कान्हा टाइगर रिजर्व

कोई भी आदिवासी व्यक्ति या समाज कभी भी आनंद के लिए शिकार नहीं करता। परंतु उसे ही जंगल से विस्थापन की सजा मिली। जबकि वास्तविकता यह है कि अगर शेर या अन्य जंगली जानवर आज नहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं तो इसकी वजह है शासक वर्ग द्वारा अवकाश बिताने या मनोरंजन के लिए शिकार। भारत में जंगलों और जंगली जानवरों का सबसे बड़ा, व्यवस्थित और योजनाबद्ध विनाश अंग्रेजों के राज में हुआ है। खेती और पशुपालन के विस्तार में शेरों और जंगली जानवरों को रुकावट माना गया। मध्य प्रदेश के दो जिलों मंडला और बालाघाट के बीच स्थित कान्हा राष्ट्रीय उद्यान का कुल क्षेत्रफल 1945 वर्ग किलोमीटर है। कान्हा को सन् 1879 में संरक्षित वन का स्थान दिया गया था और सन् 1955 में इसे राष्ट्रीय पार्क (उद्यान) का दर्जा दिया गया था। 1973 में जब प्रोजेक्ट टाइगर प्रारंभ हुआ तो भारत में जो सबसे पहले 9 टाइगर रिजर्व घोषित हुए थे, कान्हा उसमें से एक था। अपने प्रारंभिक दौर में इस संरक्षित वन का क्षेत्रफल करीब 253 वर्ग कि.मी. था जिसे 1967 व 1970 में बढ़ाकर 446 वर्ग कि.मी. कर दिया गया। 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर में इसके शामिल हो जाने के बाद इसका क्षेत्रफल 940 वर्ग कि.मी. हो गया जो कि अब बढ़ते-बढ़ते (कोर व बफर मिलाकर) 1945 वर्ग किलोमीटर हो गया है।

कान्हा गोंडवाना या गोंडों की भूमि का हिस्सा है। यहां पर दो जनजातियाँ गोंड और बैगा मुख्यतया निवास करती हैं। कान्हा शब्द कनहार से बना है जिसका स्थानीय भाषा में अर्थ है चिकनी मिट्टी। कान्हा से कुल 27 गाँवों को हटाया गया है। विस्थापित समुदाय में से कुछ को कोर एरिया में कुछ को बफर में बसाया गया है, तो कुछ गांव काफी दूरी पर है। इस इलाके की दो प्रमुख नदियां हैं बंजर और हालोन। इस बीच यह बात भी सुनने में आई है कि कुछ गांव जिनमें कि कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के विस्थापितों को बसाया गया था वे हालोन सिंचाई परियोजना के अंतर्गत डूब में आने के कारण एक बार पुनः विस्थापन के कगार पर खड़े हैं।

गोंड और बैगा दोनों ही आदिम समुदाय हैं जो कि हजारों वर्षों से यहां रहते आ रहे हैं। इनमें से भी बैगा तो विलुप्त होने के कगार पर हैं उनको सरकार ने विशेष अधिसूचित जनजाति करार दिया है।

रसेल और हीरालाल ने इन दोनों समुदायों की उत्पत्ति को एक स्थानीय लोककथा के माध्यम से समझाया है। प्रचलित कथा इस प्रकार है, प्रारंभ में भगवान ने नांगा बैगा और नांगी बैगिन को बनाया। ये दोनों जंगल में रहने लगे। थोड़े दिन बाद उनकी दो संताने हुई। पहली संतान बैगा और दूसरी गोंड। दोनों संतानों ने अपनी बहनों से विवाह कर लिया। आगे चलकर मनुष्य जाति की उत्पत्ति इन्हीं दो युगलों से हुई। पहले युगल से बैगा और दूसरे युगल से गोंड उत्पन्न हुए।

दोनों समुदाय एक ही परिवेश से आने के बावजूद अपने आचार व्यवहार में काफी भिन्न हैं। गोंड आधुनिक समाज की व्यावहारिकता और चालाकी को ज्यादा बेहतर समझने लगे हैं बनिस्बत बैगाओं के। बैगा आज भी आदिम लोक में विचरण कर रहे हैं। वैसे दुर्दशा तो गोंडों की भी है परंतु बैगाओं की दुर्दशा की तो कोई सीमा ही नहीं है और वे जंगल से बाहर रहने में स्वयं को असमर्थ सा पा रहे हैं। सन् 1912 में छपे राज्य गजेटियर के अनुसार मंडला जिले में गोंड कुल जनसंख्या का करीब 50 प्रतिशत हैं और उनके 144 गांव हैं जो कि कुल मालगुजारी का दसवां हिस्सा है। वही बैगा के बारे में लिखा गया है कि इनकी आबादी मात्र 14000 है जो कि कुल आबादी का मात्र 4 प्रतिशत है। इसी के समानांतर गजेटियर में यह भी कहा गया है कि यह जनजातियों में भी सबसे आदिम हैं। बैगा हर हालत में गोंड से आदिम हैं। अंग्रेजों न बैगाओं की खास जीवनशैली को देखते हुए मैकाल पर्वत श्रृंखला में 36 वर्ग मील में अलग से बैगा चक की स्थापना की थी। बैगा धरती को माता मानते हैं और इसलिए उसकी छाती पर हल चलाने को भी अपराध मानते हैं।

कोई भी आदिवासी व्यक्ति या समाज कभी भी आनंद के लिए शिकार नहीं करता। परंतु उसे ही जंगल से विस्थापन की सजा मिली। जबकि वास्तविकता यह है कि अगर शेर या अन्य जंगली जानवर आज नहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं तो इसकी वजह है शासक वर्ग द्वारा अवकाश बिताने या मनोरंजन के लिए शिकार। समाजवादी जन परिषद के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सुनील ने अपने एक लेख में वनों के प्रसिद्ध अद्येता महेश रंगराजन को उद्धृत करते हुए लिखा है कि भारत में जंगलों और जंगली जानवरों का सबसे बड़ा, व्यवस्थित और योजनाबद्ध विनाश अंग्रेजों के राज में हुआ है। खेती और पशुपालन के विस्तार में शेरों और जंगली जानवरों को रुकावट माना गया। अंग्रेज सरकार के रिकार्ड के अनुसार सन् 1875 से 1925 के बीच अस्सी हजार से ज्यादा शेर (बाघ), डेढ़ लाख से ज्यादा तेंदुए और दो लाख से ज्यादा भेड़िए मारे गए। ये वे संख्याएं हैं जिनके लिए इनाम दिए हैं। रंगराजन के अनुसार मारे गए पशुओं की वास्तविक संख्या इसमें कम से कम तीन गुना है। इसी क्रम में कुछ बड़े शूरवीरों की फेहरिस्त पर गौर करने से स्थिति और स्पष्ट हो जाएगी कि आखिरकार शेर (बाघ) कहां गए? सरगुजा के महाराज रामानुज शरण सिंह देव ने अकेले 1100 शेरों और 2000 तेंदुओं का शिकार किया था। उदयपुर के महाराजा ने भी अपने जीवन में 1000 से अधिक शेरों को मारा। गौरीपुर और रीवा के राजाओं ने 500 शेरों को मारा। इतना ही नहीं रीवा रियासत में तो सफेद शेरों की दुर्लभ प्रजाति के 364 शेरों को पिछले डेढ़ सौ वर्षों में मारकर जंगलों से इस प्रजाति को समाप्त कर दिया गया। बीकानेर के राजा सादुल सिंह की डायरी के अनुसार उन्होंने अपने जीवन में करीब 50 हजार जानवरों का शिकार किया था। टोंक के नवाब ने कुल 600 शेर मारे थे। वहीं जयपुर के कर्नल केसरी सिंह ने दावा किया था कि उन्होंने शेरों के एक हजार से ज्यादा शिकार में भाग लिया था।

कान्हा के बारे में आज़ादी के बाद के एक आंकड़े पर गौर करने से स्पष्ट हो जाएगा कि अंततः बाघों को किसने समाप्त किया। सन् 1947 से 1951 के मध्य विजयनगरम के राजा ने कान्हा में 30 से अधिक बाघों का शिकार किया था।

करे कोई भरे कोई की तर्ज पर अंततः कान्हा के वनवासी समुदाय को जंगल, प्रकृति और शेर के प्रति अपने स्नेह का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा और उन्हें बेदखल कर कान्हा के सुरम्य जंगलों से बाहर कर दिया गया। इस परिप्रेक्ष्य में विस्थापितों की वर्तमान स्थिति देखने से उन पर किए गए अत्याचार व अन्याय को ठीक से समझा जा सकेगा।

कान्हा टाईगर रिजर्व से विस्थापित गांव एवं परिवार


क्रमांक

विस्थापित गांव

विस्थापन वर्ष

परिवार संख्या

कहां बसाया गया

1

सौंफ

1967-69

29

भानपुर खेड़ा

2

रौंदा

74-76

53

विजयनगर, प्रेम नगर, कारीवाह

3

सिलपुर (कान्हा)

74-76

41

अजय नगर, रानीगंज

4

माटी गहन

77-78

61

इंदिरावन ग्राम

5

बम्हनी दादर

77-78

4

हीरापुर, मुक्की

6

सौंडर (किसली)

86-87

17

कपोट बेहरा

7

किसली

86-87

3

कपोट बेहरा

8

इंद्री

86-87

15

कपोट बेहरा

9

बिसनपुरा

74-76

13

जामझिरिया, टाटी घाट

10

सौंडर (मुक्की)

74-76

11

मुक्की

11

गुरैला

74-76

22

धनियाझोर, मुक्की

12

औरई

74-76

8

मुक्की

13

परसाखेड़ा (परसाटोला)

