कांपती जुबानः मजबूत शब्द


मेरे सामने गाँव की पुरानी स्थायी व्यवस्था के बारे में जानने के लिये कुछ स्रोत थे तो वे बुजुर्ग, जो उम्र के शतक के नजदीक पहुँच चुके हैं। शरीर बिल्कुल जर्जर और उनकी याददाश्त धूमिल-धुँधली-सी। मैं सब कुछ छोड़कर उन बुजुर्गों के पास गया, जो गाँव की स्वस्थ, सुंदर तथा सतत व्यवस्था के गवाह रहे हैं। उनसे चर्चा करने लगा। खेती-बारी, पशुपालन, चिकित्सा, आवास, स्थान सम्बन्धी अनेक रोचक वैज्ञानिक तथ्य उभर कर धीरे-धीरे सामने आने लगे, आ भी रहे हैं। बात सात साल पहले की है। उस समय मैं दिल्ली में था। जिस किसी भी सभा, गोष्ठी, संस्था में जाता, वहाँ गाँवों की बहुत चर्चा होती थी। ग्राम स्वराज, ग्रामीण स्वावलंबन, पंचायती राय जैसी बातें होतीं। मैं सुनता था कि जब तक गाँव समृद्ध नहीं होगा, तब तक देश की समृद्धि की बात बेमतलब है। सतत विकास, जैव-विविधता की चर्चा भी होती थी। कई बताते कि गाँव की ओर लौटना ही एकमात्र विकल्प है। मुझे लगा कि शहर में तो गाँव की बहुत इज्जत है। गाँव के कुँओं की, तालाबों की, खेत-खलिहान के साथ-साथ जंगलों की, रिश्तों की, संयुक्त परिवार की, कुल मिलाकर गाँव की सम्पूर्ण सभ्यता की। मुझे तो अपने गंवई होने पर गर्व होने लगा। और गाँव की व्यवस्था को वापस लाने का उत्साह भी बढ़ने लगा। यह उत्साह मात्र एक गाँव को जानने-समझने या बचाने का नहीं, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था को जानने-समझने का, संरक्षित करने का था जो सहज स्वावलंबी, सतत तथा स्वाभाविक है। बस एक दिन मैंने दिल्ली की अपनी छोटी-सी नौकरी छोड़ी और कुछ किताबों तथा प्रेरक विचारों के साथ अपने गाँव वापस लौट गया।

जब गाँव आया तो यहाँ सब कुछ उलटा मिला। गाँव को तो शहर बनाने की होड़-सी लगी है। कुँए कचराघर बन गये थे। तालाब में गाँव की गंदी नालियों का पानी जा रहा था, कचरा फेका जा रहा था। खेतों में दूर-दूर तक कोई पेड़ नहीं बचा। घर, रिश्ते-नाते सब व्यर्थ होते जा रहे हैं। यह भी हिसाब लगाया जा रहा है कि खेती-बारी और पशुपालन घाटे का सौदा है। फल, सब्जियाँ, घी, दूध, दही, मक्खन सब मिल रहा है। पर वह गाँव का नहीं, शहर के बाजार का है। मेरा गंवई गर्व डगमगा गया। यहाँ तो गाँव स्वयं अपने को गाँव कहने में शरमा रहा है। फिर भी मैंने अपने को थोड़ा सम्भाला। इन सब बातों को मैंने अपनी चुनौतियों के इजाफे के रूप में लिया। मन को धीरज रखने कहा। समाधान की दिशा में कदम बढ़ाने के लिये कहा। पहला कदम मिलने-जुलने और चर्चा का था। पढ़े-लिखे ज्ञानी, अध्यापक, डाॅक्टर, वकील और अन्य अनेक लोग चर्चा में आये, सभी ने अपनी-अपनी राय भी दी। इन चर्चाओं में कुछ विकल्प तो नहीं मिला। हाँ, कुछ आँकड़े बताकर हमारी चिन्ता को और बढ़ा दिया गया।

