला कैसे किसी को पुकारूंगा ? मेरी पुकार कोई सुन भी नहीं सकेगा. ओह ! अब क्या होगा ?’’ टुन्नू की यह बात सुनते ही बाक़ी तीनों दोस्त भी चिन्ता से भर उठे.
चारों के मुंह लटक गये. जब वे इस तरह से खेल छोड़कर लगातार सोचने लगे तभी टुन्नू को ही एक जोरदार खयाल आया. वह बोला–
’’क्यों न हम यहाँ पर सभी के घरों के फ़ोन नम्बरों की एक लिस्ट लगा दें ताकि मेरे जैसेे दूर रहने वाले बच्चे इनमें से अपने परिचित के फ़ोन नम्बर लिख कर अपने पास रख ले ताकि संकट के समय उन्हें फोन करके अपनी हालत के बारे में सूचना दे सके ? और मैं भी गट्टू का फ़ोन नम्बर ले लेता हूँ. अब इसे अपने पास ही रखूंगा या याद ही कर लूंगा.’’
टुन्नू के इस खयाल से सभी की आंखों में चमक आ गयी. वे फिर से नक़्शे में ही आगे और देखने लगे. अबकी गट्टू का ध्यान नक़्शे में इस ओर गया कि बगल वाले गाँव में एम्बूलेंस के अलावा कुछ और सुविधाएं भी हैं. वह बोला–
’’क्यों न कल जाकर गुरूजी से यह कहा जाय कि वे इस गाँव का फ़ोन नम्बर ले कर यहाँ लगा दें ताकि संकट के समय सबको इसका पता रहे और इस बड़े व सुरक्षित गाँव की ओर सब जा सके या वहाँ तक सूचना तो पहुंचा ही सके.’’
सबको गट्टू की यह बात पसंद आई. अगले दिन उन्होंने निधि मैडम को यह बताया. उन्हें बच्चों की इस सूझ पर बहुत आश्चर्य भी हुआ और वे बहुत प्रभावित भी हुई. उन्होंने सोचा कि हां, इसी तरह से धीरे धीरे गाँव में सब ची़जों के बारे में जाग्रत होना शुरू होते हैं और परिवर्तन आने लगते हैं. बस, बराबर कोशिश करते रहना होगा. वह पिछले कई महीनों से बराबर देख रही थी कि आपदाओं के बारे में जानकारी देने के लिए दिनेश सर व गाँव के कुछ बड़े कई पुस्तिकाएं व पोस्टर भी प्रकाशित करने लगे हैं.
इसमें कार्तिक व उसकी टोली का एक काम यह भी रहता कि वह इन पुस्तिकाओं के बिन्दुओं को इस तरह से सामने रखे कि उसकी अपनी उम्र के बच्चों को यह समझ आए. इस काम में निधि मैडम उनकी बहुत मदद करती.
ऐसे ही एक इतवार के दिन कार्तिक ने अपनी टोली ’’हम शैतान’’ के साथ दूसरी से पांचवीं कक्षा के बच्चों के लिए बाघ-बकरी का नाटक खेला.
सब बच्चे जमा हो गये. नाटक शुरू हुआ. नाटक में बाघ का मतलब भूकम्प से जोड़ा गया और बाघ से अपना जीवन बचाने वाली बकरियों का मतलब गाँव के सब लोगों से. जैसे ही मंच पर कार्तिक बाघ बन कर आया तो पूरा मंच ख़ूब जोर जोर से हिलने लगा. डरा देने वाली तेज़ आवाजें होने लगी. बूढे व विकलांग दादा के रूप में आकाश था तो गट्टू इन दादा के बेटे की भूमिका में. ऋचा दो दूसरे छोटे बच्चों के साथ माँ -बच्चों की भूमिका निभा रही थी और टुन्नू एक किसान परिवार के मुखिया के भेस में था. कुछ दूसरे बच्चे भी भूमिकाएं अदा कर रहे थे.