74-76

11

मुक्की

14

अडवार

75-78

46

बंदनखेरो, सेमरखेरो, जोआड़ी टोला, घोरसी बेहरा

15

देवरीदादर

76-78

32

नवना दाहर

16

छिलपुरा

75-76

21

टटमा

17

बसपहरा

75-76

23

छतरपुर

18

जाता डबरा

75-76

20

घोरसी बेहरा

19

चकरवा

75-76

35

खकसा टांड

20

दुधनिया

75-76

42

मोरंडा, बंदनखेरी

21

कटोल्डी

76-77

45

हीरापुर

22

लडुआ

76-77

15

नवलपुर, छतरपुर

23

गायघर

76-77

14

नवलपुर, नवनादर

24

कौआझर

76-77

16

नवलपुर, छतरपुर

25

पिपरवाड़ा

79-81

46

चीमा गुंदी

26

सूपरखार

80-82

36

बजगुंदी

27

कान्हा

97-98

26

मानेगांव

 



कान्हा टाइगर रिजर्व के गांवों के सर्वेक्षण का सार


मानेगांव - मंडला जिले के बिछिया विकासखंड की मोचा पंचायत के अंतर्गत आने वाले गांव मानेगांव (बोतल बेहरा) के गोपाल सिंह मरकाम आज भी जंगल के अपने जीवन को भूल नहीं पाए हैं। मानेगांव कान्हा टाइगर रिजर्व के बफर जोन में आता है और यहां अभी परिवार के 167 लोग रह रहे हैं। ये सभी बैगा परिवार हैं। मानेगांव को सर्वश्रेष्ठ पुनर्वासित गांव माना जाता है।

वैसे बैगाओं को जंगल का राजा कहा जाता है और बैगा शेर (बाघ) को अपना राजा मानते हैं। परंतु यदि गोपाल सिंह की माने तो जंगल का असली राजा तो रेंजर ही है। गोपाल सिंह आज भी ठेके पर ही काम करते हैं। बैगाओं की सहजता का अंदाजा उनके द्वारा सुनाई गई इस आप-बीती से लग जाएगा। गोपाल सिंह ने बताया के रेंजर ने एक बार किसी छोटे जानवर का शिकार करने को कहा क्योंकि उसके घर पर कोई दावत थी। इस बात का पता बड़े फील्ड ऑफीसर को लग गया। गोपाल सिंह के विरुद्ध मामला दर्ज हो गया। 12 साल तक मामला कचहरी में चला। उसके बाद नए फील्ड ऑफीसर ने इनसे रोजन्दारी से जंगल में काम करने को कहा। गोपाल रोज काम करने लगा। ग़ौरतलब है कि बैगा अपने स्वभाव से राजा ही होता है। गोपाल सुबह जल्दी उठकर सुबह 10-11 बजे तक ही काम करते हैं उसके बाद अपनी मर्जी का जीवन जीते हैं। तो, गोपालसिंह कार्य करने लगे। फील्ड ऑफिसर ने दर्ज मामले को कुछ ढीला किया। इससे रेंजर की नौकरी भी बच गई। वैसे गोपाल सिंह को स्वयं बचने या रेंजर को बचाने के लिए जो भी आप कहना चाहे के लिए अपनी जेब से 3200 रुपए देने पड़े। इसके बावजूद उनका मानना है कि रेंजर ने उनकी बहुत मदद की। बाघ से बैगा के संबंध कितने आदरपूर्ण होते हैं। यह भी गोपाल की जबानी सुनिए। वे बताते हैं, जंगल में फूलन नाम के एक शेर थे। (गौर करिए वे बाघ के आगे था नहीं लगाते) वे बहुत सीधे थे। हम लोग साइकल से जाते थे तो उन्हें सड़क से एक ओर कर देते थे। वे हमारी रक्षा करते हुए हमें हमारे गांव तक छोड़ने आते थे। एक बार वे बहुत उदास दिखे। बाद में पता चला कि उनकी मां मर गई हैं। वे बहुत खानदानी बाघ थे।

97-98 में इन्हें अन्य लोगों के साथ बोतल बेहरा यानि पुराने मानेगांव में बसाया गया था। अब उन्हें मानेगांव, इनके शब्दों में कहें तो नए मानेगांव में बसाया गया है। यहां इन्हें मकान के पास ही खेती के लिए ज़मीन दी गई है। अधिकांश को 4.5 एकड़ ज़मीन मिली तो है परंतु ज्यादातर ज़मीन उबड़-खाबड़ और बंजर ही है। गांव में आंगनवाड़ी है जो कि अक्सर खुलती भी है। यहां एक प्राथमिक शाला भी है। इसमें कुछ बच्चे पढ़ने भी जाते हैं। परंतु पढ़ने से ज्यादा वे वहां मध्यान्ह भोजन के लालच में ही जाते हैं। गांव में करीब 60 बच्चे हैं। पहले के गांव कान्हा में भी पांचवी तक का विद्यालय था। यहां पर निकटतम स्वास्थ्य सुविधा 2.5 कि.मी. दूर मोचा में उपलब्ध है। परंतु सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र 60 किलोमीटर दूर बिछिया में स्थित है। गोपाल सिंह मरकाम का कहना है कि नसबंदी के बावजूद उनके यहां बच्चे हो गए हैं। अस्पताल में शिकायत करने के बावजूद किसी तरह की कोई सुनवाई नहीं हुई तो उनके कुल 4 बच्चे हैं। तीन घर पर जन्में हैं सबसे छोटी 9 वर्षीय गीताबाई का जन्म अस्पताल में हुआ है। बफर जोन में बसे इस गांव में राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी कानून के अंतर्गत वर्ष भर में 60-70 दिन रोज़गार तो मिल जाता है परंतु मजदूरी का भुगतान 2 से 3 में होता है। जंगल का राजा कहे जाने वाले बैगाओं की परिस्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज इन्हें रिसोर्ट और होटलों में झाड़ू-पोछा और बर्तन मांजने का कार्य करना पड़ता है। इसके बदले में उन्हें मात्र 1500 रुपये महीना मिल पाता है।

80 वर्षीय टिक्कू बैगा का कहना है कि 10-11 बरस पहले उन्हें कान्हा से जबरदस्ती निकाल दिया गया था। उनके पास जंगल में भी पांच एकड़ जमीन थी। कई बार चीतल फसल खराब कर देते थे। इसके बावजूद जंगल उन्हें बहुत कुछ दे देता था। वे इस सामग्री को किसली के बाजार में बेच देते थे और घर का सौदा ले आते थे। इनका बेटा जुबरु बैगा पार्क के मुक्की गेट पर चौकीदारी करता है। टिक्कू का कहना है कि जंगल में बांस की टोकरी बनाकर भी बेचते थे और वहां शहद भी मिल जाता था।

इस गांव के 13 वर्षीय नानू सिंह ने पढ़ना छोड़ दिया है। उसका कहना है कि पढ़ाई में मन नहीं लगता और उसे साइकल चलाना अच्छा लगता है। यहां बच्चे कमोबेश कोई खेल नहीं खेलते क्योंकि उन्हें या तो जंगल से लकड़ी लाना पड़ता है अथवा घर का काम करना पड़ता है। नानूसिंह ने अब तक बाघ नहीं देखा है। हां, उसने चीतल, हिरण व सोन कुत्ते जरुर देखे हैं। उसी के हम उम्र विजय, सुखचैन व सुखमन भी इन्हीं बातों को दोहराते नजर आते हैं। इस गांव का केवल एक लड़का अभी तक 10वीं पहुंचा है और लड़कियां तो इतना भी नहीं पढ़ पाती क्योंकि इस उम्र तक आते-आते सभी की शादी कर दी जाती है।

गांव के बच्चों के नाम पंचायत में पंजीकृत भी हैं। अधिकांश का टीकाकरण भी हुआ है। वैसे गांव में बच्चों के स्वास्थ्य की स्थिति बहुत अच्छी नहीं हैं परंतु अधिकारिक रूप से कोई भी कुपोषित नहीं है।

मानेगांव में बसे बैगा कान्हा के जंगलों में धान, मक्का और राई बोते थे। जंगल उन्हें पोषण के आवश्यक तत्व प्रदान कर देता था। विस्थापन के बाद भी वे धान, मक्का और कोदो लगा रहे हैं। परंतु अब उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। साथ ही विस्थापन के समय किए गए वायदों की पूर्ति न होने से भी यहां के निवासी बहुत परेशान हैं। कन्हैयालाल धुर्वे का कहना है कि वहां (जंगल) खेलने-कूदने, खाने-पीने की खूब सुविधा थी। खेतीबाड़ी बहुत नहीं थी परंतु सरकार मजदूरी तो दे ही देती थी। जंगल में जानवरों के सींग मिल जाते थे। इसको बेचकर एक हिस्सा रेंजर को देते थे। साथ ही जलाऊ लकड़ी और जड़ी बूटी भी जंगल से मिल जाती थी।

नई बसाहट में बच्चों की पढ़ाई की सुविधा तो है परंतु रोज़गार की तलाश में मां-बाप दोनों के ही व्यस्त रहने के कारण बच्चों पर एकदम ध्यान नहीं दे पा रहे हैं अतएव बच्चे न तो पढ़ रहे हैं और न ही उनका विकास पारंपरिक तरीके से हो पा रहा है।

कपोट बेहरा - मंडला जिले की बिछिया विकासखंड की राता पंचायत के अंतर्गत आने वाला कपोट बेहरा गांव कान्हा के टाइगर रिजर्व से विस्थापन की समग्र व्याख्या करता जान पड़ता है। इस गांव में कान्हा टाईगर रिजर्व के अंतर्गत आने वाले सौडर व इंद्री (किसली) गांव के निवासियों को सन् 1987 में बसाया गया है। यहां विस्थापित तीनों समुदाय अर्थात गोंड और बैगा आदिवासी एवं अहीर या यादव, जो कि अन्य पिछड़ा वर्ग में आते हैं, के सदस्यों को बसाया गया है। इस गांव में दो टोलों में ये समुदाय निवास करते हैं। एक टोला है यादवों और गोंडों का और दूसरा टोला है जरिया टोला जिसमें बैगा निवास करते हैं। बैगा को आदिम जाति का दर्जा प्राप्त है और यह ऐसा समुदाय है जो कि पूरी तरह जंगल पर आश्रित है। साफ तौर पर कहा जाए तो बैगा समुदाय को जंगल के बाहर जीने का तरीका शायद अभी तक नहीं आया है। बैगा समुदाय का सामाजिक ताना-बाना बहुत ही आत्म केंद्रित है तथा वह बहुत अधिक शारीरिक श्रम करने में भी विश्वास नहीं रखता है। शायद इसीलिए इन्हें इस नई बसाहट में भी सबसे पीछे बसाया गया है और इनके टोले (मोहल्ले) तक सड़क भी नहीं बनी है।