दो साल बीत गये। विकास की इस दौड़ में मुझे कोई ऐसी चीज दिखाई नहीं देती थी, जो गाँव की सतत और मजबूत व्यवस्था की गवाह बने। मैं बार-बार सोचता था, हमारे यहाँ सड़कें बन गईं, सड़कों पर गाड़ियाँ भी दौड़ने लगी हैं, पर हमारे पैर और घुटने इतने कमजोर क्यों हो चले हैं? गाँव को रोशनी तो मिल गई पर हमारी आँखें क्यों कमजोर होती जा रही हैं? इस तरह न जाने क्या-क्या। अब मुझे समझ में आने लगा कि इस रोशनी से अच्छी तो अरंडी और सरसों तेल की उस ढिबरी की रोशनी है, जिसके तहत उम्र के शतक के नजदीक आ चुके हमारे पूर्वज बिना चश्मे के, सुई में धागा पिरो लेते हैं। फिर सहसा याद आया कि अरंडी की झाड़ी तो हमारे गाँव में अब दिखती ही नहीं। इस प्रकार की अनेक चीजें और आकृतियाँ हमारे दिलो-दिमाग से गायब हो चली हैं। इन बातों को, चीजों को हमारी नई पीढ़ी के लोग न तो जानते हैं और न उनको जानने के लिये कोई प्रमाण ही बचे हैं।

मेरे सामने गाँव की पुरानी स्थायी व्यवस्था के बारे में जानने के लिये कुछ स्रोत थे तो वे बुजुर्ग, जो उम्र के शतक के नजदीक पहुँच चुके हैं। शरीर बिल्कुल जर्जर और उनकी याददाश्त धूमिल-धुँधली-सी। मैं सब कुछ छोड़कर उन बुजुर्गों के पास गया, जो गाँव की स्वस्थ, सुंदर तथा सतत व्यवस्था के गवाह रहे हैं। उनसे चर्चा करने लगा। खेती-बारी, पशुपालन, चिकित्सा, आवास, स्थान सम्बन्धी अनेक रोचक वैज्ञानिक तथ्य उभर कर धीरे-धीरे सामने आने लगे, आ भी रहे हैं। इस कड़ी में मैंने कुछ शब्दों को इकट्ठा किया है। इन शब्दों की एक विशेष आकृति है और आकृति का विशेष तथा व्यापक उद्देश्य सबको बचाने का, सबके हित का। अब मेरे सामने चुनौती गाँव को नहीं, उन शब्दों को बचाने की है, जिन्होंने मिलकर हमारा यह गाँव बनाया था। पहली चुनौती शब्द बचाने की। दूसरी, शब्दों की आकृतियाँ, आकृतियों की कार्यप्रणाली, कार्यप्रणाली का गौरवशाली अतीत। तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती आकृतियों के अतीत को यथोचित सुधार के साथ या यथावत, वर्तमान में स्थापित करना।

आइये, चलते हैं ऐसे ही कुछ शब्दों की तरफः सबसे पहले लें शब्द ‘डीह’। हमारे यहाँ मैदानी भाग में किसी विशेष क्षेत्र के सबसे ऊँचे स्थान को डीह कहा जाता है। डीह लोगों के बसने के लिये सबसे उचित और उत्तम जगह मानी जाती है। ऊँचा होने के कारण यहाँ बाढ़ का खतरा कम ही होता है। इसका कोई मानक क्षेत्रफल तो नहीं होता फिर भी गाँव बसाने से पहले हमारे पुरखे कोशिश करते थे कि बसने के लिये डीह का क्षेत्रफल जितना ज्यादा हो उतना ही अच्छा होगा। इसमें आने वाले दौर में जुड़ने वाली पीढ़ियाँ भी उतनी ही सुरक्षित रह सकेंगी। तो पूर्वजों ने इसी डीह पर अपना घर बसाया। अपना घर बसाने के साथ-साथ अपने पशु-पक्षी तथा वनस्पतियों को भी डीह पर ले आये, उनके लिये भी डीह पर ही समुचित व्यवस्था की थी पुरखों ने। डीह पर अपने लिये कुँआ बनाया, तो वहीं अपने पशु-पक्षियों के लिये एक सुंदर तालाब भी।

दूसरा शब्द है ‘भीटा’। यह जमीन से लगभग 8-10 फुट ऊँचा मिट्टी का ही एक टीला होता है। भीटा प्राकृतिक भी होता है, तथा कहीं-कहीं भीटा का निर्माण भी कराया जाता था। इसका क्षेत्रफल लगभग 5 एकड़ का होता है। इसके बीच में भी एक तालाब बनाया जाता था, फिर चारों तरफ कुछ पेड़-पौधे भी होते थे। लगभग प्रत्येक 500 एकड़ खेत पर एक भीटा बनाया जाता था।