जैसे ही बाघ यानी भूकम्प आया तो गट्टू अपने दादा यानी आकाश को लेकर फ़ौरन एक मजबूत पलंग के नीचे छुप गया और कम्बल व तकिये से अपने व दादा को ढंक लिया. दूसरे घर में माँ की भूमिका में ऋचा अपने बच्चों के साथ दौड़कर घर से बाहर निकल कर खुले स्थान पर आ गयी क्योंकि मंच पर उसका घर एक कच्चे व कमज़ोर घर के रूप में दिखाया गया था. इसी तरह तीसरे घर में टुन्नू फ़ौरन सबसे पहले गैस व बिजली बंद करते हुए ऊंची आवाज़ में बोला–’’ओ ! कोई दरवाज़े के रास्ते में मत खड़े हो. दरवाज़ा गिर सकता है सो टेबल के नीचे छिप जाओ.’’
इसी तरह बाक़ी दूसरे पात्र भी अपने को बचाने में लग गये. बाघ यानी भूकम्प के रूप में कार्तिक पूरे मंच पर इधर-से-उधर और उधर-से-इधर होते हुए तेज़ी से पूरे मंच का चक्कर लगाते हुए दौड़ने लगा–यह बताने के लिए कि देखो भूकम्प आ रहा है. फिर वह मंच से चला गया. कुछ क्षणों तक सन्नाटा छाया रहा.
सभी बच्चे रोमाँ चित हो टकटकी लगाए मंच की ओर देख रहे थे कि तभी मंच पर पीछे से–सूत्रधार के रूप में–एक आवाज आने लगी जो बोल रही थी–
’’भूकम्प का दूसरा झटका भी आ सकता है. सब लोग टॉर्च व पेट्रोमेक्स व घर का क़ीमती सामान लेकर तुरन्त ही मजबूत भवन वाले स्कूल की सुरक्षित जगह पर पहुंच जाय. लेकिन अपने पडोसियों की मदद करना ना भूले. वे सब जो घायल हो गये हैं उनका प्राथमिक उपचार करे और भूकम्प की ख़बर बड़े गाँव भेजे ताकि वहाँ से मदद आ सके.’’
इसी तरह आवाज़ का बोलना जारी रहा. मंच पर सभी पात्र आवाज़ के कहे-बोले मुताबिक चलने व बरताव करने लगे. धीरे धीरे कई दृश्यों बाद जब नाटक अपने चरम पर पहुंच कर ख़त्म हुआ तो सभी बच्चे देर तक तालियां बजाते रहे. सभी को नाटक बहुत अच्छा लगा. घर लौटते हुए बच्चों के मुंह पर ’’बाघ बाघ: भूकम्प भूकम्प’’ था तो बड़े इस पर चर्चा कर रहे थे कि अगर इन आपदाओं से बचने के लिए हमारी छोटी छोटी तैयारियां व योजना पहले से ही रहे तो कितना अच्छा रहे ताकि इन संकटों का सामना बिना जान-माल की हानि के किया जा सके.
आने वाले कई दिनों तक इस नाटक की इतनी धूम मची रही कि कई गांवों में इसका मंचन हुआ. यूँ सात-आठ महीनों में ही इन सब गतिविधियों के कारण गाँव में इन छोटे-बड़े बच्चों की टोलियों की अलग पहचान बनने लगी. इससे बच्चे अपने को बहुत ज़िम्मेदार महसूस करने लगते और दुगुने उत्साह व लगन से काम करते. जब कार्तिक के अपने अनुभव में किताबों में लिखी यह बात आने लगी कि संगठन में ही शक्ति है तो किताबों के प्रति उसकी गम्भीरता व रूचि भी बढ़ने लगी.
अब किताबों में लिखी बातें महज़ हवाई उपदेश नहीं होकर उसके अपने आचरण का अर्क़ बनने लगीं.