कपोट बेहरा की कुल जनसंख्या 250 है और यहां कुल 61 परिवार निवास करते हैं। इस गांव में राशन की दुकान नहीं है। कपोट बेहरा में प्राथमिक विद्यालय अवश्य है। उपस्वास्थ्य केंद्र 2 किलोमीटर की दूरी पर है और जिला अस्पताल मंडला में यानि 50 कि.मी. दूर है। इस गांव में वैसे 11 कुएं व 7 हैंडपंप हैं परंतु गांव के पानी में फ्लोराइड की जबरदस्त समस्या है। केवल दो हैंडपंपों का पानी पीने योग्य है। वैसे इस गांव के सभी लोग रोज़गार गारंटी कानून के कार्डधारी हैं। परंतु इनमें से सिर्फ 25 को ही वर्ष में 100 दिन का कार्य मिला है। इन्हें मजदूरी 91 रु. प्रतिदिन के हिसाब से टास्क रेट पर दी जाती है।

कान्हा टाइगर रिजर्व मध्य प्रदेश के दो जिलों मंडला और बालाघाट में फैला हुआ है। बालाघाट जिले की बेहर तहसील के अंतर्गत आने वाली कदला पंचायत व गांव कान्हा टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में आता है। वैसे कदला वन क्षेत्र में आता है परंतु यह गांव पारंपरिक रूप से यहीं पर ही स्थित है। इस गांव में कोई विस्थापित नहीं है। पीढ़ी दर पीढ़ी यहां लोग निवास कर रहे हैं। इस गांव की कुल जनसंख्या करीब 475 है और यहां 96 परिवार निवास करते हैं।इन गांव के निवासियों को 1987 में जंगल से बेदखल कर यहां बसाया गया था। इन्हें बिना कोई नोटिस दिए अपने मूल निवास से हटा दिया गया था। इसके बदले बहुत सारे वादे किए गए थे। जैसे यह कहा गया था क जंगल में जितनी जमीन है उतनी ही बाहर मिलेगी परंतु मात्र 6.25 एकड़ भूमि ही दी गई। इतना ही नहीं सिंचाई और घरेलू उपयोग के लिए मुफ्त बिजली देने का वायदा किया गया था। परंतु बाद में 11,000 रु. का बिल दे दिया गया। बिल जमा न करने की दशा में गांव में अधिकांश घरों की बिजली काट दी गई है। गांव के लोगों का कहना है कि यहां के पानी में अनाज तक नहीं पकता। दूर से पानी लाना पड़ता है और मजदूरी के लिए बाहर जाना पड़ता है। ज़मीन में दीमक की बहुतायत होने से खेती भी ठीक से नहीं हो पा रही है।

विजय कुमार यादव का कहना है कि वे किसली गांव में रहते थे। वहां उनकी खेती के अलावा 100 भैंसे भी थी। वे दूध का घी बनाकर मंडला और जबलपुर में बेचते थे। जब वे किसली से निकले तो 20 भैसें लेकर निकले थे। उस वक्त भी करीब 150 लीटर दूध इनके यहां होता था। इस नई बसाहट में आने के बाद यह 20 भैसों को भी नहीं पाल पाए क्योंकि इनके लिए चारा ही उपलब्ध नहीं था और अंततः सभी जानवर या तो मर गए या उन्हें बेचना पड़ा। अब इन्होंने मात्र 2 गायें पाल रखी हैं जो 2 लीटर से ज्यादा दूध नहीं देती। आज इनका परिवार गांव के बाहर जाकर कार्य करने को मजबूर है क्योंकि यहां तो रोज़गार गारंटी कानून के अंतर्गत भी कार्य नहीं मिल पा रहा है। विजय कुमार का कहना है कि यहां पर आने के बाद उनकी आमदनी में लगातार कमी आई है।

मंगल यादव की पत्नी सुमन यादव गांव की आशा कार्यकर्ता भी हैं। इनके तीन बच्चे क्रमशः रोशनी-16 वर्ष, रेखा-14 वर्ष एवं दुर्गेश-12 वर्ष है। गांव में विद्यालय तो हैं परंतु यहां अक्सर अध्यापक नहीं रहते अतएव इन्हें बच्चों को पढ़ने के लिए 6 कि.मी. दूर टाटरी भेजना पड़ता है। मंगल यादव बताते हैं कि एक दिन वन अधिकारी आए और बोले ऊपर से आदेश आए हैं इसलिए इन्हें गांव (सौंडरा) छोड़ना पड़ेगा। जिन लोगों ने जाने से इंकार किया उनके घर हाथी से तुड़वा दिए गए। यहां पर 2.5 हेक्टेयर ज़मीन दी। उबड़-खाबड़ बंजर ज़मीन थी। यहां पर सोडरा, इंद्री और किसली से लाकर विस्थापितों का बसाया गया। वहां यादवों के 7-8 घर थे। हर घर में कम से कम 60-70 मवेशी थे। इनका भी मानना है कि यहां आकर जीवन की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ। दूध का पारंपरिक व्यवसाय तो बंद हो गया और बच्चे ड्राइवरी करने लगे। आज इन्हें 1500 से 2000 रु. तक मिल जाता है। यहां पर लाने से पहले यह भी वायदा किया था कि प्रत्येक घर से एक व्यक्ति को रोज़गार देंगे परंतु एक को भी काम नहीं दिया।

फीतू उइके बैगा समुदाय के हैं। उनका कहना है कि वहां यानि जंगल में अच्छा लगता था। उनकी व उनके टोले की स्थिति देखकर सहज ही यह विश्वास हो जाता है कि इससे बुरी स्थिति कहीं और हो ही नहीं सकती। फीतू उइके के चार बच्चे हैं 2 लड़के व 2 लड़कियां। वे कहते हैं कि बुरी से बुरी परिस्थिति में भी जंगल में भूखे नहीं रहते थे। यहां तो इतना भी नहीं मिलता कि छोटे बच्चे को भी ठीक से कुछ खिला सकें। उनका यह भी दर्द है कि गांव में अब ‘ददरिया और मादर’ नहीं बजता। बच्चों के खेल भी अब नहीं होते। जैसे ही बच्चे 14-15 बरस के होते हैं काम करने नागपुर या जबलपुर चले जाते हैं। साल में ज्यादा से ज्यादा एक महीने यहां रह पाते हैं वह भी बारिश में वे दुखी मन से कहते हैं कि बच्चे कम उम्र में अपना तन (शरीर) तोड़ रहे हैं।

दीपक की उम्र 25 वर्ष है उनके चार बच्चे हैं। सबसे बड़ा लड़का है जो कि करीब 7 साल का है दूसरा 5 साल का है। लड़कियां क्रमशः 3 और 1.5 साल की हैं। उनकी पत्नी गांव में रहकर थोड़ा बहुत काम करती हैं। खेती के लिए जो ज़मीन मिली थी उसमें कुछ नहीं होता। थोड़ा बहुत उपजता भी है तो दीमकों से बचा पानी मुश्किल हो जाता है। दीपक नागपुर में भवन निर्माण क्षेत्र में ठेकेदार के यहां कार्य करते हैं। दिन में 12 घंटे काम करने का 100 रुपए मिलता है। बीमार पड़ने पर ठेकेदार इलाज तो करवाता है परंतु इलाज के पैसे मजदूरी से ही काटता है। उनका कहना है कि रोज़गार गारंटी में मुश्किल से 45 दिन काम मिलता है। उसमें भी नाप के हिसाब से 40 से 55 रुपये प्रतिदिन के बीच पड़ता है। इतना ही भुगतान भी 2 से 3 महीने के बाद होता है।

पूरा गांव कमोबेश एक बार पुनः विस्थापन के कगार पर खड़ा है। चूंकि यह वनग्राम की श्रेणी में आता है अतएव इन्हें राजस्व संबंधी अधिकार भी नहीं है। सरकार इसे पलायन की संज्ञा देकर अपने को बचा रही है परंतु वस्तु स्थिति यह है कि सरकार अब एक तरह से इस वर्ग को जबरिया विस्थापित ही कर रही है।

घुरसी (घोसरी) बेहरा, बालाघाट जिले के बेहर विकासखंड में घिरी पंचायत के अंतर्गत आने वाले एक वनग्राम है। इसमें मुख्यतया बैगाओं को बसाया गया है। इस गांव में सन् 1975-76 में जाताड़बारा गांव के 20 परिवारों को बसाया गया था। आज करीब 35 वर्ष बाद भी इनकी दशा में किस भी तरह का कोई सुधार हुआ दिखता नहीं है। घोसरी बेहरा की कुल आबादी करीब 300 है और यहां 60 परिवार निवास करते हैं जिनमें से अधिकांश बैगा ही हैं। इन सभी को 6.25 एकड़ जमीन मिली है। परंतु यह भूमि कृषि के लिए बहुत अनुकूल नहीं है। इस गांव में एक प्राथमिक विद्यालय है। माध्यमिक विद्यालय यहां से 10 कि.मी. दूर कोयलीखापा और उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 15 कि.मी. दूर गढ़ी में स्थित है। सबसे नज़दीकी उपस्वास्थ्य केंद्र 10 कि.मी. दूर कोयलीखापा, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र 15 कि.मी. दूर गढ़ी और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र 45 कि.मी. दूर बेहर में है।