हमारे गाँव में आज एक ऐसा ही वन बचा है। इसका नाम भभिया का वन है। इसमें आज भी आस-पास के गाँव वाले औषधीय पौधों की खोज में आते हैं। हम इस वन को सुरक्षित तथा संरक्षित करने में जुटे हैं। हर गाँव में जब इस तरह के अपने वन होते थे, तब पर्यावरण, ईंधन, औषधि के लाभ के साथ और हर तरह की धूल, धुँआ, धक्कड़ से कितनी सुरक्षा मिलती थी- यह बताना भी जरूरी नहीं है। गाँव की बस्ती तो भूमि से ऊपर डीह पर बस गई, अब खेतों के बीच-बीच ये भीटा बनाने की क्या जरूरत आ पड़ी? भीटा अपनी सुरक्षा के अलावा किसान उपयोगी जीव-जन्तुओं के संरक्षण, संवर्धन में बड़ी भूमिका अदा करते रहे हैं। बरसात के दिनों में पानी की अधिकता के कारण खेतों में रहने वाले जीव-जन्तु, साँप आदि सुरक्षित ठिकाने की खोज में गाँव की तरफ आ जाते थे। इससे ग्रामीणों पर संकट तो था ही इसलिये ये जीव-जन्तु मार दिये जाते थे। कुछ मार दिये जाते थे, तो कुछ पानी में खुद ही मर जाते थे। फिर यही गर्मी में पानी की तलाश के दौरान होता था। गाँव बसाने वालों ने जब इस सबको देखा-परखा तो उन्हें लगा कि यह संघर्ष न तो हमारे हित में है और न जीव-जन्तुओं के हित में। साँप जैसे जीव तो किसानी में भी बड़े काम आते हैं, डीह में डर कर उन्हें मार देना ठीक नहीं। तो फिर बहुत सोच-विचार के बाद यह तय किया गया होगा कि कुछ खेतों के बीच में ही एक ऊँचा स्थान बना दिया जाय। जब खेतों में बरसात का पानी भर जाय तो वहाँ के जीव-जन्तु अपनी रक्षा के लिये डीह न जाकर भीटा में शरण ले लें। गाँव भी सुरक्षित रहे, ये प्राणी भी। खेती को नुकसानपहुँचाने वाले जीवों को प्राकृतिक रूप से निबटाने में मदद देने वाले प्राणियों की उपस्थिति गाँव में बराबर बनी रहती। इससे इन जीव-जन्तुओं को मारने का पाप नहीं करना पड़ता था। तथा ये अपना जीवन ठीक से गुजार लेते थे। भीटा जीव-जन्तुओं के लिये जाड़ा, गर्मी, बरसात तीनों मौसमों में सुरक्षित था। प्रतिकूल मौसम में ये जीव खेतों से निकल कर भीटा पर चले जाते थे तथा मौसम अनुकूल हो जाने पर पुनः खेतों में वापस आ जाते थे।

इस प्रकार भीटा आत्मरक्षा, पाप से बचने और खेती की दृष्टि से भी अत्यन्त वैज्ञानिक योजना थी। यह प्रकृति के सन्तुलन, जैव-विविधता की दिशा में एक अद्भुत खोज थी। भीटा का नाम भी रखा जाता था। ‘सागर का भीटा’, ‘उत्तरम बाबा का भीटा’, ‘हृदयी का भीटा’ अभी भी हमारे क्षेत्र में बचे हुये हैं। अब हम इन्हें सुधारने के काम में लग गये हैं।

आज नई बस्ती, नई खेती के लिये वनों को काटा जा रहा है। पर पहले हमारे गाँवों में एक वन का होना गर्व की बात होती थी। फलदार पेड़-पौधों के अतिरिक्त बहुत सारे पेड़-पौधे ऐसे भी थे, जिनका कोई-न-कोई उपयोग दैनिक जीवन में होता ही था। कुछ पेड़-पौधे किसानी के काम आते, कुछ औजार बनाने, बैलगाड़ियाँ बनाने के लिये होते तो कुछ औषधियों के लिये। चिरईता, गुम, धतूरा, कृत, मदार, सेंहुड, पलाश, अडूसा, गुलमोहर, अर्जुन, करौंच, भाट, तूत, हरसिंगार, चिचिरी, रेंगनी, रसभरी इत्यादि। इन पौधों में कई ऐसे भी थे जिनके फलों में विष भी होता था। आवश्यक मात्रा से ज्यादा ले लेने पर नुकसान होता था। मृत्यु भी हो जाती थी। इस कारण ऐसे पेड़-पौधों को गाँव के निकट रखना ठीक नहीं था, लेकिन अस्तित्व में रखना जरूरी था। इसलिये गाँव से कुछ दूरी पर वनों में इन्हें सावधानी से पाला जाता था। इन वनों का क्षेत्रफल लगभग 80 एकड़ तक होता था। वन के बीच में एक बड़ा-सा तालाब बनाया जाता था। इस तालाब से वहाँ के पशु-पक्षी अपने पानी की जरूरत को पूरा करते थे तथा वन की नमी भी बनी रहती थी। आग नहीं लग पाती थी। लगने पर बुझाना सरल होता था। वन के बाहरी हिस्सों में गाँव की जरूरत का ईंधन पैदा होता था। वनों का एक भाग हमेशा सुरक्षित रखा जाता और एक भाग बार-बार रोज की जरूरत के हिसाब से कटता और लगता रहता था।