तब भी यह समझने में कार्तिक को बहुत दिक्कत होती कि ऐसा क्यों है कि गाँव में हर उम्र की महिलाएं तो उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनती और सवाल भी करती हैं लेकिन उसकी स्कूल की बड़ी कक्षाओं के कुछ बच्चे अब भी उनकी बातों पर कान तक नहीं देते उल्टे उनका मज़ाक बनाते हैं और गाँव के कुछ बड़े पुरूष भी उन्हें निरा बच्चा मान कर अनदेखा कर देते हैं.
पर कार्तिक के मन में यह भरोसा जगने लगा था कि अच्छे काम व अच्छे विचार कभी निष्फल नहीं जाते. सो अपने संगी-साथियों सहित निराश-हताश हुए बिना सबको जाग्रत करने की इस चुनौती का वह सामना करता रहता. धीरे धीरे मेहनत रंग लाने लगी.
यह उस कहावत को बदलने जैसा था जिसमें आग लगने पर ही कुआं खोदा जाता था.
तब ख़ूबसूरत परियों से दिन कल्लोल करते बहते पानी से बीतने लगे.
फिर बरसात के वे अलग से दिन आए जो बच्चों को बहुत भाते थे पर माँ ओं को आफ़त लगते. बच्चों को स्कूली पहरों से राहत मिलने लगती, लेकिन माँ ओं के रोज़मर्रा के कामों में बारिश से मुश्किलें आने लगती. पिछले कई महीनों से पेड़ों पर बिछी-लटकी धान की पुआलों से पानी चुआता रहता और वे अब घरों की गाय-भैंसों के चारे के रूप में काम आने लगती. कभी दुपहर बाद की सुनहली धूप में गिरती बारिश का अपना सौन्दर्य खिलने लगता, कभी रातों में तेज़ हवाएं ठण्ड़ से गुदड़ियों में दुबके बच्चों की नींद अशान्त करने लगती.
समय अपनी लुकाछिपी करता चाल चलता लगता.
नदियों में पानी हल्के हल्के उफनने लगता.
इन्हीं दिनों कार्तिक ने गौर किया कि पिछले तीन दिनों से पानी लगातार गिर रहा था. पाठशाला में इससे छुट्टियां थीं लेकिन उसे अपनी टोली व दिनेश सर के संग पाठशाला के भवन में जाना-रहना था क्योंकि बाहर से कुछ लोग संस्था द्वारा आयोजित कार्यशाला में भाग लेने आए थे. मेधादी को अपनी बीमार मित्र का हाल-चाल जानने अचानक शहर जाना पड़ गया था जिससे दिनेश सर पर काम का सारा दबाव आन पड़ा था. सारी टोली बढ़-चढ़ कर उनके कामों में हाथ बंटा रही थी.
पर कार्तिक को लगा कि उस दिन की हवा कुछ और थी.
उसे याद आया अभी थोड़े दिनों पहले ही उसने वह भयानक सपना देखा था जिसमें पाठशाला से थोड़ी ही दूर वाले ताल के पिछले हिस्से से बड़े बड़े पेड़ बह बह कर ताल के चारों ओर चक्कर काटने लगे थे, ताल में उठ रही लहरें उन्हें तिनकों की तरह यहाँ -से-वहाँ , वहाँ -से-यहाँ फेंक रही थीं. उसके देखते-देखते ही सारा ताल पेड़ों से ढंकने लगा था. सपने में अंधेरा होने लगा था सो दिखाई पड़ना कम होता चला गया पर कान तो सब सुन रहे थे. दूर से चट्टानों के टूटने की कान फोड़ देने वाली आवाजे़ं इतनी भयावह थी कि सपने में कार्तिक को लगा उसके कानों की सुनने की क्षमता को सामान्य होने में कई दिन लग जाएंगे. दूर पानी के साथ चट्टानों की बारिश देखते हुए उसे लगा कि एक मेरूमंदिर क्षीर-सागर आकर चला गया था. वह सपने में इतना घबरा गया कि उसे लगा कुछ अनहोनी होकर रहेगी. क्या सचमुच ?