घोसरी बेहरा का बैगा समुदाय भी शोषण की कहानी को अपनी तरह से विस्तार ही देता है। 70 वर्षीय झंगलू सिंह बताते हैं कि विस्थापित कर देने के बावजूद इन्हें मजदूरी के लिए कान्हा पार्क में ले जाते थे। इसी दौरान 1989 में उन्हें जंगली भैंसे ने उठाकर पटक दिया। इलाज के लिए बालाघाट ले गए। तब कहा गया था कि दुर्घटना के इलाज के लिए 50 हजार रुपए दिए जाएंगे। परंतु 20-22 हजार रुपए दिए गए और इसमें से मोटर गाड़ी और दवाईयों तक का किराया काट लिया। बाद में इलाज के लिए कर्जा लेना पड़ा। झंगलू सिंह का पैर आज भी मुड़ा हुआ है और वे ठीक से चल भी नहीं पा रहे हैं। झंगलू सिंह के बेटे रामनाथ के 5 बच्चे हैं। इनमें चार लड़कियां और एक लड़का है। सभी बच्चों ने घर में ही दाई के माध्यम से जन्म लिया है। सुक्खु के परिवार में भी 5 बच्चे हैं। इनके तीन लड़कियां क्रमशः 16,14 व 10 वर्ष की एवं दो लड़के क्रमशः 12 व 8 वर्ष के हैं। सभी बच्चे घर पर ही पैदा हुए हैं। इनकी पैदाइश घर के सदस्यों ने ही सम्पन्न कराई। चैनसिंह के तीन बच्चे हैं क्रमशः 5,3 व 1 वर्ष के इनमें से 2 बच्चे घर में दाई के माध्यम से एवं 1 का जन्म अस्पताल में हुआ है। 65 वर्षीय सुनेर सिंह विस्तार से आप बीती बताते हुए कहते हैं कि उनके बेटे किशन के चार बच्चे हैं। सबसे बड़ा लड़का 10 वर्ष का सबसे छोटी लड़की करीब 2 वर्ष की है है। बीच में 6 वर्ष का एक लड़का और 4 साल की एक लड़की है। सभी बच्चों का जन्म घर पर ही हुआ है। अपनी वर्तमान स्थिति की विवेचना करते हुए वे कहते हैं कि अब तो अनाज खरीदने के लिए महाजन से 10 प्रतिशत प्रतिमाह की दर पर ब्याज से पैसा लेना पड़ रहा है। पिछले साल रोज़गार गारंटी में करीब 60 दिन काम मिला था। इसकी मजदूरी मिलने में 2 महीने लग गए थे। इस बार आर.ई.एस और पंचायत ने सड़क का काम करवाया है। परंतु 7 महीने बीत जाने के बाद भी मजदूरी नहीं मिली है। आंगनवाड़ी की व्यवस्था होने के बावजूद इस गांव में कुपोषित बच्चे दिखाई देते हैं। अस्पताल दूर होने से छोटा-मोटा इलाज जड़ी बूटी से ही करते हैं। इसके बावजूद स्वास्थ्य पर प्रतिमाह 500 रुपए से अधिक खर्च हो जाता है।

सुनेर सिंह का कहना है कि उनकी जमीन तो ठीक-ठाक है। 6.25 एकड़ में घर के खाने जितनी उपज आ जाती है। साथ ही वे कहते हैं कि यहां समय पर बीज व खाद नहीं मिलती। बीज खरीदने पड़ते हैं। जबकि जंगल में खुद के बीज होते थे। यहां पर वे सिर्फ धान लगा पाते हैं जबकि जंगल में धान, कोदू, कुटकी, चना, राई और गेहूं लगाते थे। इसी के साथ जंगल में फल, जड़ी बूटी, कंदमूल, चार-चिरौंजी भी मिल जाते थे। इसका एक हिस्सा घर पर लाते थे जो कि पोषण में सहायक होता था व बाकी का बाजार में बेच लेते थे। इससे आर्थिक लाभ हो जाता था। इसी के साथ तेंदूपत्ता बीनने से भी आमदनी हो जाती थी। इस नई बसाहट में आमदनी और पोषण का कोई वैकल्पिक स्रोत न होने से एक तो आर्थिक हानि हो रही है और दूसरे कुपोषण व अन्य बीमारियाँ भी फैल रही है।

कान्हा टाइगर रिजर्व मध्य प्रदेश के दो जिलों मंडला और बालाघाट में फैला हुआ है। बालाघाट जिले की बेहर तहसील के अंतर्गत आने वाली कदला पंचायत व गांव कान्हा टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में आता है। वैसे कदला वन क्षेत्र में आता है परंतु यह गांव पारंपरिक रूप से यहीं पर ही स्थित है। इस गांव में कोई विस्थापित नहीं है। पीढ़ी दर पीढ़ी यहां लोग निवास कर रहे हैं। इस गांव की कुल जनसंख्या करीब 475 है और यहां 96 परिवार निवास करते हैं। इनमें से 94 अनुसूचित जनजाति के हैं और मात्र 2 परिवार अन्य पिछड़ा वर्ग के हैं। यहां के 53 परिवार अंत्योदय में और बाकी बी.पी.एल. में आते हैं। इस गांव में 6 वर्ष तक के बच्चों की संख्या 53 है जिसमें 34 लड़के 19 लड़कियां, 7 से 14 वर्ष तक के 81 बच्चे जिसमें से 45 लड़के और 36 लड़कियां और 15 से 18 वर्ष तक के 53 बच्चे हैं। यहां का उपस्वाथ्य केंद्र व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र 4 कि.मी. दूर गढ़ी में स्थित है और सामुदायक स्वास्थ्य केंद्र 40 कि.मी. दूर बेहर में है। पिछले साल रोज़गार गारंटी कानून के अंतर्गत यहां मात्र 25 दिन का रोज़गार मिला था।

कदला पंचायत के अंतर्गत स्थित हीरापुर में कटलडीही (सरकारी दस्तावेजों में कटोल्डी) से विस्थापित 50 परिवारों को बसाया गया है। वैसे सरकारी आंकड़ों के अनुसार कटोल्डी से 45 परिवार विस्थापित यहां पर बसाए गए ब्रजलाल बैगा हैं और इनकी दो पत्नियाँ हैं। इन्हें 1976-77 में इस गांव में बसाया गया था। दोनों पत्नियां अलग-अलग रहती हैं क्योंकि एक साथ रहने से इनमें आपस में झगड़ा होता था। ब्रजलाल के दोनों पत्नियों से कुल 6 बच्चे हैं जो अब वयस्क हो चुके हैं। इनका कहना है कि इन्हें वहां (जंगल में) 6 माह का नोटिस दिया गया था। चूंकि इन लोगों को पढ़ना-लिखना नहीं आता था और जंगल में इतने अंदर रहते थे कि रोज-रोज विरोध करने बाहर आना भी संभव नहीं था तो इन लोगों ने अपना विरोध मुंह जबानी दर्ज करवाया। इसके बाद इन्हें डराया-धमकाया गया। मोटर साइकल पर फारेस्ट वाले आकर जानवरों जैसा खदेड़ते थे। बाद में यहां (हीरापुर) लाकर पटक दिया और कहा कि अपने लिए अच्छी जमीन खुद ढूंढ़ों। प्रत्येक काश्तकार को 10-10 एकड़ ज़मीन देने का वादा किया था। साथ ही मकान बनाने के लिए लकड़ी व बांस देने को कहा था। जमीन व मकान बनाने की सामग्री भी कम मिली। स्कूल जरूर बन गया। पानी भी था। परंतु जब बांध बनाया तो नदी ही सूख गई। गांव के लोगों को तो जलाऊ लकड़ी तक की परेशानी हो गई। यदि मवेशी जंगल में चला जाए तो उसे खोजने के लिए भी अंदर नहीं जा सकते। यहां आकर इनकी बोली तक बदल गई है और रोज़गार भी नहीं है। रोज़गार गारंटी कानून में भी नहीं के बराबर कार्य मिलता है। गांव की महिलाओं का कहना है कि पहले बच्चे मां-बाप को दाय और बाबू कहते थे अब मम्मी-पापा कहने लगे हैं। पूरा सामाजिक ताना-बाना बदल गया है। बैगा समुदाय जंगल का अभिन्न अंग रहा है। यह समुदाय पूरी तरह से जंगल पर आश्रित था। साथ ही अपने आप में स्वतंत्र समुदाय था। अब यह आधुनिक संसाधनों पर निर्भर है। इनका मानना है कि हमारे मन से बैठ गया है।

हिरमत को जब यहां लाकर बसाया तब वे बहुत छोटी थी। यहीं उनकी शादी हुई और तीन बच्चे हुए। इनका लड़का 12 वर्ष का है और लड़कियां 10 और 5 वर्ष की हैं। दो बरस पहले इनके पति का निधन हो गया। ये तीनों बच्चे घर पर ही जन्मे थे। इनकी छोटी बच्ची अभी कुपोषित है। हिरमत अब अकेली हैं। पूछने पर कि उन्हें पुरानी जगह से हटाया गया तो उनके मां-पिता ने उनसे हटने के बारे में पूछा था। तो उन्होंने कहा कि नहीं। परंतु उन्हें याद है कि वहां से हटाने के लिए गांव वालों को खूब डराया-धमकाया गया था। उनकी खड़ी फसल को खोदकर बर्बाद कर दिया गया था। वह दहशत आज भी उसकी आंखों में उतर आती है। उनका कहना है कि हमें 7-7 एकड़ जमीन देने को कहा गया था जबकि हमें 5-5 एकड़ जमीन दी गई। अपने बच्चों को वे यहां सुरक्षित मानती है परंतु साथ में यह भी कहती है कि हमारे बच्चे न तो पढ़-लिख पाए न ही जंगल का जीवन जी पाए। अतएव उनका जीवन तो बर्बाद सा हो रहा है। उनका यह भी कहना है कि जंगल में उनका परिवार धान, कोदो और कुंटी की फसलें पैदा करत था। इसके अलावा जंगल से शहद, फल, जड़ी-बूटी, कांदा बांस, कंद व जलाऊ लकड़ी भी मिल जाती थी। इससे पैसे न होने की दशा में भी कुपोषित नहीं होते थे। वहीं जानवरों का चारा मुफ्त में मिल जाता था। इससे बच्चों को थोड़ा दूध भी पिला पाते थे। यहां तो बच्चों को दूध का स्वाद तक याद नहीं है। बच्चों से बात करने पर वे कुछ भी बता पाने में असमर्थ रहते हैं। ये बच्चे विद्यालय तो अवश्य जाते हैं परंतु इन्हें लिखना पढ़ना न के बराबर आता है। मध्यान्ह भोजन, ड्रेस आदि की सुविधा का लालच इन्हें विद्यालय ले तो जाता है परंतु अध्ययन के प्रति रुचि जागृत नहीं कर पाता।