हमारे गाँव में आज एक ऐसा ही वन बचा है। इसका नाम भभिया का वन है। इसमें आज भी आस-पास के गाँव वाले औषधीय पौधों की खोज में आते हैं। हम इस वन को सुरक्षित तथा संरक्षित करने में जुटे हैं। हर गाँव में जब इस तरह के अपने वन होते थे, तब पर्यावरण, ईंधन, औषधि के लाभ के साथ और हर तरह की धूल, धुँआ, धक्कड़ से कितनी सुरक्षा मिलती थी- यह बताना भी जरूरी नहीं है।

फलों तथा ईंधन तक सहज पहुँच के लिये हमारे पूर्वजों ने वनों से फलदार, ईंधन वाले तथा अन्य काम वाले पेड़ों को बाहर निकाल कर गाँव के चारों ओर सामान्य से थोड़ी ऊँचाई पर कुछ निश्चित स्थानों पर एक नियोजन के साथ रोप दिया था। नियोजित ढँग से कतारबद्ध सुव्यवस्थित तरीके से उगाये गये ऐसे पेड़ों के समूह को बारी कहा जाता था। यहाँ से गाँव के लोग सुरक्षित तरीके से फल तथा ईंधन की लकड़ी ले आते थे। गर्मी के दिनों में गाँव के पशु तथा अधिकांश ग्रामीण इन बारियों में ही अपना समय बिताते थे। बारी के किनारे-किनारे तथा बीच में भी दो-चार छोटे-बड़े तालाब होते ही थे। बारी के पास ही होता था चारागाह। सावन में युवक-युवतियाँ खूब झूला लगाते थे। जिस गृहस्थी में खेती के साथ बारी न हो, उसे अधूरी गृहस्थी कहा जाता था। कहते थे- खेती और बारी दोनों भाई-बहन हैं। अब पेड़ तो बहुत कट गये हैं, पर कुछ बारियाँ आज भी अपने छोटे रूप में हमारे गाँव में हैं। इनके भी नाम रखे जाते थे- बड़की बारी, कौड़िया की बारी, बाहा की बारी, मखुआ की बारी। आज भी चल रही हैं। बड़की बारी, गाँव की सबसे बड़ी बारी थी। कहा जाता है कि बड़की बारी में आम के जितने पेड़ थे, उन सबके फलों का स्वाद अलग-अलग था।

गाँव के भौगोलिक व्यवस्थापन के ये चार स्तम्भ थे- डीह, भीटा, वन और बारी। ये गाँव के नहीं बल्कि प्रकृति के चार स्तम्भ हैं, जो अपने सहज गुण के साथ सभी घटकों की परस्परता तथा पूरकता और साथ ही मर्यादा पर आधारित हैं।

ये तो रही गाँव की व्यवस्था की कुछ मोटी-मोटी बातें। अभी बहुत सारी छोटी-छोटी बातों को भी जानना बाकी है हमारे लिये। जानना है उन शब्दों को, जो भूगोल के साथ-साथ सभ्यता तथा संस्कृति के अन्य पहलुओं की जानकारी देते हैं। फिर से स्थापित करना है इन शब्दों को अतीत से उठाकर, वर्तमान में। और इसीलिये लगे हैं हम पूरी तन्मयता के साथ इन शब्दों को बाहर निकालने में अपने सम्मानित बुजुर्गों की कांपती जुबान से।

श्री धनंजय राय, उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के हथौंज गाँव में परम्परागत जल-संरक्षण व सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्स्थापन में लगे हैं।

Path Alias

/articles/kaanpatai-jaubaanah-majabauuta-sabada

Post By: Hindi
×