जागने पर उसे ध्यान आया कि सपने में उसने भू-स्खलन आते देखा था.
और आज भी वह अशान्त-सा महसूस कर रहा था.
पाठशाला का भवन बस्तीवाले घरों से थोड़ा दूर व ऊंचाई पर इस तरह से बना था कि बहुत सारे घर वहीं से दिख जाते थे.
वहाँ कार्यशाला की गहमा-गहमी जारी थी.
अचानक जोर से घरघराहट की आवाज़ आने लगी. सभी आनन-फानन में भागमभाग करते हुए भवन के बड़े आंगननुमा बरामदे में, दरवाजे के रास्ते को छोड़ कर, एक सुरक्षित कोने में जमा हो गये. किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि तभी धरती में फिर तेज तेज झटके आने लगे और बिजली गुल हो गयी. सभी को पता चल गया कि यह सच में भूकम्प आ गया है.
उस समय बीच बीच में आसमान में बिजली भी यूँ कड़क रही थी मानो शैतान अपने सफ़ेद दांत दिखा रहा हो.
सभी सन्न से रह गये. भूकम्प गुज़र जाने पर सभी संभलने लगे. दिनेश सर व कुछ दूसरे साथियों ने पेट्रोमेक्स, लालटेन, मशालें व टार्च अपने हाथों में ले लिए और अंदाज़ा लगाने की कोशिश करने लगे कि कहीं गाँव -बस्ती में इस भूकम्प-प्रलय ने सब कुछ तहस-नहस तो नहीं कर दिया ?
उस भयानक अंधेरी रात का बयान शायद ही कोई काग़ज़ पर उतारने में सक्षम हो पाये. वहाँ का माहौल इतना खौफ़नाक हो चुका था तथा सभी के हाथ-पांव यूँ फूल रहे थे कि एक एक पल काटना सदियों जैसा लग रहा था. सबकी जुबान पर केवल ईश्वर का नाम था.
पानी का गिरना जारी था. इतना तय लग रहा था कि बस्ती तक पहुंचने के कई रास्ते ज़रूर अवरूद्ध हो गये होंगे. कार्तिक को अपनी माँ की चिन्ता होने लगी और बाक़ी सबको भी पूरे गाँव की. फै़सला तुरन्त करना था कि अब क्या करना चाहिए. दिनेश सर ने बिना वक़्त खोये रणनीति बनाई. सभी को काम सौंपे. कार्तिक, दिनेश सर व उनके एक साथी के साथ, गाँव की ओर रवाना हुआ क्योंकि इस घोर अंधेरे में वे रास्ते व पुल तहस-नहस हो चुके थे जिनका पता सर को था सो कार्तिक उन्हें दूसरे रास्तों से ले चला. बेलचा, फावड़ा उनके हाथों में थे और रोशनी कार्तिक के हाथों में.
निडर कार्तिक के बाल-मन में लगातार कई बातें एक साथ जुगनुओं जैसे जल-बुझ रही थी: ’’क्या सब फूल ख़त्म हो गये होंगे ? क्या सबकुछ रेत की तरह हाथों से फिसल गया है–उस रेत की तरह जिसका इस्तेमाल करना अरिन तो जानता था लेकिन मुझे अब अपनी देश-काल-परिस्थिति से इसे सीखना-जानना होगा ? ईश्वर हमेशा अच्छी चीज़ें ही धरती पर भेजता है–सुंदर बारिश, फूल-फल, सूरज-चंदा-तारों की रोशनी से लेकर सभीकुछ–तब उसने यह बुरी चीज़ क्यों भेज दी है ? क्या अनजाने में ही ? आख़िर हम सब उसके बच्चे हैं, वह हमसे प्यार करता है. तब क्या अभी के संकट की इन घडियों में हमारे लिए कोई मतलब व संदेश छिपा है ?’’