बालाघाट जिले के बेहर ब्लॉक के मुक्की में परसाखेड़ा (टोला) के 11 परिवारों को 1974-76 के बीच लाकर बसाया गया। ये सभी गोंड आदिवासी समुदाय से हैं। यहां रह रहे ब्रजलाल ने बताया कि उन्हें तीन माह का नोटिस दिया गया था। विरोध करने पर वहां से ज़बरदस्ती खदेड़ दिया गया। जब आनाकानी की तो घर के दरवाजे जोड़ दिए। वन विभाग वाले लगातार कहते रहते थे कि (अंदर) जंगल से भागो। अंत में किसी तरह जान बचाकर भागे। वहां से जाने के लिए 200 रु. तकाबी (ऋण) दिया। एक साल बाद इस रकम पर 14 रु. ब्याज लगाकर वसूल कर लिया। उन्हें अभी तक नई जगह का पट्टा नहीं दिया है। वैसे अभी उनके कब्जे में 2.02 हेक्टेयर जमीन है। परंतु वह खेती लायक नहीं है तथा पानी का भी कोई साधन नहीं है। वन विभाग ने पहले एक पत्र 03.11.1976 को दिया था। इसके बाद जो पत्र दिया उसमें भी कब्जे की तिथि 7 मई 1997 तक की ही थी। इसके बाद न तो कोई पट्टा दिया गया न ही कोई अन्य सूचना। इसी के साथ विस्थापन के समय परिवार के एक व्यक्ति को शासकीय रोजगार देने को कहा था। वह भी नहीं दिया। मुख्य वन संरक्षक तक शिकायत करने के बावजूद कोई सुनवाई नहीं हुई। ब्रजलाल का कहना है कि बिना पट्टे के बैंक भी किसी भी तरह का ऋण या सुविधा नहीं दे रहा है। वन के भीतर इनके पास करीब 20 जानवर थे। अब कुल 8 जानवर हैं। वहीं वन विभाग प्रति जानवर चराई शुल्क भी मांगता है।

यहां सामुहिक चर्चा के दौरान सभी का मानना था कि यहां नई जगह पर आकर सामाजिक संबंधों में गर्माहट कम हो गई है। हां, लड़कियां भी थोड़ी पढ़-लिख गई हैं। अज्ञानता के कारण अभी भी लड़कियों की शादी 18 वर्ष के पूर्व ही कर देते हैं। वहीं इन लोगों का यह भी कहना था कि बेहर स्थित छात्रावास से विद्यार्थियों को 18 वर्ष की उम्र के पहले ही निकाल देते हैं। इस समुदाय के बच्चे वैसे ही पढ़ने देरी से जाते हैं और उन्हें समय से पूर्व छात्रावास से निकाल देने से उनकी शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

गोंडों की पारंपरिक बोली पारसी कहलाती थी। अब यह बोली विलुप्त हो रही हैं। इस पूरे इलाके में केवल एक वृद्ध महिला मिली जो कि यह बोली पाती थी। गोंड पुरुष पहले एक से अधिक विवाह भी कर लेते थे परंतु अब यह प्रथा भी कम हो गई है यहां गोंड समुदाय के मुख्य गोत्र टेकाम, मटकाम, मराई व उइके हैं। प्रकृति आधारित जीवन होने के कारण वे अपने को किसी पशु, पक्षी, जलीय जीव जंतु या पेड़-पौधे, पहाड़ से जोड़ते हैं। शंकर यहां बड़े देव कहलाते हैं और सामान्यतया यह समुदाय उनकी कसम (शपथ) नहीं खाता। दूसरे प्रमुख आराध्य सूर्य हैं जिन्हें ये सूरजनारायण एवं खेरपति कहकर पुकारते हैं। पीपल के पेड़ को खैर माता मानते हैं यह इनका साझा पेड़ है। इस पेड़ की कसम खाने के बाद ये अपने नए आपसी संबंधों को स्थायी बनाते हैं।

जंगल में ये धान, कोदू, मुड़िया (लालदाना), उड़द, कुटची, मक्का व कुटकी की फसलें लेते थे। यहां पर धान, कोदू व मक्का ही बोते हैं। इसी के साथ यहां चीतल या अन्य प्राणियों द्वारा फसल नष्ट करने पर कोई मुआवजा भी नहीं मिलता। इसके अलावा ये अपने खेत के आसपास कटीली बागड़ भी नहीं लगा सकते क्योंकि इसमें जंगल से आए जानवर के घायल होने या मरने का खतरा बना रहता है। इस तरह वन विभाग ने बिना सीधी कार्यवाही किए इन्हें आर्थिक रूप से इतना कमजोर बना रहा है कि ये एक-एक करके वहां से चले जाएं।

इसके अतिरिक्त इन आदिवासियों को जंगल में प्रत्येक ऋतु में कोई न कोई पौष्टिक फल या शहद मिल जाता था। जो अब दुर्लभ है। अब तो ये नदी से मछली भी नहीं पकड़ सकते। साथ ही इनका सांस्कृतिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जाने से इनके बच्चे अपनी परंपरा से दूर छिटकते जा रहे हैं।

बालाघाट जिले की बेहर तहसील के अंतर्गत कोर एरिया में स्थित बामन झरिया एवं लंझियाबारू में अंडवार से 1975-78 के बीच विस्थापित परिवारों को बसाया गया है। अडवार से कुल 46 परिवारों का विस्थापन हुआ था। शासकीय दस्तावेज़ों के अनुसार इन्हें बंदनखेरो, सेमरखेरों, जोआड़ी टोला और घोरसी बेहरा में बसाया गया था। वैसे बामन झरिया और लंझिया बारु के तीन मोहल्लों में भी विस्थापितों के करीब 100 परिवार रहते हैं। इनमें से 80 परिवार गोंडों के हैं और 20 बैगाओं के। यहां के निवासियों का कहना है कि इन्हें विस्थापन के पूर्व कोई नोटिस नहीं दिया गया। इनका कहना है कि इन्हें ज़बरदस्ती हटा दिया गया। वन विभाग के कर्मचारी गाड़ियां लेकर आए और मारपीट करके जैसे जानवरों को उठाकर डाल देते हैं ऐसे इन्हें जंगल से गाड़ियों में भरकर लाए और यहां लाकर पटक दिया।

इनसे वादा किया गया था कि 10 एकड़ ज़मीन देंगे। जंगल में इनके पास 25 से 30 एकड़ तक जमीनें थीं। साथ ही यह भी वादा किया गया था कि खेती की ज़मीन के अलावा, जंगल में चराई की अनुमति देंगे। घर बनाकर देंगे (बास बल्ली का) बस्ती में स्कूल और कुआं होगा। परंतु खेती के लिए जो ज़मीन मिली वह असिंचित और रेतीली थी। जबकि वहां हर घर में 5 से 6 बोरा राई निकल आती थी। इसके अलावा अन्य कई फसलें भी होती थीं। यहां इन्हें मात्र 2.5 हेक्टेयर कृषि भूमि मिली है उस पर भी यह वन ग्राम में होने से बैंक इत्यादि से ऋण भी नहीं मिल पाता।

अगर सामाजिक परिस्थितियों की तुलना की जाए तो यहां बसा पूरा समुदाय असंतुष्ट है। विस्थापन के समय जो बच्चे थे वे अब बालिग हो गए हैं परंतु उनका कहना है कि यहां आकर सब बच्चे दुखी थे। शाब्दिक तौर पर कहें तो उन्हें यहां लाकर फेंक दिया गया था। इनके गाय ढोर समाप्त हो गए। जंगल का वातावरण ठंडा था यहां पर अत्यंत गर्म है। सबसे बड़ी विडंबना इनके सांस्कृतिक परिवेश को लेकर है। इस पूरे गांव में एक भी मादर (ढोल) नहीं है। अतएव किसी भी तरह की सांस्कृतिक गतिविधियों की कोई गुंजाईश ही नहीं है। बच्चों के पारंपरिक खेल अब समाप्त हो गए हैं और वनवासी समुदाय के बच्चे अब जंगल में स्थित पेड़ों और वनस्पतियों के नाम तक नहीं जानते। अधिकांश बच्चों ने मां के दूध के अलावा गाय या भैंस दूध चखा तक नहीं है।

विजय नगर- मंडला जिले की भिलवानी किसला पंचायत में स्थित है। यहां पर सन् 1974 से 76 के मध्य रौंदा और सिलपुरा के निवासियों को बसाया गया था। विजय नगर की कुल जनसंख्या 647 है और यहां 124 परिवार निवास करते हैं। इनमें से 144 परिवार अनुसूचित जनजाति के हैं, 9 परिवार अन्य पिछड़ा वर्ग के हैं और 1 परिवार अनुसूचित जाति का है। सबसे नज़दीक राशन दुकान 5 कि.मी. दूर बमनी में और बैंक 15 कि.मी. दूर बेहर में है। उप स्वास्थ्य केंद्र 3 किं.मी. दूर मुक्की में, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र 15 कि.मी. दूर बेहर में और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र 84 कि.मी. दूर बालाघाट में है।

बच्चेलाल तेकाम गोंड आदिवासी हैं। इनके तीन बच्चे हैं। सबसे बड़ा 18 वर्ष का है जो खेती करता है। इससे छोटा 16 वर्षीय सुशील पढ़ाई छोड़कर खेती करता है। इनकी बेटी अनिलाबाई का विवाह हो चुका है। गांव से विद्यालयों की दूरी के कारण भी बच्चे माध्यमिक विद्यालय के बाद पढ़ाई छोड़ रहे हैं। साथ ही आर्थिक तंगी और रोज़गार का अभाव भी बच्चों के विकास में आड़े आ रहा है। सुशील का कहना था कि उसे करमा नृत्य नहीं आता और न ही वह इसमें गाए जाने वाले बोलों को जानता है। पढ़ाई को लेकर उसके मन में कोई उत्साह नहीं है। उसके अनुसार प्राथमिक शाला में कुछ पढ़ाया नहीं जाता। अध्यापक हफ्ते में एक-दो दिन आते थे और थोड़ी देर में चले जाते थे। वह चाहता है कि उसे फॉरेस्ट गार्ड की नौकरी मिल जाए परंतु कम पढ़ा लिखा होने से यह भी संभव नहीं हो पा रहा है।

पिछले वर्ष रोज़गार गारंटी कानून के अंतर्गत मात्र 60 दिन रोज़गार मिला था। यहां पर कई लोगों के पास पट्टा तो है पर जमीन नहीं है। यहां निवास कर रहीं 70 वर्षीय रमोता बताती हैं कि जब वे रौंदा से आई तो अपने मकान के खपरा (केवलू) तक साथ लाई थीं। जब यहां आए थे तो जितनी ज़मीन मिली थी उस पर गुजारा हो जाता था। अब परिवार तो बढ़ गया परंतु रोज़गार के वैकल्पिक साधनों में वृद्धि न होने से गरीबी में वृद्धि हो रही है।यहीं पर निवास कर रहे गेंदूलाल धुर्वे सिलपुरा से विस्थापित हैं। इन्हें 1976 में यहां लाकर बसाया गया था। इन्हें भी विस्थापन के पूर्व कोई नोटिस नहीं दिया है। परंतु बहुत सारे वादे किए गए थे। जैसे 10 एकड़ जमीन मिलेगी, सिंचाई का पूरी सुविधा होगी, भूमि को समतल करके दिया जाएगा। इस दौरान रेंजर ने इनसे वादा किया कि धीरे-धीरे सारे वायदे पूरे कर देंगे। इन आदिवासियों ने उन पर विश्वास किया। विस्थापन के करीब 34 वर्ष पश्चात् आज भी किए गए वादे पूरे नहीं हुए हैं। इन्हें मात्र 2.5 हेक्टेयर भूमि ही मिली। इस नई बसाहट में प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय तो हैं परंतु रोजगार के साधन न होने से खेती से गुजारा नहीं हो पा रहा। विस्थापन से पूर्व महिलाएं खेत पर कार्य करती थीं तो घर और बच्चों को भी देख लेती थीं वहीं अब उन्हें भी मजदूरी के लिए जाना पड़ता है। इससे बच्चों की अनदेखी भी हो रही है। बच्चे तो यहां आना नहीं चाहते थे। परंतु मां-पिता की इच्छा के आगे उनकी कुछ नहीं चली। यहां आने के बाद उन्हें कई साल तक बहुत खराब लगा। अब विकल्प न होने से अच्छा लगने लगा है। साथ ही प्राकृतिक संसाधनों के अभाव ने न केवल गरीबी में इज़ाफा किया है कि बल्कि इनके स्वयं के और बच्चों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव डाला है। इतना ही नहीं इनकी बोली पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है। इनके जंगल जाने पर भी प्रतिबंध लगा हुआ है। जंगल से लकड़ी, फल, कंदमूल, शहद, चार, चिरोंजी और महुआ मिल जाता था। अब तो इनके लिए तरस जाते हैं। दूसरी ओर जंगल में कोदू, कुटकी, रमतिला (तिल्ली) जुगनी, धान और उड़द उगाते थे वहीं अब केवल धान ही उगाते हैं। 120 परिवार वाले इस गांव में एक भी मादर नहीं है। इसका कारण गरीबी और अपने सांस्कृतिक परिवेश से कटते जाना है। ये अपनी एकमात्र उपलब्धि के रूप में स्वयं को शिक्षित (अक्षर ज्ञान) होना बताते हैं।

प्रेमनगर - प्रेमनगर जैसा नाम सुनकर आदिवासी बस्ती या गांव की कोई कल्पना दिमाग में नहीं उभरती। परंतु सरकार ने विस्थापितों की बस्ती के कुछ नए नामकरण प्रेमनगर, अजय नगर, विजय नगर या रानीगंज रख दिए हैं। ये आदिवासी संस्कृति को दर्शाते ही नहीं है। बहरहाल प्रेमनगर, मंडला जिले की बिछिया तहसील की किसली भिलवानी पंचायत में बसा विस्थापितों का गांव है। 300 की आबादी वाली इस बस्ती में कुल 56 परिवार निवास करते हैं। इसमें से 6 घर बैगाओं के, 5 घर यादवों के और 39 घर गोंडों के हैं। इनमें से अधिकांश पूर्व में जंगल के रौंदा गांव में निवास करते थे। सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार रौंदा को 1974 से 1976 के बीच विस्थापित किया गया था। परंतु स्थानीय निवासी अपनी याददाश्त के आधार पर उस दौरान हुई घटनाओं से हिसाब लगाकर बताते हैं कि उन्हें 1972-73 में जंगल से निष्कासित किया गया था। यहां से निकटतम उपस्वास्थ्य केंद्र 4 कि.मी. दूर खटोला में, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र 15 कि.मी. दूर बिछिया में और जिला अस्पताल 65 कि.मी. दूर मंडला में है। गांव में प्राथमिक शाला और आंगनवाड़ी हैं। परंतु माध्यमिक विद्यालय व राशन की दुकान 4 कि.मी. दूर खटोला और उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 15 कि.मी. दूर बिछिया में है। कोर क्षेत्र में होने के कारण कोई भी बाहरी यातायात सुविधा यहां उपलब्ध नहीं है।

पिछले वर्ष रोज़गार गारंटी कानून के अंतर्गत मात्र 60 दिन रोज़गार मिला था। यहां पर कई लोगों के पास पट्टा तो है पर जमीन नहीं है। यहां निवास कर रहीं 70 वर्षीय रमोता बताती हैं कि जब वे रौंदा से आई तो अपने मकान के खपरा (केवलू) तक साथ लाई थीं। जब यहां आए थे तो जितनी ज़मीन मिली थी उस पर गुजारा हो जाता था। अब परिवार तो बढ़ गया परंतु रोज़गार के वैकल्पिक साधनों में वृद्धि न होने से गरीबी में वृद्धि हो रही है। वहीं 60 वर्षीय रम्मों का कहना है कि जंगल में स्कूल तो नहीं था। यहां गांव में स्कूल है तो सही परंतु उसका कोई भवन नहीं है। बच्चे पढ़ने तो जाते हैं परंतु कुछ भी सीख नहीं पा रहे हैं। एक अन्य महिला कलीबाई का कहना है कि जंगल में हर घर में घी, दूध होता था यहां तो अब पशुपालन ही संभव नहीं है। साथ ही स्वास्थ्य पर बढ़ते खर्च से भी सभी लोग बहुत चिंतित हैं। इसी के साथ गांव वालों का यह भी मानना था कि जंगल में जब खेती करते थे तो वहां जानवर कम नुकसान पहुँचाते थे। कोर एरिया में जानवर अधिक नुकसान पहुँचाते हैं।

इसी गांव के 70 वर्षीय जुगसु गोंड ने बहुत महत्वपूर्ण बात कहीं। उनका कहना था कि पूरे गांव में एक भी मादर नहीं है। इसका कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि वन विभाग के कर्मचारियों ने मादर बजाने पर रोक लगा दी है। क्योंकि उनका कहना है कि रात में मादर बजाने से जंगली जानवरों को दिक्कत होती है। इसी करण नई पीढ़ी गोंडों का परंपरागत नृत्य ‘करमा’ करना भी नहीं जानती। यह नृत्य केवल मनोरंजन नहीं है बल्कि यह गोंड समुदाय के किशोर-किशोरियों के विकास से जुड़ा है। उनका कहना है कि अब तो हमारी बोली ‘पारसी’ (गोंडी बोली) भी विलुप्त हो गई है। मानसिंह परते का कहना है कि गांव का कोई भी बच्चा ठीक से पढ़ना-लिखना नहीं जानता। प्रेमसिंह बैगा का कहना था कि जंगली सुअरों का आतंक बहुत बढ़ गया है। चूंकि इन इलाकों में किसी भी तरह की बागड़ की अनुमति नहीं है अतएव रात भर जागकर खेतों की निगरानी करनी पड़ती है। गांव के कमल और प्रेमसिंह को पढ़ने-लिखने के बाद भी काम नहीं मिला है। यह पूछने पर कि वन अधिकारियों के अनुसार उन्हें गाइड का काम तो मिल रहा है। इस पर स्थानीय निवासियों का कहना है कि यह तो फुसलाने व झूठ बोलने की हद है। जंगल से लाकर बसाने के समय वादा किया गया था कि प्रत्येक परिवार में से एक को सरकारी नौकरी दी जाएगी। बदले में यह स्वरोजगार का कार्य दे दिया गया। स्थानीय निवासियों को अब रिसोर्ट में भी अधिक कार्य नहीं मिल रहा है। साफ-सफाई भर का कार्य मिल रहा है। जिसमें आदिवासी समुदाय की कोई रुचि ही नहीं है। साथ ही वन विभाग कभी-कभार रोजंदारी पर कार्य दे देता है। बैगा समुदाय का कहना है कि वह कभी नौकरी कर ही नहीं सकता क्योंकि यह उसकी पारंपरिक मानसिकता के अनुकूल ही नहीं है। विजय नगर की फूलो बाई का भी कहना है कि हमारी परंपरा तो उसी दिन समाप्त हो गई थी जिस दिन हमें जबरदस्ती जंगल से बेदखल किया गया था।

रानीगंज- रानीगंज की कुल जनसंख्या 100 है और यहां 13 विस्थापित परिवार निवास करते हैं। इसमें 7 परिवार गोंड हैं और 6 बैगा। इन्हें सन् 1974-76 के मध्य सिलपुरा से लाकर बसाया गया है। इनकी भी समस्याएं अन्य से अलग नहीं है। न तो इन्हें आबंटित भूमि कृषि योग्य है और न ही रोज़गार एवं शिक्षा व स्वास्थ्य की माकूल व्यवस्था है।

अजय नगर- अजय नगर की कुल जनसंख्या 250 है और इसमें निवास कर रहे 50 परिवारों में से 25 परिवार गोंड और 25 बैगा हैं। यहां के 10 परिवार अभी तक भूमिहीन हैं। यहां पर भी सिलपुरा से परिवारों को लाकर बसाया गया था।