कार्तिक का सोचना जारी रहा और किसी तरह वे बचते-बचाते गाँव तक पहुंचे.
गाँव में सभी वहाँ की एक खुली जगह पर इकठ्ठा थे और आपस में एक दूसरे की गिनती करते हुए यह पता लगा रहे थे कि कितने लोग अभी ग़ायब हैं और वे ग़ायब लोग कहां हो सकते हैं. कुछेक के घर धंस-से गये थे, कुछ के खंड़हरों में बदल गये थे. कुछेक के मकानों में सिर्फ दरारें आईं थी तो कुछेक मकान मलबों में दब गये थे.
पूरा दृश्य विनाश की कहानी स्वयं ही बयां कर रहा था.
छोटे बच्चों, बुजुर्गो व महिलाओं को फ़ौरन ही उधर के एक सुरक्षित कोने में सभी ने मिलकर पहुंचाया. फिर कार्तिक सहित बाक़ी सक्षम व मजबूत लोग लोगों को मलबों से निकालने में लग गये–कोई कहीं फंसा था, कोई कहीं. स्थितियां बहुत कठिन थी लेकिन साहस जगा था. लगता था सब अकेले थे पर सब साथ थे.
सबने सबकी जान बचाई.
अगले कुछ दिनों तक सदमे की अजीब-सी ख़ामोशी पूरे गाँव पर मंडराती रही. कार्तिक लगातार राहत व बचाव कार्यो में पूरे प्राणपन से लगा रहा–उसकी टोली के सब साथी भी.
जब धीरे धीरे सबकी सांसें सामान्य लय में वापिस आने लगी तो चारों ओर कार्तिक के अलावा बच्चों की सभी टोलियों के लिए सराहना के स्वर गूंज रहे थे. सराहना के इन स्वरों में बड़ी कक्षाओं के उन विद्यार्थियों के साथ उन बड़ों के स्वर भी शामिल थे जो अभी कुछ महीनों पहले तक या तो इन टोलियों का मज़ाक बनाने में लगे रहते थे या उनकी कही बातों की अनदेखी करते थे. तब कोई नहीं जानता था कि ये टोलियां तथा सरकार के दूसरे प्रतिनिधि गाँव में आपदा से बचाव, तैयारी व सावधानी की जिन बातों की अलख जगाने में लगे थे वे किसी परीकथा का कभी न घटने वाला काल्पनिक क़िस्सा न होकर आने वाले दिनों में उनके जीवन में एक भयानक असलियत के तौर पर हूबहू उजागर होने वाला है.
हां, सच है प्रकृति को पूरी तरह से समझ लेना इंसान के बूते की बात नहीं पर हम अपनी कोशिश करते हुए सजग व तैयार तो रह सकते हैं–ताकि हर संकट का सामना किया जा सके.
जैसा कि कार्तिक और सभी टोलियों ने–एक तरह से पूरे गाँव ने–अपनी जीवन-कहानी में समझा व उसे चरितार्थ किया.
(’’कार्तिक की कहानी’’ संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम व उत्तरांचल सरकार के आग्रह पर आपदा से बचाव व तैयारी के सन्दर्भ में सातवीं-नवीं कक्षा के छात्रों के लिए लिखी गयी थी. कोशिश रही कि प्रथागत ढर्रे में सेंध लगाते हुए कुछ ज़रूरी सवाल इस रीति से उठाये जा सके कि कहानी का संदेश भी साफ़ तरह से सम्प्रेषित हो सके.
अनुपम मिश्र व संतोष पासी के लिए
यह अवसर सुलभ कराने के लिए मैं श्री पीयूष रौतेला और पुष्पलता रावत का आभारी हूँ.)
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