कोर क्षेत्र में स्थित भिलवानी पंचायत के माड़ माऊ ग्राम के छोटे लाल यादव का पूर्व गांव सिझौरा था। वे बाद में यहां आकर बसे हैं। उनका कहना है कि पार्क की वजह से चराई का क्षेत्र घटने से उनका दूध का पारंपरिक धंधा बंद हो गया और इन इलाकों में जंगली जानवरों का आना भी बढ़ गया है। जंगल में पानी की कमी के कारण भी जानवर बाहर निकल रहे हैं तथा खेत में बागड़ लगाने की मनाही होने के कारण फसलों का नुकसान हो रहा है। उन्होंने बताया कि लटिझिरिया में पिछले दिनों शेर ने 6 जानवरों को मार डाला।

पुनर्वास की नई नीति की चर्चा करते हुए उनका कहना था कि इसमें से आधे धन की जमीन और आधा नकद दिया जाना चाहिए। साथ ही कोर एरिया में कई योजनाओं के लागू न होने की बात भी उन्होंने की। रोज़गार गारंटी कानून में हो रही लेट लतीफी से यहां भी परेशानी है। 70 वर्षीय यादव ने बताया कि मैंने आज तक नहीं सुना कि किसी आदिवासी या जंगल के भीतर रहने वाले अन्य किसी समुदाय के व्यक्ति ने कभी शेर को मारा हो।

पूर्व अध्यापक फगनसिंह मरावी ग्राम बोदाग, जो कि गढ़ी क्षेत्र में आता है में रहते हैं। उनका कहना है कि अभी भी पार्क के अंदर बालाघाट जिले के बेहर ब्लाक में चार गांव जामी, झोलर, अजानपुर और सुखड़ी बसे हुए हैं। उन्हें भी उजाड़ने की पूरी तैयारी हो चुकी है। उनका कहना था कि बैगा और गोंड समुदाय जो कि जंगल में रह रहा है उसका बाहर सामान्य जीवन जी पाना अत्यंत कठिन है। ज़बरदस्ती हटाने के बाद नई पुनर्वास नीति में 10 लाख रुपए के मुआवजे की बात तो की जा रही है। परंतु इसी मुआवजे में से अस्पताल, सड़क व अन्य सुविधाओं का भी पैसा काटा जा रहा है। ऐसे में 10 लाख के मुआवजे को किस प्रकार न्यायोचित ठहराया जा सकता है? फिर भी कुछ लोग बाहर आने को तैयार हो रहे हैं। पता नहीं बाहर उनके साथ क्या होगा?

दलसिंह टेकाम पार्क के अंदर (कोर एरिया) स्थित ग्राम किसली मिलवा के सरपंच हैं। इस गांव में विस्थापितों में बैगा, गोंड व यादवों के अलावा पनिका और लोहार, जो कि अनुसूचित जाति में आते हैं, भी निवास करते हैं। यहां पर सभी को 6.5 एकड़ भूमि मिली थी। परंतु वनोपज पर किसी का कोई हक नहीं है। गांव की अपनी बाउंड्री (हद) बना दी गई है उसके आगे-आगे जाने की मनाही है। इन्हें यहां 1976-77 में रौंदा से लाकर बसाया गया था।

पकरी टोला के निवासी हलकूराम शुरू से ही यहीं रहते आए हैं। उनका कहना है कि 1972 में टाइगर पार्क बनने से पहले जब यह मात्र अभ्यारण्य था तब इतनी सख्ती नहीं थी। अब तो जंगल में जाने नहीं देते और नाते रिश्तेदारों को भी यहां आने में तकलीफ होती है। उनका मानना है कि मनुष्य और जानवर का सहअस्तित्व है। जंगल में रहने वाला कभी भी जानवरों के विनाश का कारण नहीं बना। बाहरी व्यक्तियों की प्रवृत्ति ही जानवरों और जंगलों को नष्ट कर रही है और सजा के बतौर वनवासियों को जंगल से निकाला जा रहा है। इसी के साथ जंगलों में रचा-बसा पारंपरिक ज्ञान भी अगली पीढ़ी को स्थानांतरित नहीं हो पा रहा है। हमें तो जीवन की सभी आधारभूत वस्तुएं जंगल से ही मिलती थीं। अब तो ऐसा लगता है कि जैसे हम अपने ही घर में चोरी कर रहे हैं। उनका कहना है कि आवश्यकता इस बात की है कि यह निष्पक्ष रूप से पता किया जाए कि इन जंगलों में चोरी और शिकार कौन करता है।

56 साल के सुखलाल उड़ाल (गौंड) को जब रौंदा से विस्थापित किया गया तब उनकी शादी हो चुकी थी। उनका कहना है कि यहां आकर तो हमारा जीवन ही बर्बाद हो गया। हमारे जीवन में जो परिवर्तन आया उसे हम अब तक समझ नहीं पा रहे हैं। हम अपने बच्चों को न तो आधुनिक शिक्षा दे पाए और न ही पारंपरिक ज्ञान उन्हें हस्तांतरित कर गए। उनका कहना था कि यहां आने के बाद हमारी पारंपरिक बोली और संस्कृति नष्ट हो गई। हम और हमारे बच्चे संस्कृतिविहीन हो गए। पिछले 35 सालों में हमने स्वयं ने कभी ठीक से ‘करमा’ नाचा ही नहीं इसलिए हमारे बच्चे भी करमा नाचना और गाना नहीं जानते। आसपास के किसी भी गांव में अब मादर नहीं बची। ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हम अब क्या रह गए हैं। हम जानवर इसलिए नहीं पाल सकते क्योंकि चराई क्षेत्र में अब सिर्फ मिट्टी ही बची है।

80 वर्षीय चमरा धुर्वे का कहना है कि हमें यहां बसाते समय कहा गया था कि इस गांव को राजस्व ग्राम में परिवर्तित देंगे लेकिन विस्थापन के 34-35 वर्ष बाद भी यह नहीं हो पाया। साथ ही दस एकड़ भूमि देने की बात कही थी वह भी पूरी नहीं हूई। गांव के मुकादम 48 वर्षीय फूलसिंह मरावे का कहना है कि अब तो हमारे गांव में एक मादर तक नहीं है। साथ ही जंगली जानवरों द्वारा अधिक परेशान किए जाने से भी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। इसी के साथ जमीन की उत्पादकता में कमी से भी सभी विस्थापित हैरान परेशान हैं।

आज यहां के युवा मादर नहीं बजा सकते। आदिवासी समाज में सभी गाते और नाचते हैं यहां दर्शक नहीं होते। परंतु कोर एरिया में अब इनका नाचना-गाना बंद हो गया है। एक तरह से इनसे आनंद का अधिकार छिन गया है। पहले एक गांव में मादर बजता था और सभी खिंचे चले आते थे। युवाओं का अलग समूह होता था और बच्चों का अलग समूह। इन समूहों में ये अपने जीवन का आरंभिक पाठ सीखते हुए युवा होते थे और अपना जीवन साथी चुनते थे। आज उनका यह आनंद छिन गया है।

मध्य प्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय पार्क एवं पालपुर-कूनो अभ्यारण्यों के सर्वेक्षण के पश्चात विस्थापितों द्वारा भुगती जा रही यातना की समीक्षा अपने आप में अत्यंत त्रासदायी है। कान्हा में पहला विस्थापन सन् 1967 में हुआ था। आज 42 वर्ष पश्चात अर्थात दो पीढ़ियों के गुजर जाने के बावजूद अगर आधुनिक विकास के दृष्टिकोण से भी देखें तो विस्थापित वनवासी समुदाय के जीवन में उजाले की कोई किरण नहीं दिखाई देती। 800 से भी अधिक विस्थापित परिवारों में संभवतः एक या दो बच्चे स्नातक हो पाए हैं और बाकी के अधिकांश प्राथमिक शालाओं से आगे पढ़ाई जारी नहीं रख पाए। 99 प्रतिशत से भी अधिक परिवार आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। ऐसे में बच्चों के जीवन की सहज ही कल्पना की जा सकती है। सर्वेक्षण के दौरान विस्थापितों के 20 गाँवों के भ्रमण के दौरान एक भी गांव में आदिवासी समुदाय का पारंपरिक वाद्य ‘मादर’ की गैर मौजूदगी सिरहन पैदा करती है। गोंडों का जीवन बिना करमा नृत्य के कैसा रुखा हो जाता है वह इन गांवों में देखने को मिला। इसका सीधा सा प्रभाव इस क्षेत्र के बच्चों में देखा जा सकता है। वे अपनी सांस्कृतिक विरासत को करीब-करीब भूल गए हैं। बच्चों और युवाओं से बातचीत के दौरान यह स्पष्ट तौर पर नजर आता है कि वे अपनी वर्तमान स्थितियों से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हैं। अपनी परंपरा से भी उनका कोई लेना-देना नजर नहीं आता। विस्थापन के दौरान सरकार व वन विभाग ने यह वायदा किया था कि पुनर्वास के पश्चात जीवन पहले से बेहतर होगा, परंतु एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलता जो यह मानता हो कि वह अपने वनवासी जीवन से बेहतर जी रहा है। यह तुलना शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तरों पर की जा सकती है।

आज यहां के युवा मादर नहीं बजा सकते। आदिवासी समाज में सभी गाते और नाचते हैं यहां दर्शक नहीं होते। परंतु कोर एरिया में अब इनका नाचना-गाना बंद हो गया है। एक तरह से इनसे आनंद का अधिकार छिन गया है। पहले एक गांव में मादर बजता था और सभी खिंचे चले आते थे। युवाओं का अलग समूह होता था और बच्चों का अलग समूह। इन समूहों में ये अपने जीवन का आरंभिक पाठ सीखते हुए युवा होते थे और अपना जीवन साथी चुनते थे। आज उनका यह आनंद छिन गया है।

विस्थापन की वजह से नई पीढ़ी अपनी पारंपरिक बोली ‘पारसी’ से भी विमुख हो गई है। नई पीढ़ी जिसमें 18 वर्ष से कम के बच्चे प्रमुख हैं अपनी पारंपरिक बोली से अनभिज्ञ हैं। इस वजह से इसके विलुप्त होने की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं। बच्चे न तो अपनी पारंपरिक बोली से तारतम्य बैठा पा रहे हैं न ही आधुनिक भाषा से। वे भी एक तरह की संकर नस्ल में परिवर्तित होते जा रहे हैं।

इसी तरह जंगल में एक प्रथा ‘खेदा’ प्रचलित थी। इसे सामान्य भाषा में शिकार कहा जा सकता है। यह भी एक तरह से आनंद मनाने का उत्सव ही था। इसमें गांव के सारे पुरुष फसल के पकने के पूर्व इकट्ठा होकर जंगल में हथियार लेकर शोर मचाते हुए घुसते थे। यह अपनी फसल को जानवरों से बचाने का उपक्रम था। इस बीच जो भी जानवर इनके दायरे में आता था (शेर को छोड़कर) वे उसे मार देते थे। वैसे इस इलाके में सामान्यतया सुअर का ही शिकार होता था।

प्रकृति को समझने के लिए बच्चों के पास और भी कई आयाम थे। जैसे कि विशेष मौसम में जानवर बच्चे देते हैं। ये अक्सर खेतों के आसपास बच्चे देते हैं। हिरण, खरगोश व सुअर बच्चों को जन्म देकर अपनी भूख खेतों में लगी फसलों से ही पूरी करते थे। इस इलाके में यह प्रथा प्रचलित है कि बच्चों और गर्भवती पशु का शिकार नहीं किया जाता। अद्भुत सामंजस्य भरा जीवन था जंगल, जानवर व मनुष्य का।

विस्थापन का बच्चों पर सीधा प्रभाव उनके खान-पान की दृष्टि से पड़ा है। आज प्रत्येक घर में खाद्यान्न की किल्लत महसूस की जा रही है। इसी के साथ बच्चे और युवा शराब के आदी होते जा रहे हैं। वे अन्य कई बुरी आदतों जिसमें कि जुआ खेलना शामिल है, की चपेट में आ गए हैं। इसी के साथ बड़ी संख्या में शहरों की ओर पलायन का भी नई पीढ़ी पर बहुत ही विपरीत असर पड़ रहा है। इलाके में एकमात्र रोज़गार का साधन पर्यटन के लिए बन रहे रिसोर्ट हैं। इनमें इन समुदायों के बच्चों को भी काम पर लगाया जा रहा है। इस तरह से इलाके में बाल श्रम भी अस्तित्व में आ रहा है। चूंकि कान्हा राष्ट्रीय पार्क से आखिरी विस्थापन 1997-98 में हुआ था अतएव ऐसे बच्चे कम ही मिले जिन्हें कि दोनों स्थानों की पूरी स्मृति हो। जिस वक्त इनके परिवारों को बेदखल किया गया था इन बच्चों को अधिक समझ नहीं थी। बहुत कुरेदने पर एकाध बच्चा यह याद कर पाता है कि उनके परिवार को ज़बरदस्ती किसी गाड़ी में चढ़ाकर पुराने घर से दूर भेज दिया गया था।

इस दौरान से अनेक व्यक्ति मिले जिनकी आज तो काफी उम्र है परंतु जब उन्हें कान्हा के जंगलों से बाहर किया गया तब वे किशोरवस्था में थे उनका कहना है कि यह सब कुछ जितनी बर्बरता से हुआ उससे वे आज 20-25 वर्ष बाद भी उबर नहीं पाए हैं। उनका बस चले तो वे आज वापस जंगल में जाने को तैयार हैं।

बैगा बच्चों की स्थिति तो गोंडों से भी खराब है। इसकी वजह यह है कि बैगा समुदाय कभी भी बाहरी समुदाय के संपर्क में नहीं रहा। गोंड तो कमोबेश पूरे इलाके में फैले हुए थे। अतएव उनका बाहरी दुनिया से संपर्क भी रहा है। बैगा शुरू से पूर्णतया जंगल पर ही निर्भर रहे हैं। इसीलिए उन्हें सर्वाधिक आदिम जातियों में से एक का दर्जा दिया गया है। अंग्रेजों ने भी इनके व्यवहार में परिवर्तन लाने का बहुत प्रयास किया था लेकिन वे असफल रहे। अतएव उन्होंने इनके लिए एक विशिष्ट क्षेत्र जिसे ‘बैगाचक’ कहा गया आरक्षित कर दिया था। परंतु स्वतंत्र भारत की सरकारों ने वह सब कुछ कर दिया जो अंग्रेज भी नहीं कर पाए थे।

इसलिए बैगा समुदाय विस्थापन के वर्षों बाद भी सहज नहीं हो पा रहा है। इसको इनके बच्चों में भी देखा जा सकता है। सरकार द्वारा इनके हितार्थ किए जाने वाले अनेक दावों एवं विस्थापन के बाद वर्षों-वर्ष बीत जाने के बावजूद इन्हें देखकर लगता है कि ये समुदाय जंगल से बाहर जीवन बसर करने को कभी तैयार हो ही नहीं सकता। इतना ही नहीं इन्हें जो जमीनें दी गई ये उस पर खेती भी ठीक से नहीं कर पा रहे हैं। इसकी वजह यह है कि वेंबर या झूम खेती के लिए प्रशिक्षित थे। चूंकि वे कृषक मनोवृत्ति के भी नहीं हैं अतएव खेती इनकी जीविका का साधन भी नहीं बन पा रही। इनकी इस विवशता का फायदा उठाकर बालाघाट जिले के बेहर ब्लॉक में इन्हें आबंटित भूमि को रिसोर्ट बनाने वाले व अन्य लोग वन विभाग व राजस्व विभाग की साठगांठ से खरीद कर मालामाल हो रहे हैं और बैगा समुदाय एक बार पुनः दर-दर भटकने को मजबूर हो रहा है।

पूरे क्षेत्र में शिक्षा को लेकर भी उदासीनता बनी हुई है। जो बच्चे ठीक से पढ़ना चाहते हैं उन्हें सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। पूरे क्षेत्र में भ्रमण के बाद केवल एक विस्थापित गोंड परिवार मिला जिसका एक सदस्य स्नातक हुआ है और वह शासकीय विद्यालय में शिक्षक है। बैगाओं में तो एक भी बच्चा स्नातक नहीं मिला और न ही किसी सरकारी नौकरी में मिला।

इस इलाके में बालश्रम एक ऐसी हकीक़त है जिससे कि मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। विस्थापन के तीन दशक बाद इन परिवारों की स्थितियों में सुधार तो नहीं आया बल्कि पहले से गिरावट साफ नजर आती है। कुछ पुनर्वास बस्तियों पर हालोन सिंचाई परियोजना से पुनः विस्थापन का खतरा मंडराने लगा है। किसी जमाने में जंगल के राजा कहे जाने गोंड और बैगाओं की संताने आज पत्थर तोड़ती, गड्ढे खोदती, रिसोर्ट में झाडू लगाती या झूठे बर्तन मांजती दिखाई देती हैं।

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के विस्थापितों की वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार वन विभाग के अधिकारी आज भी मानते हैं कि इन आदिवासियों ने वनों पर अनाधिकृत कब्जा किया था और उन्हें बेदखल कर नई सर्वसुविधा युक्त जगहों पर ही बसाया गया है। बहरहाल जंगल से इन्हें बेदखल कर रिसोर्ट बनाने, सैकड़ों पर्यटकों को रोज वाहनों से जंगल घुमाने से शेर के जीवन पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि उससे तो आमदनी होती है। शताब्दी पहले अंग्रेजों ने इन आदिवासियों को बेदखल कर इसे अपनी ऐशगाह में परिवर्तित कर दिया था यह परंपरा आज भी कायम है। फर्क इतना है कि अंग्रेज अपने फायदे के लिए ही सही पर इस समुदाय को पूरी तरह से सड़क पर नहीं फेंक दिया। परंतु आज हमारे नए योजनाकर्ता इससे भी परहेज नहीं कर रहे हैं।

अपने इस पूरे सर्वेक्षण के दौरान हमने टाइगर रिजर्व के सर्वोच्च अधिकारी से लेकर फॉरेस्ट गार्ड तक से एक सवाल पूछा कि जैसे-जैसे कान्हा के जंगलों से मनुष्य को बाहर किया गया वैसे-वैसे शेर भी लुप्त होते गए। क्या इन दोनों में कोई अंर्तसंबंध है? किसी के भी पास हमें संतुष्ट कर देने वाला जवाब नहीं था। परंतु हर गोंड और बैगा के पास इसका जवाब है। उनका कहना है कि शेर आदमी से अलग होकर बचा रह ही नहीं सकता। भला राजा कभी प्रजा के बिना रह सकता है? मगर सरकारी अमला यह सब कुछ क्यों कर रहा है?

कान्हा के विस्थापितों से मादर छीनकर अब उन्हें राष्ट्रीय पर्व पर बुलाने से भी छुट्टी मिल गई है। हमारा शहरी समाज आज भी इन परिस्थितियों की लगातार अनदेखी कर रहा है। परंतु मंडला के गोंड यह सब कुछ बहुत पहले ही समझ गए थे। तभी तो वे करमा नाचते हुए गाते हैं-

ऐ है हाय रे माया काहिन हैगय गा
आशो के समैया रे माया काहिन है गायरे
तहसील में तहसीलदार लूटे
थाना मां थानेदार
जंगल मां बंजरिहा लूटे
नहीं हय रे ठिकाना माया काहिन है गयरे
आशा के समैया रे माया काहिन है गयरे


इसका अर्थ है-
मुझे क्या हो गया है, ओह मुझे आज क्या हो गया है
तहसील में मुझे तहसीलदार लूटता है
और थाने में थानेदार
जंगल मुझे फॉरेस्टर लूटे
मुझे क्या हो गया है, मैं कहां जाऊ?
मुझे क्या हो गया है।

क्या इस गीत पर नाचने के लिए मादर दी जा सकती है?

Path Alias

/articles/kaanahaa-taaigara-raijarava

Post By: admin
×